गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

"नई सोच के साथ, नया साल मुबारक हो"


" 2021 "आख़िरकार नया साल आ ही गया। कितने उत्साह, कितने उमंग के साथ आज रात को पुराने साल की विदाई और नए साल के स्वागत का जश्न चलेगा। पुराने साल को ढेरों बद्दुआएं देकर कोसा जायेगा और नए साल से कई नयी उम्मीदें लगायी जायेगी। उम्मीदें लगाना, अच्छा सोचना और आशावान होना सकारात्मक सोच है जो होना ही चाहिए। 

मगर सवाल ये है कि - किस आधार पर हम नए साल में नए बदलाव की कामना कर सकते हैं ? 

 अक्सर मन में विचार आता है "नया साल" आखिर  होता क्या है ?  देखे तो वही दिन वही रात होती है वही सुबह वही शाम होती है ,बस कैलेंडर पर तारीखे बदलती रहती है। हाँ,कोई एक किस्सा, कोई एक हादसा, कोई एक घटना उस तारीख के नाम हो जाती है बस। जैसा कि 2020 एक  भयानक जानलेवा बीमारी और त्रासदी के नाम से याद किया जाएगा। इस साल में जितनी अनहोनियां हुई है उतनी शायद ही किसी साल में हुई हो।अभी ये दिन गुजरा ही नहीं है कि आने वाला साल अपने साथ एक नया दहशत  लेकर आ रहा है। फिर नया क्या है ?किस बात का जश्न मना रहे है हम ? 

    ये नहीं है कि पुराना  साल हमें सिर्फ दुःख-दर्द ,डर और दहशत ही दे गया है,उसने हमें एक सबक एक चेतावनी भी दी है। मगर हम में से ज्यादातर लोग उस बुरे घटनाक्रम को ही याद रखेगें,मात्र दस प्रतिशत लोग ही उस सबक और चेतावनी को यादकर खुद को बदलने की कोशिश करेगें। 

  "नया" शब्द का मतलब क्या है ? नया यानि बदलाव,अब वो बदलाव अच्छा भी हो सकता है बुरा भी। अगर बदलाव अच्छाई,शांति और ख़ुशी लेकर आए तो खुशियाँ मानना जायज है अगर बदलाव दिनों-दिन हमें बुराई, अशांति दुःख-दर्द की ओर ले जा रही है तो फिर किस नयी बात का जश्न  मनाया जाये ?

   पिछले दशक यानि 2010 से 2020 तक समाज में जितना बदलाव हुआ है वो शायद ही किसी और दशक में हुआ हो। नयी टेक्नॉलजी आई,समाज में इतना बड़ा परिवर्तन हुआ जिसकी 2000 तक कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। सोशल मिडिया ने हमारा पूरा सामाजिक ढांचा ही बदल दिया। आया था अच्छे के लिए मगर हमने उससे अपना बुरा ही किया। चिकित्सा जगत में नए-नए खोजकर पुरानी बिमारियों का इलाज ढूढ़ा गया।  क्या हम रोगमुक्त हुए या हमें कई प्रकार की नई बिमारियों ने आ जकड़ा ? आज एक बीमारी ने पुरे विश्व को त्राहि-माम करने पर मजबूर कर दिया। अनगिनत जानें तो गई ही समूचा विश्व आर्धिक तंगी के चपेट में भी आगया।सारे महान ज्ञानियों के खोज-बिन के बाद सभी को इस बीमारी से बचने का बस एक उपाय  सुझा कि -"अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाये और इस बोमरी से बचें,दूसरा कोई इलाज नहीं है।"

   इस त्रासदी के शुरूआती दिनों में तो हम डरे,बच-बचाव के सारे उपाय किये, अपनी सेहत पर ध्यान देना शुरू किया,योग-प्राणायाम ,खान-पान सब पर पूरी सतर्कता से अम्ल किया और अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का पूरा प्रयास किया । मगर धीरे-धीरे हम उस रोग में ही रचते-बसते चलें गए है और नतीजा वही "ढाक के तीन पात". 

   क्यों हम एक ही गलती बार-बार दोहराते जाते हैं और दुःख-दर्द,परेशानी का रोना रोते रहते हैं  और फिर ये कामना भी करते हैं कि -"आनेवाले दिनों में सब ठीक हो जायेगा" ?

कैसे ठीक हो जायेगा ? हम अपनी परिस्थिति को ठीक करने के लिए क्या योग्यदान कर रहे है?

  ज्ञानीजनों ने,भविष्य वक्ताओं ने  कहा था 21 वी सदी बदलाव का युग होगा। बदलाव तो दिख रहा है, मगर ये कैसा बदलाव है जिसमे हर तरफ दर्द और सिसकियाँ ही सुनाई पड़ रही है। 

    बदलाव हो जायेगा यदि हम 2020 की दी हुई एक-एक सीख को स्मरण कर अपनी गलतियों को सुधारने लगेंगे। आधुनिकता की अंधी दौड़ से खुद को निकलकर अपनी परम्परागत जीवन शैली को अपनाते हुए खुद के सेहत का धयान रखना शुरू करेगें,घर को सुख-ऐश्वर्य के सामान से ही नहीं परिवार से सजाना शुरू करेगें,समाज को कुंठित-कलुषित करना छोड़ उसमे प्यार और भाईचारा का रंग भरना शुरू करेगें,प्रकृति को दूषित करना छोड़, उसे प्रदूषणरहित करने की ओर अग्रसर होंगे, अपनी सोच को बदलगे तो  बदलाव जरूर आएगा। ये निश्चित है। 

फिर उस दिन शान से कहेगें - "नई सोच के साथ, नया साल मुबारक हो"


गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

"एकांतवास"




       टॉलस्टॉय की लिखी एक कहानी है - दो दोस्तों में शर्त लगी कि- कौन एक वर्ष तक एकांतवास कर सकता है जो करेगा दूसरा उसे 10 लाख नगद देगा। एक दोस्त राजी हो गया।उसने एक साल की अपनी जरुरत की सारी चीज़े रख ली,खुद के मनोरंजन के जितने भी साधन उसे चाहिए थे सब इकठ्ठें  कर रख लिये और एक साल के लिए कमरे में बंद हो गया।  कुछ दिन तो बड़ा खुश-खुश रहा,मगर धीरे-धीरे वो उन सब चीजों से ऊबने लगा। महीने दिन में ही वो अकेलापन से घबराने लगा।कुछ और दिन बीतते ही वो चीखने- चिल्लाने लगा,अपने बाल नोचने लगा,अकेलेपन की पीड़ा उसे असहनीय लगने लगी मगर, जैसे ही उसे शर्त की बात याद आती वो शांत हो जाता क्योँकि उसे पैसे की बहुत आवश्यकता थी। उसके पास कुछ अच्छी किताबें थी जिसमे परमात्मा से जुडी ज्ञान की बातें थी, मन बहलाने की लिए वो उसे पढ़ने लगा।उसका मन थोड़ा लगने लगा,वो धीरे-धीरे शांत भी होने लगा।धीरे-धीरे वो खुद को परमात्मा के करीब महसूस करने लगा,जब किताबें छोड़ता तो परमात्मा से बातें करने लगता।परमात्मा से बातें करना उसे अच्छा लगने लगा, अब उसे अकेलापन भी अच्छा लगने लगा,उसे खुद के भीतर अजीब सी शांति महसूस होने लगी,वो खुद को परमात्मा के साथ महसूस करने लगा, परमात्मा के साथ उसे अच्छा लगने लगा और वो खुश रहने लगा। उसे पता ही नहीं चला कब एक वर्ष गुजर गया। शर्त पूरा होने में बस एक महीना बचा था।  उधर दूसरे दोस्त को घबराहट होने लगी उसे लगा कि यदि मेरा दोस्त शर्त जीत गया तो उसे शर्त की  रकम देनी होगी।वो परेशान हो गया, क्योँकि इधर एक साल में उसे बिजनेस में काफी नुकसान हो गया था वो चिंतित रहने लगा कि शर्त की रकम कहाँ से लाऊँगा। उसने सोचा कि मैं दोस्त को मार दूँ तो सब यही समझेगें कि अकेलेपन से ऊब के और शर्त हारने के डर से उसने आत्महत्या कर ली,मुझ पर कोई शक भी नहीं करेगा और मैं पैसे देने से भी बच जाऊँगा।  फिर क्या था,शर्त पूरा होने के एक दिन पहले वो दोस्त को मारने के ख्याल से उस कमरे में गया जहाँ उसका दोस्त बंद था। मगर वहां जाकर देखा तो दंग रह गया। उसका दोस्त जा चूका था, उसने एक पत्र छोड़ रखा था जिसमे लिखा था -"प्यारे दोस्त इस एक साल में मैंने वो चीज पा ली हैं जो अनमोल हैं उसका मूल्य कोई भी नहीं चूका सकता ,मैं जान चूका हूँ कि हमारी जरूरते जितनी कम होती जाती है आनंद और शांति की अनुभूति बढ़ती जाती है,इन दिनों में मैंने परमात्मा के असीम शक्ति और प्रेम को जान  लिया हैं, ये शर्त मैं खुद ही तोड़कर जा रहा हूँ मुझे तुम्हारी रकम नहीं चाहिए,तुम इस रकम को मेरी तरफ से खुद के लिए उपहार समझो, इस रकम से अपना व्यवसाय बढ़ाओं,मुझे अब किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है,मैं अब हमेशा के लिए इन सभी चीज़ों से दूर जा रहा हूँ।"
    पहले ये कहानी मुझे बिलकुल समझ नहीं आती थी लेकिन, लॉकडाउन के दौरान मुझे ये बात समझ में आई कि-सचमुच," हमारी जरूरते जितनी कम होती जाती है आनंद और शांति की अनुभूति बढ़ती जाती है"शायद,इस बात का अनुभव लॉकडाउन के दौरान बहुतों ने किया होगा।   

     पहले मेरे लिए अकेलापन ही सबसे बड़ी सजा होती थी। मैं अक्सर कहती थी कि-"मुझे अगर मारना है तो दो दिन के लिए एक कमरे में बंद कर दो मैं अकेलेपन से ही मर जाऊँगी" मगर,पिछले कुछ दिन में मुझे भी ऐसी ही अनुभूति हुई कि -"कभी-कभी अकेलापन आपके लिए सजा नहीं बल्कि वरदान साबित होता है" बशर्ते आप उस अकेलेपन का सही मायने में सदुपयोग करें,जैसा कि टॉलस्टॉय की कहानी के किरदार ने किया। अकेलेपन में आप सर्वप्रथम तो खुद करीब होते हैं,खुद को जानने समझने और खुद से प्यार करने का अवसर मिलता है और खुद के करीब होते ही आप परमात्मा के करीब होने लगते है।आप अपने आस-पास सभी को जानते,पहचानते और समझते हैं बस खुद को ही नहीं जानते हैं और ना ही कभी जानने की कोशिश करते हैं,अकेलापन यही अवसर आपको प्रदान करता है
    ये सत्य है कि-"मनुष्य एक समाजिक प्राणी है" समाज में रहना नाते-रिश्तेदारों के साथ अपना कर्तव्य निभाना ये जरुरी है लेकिन, उतना ही जरुरी है खुद के साथ भी रहना।खुद के साथ रहने के लिए किसी एकांतवास या अलग कमरे में रहने  की जरुरत नहीं होती, अपनी आशाओं,अपेक्षाओं और आवश्यकताओं को कम  कर आप भीड़ में रहकर भी खुद के साथ रह सकते हैं और परमात्मा के असीम शक्ति और स्नेह की अनुभूति कर सकतें हैं। 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

