शनिवार, 28 मार्च 2020

" काजल से अथाह प्रेम "


" काजल " गोरी के आँखों को सजाये  तो उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देता हैं.... नन्हे शिशु के नैनो में  जब माँ काजल भर के उसकी बलाएँ लेती हैं तो ....वही काजल उस शिशु के लिए नजरबटु बन शिशु की हर बुरी नजरों से रक्षा करता है लेकिन......वही काजल जब दामन पर लग जाएँ तो दाग बन जाता है।
   हमारे भारतीय संस्कृति के  श्रृंगार में काजल का एक खास स्थान है। यदि आँखें काजल बिना सुनी हो तो श्रृंगार अधूरा ही रहता है। काजल ने  गोरी के आँखों में ही अपनी  खास जगह नहीं बनाई बल्कि कवियों की कविताएं हो या गीतकारों के गीत या शायरों की शायरी काजल ने सबके दिलों और कलम पर भी अपना हक जमा रखा है।

    हर लड़की की तरह मेरा  भी काजल से गहरा संबंध रहा है। "काजल" ने मुझे मेरे जीवन का बहुत बड़ा  पाठ पढ़ाया है। अब आप सोचेंगे  कि - "काजल" क्या सीख दे सकती है। दे सकती......इस जहाँ कि... हर एक सय आपको कोई ना कोई सीख जरूर देती है। बात मेरे बचपन की है जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। पापा मेरा एडमिशन शहर के सबसे अच्छे स्कुल में कराना चाहते थे। मैं एडमिशन के लिए गई... वहाँ मैं टेस्ट में पास भी हो गई। लेकिन क्लास ज्वाइन करने से पहले प्रिंसिपल ने कहा कि -"मुझे स्कूल बिलकुल साधारण भेष -भूषा में ही आना होगा"...बाकी सब तो ठीक था लेकिन,  मुझे "काजल" भी नहीं लगाना था....ये मेरे लिए बहुत मुश्किल था। क्योंकि मेरी माँ खुद भी कभी भी बिना काजल के नहीं रही थी और मुझे भी उस उम्र तक याद नहीं कि.. एक दिन भी मैं बिना काजल लगाये रही हूँ। खैर ,स्कूल जाना शुरू हुआ बिना काजल के...मगर पहले ही दिन से मेरी आँखों में  सूजन शुरू हो गई ....दो दिन गुजरे ...आँखों से पानी आना शुरू हो गया और तीसरे दिन तो मेरी आँखों ने  काजल की जुदाई को बर्दास्त करने से इंकार ही कर दिया....चौथे दिन , वो लाल -पिली हुई और पाँचवे दिन नाराज होकर पलको ने अपना पट बंद ही कर लिया। साथ ही साथ मेरा स्कूल जाना भी बंद हो गया। हार कर माँ ने आँखों का काजल से मिलन  करा ही दिया और फिर जैसे ही ....दोनों का मिलन हुआ आँखों की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा और अगले दिन ही वो सारी नाराजगी भूल गई और... अपना पट खोल दी।
    माँ -पापा समझ चुके थे कि -मेरी आँखें काजल की जुदाई बर्दास्त नहीं कर पाएंगी सो ...उन्होंने प्रिंसपल के पास जाकर मेरी आँखों की व्यथा-कथा सुनाई और उनसे मिन्नत की कि-- मुझे काजल लगाकर आने की इजाजत दे दे ....मगर प्रिंसिपल को मेरी आँखों पर जरा भी दया नहीं आई.... वो किसी भी हाल में अपने स्कूल का नियम नहीं तोड़ सकती थी।माँ एक महीने  तक बार-बार  प्रयास करती रही कि -मेरी आँखों को काजल के बिना रहना सीखा सकें मगर.... वो असफल रही  लिहाज माँ -पापा ने ही हथियार डाल दिए और मेरा एडमिसन किसी और स्कूल में कराया जहाँ ...उन्हें मेरी आँखों को काजल से मिलने से कोई आपत्ति नहीं थी।

    इस घटना से मुझे बेहद तकलीफ हुई ...मेरा भी सपना था उस बड़े स्कूल में पढ़ने का मगर मेरी आँखों का काजल से अथाह प्रेम ने मेरा वो सपना तोड़ दिया। मैंने उसी दिन तय कर लिया कि.. इनका संबंध तो तोड़कर ही रहूँगी और उसी दिन... उस छोटी उम्र में ही मैंने ये भी प्रण लिया कि -"मैं खुद को कभी भी ,किसी भी चीज की ..किसी भी आदत की आदि नहीं बनाऊँगी।"  मैंने धीरे-धीरे आँखों को काजल से दूर कर दिया और ऐसा दूर किया कि - चौथी कक्षा के बाद आज तक मेरी आँखों ने  काजल को नहीं देखा।

   और इस तरह ....काजल ने मुझे जीवन का एक बड़ा सबक सिखाया - " कभी भी किसी चीज के आदि मत बनो ,किसी से इतना मत जुडो कि ---" उससे अलगाव बर्दास्त नहीं कर सको " हमें नहीं पता कब... हम से हमारी कोई प्यारी चीज छीन ली जाएँ या हम उसे छोड़ने पर मजबूर हो जाएँ। 


शुक्रवार, 27 मार्च 2020

" मन और मानवता "


 मानव " हाड़ -मांस- रक्त से निर्मित सृष्टि की सबसे नायब कृति और " मन "  मानव शरीर का वो अदृश्य अंग जो दिखाई तो नहीं देता मगर होता सबसे शक्तिशाली हैं।मानव का मन ही समस्त शक्तियों का स्त्रोत होता हैं। काम-, क्रोध लोभ- मोह, ईर्ष्या -द्वेष, पाना- खोना, हँसना- रोना ये सारे कर्म मन ही करता हैं। 