"उलझन-सुलझन"

  


     जिंदगी कभी-कभी उलझें हुए धागों सी हो जाती है,जितना सुलझाना चाहों उतना ही उलझती जाती है। जिम्मेदारी या कर्तव्यबोध,समस्याएं या मजबूरियों के धागों में उलझा हुआ बेबस मन। ऐसे में दो ही विकल्प होता है या तो सब्र खोकर तमाम धागों को खींच-खाचकर तोड़ दे....उलझन खुद-ब-खुद सुलझ जाएगी.....ना रहेगा कर्तव्यबोध तो जिम्मेदारियों का एहसास ख़त्म हो जायेगा और.....जब ये एहसास ख़त्म तो मजबूरियाँ और समस्याएं तो अपने आप ही ख़त्म हो जाएगी......तब ना कोई उलझन होगी ना सुलझन.....सारे बंधन खुल जायेगे और हम आजाद....बिना डोर के पतंग  सी.....डोलते रहे जहाँ चाहे वहाँ। मगर इस विकल्प को तो पलायन करना कहेगे और परस्थितियों से पलयन करना उचित है क्या ? वैसे भी बिना डोर के पतंग  को तो कटी पतंग कहते हैं  जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता। 

   और दूसरा विकल्प है सब्र से,धैर्य से और प्यार से एक-एक धागों की गाँठ को खोलते जाये,जिम्मेदारियों का निबाह करते हुए उलझनों को सुलझाते जाएं । मगर...अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तन्मयता के साथ निभाते हुए भी हर एक उलझन को सुलझाना आसान तो नहीं होता ....ववरा मन इतना धर्य धारण कैसे करें......सब्र टूटने लगता है.....प्यार नीरस होने लगता है। अक्सर मन,सब्र और प्यार  से उन धागों के उलझनों को तो सुलझा भी  लेता है मगर खुद को कही खोता चला जाता है। दूसरों के वजूद को सँवारते-सँवारते खुद का वजूद कही गुम सा हो जाता है।सारे गाँठ  तो खुल जाते हैं  मगर मन खुद अनदेखे बंधनो में बांध जाता है। ये बंधन  कभी तो सुख देता है और कभी अथाह दुःख।  

    माना, कटी पतंग का सुख क्षणिक होता है या यूँ कहें भ्रम होता है....असली सुख तो बंधन में ही होता।  सब्र,धैर्य और प्यार से कर्तव्यबोध के बंधन में बांधकर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना हमारा प्रथम धर्म है। मगर, इन्हे निभाते- निभाते हम अपने प्रति अपना कर्तव्य भूल जाते हैं। खुद के वजूद का एहसास होना भी जरूरी होता है मगर, इस बात को हम नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में कभी-कभी हमारा कोई  "प्रिय" आकर अधिकार और स्नेह से भरे उलाहनों के साथ, चंद प्यार भरे शब्द  बोलकर हमारे अंतर्मन को जगा जाता है, हमें खुद के होने का एहसास करा जाता।"वो अपना" हमें बड़े प्यार से समझता है कि- "उठो ,दूसरों के प्रति जिम्मेदारियों को बहुत निभा लिया खुद के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी निभाओ,वो काम भी करों जो तुम्हारे अंतर्मन को शुकुन देता है,जिम्मेदारियाँ निभाओं मगर खुद को उसमे गुम ना करों" 

     उसके शब्दों का जादू जैसा असर होता है और हम जैसे गहरी नींद से जाग जाते हैं,और खुद के तलाश में लग जाते हैं वो अपना कोई दोस्त ही होता है "उस दोस्त का दिल से शुक्रिया"

" यदि जीवन में  आपको कोई सच्चा दोस्त मिल जाएं तो जीवन की आधी समस्याएं तो यूँ ही समाप्त हो जाती है,कई उलझन खुद-ब-खुद सुलझ जाती है।"


बुधवार, 30 सितंबर 2020

"अब "



 "अब" अर्थात  वर्तमान यानि जो पल जी रहें है...ये पल अनमोल है...इसमे संभावनाओं का अनूठापन है...अनंत उपलब्धियों की धरोहर छिपी है इस पल में.... फिर भी ना जाने क्यूँ हम इस पल को ही बिसराएँ रहते हैं....इसी की अवहेलना करते रहते हैं.....इसी से मुख मोड़े रहते हैं। अब के स्वर्णिम पलों को छोड़कर एक भ्रम में जिये जाते हैं हम... अतीत के यादों का भ्रम.....बीती बातों का भ्रम...आने वाले कल के आस और सपनो का भ्रम....भविष्य की चिंता का भ्रम.....अपने आपको ना जाने कितने ही भ्रम जाल में उलझाए रहते हैं हम।  ये अतीत की यादों और वादों का भॅवर हमें डुबोते चले जाते हैं.....ये भविष्य के आशाओं और चिंताओं का मकड़जाल हमें ऐसे  हुए उलझाते हैं कि हम अपने सही  कर्मो से ही बिमुख हो जाते हैं। 

    कल को सँवारने के लिए हमें "अब " में जीना होता है। जीवन जैसा भी हो उसे स्वीकारना और उसकी उलझनों से जूझना पड़ता है। जीवन की जटिलताओं और यथार्थ को सहर्ष स्वीकार कर सघर्षरत रहना पड़ता है। "अब "की अवहेलना कर हम कल को नहीं सँवार सकते हैं। पर पता नहीं क्यूँ  हम इस सत्य को समझते ही नहीं और यदि समझ भी गए तो उसे स्वीकार नहीं कर पाते। हमारी आदत बन चुकी है अतीत की यादों और भविष्य की कल्पनाओं के झूले में झूलते रहने की। इन झूलों में झूलते हुए हमें रात्रि के सपने तो मिल सकते हैं परन्तु जागरण का सूर्योदय नहीं मिल सकता। ऐसा नहीं है कि हम सपने सिर्फ सोते हुए ही देखते हैं....जागते हुए भी हमारा मन इन्ही सपनों के सागर में तैरता रहता है। दरअसल, अतीत की यादें और भविष्य के सपने भी मन के लिए एक नशा जैसा ही होता है जो जीवन की सच्चाईयों से भागने का बहाना मात्र है। 

   हम रोज सुबह जागते तो जरूर है परन्तु असली जागरण तो तब होता है जब "अब "के सूर्योदय में आँखें खुलती है। वर्तमान के क्षणों में जागने से ही मन नशामुक्त होता है। तब ऐसा था अब ऐसा कब होगा, बस ये सोचते भर रहने से जीवन या समाज में  परिवर्तन नहीं आता। "अब "के महत्व को समझ, इस क्षण के वास्तविकता को स्वीकार कर हमें कर्म करने होते हैं तभी हम कल के भविष्य को  बदल सकते हैं....अपनी दशा-मनोदशा को बदल सकते हैं....अपने सपनों को सच कर सकते हैं...समाज को बदल सकते हैं। जीवन तभी सार्थक होगा, जब हम गुजरे कल को भूलकर उसकी गलतियों से सीखकर, आने वाले कल की चिंता से मुक्त होकर आज को, अभी को, अब को संवारने लगगे। 


बुधवार, 9 सितंबर 2020

"नशा" एक मनोरोग



शीर्षक -"नशा" एक मनोरोग 

"शराब"किसी ने इसकी बड़ी सही व्याख्या की है
श -शतप्रतिषत
रा -राक्षसों जैसा
ब -बना देने वाला पेय
    सच है, शराब पीने वाला या कोई भी नशा करने वाला धीरे-धीरे राक्षसी प्रवृति का ही हो जाता है। उन्हें ना खुद की परवाह होती है ना ही घर-परिवार की।
आखिर क्यूँ ,एक व्यक्ति किसी चीज़ का इतना आदी हो जाता है कि-अपनी ही मौत को आप आमंत्रित करता है?
 आखिर कोई व्यक्ति नशा क्यों करता है?
चाहे वो शराब पीना हो, सिगरेट या बीड़ी पीना हो, गुटका या तम्बाकू खाना हो, बार-बार चाय-कॉफी पीने की लत हो या फिर और कोई गलत लत हो ।इसके पीछे क्या कारण होता  है ?
 वैसे तो इसके कई कारण है मगर मुख्य है -
     1. शुरू-शुरू में सभी शौकिया तौर पर इन सभी चीज़ो को लेना शुरू करते हैं । वैसे भी आज कल तो शराब और ड्रग्स लेना फैशन और स्टेंट्स सिंबल बन गया है। युवावर्ग खुद को "कूल" यानि बिंदास, बेपरवाह चाहे जो नाम देदे वो दिखाने की कोशिश में इन गलत आदतों को अपनाते हैं। लड़कियाँ भी इसमें पीछे नही है। मगर धीरे-धीरे नशा जब इनके नशों में उतरता है तो वो इन्हें अपना गुलाम बना लेता है फिर इनका खुद पर ही बस नहीं होता।

     2.  अक्सर हम लोग  कोई भी नशा तब भी करते हैं जब हम  खुद को असहज महसूस करते हैं, या किसी भी कारणवश हमें  कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा होता है, दुखी होते हैं,परेशान होते हैं । ऐसी अवस्था में  हमारा मन भटकता है और हम  खुद को अच्छा या फ्रेश महसूस कराने के लिए मन को कही और मोड़ने की कोशिश करते हैं। उस वक़्त सही-गलत से मतलब नहीं होता,बस खुद को खो देना या भूल जाना ही चाहते हैं। ऐसी  मनःस्थिति में अगर कही भटक गए तो वो भटकाव स्थाईरूप से अपना लेते हैं। क्योँकि थोड़ी देर के लिए ही सही वो "भटकाव" हमें ख़ुशी और शुकुन देता है। 
      सिर्फ शराब या ड्रग्स ही नहीं अक्सर लोग चाय-कॉफी तक के आदी हो जाते हैं। आमतौर पर घरों में भी देखा जाता है कि जब भी कोई शारीरिक या मानसिक तौर पर थकान महसूस करता है तो एक कप चाय या कॉफी की फरमाईस कर देता है। ये चाय-कॉफी थोड़ी देर के लिए उसे ताजगी महसूस करवाती है। चाय-कॉफी में मौजूद निकोटिन और कैफीन थोड़ी देर के लिए आपके मन और शरीर को आराम तो दे जाती है मगर ये भी तो एक तरह का नशा ही है धीरे-धीरे  हम इसके आदी हो जाते हैं। अधिक मात्रा में इसका  सेवन भी शरीर को नुकसान ही पहुँचता है। परन्तु, इस नशा से सिर्फ खुद का शरीर ही बर्बाद होता है जबकि शराब और ड्रग्स का नशा तो तन-मन, घर-परिवार, समाज और देश तक को क्षति पहुँचता है।इस "नशा" का कितना बड़ा दुष्परिणाम होता है, इसके कारण समाज में और कितनी सारी बुराई जन्म लेती है, कितने आकस्मिक मौत होते हैं ये सारी बातें तो बताने की जरूरत ही नहीं है। ये तो सभी जानते हैं कि -"ये आदत" गलत है फिर भी इसके गुलाम बनकर मौत तक की परवाह नहीं करते। 
आखिर कैसी मानसिकता है ये ?
 "नशा" भी एक मनोरोग ही है।इस बात को डॉक्टर भी मानते है।इसमें भी तो इंसान अपना मानसिक संतुलन खो ही देता है न।यदि उसका अपने दिलों-दिमाग पर कंट्रोल होता तो मुझे नहीं लगता कि-कोई भी अपने मौत को आमंत्रण भेजता। यदि कोई व्यक्ति "पागल" हो जाता है यानि किसी भी तरह से अपना मानसिक संतुलन खो देता है तो परिवार तुरंत उसको डॉक्टर के पास ले जाता है इलाज करवाता है जरूरत पड़ने पर हॉस्पिटल तक में रखा जाता है। 

मगर जब कोई व्यक्ति "नशे का आदी" होने लगता है तो हमें वो "गंभीर रोग"क्यों नहीं लगता है ?
इस "जानलेवा रोग" की गंभीरता को समझ हम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते हैं ?
हम क्यों सिर्फ उसे एक बुरी आदत समझ कर नज़रअंदाज़ करते चले जाते हैं ?
शुरुआत में नज़रअंदाज़ करना और फिर वही रोग जब कैंसर का रूप धारण कर लेती है तब ही हमें होश क्यों आता है ?
और आखिरी पल में ही हमें मान-सम्मान,धन-सम्पति यहाँ तक की जीवन तक दाँव पर क्यों लगाना पड़ता है ?
क्या समय रहते हम सचेत नहीं हो सकते ?

      हम सिर्फ सरकार को दोष देते हैं। हाँ,ये भी सत्य है कि -राजस्व बढ़ाने के नाम पर सरकार गली-गली, हर नुक्क्ड़ पर शराब के ठेके लगवा रही है,डॉक्टरों और दवाखानों के माध्यम से धड़ल्ले से ड्रग्स बेचा जा रहा है। ये तो सत्य है कि -शराब और ड्रग्स से किसी को फायदा है तो सिर्फ  राजनेताओं को,पुलिस को,शराब और ड्रग्स माफिया को,कुछ हद तक डॉक्टरों और दवाखाना वालों को भी। क्योंकि दवाओं के नाम से भी बहुत से ड्रग्स बेचे जाते हैं।ये नादान भी तो ये नहीं समझते कि-इस बुरी लत का शिकार होकर उनके अपने भी तो जान गवाँते हैं,मगर लालच तो अँधा होता है न ।हम घरों में भी देखते हैं कि-स्वार्थ और लालच से वशीभूत होकर अपनों का अहित अपने ही करते हैं, ये तो फिर बाहरी दुनिया के लोग है इन्हे सिर्फ अपने लाभ से मतलब है।

स्वहित के लिए,परिवार के हित के लिए सोचने का काम किसका है ?
 मेरी समझ से तो,ये सिर्फ और सिर्फ हमारा काम है, सरकार या समाज का नहीं। 
कोई भी हमारे हित के बारे में क्यों सोचेगा, क्यों परवाह करेगा??
   सबसे पहले तो हर इंसान  का पहला फ़र्ज़ है "स्वयं" की सुरक्षा करना।फिर भी,यदि कोई अपना  मानसिक संतुलन खोकर किसी भी कारणवश  इस "मनोरोग" से ग्रसित हो चुका है तो दूसरा फ़र्ज़ परिवार वालों का होता है। परिवार का फ़र्ज़ है प्यार से या सख्ती से,सही सूझ-बुझ से उस व्यक्ति का मार्गदर्शन करें या सही इलाज करें। रोग के शुरूआती दिनों में यदि उस व्यक्ति और परिवारवालों  के नज़रअंदाज़ करने के कारण, रोग ज्यादा भयानक हो चुका है तब भी "जब जागे तभी सवेरा" के सिद्धांत को अपनाते हुए तुरंत सजग हो जाना चाहिए अर्थात  जैसे ही परिवार को पता चले कि-मेरे घर का अमुक व्यक्ति अब इस व्यसन का आदी हो चुका है तो वो इसे गंभीर रोग मानकर तुरंत ही उसका  इलाज करवाये। छोटे से फोड़े की शुरुआत से ही चिकित्सा शुरू कर देनी चाहिए  कैंसर बनने तक का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।
मेरी समझ से "नशा मुक्ति" का सबसे सही और सरल उपाय है "परिवार की जागरूकता"
     कितनी ही बार "नशा मुक्त राज्य" बनाने के नाम पर कई राज्यों में शराब पर रोक लगाया गया है,कई बार कितने गैलन शराब को बहाकर बर्बाद किया गया है परन्तु फायदा कुछ नहीं हुआ। ना सरकार इस पर काबू कर सकती है ना ही समाजिक संस्था "नशा मुक्ति अभियान" का ढ़ोग कर हमारी नस्ल को नशा से मुक्त करा सकती है, सिर्फ और सिर्फ हमारा परिवार ही इस भयानक रोग से हमें बचा सकता है। 
     हाँ,अगर इसके लिए सामाजिक संस्थाओं को जागरूकता लानी है तो घर-घर जाकर परिवार को इस गंभीर रोग के बारे में सजग करना चाहिए,उन्हें समझाना चाहिए कि- यह एक आदत या व्यसन नहीं है बल्कि  हर मानसिक रोग की भांति यह भी एक मानसिक रोग ही है। अपने बच्चों में शुरू से अच्छे संस्कार रोपित कर उन्हें इस बुराई से बचने के लिए सजग करते रहना ही हमारा फर्ज होना चाहिए। 
   मगर समस्या तो सबसे बड़ी यही है कि- माँ-बाप या कोई बड़ा  क्या राह दिखाएंगे जबकि फैशन के नाम पर वो खुद को ही नशे में डुबो रखे है। "यहाँ तो कूप में ही भांग पड़ी है" 
    "कोरोना" महामारी बनकर आया था नवंबर 2021 की शुरुआत तक भारत में 4 लाख 44 हजार लोगों की और पूरी दुनिया में  50 लाख से ज्यादा लोगो की मौत हो चुकी है,हाहाकार मचा हुआ था ।  मगर गौर करने वाली बात ये है कि- हर साल अकेले  भारत में ढाई लाख से ज्यादा लोग सिर्फ शराब पीने के कारण मरते हैं। ।(ये आंकड़ा 2018 का है,नशामुक्ति अभियान चलाने वाले  डा0 सुनीलम के फरवरी 2020 में किये गए नए सर्वे के मुताबिक  भारत में ये आंकड़ा  प्रतिवर्ष 10 लाख है)
     सोचने वाली बात ये है कि-" कोरोना महामारी से डरकर अपने घर-परिवार को उससे बचाने के लिए हम कितने उपाय कर रहे थे और हैं भी,कितने सजग है हम। क्या कभी भी "नशा महामारी" की गंभीरता को समझ अपनी सजगता  बढ़ाने की कोशिश की है हमने?  हाँ,नशा भी तो एक छूत का रोग,एक महामारी ही तो बनता जा रहा है। हमारी युवापीढ़ी ही नहीं हम खुद भी यानि माँ-बाप तक भी देखा-देखी के चलन में, फैशन के नाम पर इस छूत रोग के चपेट में आते जा रहे हैं। 
"कोरोना महामारी" तो एक-न-एक दिन चला जाएगा, मगर नशा जैसी  भयानक महामारी जो हमारे युवाओं को, हमारे घरों को, हमारे समाज को खोखला किये जा रहा है क्या वो कभी रुकेगा? 





 



































"कोरोना" महामारी बनकर आया है अब तक पुरे विश्व में करीब नौ लाख से ज्यादा लोग और सिर्फ भारत में लगभग 72-73000


रविवार, 30 अगस्त 2020

"प्रेम"


"प्रेम" शब्द तो छोटा सा है,परन्तु प्रेम में समाया  सत्य विराट से विराटतर है। इस ढाई अक्षर में तीनों लोक में व्याप्त परमात्मा समाया है। प्रेम एक ऐसी डगर है जो सीधे परमात्मा तक पहुँचता है।प्रेम एक ऐसी जगह है जहाँ स्वयं को खोया तो जा सकता है,लेकिन खोजा नहीं जा सकता। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है,जहाँ प्रेमी पूरी तरह मिट जाता है,जहाँ से उसकी कोई खबर नहीं मिलती। प्रेम महाशून्य है,प्रेम महामृत्यु है।

     प्रेम करने वाला जहाँ शून्य हो जाता है,वही परमात्मा प्रकट होता है। जहाँ हम स्वयं को प्रेम में खो देते है,वही हृदय में परमात्मा की वीणा बज उठती है,उसकी अनंत स्वर-लहरियाँ हमारे सम्पूर्ण आस्तित्व को घेर लेती है। यह ऐसी विलक्षण अनुभूति है जिसे पा लेने के बाद कुछ कहने-सुनने या जानने को नहीं बचता। प्रेम को जानने वाला,जानने में ही खो जाता है,पिघल जाता है,बह जाता है। उसके पास बोलने को कुछ बचता ही नहीं।फिर अगर बोला  भी जाता है,तो वह मज़बूरी होती है। क्योँकि सामने वाला दूसरा व्यक्ति मौन को नहीं समझ पाता,इसलिए बोलना पड़ता है। हालाँकि बोलते समय भी यह बात कभी नहीं भूल पाती कि -जो पाया है,वह कहा नहीं जा सकेगा,क्योँकि कहने वाला भी शेष नहीं रहा,उसे पाने के बाद। प्रेम की शून्यता है ही कुछ ऐसी, जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।
    हाँ,प्रेम के शून्य को गणित के शून्य के साथ देखा जाये तो थोड़ी एकरूपता हो सकती है। शून्य को एक के ऊपर रख दो तो दस बन जाते है,दस के ऊपर रख दो तो सौ। सारा गणित भी तो शून्य का ही फैलाव है। प्रेम के साथ भी तो कुछ ऐसा ही है। प्रेम करने वाला अर्थात प्रेमी हृदय जिस किसी के निकट होता है, उसका भी मूल्य बढ़ा देता है। लेकिन गणित का शून्य मानव निर्मित है,मानव के ना होने पर यह खो जाएगा,जबकि प्रेम का शून्य आदमी के ना होने पर भी बना रहेगा। जब दो पक्षी प्रेम में पड़ते है तो इसी शून्य में उतर जाते  हैं। धरती और आकाश जब प्रेम में डूबते हैं तो इसी शून्य में उतरते हैं। प्रेम की यही  शून्यता परमात्मा की अनुभूति कराती  है और यही अनुभूति जीवन का परम सत्य होता है। 

   मगर आज जिसे हम "प्रेम" कहते हैं वो इतना अपवित्र हो चुका है कि -खुद को प्रेमी कहने वाले परमात्मा तक तो छोड़े किसी की आत्मा तक भी नहीं पहुंच पाते। आज प्रेमी कहते हैं कि -"जब कोई प्रेम में होता है तो कुछ सही या गलत नहीं होता" परन्तु प्रेम का शाश्वत सत्य है कि -"जब कोई प्रेम में होता है तो वो कोई गलती कर ही नहीं सकता।" प्रेम करने वाला हृदय वो घर होता है जहाँ सिर्फ और सिर्फ प्यार,पवित्रता और  परमात्मा का वास ही होता है,दूजा कुछ नहीं।  





गुरुवार, 13 अगस्त 2020

स्वतंत्रता दिवस -" एक त्यौहार "

                                           
     15 अगस्त " स्वतंत्रता दिवस " यानि हमारी आज़ादी का दिन- लगभग 200 वर्षो तक गुलामी का दंश  झेलने के बाद ,लाखों लोगो की कुर्बानियों के फ़लस्वरुप, हमें ये दिन देखने का सौभाग्य मिला। "15 अगस्त" वो दिन, जिस दिन पहली बार हमारे देश का  ध्वज "तिरंगा" लहराया और हमें भी उन्मुक्त होकर उड़ने की आजादी मिली।हम हिन्दुस्तानियों  के लिए हर त्यौहार से बड़ा, सबसे पावन त्यौहार है ये।यकीनन होली, दिवाली ,दशहरा ,ईद ,बकरीद ये सारे त्यौहार हम सब कभी भी इतने उत्साह पूर्वक नहीं मना पाते अगर, ये आज़ादी के दिन हमें  नसीब नहीं होते। 
     वैसे तो हर त्यौहार पहले भी मनाया जाता था और अब भी मनाया जाता है। स्वतंत्रता दिवस भी तब भी मनाया जाता था और अब भी मनाया जाता है।  लेकिन याद कीजिये वो 80-90 के दशक के ज़माने, उफ़!
क्या होते थे वो दिन... हाँ, "याद आया न" सुबह- सुबह नहा-धोकर...स्कूल यूनिफार्म पहनकर...बिना कुछ खाएं-पीएं (जैसे किसी पूजा में जा रहें हो) स्कूल पहुँच जाते थे...क्योंकि  झंडा फहराना हमारे लिए किसी पूजा से कम नहीं था। झंडा फहराना, राष्ट्गान गाना, प्रधानाचार्य  के द्वारा बच्चों को शहीदोंं की गाथा सुनाकर आज़ादी का महत्व समझाना और फिर बच्चों के द्वारा रंगारग कार्यक्रम प्रस्तुत करना।।।जिसमें  सिर्फ और सिर्फ देशभक्ति गाने ही होते थे... फिर हमें  प्रसाद की तरह बूंदी या लाड्डू  मिलता था। घर आने पर माँ के हाथों के बनें अच्छे-अच्छे पकवान खाने को  मिलते थे। जैसे, माँ बाकी त्योहारोंं  में पकवान बनाती थी ठीक वैसे ही। खाना खाते-खाते माँ हमें आज़ादी की लड़ाई के  किस्से सुनाती और समझाती कि- इस आजादी को पाने के लिए कैसे औरतों ने भी अपना बलिदान दिया था....साथ ही साथ ये भी समझाती कि- "हमें अपनी आज़ादी की कद्र करनी चाहिए...अपने  देश  से प्यार करना उस पर सब कुछ लुटा देना ही हमारा पहला धर्म है।" 
     उस दिन T.V पर एक देशभक्ति फिल्म ज़रूर दिखाई जाती थी जो सारा परिवार एक साथ बैठकर देखता था और अपने पूर्वजों की कुर्बानियों को देखकर सब की आँखें  नम हो जाती थी।सारा दिन दिलो-दिमाग देशभक्ति के रंग में डूबा रहता था।शायद, यही कारण था कि- हमारे अंदर देशभक्ति का ज़ज़्बा कायम था और है भी ,आज भी हमारी पीढ़ी के लिए  "15 अगस्त"  एक पावन त्यौहार है। 
      लेकिन, क्या आज की पीढ़ी के दिलों में स्वतंत्रता दिवस के प्रति यही जुड़ाव है ?आज ये आज़ादी का दिन हमारे लिए क्या मायने रखता है ?अगर ये सवाल हम किसी से करें तो उनका सीधा सा जबाब होगा "एक दिन की सरकारी छुट्टी" .आज कल की पीढ़ी क्या समझ पाती है इस आज़ादी के ज़ज़्बे को, इस स्वतंत्रता दिवस के महत्व को ? 
कैसे समझेगी ? 
     आज तो 15 अगस्त यानि छुट्टी का दिन...देर तक सोना...पतंग उड़ाना...मौज़-मस्ती करना यही है आज़ादी का दिन। क्योंकि स्कूलों में एक दिन पहले ही झंडा फहरा लिया जाता है ( खासतौर पर दिल्ली में,यकीनन ये आजकल के माहौल को देख सुरक्षा की दृष्टि से ही होता है ) जो एक औपचारिकता भर होता है। बच्चों का रंगारंग कार्यक्रम भी होता है मगर उस कार्यक्रम का देश-भक्ति के भाव से जुड़ा होना आवश्यक नहीं होता है।
ना ही शिक्षको द्वारा बच्चों को "आज़ादी की कुर्बानियो" के किस्से सुनाकर ये एहसास ही दिलाया जाता है कि- हमें  ये आज़ादी कितनी तपस्या के बाद  मिली है। हम भी तो अपने बच्चों को अपने इतिहास से अवगत नहीं कराते।ये गाथाएं बच्चें माँ-बाप और शिक्षक से ही सुनते, सीखते और अपनाते हैं।आज़ादी की कद्र करना और देश भक्ति का ज़ज़्बा सिलेबस की किताबों  की पढ़ाई से नहीं आता है। आज सोशल मीडिया  के दौर में हर " day " का celebration करने का तरीका है बस,एक अच्छा सा फोटो वाला मैसेज भेज देना और ये समझना कि -मैंने अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया।क्या बस यही है " आज़ादी का दिन ? "
  " आज़ादी " शब्द से मुझे एक बात का और ख्याल आता है कि-क्या हम सचमुच आज़ाद हुए है? देश को आज़ाद हुए कितने साल हो गए। इतने सालों में हमारे देश ने हर क्षेत्र में काफी तरक्की की है।चाहे वो औद्योगिकी  में हो, टेक्नोलॉजी में या सामाजिक स्तर पर,फैशन के क्षेत्र में तो हम सोच से ज्यादा तरक्की कर चुके हैं। लेकिन क्या हम मानसिक तौर पर तरक्की कर पाएं हैं? एक बार सोचकर देखें,क्या हम आज भी मानसिक रूप से आज़ाद हुए है?
     हम आजाद सिर्फ जिस्म से हुए, मानसिक रूप से हम गुलाम ही रहें है,अंग्रेजीयत हम पर तब भी हावी थी , अब तो कुछ ज्यादा ही हावी है। हम अपनी सभ्यता-संस्कृति,अपना ज्ञान -विज्ञान ,वेद पुराण,योग-आयुर्वेद  ,परिवार-समाज, प्यार-अपनत्व, सब कुछ भूल चुके हैं।हमने अग्रेजों से आजादी पा ली थी पर अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम बनकर रह गए। धीरे-धीरे हमने "आजादी " का मतलब  स्वछंद होना ,लापरवाह होना ,संस्कारविहीन होना, भावनाहीन होना समझ लिया।देश तो प्रगतिशील होता गया पर हम पतनशील होते गए।हमारी मानसिकता दोहरी हो गई है,एक तरफ तो हम खुद को पढ़े-लिखे और मॉर्डन कहते हैं और दूसरी तरफ हमारी सोच गवारोंं  से बदतर हो गई है। 
      हमारी मानसिकता और ज्यादा डरपोकों वाली, भेड़चाल वाली,अंधविश्वासों वाली नहीं हो गई है क्या ? 
अगर ऐसा नहीं होता...अगर हम मानसिक रूप से भी आज़ाद हुए होते...विकसित हुए होते तो आज हमारे देश में ढोंगी बाबाओं  का जाल कुकुरमुत्ते की तरह नहीं फैला होता...अगर हमारी भेड़-चाल नहीं होती तो कोई भी ऐरा- गैरा, अनपढ़, भ्रष्टाचारी, चरित्रहीन व्यक्ति हमारा नेता बनकर सांसद-भवन में बैठने का अधिकार नहीं पा सकता था। कहने को हमारे देश में लड़कियों को बहुत आज़ादी मिली है लेकिन आज भी जब लड़कियाँ घर से बाहर निकलती है तो माँ के हाथ हर वक़्त दुआ में उठे रहते हैं कि -"हे प्रभु! मेरी बेटी सही सलामत घर आ जाए." बाहर ही क्यों, बेटियाँ तो घर में भी सुरक्षित नहीं है।क्योंकि अभी भी हमारे देश में वो पुख्ता कानून नहीं बना जो एक बलात्कारी को फाँसी की सजा या कड़ी से कड़ी सजा दे सके, जिससे औरतो की तरफ बूरी नज़र करने वालों  की रूह काँप जाए। 
    नहीं दोस्तों ,अभी भी हम पूरी तरह से आज़ाद नही हुए है।अभी हमें बहुत सी आज़ादी हासिल करनी है खासतौर पर "मानसिक आज़ादी".अभी हमें  मानसिक रूप से विकसित होना बाकी है। हाँ ,लेकिन अपने पूर्वजों  की कुर्बानियों के फलस्वरूप जिस गुलामी के ज़ंजीरो से हमें  आज़ादी मिली है, हमें उसकी कद्र करनी चाहिए और इस स्वतन्त्रता दिवस को हमें एक जश्न के रूप में मानना चाहिए। "मानसिक आजादी" का ये मतलब कतई नहीं है कि- हम पश्चिमी सभ्यता का अंधाधुंध अनुसरण कर बे-लगाम हो जाए। जो कि हम कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं। 
                                         " कितनी गिरहें  खोली हमने ,कितनी गिरहें  बाकी है"
                                          
                                               स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई हो 
                                                                  जय हिन्द 

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

रक्षाबंधन -" कमजोर धागे का मजबूत बंधन "

    

    
     सावन का रिमझिम महीना हिन्दुओं के लिए पावन महीना होता है। आखिर हो भी क्यों नही ये देवो के देव "महादेव" का महीना जो होता है और इसी महीने के आखिरी दिन यानि पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। रक्षाबंधन भाई-बहन के प्रेम को अभिव्यक्त करने का एक जश्न है। जिसे आम बोल-चाल में राखी कहते हैं । 
    सुबह-सुबह नहा-धो कर पजामा-कुर्ता पहने भागते-दौडते अति उत्साहित लड़के और प्यारा सा फ्रॉक या लहँगा-चुन्नी पहने, हाथ में पूजा की थाली लिए हुए इतराती फिरती लड़कियाँ। कही कोई भाई अपनी छोटी बहन को मना  रहा है उससे छोटे-छोटे, प्यारे-प्यारे वादे कर रहा है कि - "आज से मैं तुम्हें  बिल्कुल नहीं मारुंगा, तुम्हें कभी नहीं सताऊँगा, तुम्हें  ढेर सारी चॉकलेट भी दूँगा प्लीज, मुझे राखी बाँध दो" और कही कोई बहन, भईया को मना रही है कि -"मैं मम्मी से तुम्हारी कभी कोई शिकायत नहीं करुँगी, अपने खिलौने भी दे दूँगी, तुम्हारी हर बात मानूँगी प्लीज, मुझसे  राखी बँधवा लो।" सच ,बड़ा प्यारा नज़ारा होता है।
    राखी के दिन मैं भी अपने बचपन में खो जाती हूँ। हम चार भाई-बहन है,दो बहन और दो भाई। इसके अलावा चाचा ,बुआ के बच्चे, कुल मिलाकर 12-13 भाई-बहन। हम सब में सगे भाई-बहनों जैसा ही प्यार था,कोई पराया था ही नहीं। राखी के दिन हम सारे इकठ्ठे होते थे और राखी बँधवाने का कार्यक्रम एक साथ ही होता था, सारे भाई एक लाइन में बैठ जाते थे और हम सारी बहनें आरती का थाल हाथ में लिए खड़ी रहती थी। मैं सबसे बड़ी थी, सारे भाई पहले मुझसे ही राखी बँधवाना चाहते थे क्योँकि मैं सबको एक समान प्यार करती थी और सभी मुझे भी उतना ही प्यार देते थे। मैं एक लाइन से बड़े भाई से शुरू कर छोटे तक पहुँचती थी। सब एक दूसरे को अपने हाथो से मिठाई खिलाते थे और प्यार से गिफ्ट देते थे। वो गिफ्ट चाहे पांच रूपये का ही क्यों न हो, भाई वो अपनी बचत के पैसे से लाते थे और वो  हमारे लिए लाखों रूपये से भी कीमती होते थे। बड़ा ही पवित्र होता है ये बचपन का प्यार.... 
    राखी पर्व का नाम लेते ही शायद ही ऐसा कोई हो जिसे अपने बचपन की याद ना आती हो। वैसे तो हर त्यौहार का असली मजा तो बचपन में ही आता है लेकिन राखी की तो बात ही अलग होती है। भाई-बहन का असली प्यार झलकता है, कोई दिखावा नहीं, कोई लालच नहीं, कोई मन पे बोझ नहीं। जितना ज्यादा बचपन में इस त्यौहार का आनंद होता है उतना ही बड़े होने के बाद इस त्यौहार का रंग-रूप बिगड़ जाता है। मैं ये नहीं कहूँगी कि भाई-बहन के बीच का प्यार कम हो जाता है बस उस प्यार पर औपचारिकता भारी पड़ जाती है और प्यार धूमिल हो जाता है। मुझे इस राखी में बनाये गए एक रिवाज़ से सबसे ज्यादा शिकायत है -"वो है, तोहफों का आदान-प्रदान " और मेरे बिचार से इसी रिवाज़ ने ही बड़े होने पर इस त्यौहार को बोझ बना दिया। 
     अगर ये उपहारों का लेन-देन परम्परा ना हो कर "खुशी" होती तो राखी हमेशा अपने बचपन वाले स्वरूप में, भाई बहन का प्यार दिन-ब-दिन बढ़ता कभी कम नहीं होने देता। क्योंकि बचपन में जो उपहार प्यार से दिया जाता था बड़े होने पर औपचारिकता के साथ-साथ बोझ भी बन गया। वास्तव में राखी हम हिन्दुस्तानियों के लिए इतना पवित्र धागा है कि-अपने खून के रिश्ते की तो बात ही छोड़ें, किसी अनजाने और अपने जाति-धर्म से अलग व्यक्ति को भी अगर कोई लड़की एक बार ये धागा बाँध  देती है तो आजीवन निभाती है। 
     वैसे तो इस पवित्र बंधन की बहुत सी कहानियाँ मशहूर हैं मगर आज मैं आप को इससे जुडी अपने बचपन की एक दस्तान सुनती हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं 15 -16 साल की थी। हमारे पापा बिजली बिभाग में इलेक्ट्रिशियन थे और हम सरकारी क्वार्टर में रहते थे। उन्हीं दिनों एक इंजीनियर का परिवार ट्रांस्फर होकर आया था। हमारी उनसे अभी अच्छे से जान-पहचान भी नहीं हुई थी। उनके 10 और 12 साल के दो बेटे थे, कोई बेटी नहीं थी। उनके आने के महीने बाद ही राखी पर्व आ गया था। हम सारे भाई-बहन हर साल की तरह इकठ्ठे  थे और राखी बाँधने का कार्यक्रम चल रहा था उसी बीच  उनका बड़ा लड़का आ गया। वो थोड़ी देर खड़ा होकर सब देखता रहा फिर दौडता हुआ चला गया। थोड़ी देर बाद उसकी माँ उसे लेकर आई। बच्चें का रो-रो कर बूरा हाल था आँखें सूजी थी,सिसकी अभी भी बंद नहीं हुई थी। हम सब डर गए कि क्या हो गया इसे? उसकी माँ मेरे पास आई और बोली -"बेटी क्या तुम मेरे बेटे को राखी बाँध सकती हो ये रोये जा रहा है कि-मुझे रानी दीदी से ही राखी बँधवानी है (घर में सब मुझे रानी बुलाते हैं  )मैंने उसे पहले प्यार करके चुप कराया फिर, मैंने कहा कि -"चाची राखी एक दिन का बंधन नहीं है, ये सिर्फ एक धागा नहीं है जिसे मैं आज बाँध दूँ और फिर भूल जाऊँ, अगर आज मैं इसे राखी बाँधूगी तो ये हमेशा के लिए मेरा भाई हो जायेगा, आप को मंजूर हो तो बोलिये।" उस लड़के की माँ कुछ बोलती इससे पहले वो लड़का मेरा हाथ पकड़कर बोल पड़ा -"हाँ-हाँ ,मैं आजीवन आप का साथ निभाऊंगा, आप मेरे हाथ पर राखी बाँध दे मैं आप का हाथ कभी नही छोड़ूंगा।"
     सब हँस पड़े, मैंने उसे राखी बाँध दी। उसने बड़े प्यार और आदर से मेरे पैर छूए और अपनी जेब से निकाल कर एक टॉफी पकड़ा दी।उस वक़्त उसकी कही हुई बात को ना उसकी माँ ने गंभीरता से लिया और ना ही मेरे परिवार वालों ने, सबको लगा बच्चा है और उसकी बहन भी नहीं है इसीलिए बोल दिया, 3 साल बाद उनका  ट्रांस्फर हो जायेगा और वो चला जायेगा फिर कहानी खत्म। लेकिन मैं उस बच्चें के मन की पवित्रता समझ रही थी उसके  मुख से निकला एक-एक शब्द मेरी आत्मा को छू गया था। उसके हाथ पकड़ने का एहसास आज तक मुझे महसूस होता है। उस बच्चें ने सच कहा था आज वो 44 साल का हो गया है और एक सफल डॉक्टर है और मुझसे बहुत दूर भी रहता है। 5 -6 साल पर हम कभी-कभी मिलते हैं  लेकिन आज भी वो मेरा हाथ उसी प्यार और ख़ुलूस के साथ पकड़ रखा है। आज भी उसका प्यार एक मासूम बच्चें की तरह निश्छल और निस्वार्थ है। खून के रिश्ते के भाई-बहन स्वार्थवश बिखर गए लेकिन आज भी मैं उसकी  "प्यारी रानी दीदी " और वो भी मेरा " प्यारा मासूम पिंकू" ही है। ये होता है राखी के एक कमजोर धागे का मज़बूत बंधन। यूँ ही नहीं इस त्यौहार को पवित्र मानते हैं। 


     मेरी भगवान से यही प्रार्थना हैं कि-"कभी किसी बहन से उसका भाई ना बिछड़े ना ही कभी किसी बहन से उसका भाई रूठे " और हर भाई -बहन से ये आग्रह हैं कि-"कभी भी अपने बीच कोई दीवार ना आने दें चाहे वो दीवार स्वार्थ की हो चाहे, किसी व्यक्ति बिशेष की। 


छोटी बहना चूम के माथा

भईया तुझे दुआ दे
सात जनम की उम्र मेरी
तुझको भगवान लगा दे
अमर प्यार है भाई-बहन का
जैसे सुभद्रा और किशन का

मोल नहीं कोई इस बंधन का
ये राखी बंधन है ऐसा.... 
ये राखी बंधन है ऐसा....
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आप सभी को राखी की ढेरों शुभकामनाएं 

शनिवार, 18 जुलाई 2020

अंतर्मन की सच्ची पुकार है प्रार्थना....


    "प्रार्थना" निश्छल हृदय से निकली अंतर्मन की सच्ची पुकार है। जब भी कोई मनुष्य किसी संकट में होता है,परेशानी में होता है,जब बाहरी दुनिया के लोग उसकी सहायता नहीं कर पाते तब, असहाय होकर उस परमसत्ता से वो मदद की गुहार लगाता है।उसका दर्द, उसकी पीड़ा प्रार्थना के रूप में उस परमपिता तक पहुँचती है और एक अदृश्य हाथ उसकी  मदद के लिए आ खड़ा होता है। निश्चित रूप से प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है,जो किसी भी असंभव दिखने वाली परिस्थिति से हमें बाहर निकालती है। ऐसे  उदाहरणों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है और हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी है।  
    "प्रार्थना"एक ऐसी वार्ता है,जो एकतरफा होती है,लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलती है। "प्रार्थना" भगवान से सिर्फ अपनी इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम नहीं है,बल्कि यह तो भगवान के साथ अपनी करुण वेदना की सहभागिता है। इसीलिए जब भी मदद के सारे  द्वार बंद हो जाते हैं, कोई भी मार्ग नहीं सूझता, तब भी प्रार्थना का द्वार  खुला रहता है।जहाँ हर एक बे-रोक-टोक जाकर गुहार लगा सकता है और कभी वहाँ से निराश भी नहीं लौटना पड़ता है। जब भी कोई ऐसा नहीं होता, जिससे आप अपना दुःख बाँट सकें उस वक़्त भी प्रार्थना के माध्यम से आप अपना दुःख बे-झिझक उससे  कह सकते हैं।   
    वैसे तो अक्सर हम कष्ट में अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ही प्रार्थना करते हैं परन्तु आत्मकल्याण के लिए लोककल्याण के लिए भी  प्रार्थनाएँ की जा सकती है। लोककल्याण के लिए.परहित के लिए,निस्वार्थ भाव से की गई सामूहिक प्रार्थना तो परमेश्वर तक और भी जल्दी पहुँचती है और इसके कई चमत्कारिक परिणाम देखने को भी मिले है। निष्कपट,निस्वार्थ भाव से,सच्ची हृदय से अगर हम भगवान को पुकारते हैं तो वो हमारी आवाज़ कभी अनसुना नहीं करता। हाँ,कभी-कभी ये देखने में आता है कि -हमारी आवाज़ उस तक पहुँचने  में देर हो जाती है मगर व्यर्थ  नहीं जाती।तभी तो कहते हैं कि- "भगवान के घर देर है,अंधेर नहीं "
   हम प्रार्थना के माध्यम से जीवन की नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मकता से जुड़ रह सकते हैं,ये हमें अंधकार में घिरने पर भी प्रकाश की और निहारने की हिम्मत देती है,एक उम्मीद का दीया जलता रहता है जो हमें ढाढ़स बँधाता है।  
    शायद इसीलिए,विश्व के सभी धर्मो में एकमात्र जो समानता है,वह है-"प्रार्थना"। हर धर्म किसी-न-किसी रूप में उस परम सत्ता से जुड़ने के लिए प्रार्थना करने को कहता है। प्रार्थना के  माध्यम से हम अपनी भावनाओं को भगवान के पास भेजते हैं।यह एकमात्र वो  माध्यम है जिससे हम भगवान से अपनी इच्छाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति  करते हैं। अभिव्यक्ति का यह माध्यम हमारी मनोचिकित्सा का भी कार्य करता है,हमारे मन को जीवन में पड़ने वाले अनगिनत भँवरों से बाहर निकालता है। सच्चे मन से की गई पुकार न केवल मनुष्य को घोर  संकटों-आपदाओं से निकालती है,वरन उसे उस दिव्य सत्ता के साथ भी जोड़ती है और हमें उसके कृपा का पात्र बनती है।प्रार्थना में जुड़े हाथ ये भी सिद्ध करते हैं कि-हम लाख विज्ञान को शिरोधार्य कर ले,अपनी काबिलियत, शक्ति और समझदारी पर इतरा ले मगर आखिरकार हमें मानना ही पड़ता है कि-"कोई तो अदृश्यशक्ति है जिसके आगे हम बेबस है।"   

"धरती माँ"



  पृथ्वी,धरती,धरणी या धरा चाहे जो नाम दे परन्तु उसका रूप और कर्तव्य तो एक "माँ" का ही है। जैसे, एक नारी का तन ही एक शिशु को जन्म दे सकता है और उसका पालन-पोषण भी कर सकता है। तभी तो, एक शिशु के माँ के गर्भ में आने के पहले से ही  माँ का तन-मन दोनों उसके पालन-पोषण  के लिए  तैयार होता है। वो अपने अंग के एक अंश से एक जीव को जन्म देती है और अपने लहू को दूध में परिवर्तित  कर उसका पोषण करती है, उसी प्रकार हमारी "धरती" ही वो गर्भगृह है जहाँ जीवन संभव है।इसीलिए तो हम पृथ्वी को भी "धरती माँ " ही कह कर बुलाते हैं। पृथ्वी और प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो है,अगर प्रकृति जीवित है तो पृथ्वी पर जीवन संभव है। 


     मगर हमने इस प्रकृति का दोहन करते-करते "धरती माँ" के आत्मा तक को रौंद डाला है  और अब ये धरती माँ कुपित हो चूकी है। जैसे माँ पहले तो अपने बच्चों की गलतियों को नजरअंदाज करती है फिर उसे समझाने की कोशिश करती है,फिर भी ना समझे तो उसे धमकाती है और फिर भी बच्चें ना सुधरे तो मजबूरन उसे अपने जिगर के टुकड़े को सजा देनी ही पड़ती है। आज हमारी "धरती माँ" भी हमसे बहुत ज्यादा कूपित हो चूकी है और हमें धमकाना प्रारम्भ कर चूकी है। हाँ,आज ये जो भी प्राकृतिक आपदाएँ अपने भीषण रूप में प्रहार कर रही है वो तो बस अभी "माँ"की धमकी भर है। यदि अब भी ना चेते तो, हमें सजा मिलनी निश्चित है। ऐसी सजा जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। जब माँ की धमकी इतनी  भयावह है तो इसकी सजा कैसी होगी ? ये भी हो सकता है कि माँ चंडी का रूप धारण कर नरसंहार ही करती चली जाए. (जिसकी एक झलक तो वो हमें दिखला भी रही है )
   यदि हम माँ की सबसे प्रिय संतान मनुष्य होने के नाते प्रकृति की संरक्षण की जिम्मेदारी स्वयं नहीं उठाते हैं तो मजबूरन प्रकृति को अपने उस रूप को धारण करना होगा, जिसमे ध्वंस किये बिना नूतन सृजन संभव नहीं है। स्वभाविक है कि इस प्रक्रिया में हमें बहुत से कष्ट-कठिनाइयों से गुजरना भी होगा, पर यदि हम समय रहते सचेत हो जाएंगे तो अपनी जीवन की दिशा को बदल पाने में सक्षम हो जाएंगे और साथ ही साथ  हम सम्पूर्ण मानव जाति का सुंदर और बेहतर भविष्य निर्मित कर पाने में भी सक्षम होंगे। ऐसा करने के लिए आवश्यकता मात्र इतनी है कि हम इस प्रकृति से चाहे जितना ले,पर बदले में उसी विनम्रता और ईमानदारी के साथ उसे उतना ही लौटाएँ भी। यदि हम प्रकृति के साथ साझेदारी निभाएंगे तो प्रकृति के इस संभावित कहर से बच पाना संभव है। यदि हम प्रकृति के  सुरक्षा एवं संरक्षण का ध्यान रखेंगे तो प्रकृति भी हमें सुरक्षा और संरक्षण देगी। इसीलिए अब यह जरुरी है कि-हम प्रकृति एवं  धरती माँ के सुरक्षा,संरक्षण एवं समृद्धि के लिए अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार सतत प्रयत्नशील हो जाए। 
   हमने अपनी जन्म देने वाली माँ की बेकद्री की तो भी, उस माँ ने हमें क्षमा कर दिया मगर अब ये "धरती माँ" हमें क्षमा नहीं कर पाएगी। 







शनिवार, 11 जुलाई 2020

"प्रश्नचिन्ह" ?

     

    आज समाज में यत्र -तत्र -सर्वत्र ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जिन्हें या तो शिकायत करना आता है या सिर्फ "प्रश्न" करना।प्रश्न माँ -बाप पर प्रश्न, रिश्ते -नातेदारों पर प्रश्न, समाज और उनके बनाएं कायदे-कानून पर प्रश्न, सरकार पर-इतना ही नहीं-प्रश्न इस सृष्टि और सृष्टिकर्ता पर,धर्म-संस्कार पर,आस्था-विश्वास पर,नारी के स्वाभिमान और मान-मर्यादा पर,यहां तक कि मनुष्य जाति के अस्तित्व पर कि-वो बन्दर की संतान हैं या देवता और ऋषि-मुनि की संतान।मुझे यकीन हैं ऐसे लोग खुद के होने पर भी "प्रश्नचिन्ह"जरूर लगाते होंगे। "सवाल उठाना"वो अपनी बुद्धिमता समझते हैं या अधिकार---- ये बात तो वही जाने---!

     उन महाज्ञानियों को कोई भी अपने उत्तर से संतुष्ट भी नहीं कर सकता  क्योँकि उनकी तार्किक प्रवृति उन्हें संतुष्ट होने ही नहीं देती।जैसे,समस्या है तो उसका समाधान भी है वैसे, ही यदि प्रश्न है तो उसका उत्तर भी है मगर इन बुद्धिजीवियों  को स्वयं उत्तर तलाशाने नहीं हैं, वो तो सिर्फ "प्रश्नकर्ता" हैं उन्हें उत्तर से दरकार नहीं, वो उत्तर तलाशने में अपना वक़्त जाया क्यूँ करें। वो तो सिर्फ इस मद में चूर हैं कि--" मेरी सोच समाज से "इतर" है, मेरी बुद्धि मेरे ख्यालात मॉडन हैं, मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ, मैं तार्किक हूँ।" 

     भगवान पर,वेद-पुराणों पर,रामायण,गीता और भहाभारत जैसे ग्रंथों पर,आस्था-विश्वास पर "प्रश्नचिन्ह" लगाना तो बहुत आसान है, अपने तर्कों से अपनी बातों को सिद्ध करना वो भी आसान है जो सभी करते आए  हैं, कर रहे हैं और आगे भी करते ही रहेंगे। मुश्किल तो हैं "खुद को समझना और समझाना" खुद पर प्रश्नचिन्ह लगाना।क्या आप कभी खुद का विश्लेषण कर खुद को ही समझा पाएं हैं? उत्तर बताना नहीं हैं खुद को ही देना हैं। 
एक बार खुद को तलाश तो लें,खुद से कुछ प्रश्न तो कर लें - "मैं कौन हूँ "?

      खैर, "मैं कौन हूँ" ये तो बड़ा मुश्किल सवाल हैं और इसका उत्तर ढूंढ पाना इन तार्किक प्रवृति वालों के बस की बात नहीं हैं वो तो बस इतना जबाब ढूंढ ले वही बहुत हैं कि- 
क्या मेरे आस-पास रहने वाले या मेरे दोस्त-रिश्तेदार,संगी-साथी सभी मेरा आदर-सम्मान करते हैं?
क्या कोई एक भी मुझे निश्छल स्नेह देता हैं?
क्या मैं अपनी बातों से, अपने तर्क से किसी को क्षण भर की भी ख़ुशी या संतुष्टि दे पाती /पाता हूँ ?
मेरी तार्किक बुद्धि के कारण मेरे व्यवहार से किसी का मन आहत तो नहीं होता ?
क्या मैं परिवार,समाज और देश के प्रति अपने दायित्वों को ईमानदारी से  निभा पाती /पाता हूँ ?
जिन विषयों पर मैंने "प्रश्नचिन्ह"लगाया है,क्या तथस्ट भाव से उसके उत्तर को तलाशने की मैंने स्वयं कोशिश की है?  
क्या सभी मुझे "ज्ञानी" समझते हैं?
(क्योँकि खुद को ज्ञानी समझना और ज्ञानी होने में बहुत फर्क हैं)

     यकीनन, अपने "प्रश्नों" से किसी के आस्था-विश्वास को,सम्मान और मर्यादा को छलनी करना ज्ञानियों का काम तो नहीं होता ये तो बस तार्किक प्रवृति के दंभी लोग ही कर सकते हैं जिन्हें सिर्फ प्रश्न करना आता है और उत्तर की जिम्मेदारी वो दूसरों पर डाल देते हैं। ऐसे लोग समाज के लिए खुद भी एक "प्रश्नचिन्ह" ही होते हैं। किसी ने बिलकुल सही कहा हैं -

"खुद से बहस करोगे तो सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे ।
अगर दूसरों से करोगे तो नए सवाल खड़े हो जाएंगे।। 

("तर्क में जीत जाना ज्ञानी होने का प्रमाण नहीं हैं" इस पर आगे चर्चा करेंगे ) 

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

"रचना और रचनाकार"


बचपन में मेरी दादी एक कहानी सुनाया करती थी.....
     एक आदमी जो खुद को बड़ा ज्ञानी समझता था,वो सृष्टिकर्ता पर , सृष्टि की हर एक रचना पर ,समाज और उसके नियमों पर, हर एक सम्बन्ध पर प्रश्नचिन्ह लगा देता। उसे खुद के आगे हर कोई मूर्ख और कमअक्ल ही लगता था। एक बार उस के गॉव में एक महात्मा जी आये। गॉव के लोग बड़ी ही श्रद्धा से उनका प्रवचन सुनने जाते।महात्मा जी भगवान की और उनकी हर एक रचना की गुणगान करते। उस आदमी को ये सब बर्दाश्त नहीं होता। एक दिन वो प्रवचन के बाद उस महात्मा के पास पहुंच गया.उसने उन्हें खूब भला-बूरा कहा। उसने कहा -आप पाखंड करते हैं  भगवान के नाम पर आप सबको बेवकूफ बनाते है ,"भगवान" नाम का कोई अस्तित्व नहीं है. महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए पूछा -"कोई तो रचनाकार होगा न,जिसने इस सृष्टि की रचना की है" तो उस व्यक्ति ने कहा -"ये सब विज्ञान हैं भगवान नहीं,यदि भगवान है तो वो दिखता क्यूँ नहीं ,क्या आप मुझे भगवान से मिलवा सकते हैं ? महात्मा जी ने बड़े शांत स्वर में कहा-" बिलकुल मिलवा सकता हूँ मगर पहले तुम मेरे चंद प्रश्नो का उत्तर दे दो।" उस आदमी ने बड़ी ढिठाई से कहा -पूछिए।

    महात्मा जी ने पूछा -कोई एक व्यक्ति का नाम बताओ जिससे तुम अत्यधिक स्नेह करते हो? उस व्यक्ति ने अकड़ते हुए कहा -"मैं खुद से ज्यादा किसी से प्यार नहीं करता".... क्या अपने माता-पिता से भी नहीं ,उन्होंने तो तुम्हे जन्म दिया है,उनका तो आदर करते होगें न - महात्मा जी ने उसी शांत स्वर में पूछा। नहीं,मुझे जन्म देना एक जैविक प्रक्रिया थी और पालन-पोषण करना उनका कर्तव्य जो हर माता-पिता करते हैं ,उन्होंने कुछ विशेष नहीं किया........तुम्हारी पत्नी और बच्चें तो होंगे न -महात्मा जी ने पूछा। उनका क्या,वो तो मेरी अनुकम्पा पर जीते हैं उन्हें मेरा ऋणी होना चाहिए मुझे स्नेह करना चाहिए,मैं उनकी परवाह क्यूँ करूँ- उस आदमी ने गर्दन अकड़ा कर कहा..... कोई दोस्त,रिश्तेदार या पड़ोसी तो होगा - महात्मा जी ने फिर पूछा। नहीं-नहीं मैं किसी से संबंध नहीं रखता,सब मतलब के होते है,थोड़ा भाव दो सर पर चढ़ जाते है, इनकी सिरदर्दी मैं नहीं पालता,वैसे भी सब जाहिल है, देखा नहीं आपने मूर्खो की तरह आपकी बातों में उलझ जाते हैं -उसने झल्लाते हुए कहा।

    महात्मा जी मुस्कुराते हुए बोले -हाँ हाँ ,सही कहते हो तुम,कोई बात नहीं किसी जानवर,पशु-पक्षी, पेड़ -पौधे या पुष्प से तो तुम्हें जरूर लगाव होगा...... नहीं,जानवर बहुत गंदे होते है उन्हें कौन प्यार करेंगा और पक्षी तो हर जगह बीट करते रहते है,मैं उनसे दूर ही भला.... अच्छा ये बताओं सूरज चाँद ,सितारे ,धरती और आकाश के बारे में तुम्हारी क्या राय है  इनके अस्तित्व को मान कर इनकी उपासना तो तुम जरूर करते होंगे.....ये सभी एक खगोलिय पिंड है,विज्ञान के अनुसार इनकी उत्पति एक खगोलिय घटना के कारण हुआ, इनकी उपासना या पूजा क्यों करें हम, मेरे पूजा करने से ये औरों से ज्यादा मुझे रौशनी और ऊर्जा देंगे क्या ? अच्छा ये बताओं - तुमने वेद-पुराण का अध्ययन किया है? अरे नहीं,स्वामी जी वेद पुराण को भी तो आप जैसे महत्माओं ने ही लिखा है हमें नियम कानून में बांधने के लिए,ये सही है या गलत हमें क्या पता, हम तो अपनी बुद्धि-विवेक से समझेगें कि क्या सही हैं क्या गलत। ये तो बहुत अच्छी बात कही तुमने....बेटा,तब तो तुमने रामयण और महाभारत भी नहीं पढ़ी होगी,उनके बारे में भी नहीं जानते होंगे- स्वामी जी ने बड़े धीरज से पूछा। अरे नहीं स्वामी जी ,जानता तो सब हूँ,मगर मैं इन मूर्खों की तरह नहीं हूँ जो उनमे लिखी बातों को सत्य मान लूँ, ये तो एक काल्पनिक कथाएं है। स्वामी जी बड़े प्यार से बोले- बेटा,तुम तो बड़े ज्ञानी हो,भगवान को ना देखो ना समझों तो ही अच्छा हैं, मैं तुम्हे भगवान के दर्शन नहीं करा सकता। वो व्यक्ति खुद की जीत पर इतराता हुआ चला गया। 
    अगले दिन स्वामी जी ने अपना प्रवचन प्रांरभ करते हुए पूछा- क्या आप सब भगवान से मिलना चाहते है, उनका दर्शन करना चाहते हो? सबने एक स्वर में "हाँ" कहा। स्वामी जी ने कहा-  माता-पिता के स्नेह में भगवान है,पति-पत्नी के समर्पण में भगवान है,बच्चों की किलकारियों में भगवान है,पक्षियों के कलरव में भगवान है,फूलों की सुगंध में भगवान है अगर तुम इनके करीब हो तो भगवान के करीब हो,यदि और नजदीक से भगवान का दर्शन करना चाहते हो तो उगते सूरज में उन्हें देखों, ढलती शाम में उन्हें महसूस करो, किसी भूखे को तृप्त करके देखो, किसी रोते के मुख पर हँसी लाकर देखो, माता पिता की सेवा करोगे, सृष्टि के प्राणियों से स्नेह करोगे तो भगवान के दर्शन अवश्य होंगे, क्योँकि "कण-कण में भगवान है,तुम्हारे बाहर भगवान है,तुम्हारे भीतर भगवान है, प्रेम,दया, करुणा, परोपकार, आदर-सम्मान यही तो भगवान के रूप है मगर ये दर्शन महाज्ञानी नहीं कर सकते क्योँकि वो मद में अंधे होते है,ये दर्शन निश्छ्ल,पवित्र और करुणामयी आँखे ही कर सकती हैं. बच्चों, एक बात याद रखना -"जो रचना को नहीं समझ पाया वो रचनाकार को कभी नहीं समझ पायेंगा"
    सभा से दूर खड़ा वो व्यक्ति सब सुन रहा था मगर खुद को महाज्ञानी समझने वाले ने अपनी मन की आँखें बंद कर रखी थी वो ना सृष्टि को समझ सकता था ना सृष्टिकर्ता को। 

    कहानी सुनाने के बाद दादी कहती थी -बच्चों "अज्ञानी को ज्ञान दिया जा सकता है मगर जो खुद को महाज्ञानी समझ बैठा हो,उसे तो परमात्मा भी आकर नहीं समझा सकता।"




 

शुक्रवार, 26 जून 2020

पत्र-" दिल की जुबां "


" पत्र दिल की जुबां होती हैं। " पत्र लिखते वक़्त हम अपने दिल के काफी करीब होते हैं ठीक वैसे ही जैसे जब हम प्यार में होते है तो अपने दिल के इतने करीब होते है कि उसकी  धड़कनों को भी सुन सकते हैं और वो धक- धक किसी के पास होने का एहसास कराकर आँखों को स्वतः ही नम कर जाती हैं। अर्थात दिल के आस पास होने से दर्द में भी आनंद की अनुभूति होती है। स्मृतियाँ भी मधुर इसीलिए बन जाती है कि -दिल की सतह पर विचारों की तरंगे टकराकर सिहरन पैदा कर देती है। सचमुच ,दिल के दहलीज़ पर ही इंसान एहसास की जिंदगी जीता हैं और अपने से रूठे हुए या औरो से रूठे हुए दिलों को भी विचारों की थपकियों से मनाता हैं और पुनः उन तारों को दुरुस्त करता हैं जो झंकार के समय टूट गए थे या ढीले पड़ गए थे। 
   जब हम अपने प्रिय के साथ बिताये हुए उन मधुर पलों को याद  करते हैं तो हमारी सांसे कुछ पल के लिए थम सी जाती है और इसका प्रभाव दिल की धड़कनों पर भी सहज और स्वभाविक रूप से पड़ता हैं। फिर जब हम दिल को संतावना देते हैं तो सांसे स्वतः चलित हो जाती हैं।हमारी साँसे भी हमारी संवेदनाओं से झंकृत होती रहती हैं। 
   पत्र लिखते वक़्त भी कुछ ऐसी ही अनुभूति होती हैं वो अपना जिसे हम पत्र लिख रहें होते है वो सामने बैठा सा महसूस होता है। पत्र का विषय अगर खुशियों से भरा हो तो कलम उन शब्दों को पन्नो पर उकेरता है और मन उस पल को उस अपने के साथ जीने लगता हैं। उस वक़्त वो  कल्पनाओं की दुनिया इतनी हसीन हो जाती हैं कि -यथार्थ और कल्पना में फर्क ही नहीं रह जाता। वैसे ही उस अपने को अपनी विरह व्यथा लिखते वक़्त हम उसके कंधे को अपने करीब पाते हैं  जिस पर सर रख कर हम  रोना चाहते हैं,और कही अगर हमारे  दुःख से भरे  आँसू की एक बूँद भी कागज पर टपक पड़ी तो हम से हजारों मील दूर बैठे उस प्रिय का दामन हमारे  आँसुओं से भींग जाता हैं।अगर हमें  उस अपने को उलाहना देना हैं ,रंज जताना है ,नाराजगी या क्रोध जताना हैं तो एक एक शब्दों को लिखते वक़्त हमें ये एहसास और शुकुन भी हो जाता हैं कि -हमने अपना गुस्सा निकल लिया,हमने अपना दुःख जता दिया और हमारे प्रिय ने हमें समझ भी लिया। 
   पत्र लिखते वक़्त के एहसासों से इतर वो लम्हा होता है जब वो बंद लिफाफा किसी तक पहुँचता है।हृदय की बेचैनी के कारण  धड़कने उस पल भी बढ़ी होती हैं। हाथ में वो लिफाफ पकड़ते ही मन सेकड़ो ख्याल बुनने लगते हैं " क्या लिखा होगा,कैसे लिखा होगा ,मेरे  प्रिय ने अपने दिल के जज्बातों को ?पत्र पढ़ते वक़्त उन दो दिलों के एहसास एक अनदेखे तार से स्वतः ही जुड़ जाते हैं।  
   " चिठ्ठी " हमारे  एहसासों का पुलिंदा होता था जिसमें हम हमारे दिल के छोटे- छोटे,सुख -दुःख ,विरह -वेदना का भाव समेट लेते थे।हम उसे सालो सहेज कर भी रखते थे। वो एहसास आज के जमाने के "वीडियो- कॉलिंग" में भी नहीं। उस " चिठ्ठी "के दौर में दूर होकर भी पास होने का एहसास करती थी "चिठ्ठी" और आज पास होकर भी यानि आवाज सुनकर और सूरत देखकर भी दिल में दुरी बढ़ती जा रही हैं। 

शनिवार, 23 मई 2020

" अगर मैं कहूँ "


" तू कहे तो तेरे ही कदम के मैं निशानों पे चलूँ रुक इशारे पे "

   तुम्हारे क़दमों का अनुसरण करते हुए.....तुम्हारे पीछे- पीछे हमेशा से चलती रही हूँ....चलती  रहूंगी आखिरी साँस तक..... बिना कोई सवाल किये.....बिना किसी शिकायत के .....रास्ते चाहें पथरीले हो या तपती रेगिस्तान के...। तुम्हे तो मुझे आवाज़ देने की भी जरूरत नहीं पड़ती....ना ही पीछे मुड़कर देखने की .....क्योँकि तुम्हे इस बात का यकीन हैं कि -" मेरे पास कोई और दूसरी राह तो हैं नहीं.... जाऊँगी कहाँ.....तुम्हारे पीछे ही मुझे आना हैं....खुद को तुम्हे समर्पित जो कर चुकी हूँ.....मैं तो सदियों से यही करती आ रही हूँ....करती भी रहूंगी.....। "

     मगर,  आज ना जाने क्युँ तुमसे कुछ सवाल करने का दिल कर रहा हैं ...मुझे संदेह भी हैं कि-  क्या तुम मेरे सवालों का जबाब दे पाओगें ?  संदेह होने के वावजूद एक बार तुमसे पूछना तो जरुरी हैं न.....अगर मैं कहूँ कि
" क्या तुम भी कभी मेरे लिए ये कर सकोगे ....क्या हमेशा आगे चलने वाले "तुम" कभी मेरे  पीछे भी चल सकोगे....क्या तुम मेरे पदचिन्हो का अनुसरण कर सकोगे ....मैं हर पल तुम्हारी परछाई बन तुम्हारे पीछे रही हूँ.....क्या तुम कभी मेरी परछाई बन पाओगे ....? "  तुम्हारा  "अहम" तुम्हे करने देगा  मेरा अनुसरण....  हमेशा से तुम मुझे मंदबुद्धि समझते आये हो.....हमेशा तुम्हे ये लगा कि - मुझे ही तुम्हारे सहारे की जरूरत हैं....जबकि सहारा मैं तुम्हे देती हूँ...तुम्हारे पीछे- पीछे चल....मैं तुम्हे गिरने से बचाने की कोशिश करती रही हूँ .....
   तुम्हे लगता हैं कि -" तुम मेरा भरण पोषण करते हो जबकि इसमें आधी भागीदारी मेरी भी होती हैं...तुम्हे  लगता हैं तुम मुझे संभालते हो.....जबकि दुनिया भर की थकान को दूर करने के लिए तुम्हे मेरे आँचल के पनाह की जरूरत होती हैं.....मानती हूँ तुम अपने आँसू छुपा लेते हो.....मुझमे वो क्षमता नहीं....मेरे आँसू पलकों पर झलक आते हैं.....फिर भी बिना तुम्हारे कहे ही.....मैं तुम्हरे दर्द को अपने सीने में महसूस करती हूँ और तुम्हारे दर्द पर अपने स्नेह का मरहम लगाकर तुम्हारे होठो पर हँसी लाने की कोशिश करती हूँ...।
    बस पूछना चाहती हूँ - "क्या मैं कभी तुमसे आगे जाना चहुँ तो तुम मेरे पीछे-पीछे आ सकते हो...यकीन मानो आगे बढ़कर भी मैं तुम्हारी  राहो के कांटो को चुनकर, तुम्हारी राह को निष्कंटक ही करुँगी....बस,आगे बढ़ते हुए कभी जो "मैं "   डगमगाऊं तो क्या तुम मुझे संभाल लोगे....आगे-आगे चलने का ताना तो ना दोगें.....?

शुक्रवार, 22 मई 2020

" श्रमवीर "



 " अपनी मेहनत " या यूँ कहे कि -" अपनी मानवीय शक्ति " को बेचकर धन अर्जित करने वालो को " मजदुर या श्रमिक"  कहते हैं। धनवान धन लगता हैं ,बुद्धिमान बुद्धि,  मगर यदि श्रमिक अपना श्रम  प्रदान ना करे तो संसार में कोई भी सृजन असम्भव हैं।ये श्रमिक हमारे समाज के वो अभिन्न अंग हैं जिनके बिना ये बुद्धिजीवी और लक्ष्मीपुत्र  एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। फिर भी, इन श्रमिकों का  सबसे ज्यादा निरादर ये वर्ग ही करता  रहा हैं। निरादर ही नहीं शोषण करता रहा हैं।
   अब तक समाजशास्त्र में ये सब पढ़ा था, छोटी -मोटी  घटनाएं भी देखी  थी मगर इन दो महीनों में जो कुछ देखा- सुना वो कल्पना से परे हैं। जिनके बलबूते आपने इतनी बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी कर ली ,कितने कल -कारखानों के निर्माण में इनके श्रम को आपने चूस लिया ,   बिषम परिस्थितियों के आने पर इन मेहनतकशों को  क्या  आप  दो जून की  रोटी भी नहीं खिला सकते थे ?  अगर ये उद्योगपति अपना- अपना फ़र्ज़ निभाते और इन मजदूरों को अपने कारोबार का अभिन्न हिस्सा समझते , वो इस बात का एक बार भी मनन करते कि -"कल को फिर से  इनकी जरूरत हमें पड़ेगी ही , इसलिए हमें इनके हितो की रक्षा करनी ही चाहिए " तो शायद ये श्रमिक सरकार के द्वारा व्यवस्थित सेवा के द्वारा,  अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सुरक्षित अपने घर तक जा सकते थे और परिस्थिति बदलने पर ख़ुशी ख़ुशी अपने मालिक के पास वापस आ जाते।
 
    मगर जिनके सर पर  छत भी ना हो और पेट की अग्नि जिन्हे जला रही हो उन्हें  तपते रास्ते पर नगें पाँव चलना, रेल की पटरियों को अपना बिछावन बनाना, रास्ते पर दिए गए दान स्वरूप मिले चंद दानों से अपनी क्षुद्धा की अग्नि को शांत करना,  यकीनन  ज्यादा सहज लगा। हाँ,  ये अलग बात हैं कि -उनके इस हाल को देख मानवता कही मुँह दिखने लायक नहीं रही, अपने  सृजनकर्ताओ  के ऐसे अपमान पर प्रकृति और ज्यादा कुपित हुई पड़ी हैं ,तभी तो कही भूकंप ,कही शैलाव के रूप में अपना क्रोध बरपा रही हैं।

   वो तो  श्रमवीर हैं ,कर्मवीर हैं ,जिनकी हड्डियां धुप में तपी हैं, उन्हें कौन डरा सकता हैं ,जो झूठे आश्वासनों के  शब्दजालो के  बंधन को कई बार तोड़ चुके हैं, उन्हें कौन बाँध सकता हैं ,वो तो निकल पड़े हैं ,बे-खौफ अपनी मंज़िल की ओर ,रास्ते में किसी साथी की मौत की कीमत भी वो बड़ी हिम्मत से चुका देंगे और सीने में उसके बिछड़ने का ग़म  लिए बाकी बचे अपने प्यारों को ले, फिर आगे बढ़ जायेगे। क्योँकि प्रकृति ने उन्हें और कुछ दिया हो या ना दिया हो लेकिन सब्र करना ,मेहनत करने की क्षमता और हिम्मत बेहिसाब दे रखा हैं। अगर कही किसी रोज ऐसा हो गया कि -प्रकृति ने उन्हें ,ये दृढ़निश्चय  भी दे दिया कि - "भूख से मर जायेगे मगर अपनी जन्मभूमि का साथ ना छोड़ेगे और इन महानगरों की ओर जहां मानव भी  पथ्थर के होते हैं वहां पलायन नहीं करेंगे फिर क्या होगा ? " ये श्रमवीर  तो जैसे- तैसे अपना गुजरा कर लेंगे , जो कि उन्हें अच्छी तरह  आता है ,  मगर इन उद्योगपतियों का क्या होगा?
   इतना तो तय है  कि - ये भूख ,ये अपमान ,ये चोट ,ये दर्दनाक सफर हर एक मुसाफिर की  कई पुश्तें भुलाये नहीं भूल पायेगी। अगर किसी ईमानदार इतिहासकार की आत्मा जाग उठी और उसने इन " श्रमवीरों " के साथ हुए इस अमानवीयता को उनके इस दर्दनाक सफर की व्यथा -कथा को यथार्थ रूप में अंकित कर दिया तो इन   बुद्धिजीवियों  और लक्ष्मीपुत्रों  की  कई पुश्तों  के माथे पर कलंक का ऐसा कालिख लगेगा जो आसानी से नहीं धुलेगा।  हम  पूरी तरह से सरकार को दोषी करार नहीं दे सकते , जितना  सरकार दोषी हैं उनसे कही ज्यादा वो उद्योगपति  दोषी हैं जो अपने साथ काम कर रहे कामगारों पर थोड़ी सी दयाभाव भी नहीं दिखा सकें।  बड़े-   बड़े मालिकों की बात छोड़े , क्या मध्यमवर्गी और उच्च मध्यमवर्गी भी  अपने घरों  में काम करने वाली  बाई , चौकीदार ,सफाई कर्मचारी तक पर भी दयाभाव दिखा पा रहे हैं? अगर हाँ ,तो उनमे मानवीयता जिन्दा हैं और उन्हें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं।
  आज  इन सब हालातों  को देखते हुए , मेरे भीतर भी बहुत ग्लानि होती हैं - " हम निम्न मध्यमवर्गी लोग आज के हालात में खुद को ही नहीं संभाल पा रहे हैं तो इनकी क्या मदद करेंगे और कैसे करेंगे ?बस उनके प्रति एक संवेदना भर दिखाकर चंद पंक्तियां  लिख देते हैं।  मजदुर तो हम निम्न मध्यमवर्गी भी हैं मगर फर्क ये हैं कि- हम कागज कलम लेकर बड़े हुए हैं और उसी से अपना गुजारा करते हैं। यदि हम एक मजदुर साथी को  एक वक़्त का भोजन भी करा सकें,  तो शायद हम खुद को क्षमा कर सकें।

   

"सूखने लगे है प्राकृतिक जलस्रोत"

"विश्व जल दिवस" 22 मार्च पर कुछ विशेष....      हमारा देश "भारत" अनेकों नदियों एवं पर्वतों की भूमि है।कहते हैं ये सात महा...