मन ही देवता, मन ही ईश्वर
मन से बड़ा ना कोए
मन उजियारा जब जब फैले
जग उजियारा होये
और  " मानवता " यानि " मानव की मूल प्रवृति "   प्राणी मात्र से प्रेम  ,दया- करुणा,परोपकार, परस्पर सहयोगिता ही मानवता हैं और  विश्व में प्रेम, शांति, व संतुलन के साथ-साथ मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए मनुष्य में इन मानवीय गुणों का होना अति आवश्यक है। " जिस मन में परमात्मा का वास हो वहाँ मानवता का वास स्वतः ही हो जाता हैं।" मानवता में ही सज्जानता निहित हैं। मानव होने के नाते जब तक हम दूसरो  के दु:ख-दर्द में साथ नहीं निभाएंगे तब तक ये जीवन सार्थक नहीं हैं और हम मानव कहलाने के योग्य भी नहीं हैं।वर्तमान में हमने मानवता को भुलाकर अपने आप को जाति-धर्म, उच्च -नीच ,गरीब-अमीर जैसे कई बंधनों में बांध लिया हैं। हमारे अति पाने की लालसा और स्वार्थ में लिप्त हमारी बुद्धि ने हमारे मन को विकार ग्रस्त कर दिया हैं.और हमने  इन सभी मानवीय गुणों से खुद को रिक्त कर लिया हैं। 


और आज मानवता खोने के कारण ही पूरा विश्व त्राहिमाम कर रहा हैं। एक देश की लापरवाही ने पूरी मानव जाति को संकट में डाल रखा हैं। कोई भी अविष्कार यदि प्रकृति , मानव और मानवता के भले के लिए हो तो  हमारी उपलब्धि हैं मगर उनका ये अविष्कार मानवता के हनन के लिए था। मगर कहते हैं न कि -" प्रत्येक इफेक्ट का एक साइड इफेक्ट भी होता हैं। " इस भयावह महामारी में डॉक्टर ,नर्स ,पुलिसकर्मी और सफाईकर्मियों की  एक एक बलिदान की घटना जो सुनने को मिल रहे है तो यकीन हो रहा हैं कि -" आज भी मानवता जिन्दा हैं "बिलकुल मृत नहीं हैं बस आवश्यकता हैं उसे फिर से सींचने की।और ये वही वक़्त हैं जब हमें प्रकृति ने डराकर, सचेतकर मानवता को सीचने का  अवसर दिया हैं ,वो कह रही हैं  -" अब भी वक़्त हैं सम्भल जाओं ,वरना मैं तुम्हारा समूल नाश करने से नहीं चुकूँगी। 
" कोरोना " हमसे कह रही हैं -करो- ना ( नहीं करो ) यानी 
प्रकृति का हनन नहीं करों ,
संस्कृति -सभ्यता का हनन नहीं करों 
बेजुबानो का हनन नहीं करों 
आवश्यकता से अधिक के लालच में आकर परिवार का हनन नहीं करों 
मानवता का हनन नहीं करो 
इस धरा से प्रेम ,विश्वास ,भाईचारा का हनन नहीं करो 
कोरोना कह रही हैं ---एक बार सोचो --मानव से मानव का कितना गहरा संबंध हैं --एक मानव ने पुरे विश्व में मुझे फैला दिया ---सिर्फ छूकर ---मैं फैली हूँ सिर्फ छूने से। ये बता रही हैं मानव का मानव के लिए क्या अहमियत हैं। हम लाख खुद को परिवार से समाज से अलग कर ले लेकिन --जैसे पानी पर लकीरे नहीं खींची जा सकती---वैसे ही मानव से मानव का दूर होना सम्भव नहीं हैं---लकीरे खींचकर देश अलग हो जाते हैं मानव नहीं। अपने  अच्छे बुरे कर्मो से जब एक देश का मानव दूसरे देश को भी चपेट में ले सकता हैं तो हमारे कर्मो का  हमारे परिवार, हमारे समाज और हमारे देश  पर कितना गहरा असर होता होगा । " कोरोना " समझा रही हैं --मानव से मानव की श्रृंखला सिर्फ स्पर्श मात्र से जब रोग फैला सकती हैं तो क्या प्रेम ,अपनत्व ,भाईचारा नहीं फैला सकती। मगर आज  मानवता की सबसे बड़ी सेवा यही  होगी कि -" हम खुद को भी इस महामारी से सुरक्षित रखे और अपने परिवार ,समाज और देश को भी। "









शनिवार, 21 मार्च 2020

" मिलावट अच्छी हैं "

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    समाज के चंद लोगो ने अपने स्वार्थ में लिप्त होकर हम्रारे जीवन के उन सभी मुलभुत  जरुरत की चीजों में  अपनी लालच की मिलावट करते गए और पूरा समाज आँखें मूंदे इन मिलावट को बर्दास्त करता रहा।अनाज में रसायन ,फल और दूध  में रसायन ,सब्जियों में रसायन मिलते रहे और हम देखते ही नहीं रहे बल्कि उसका सेवन भी बिना हिचके करते रहें। कर भी क्या सकते थे ?खाना पीना बंद तो नहीं कर सकते थे। भोजन ही नहीं बाजार में नकली दवाओं का भी सम्राज्य फैल गया मगर हम चुप रहें ,हमें क्या ? यहाँ तक कि -जीवित रहने के लिए सबसे जरुरी हवा और पानी जिसे प्रकृति ने हमें  बिना मोल दिया था उसमे भी हमने जहर मिला दिया और आज मिलावट का रोना भी हम ही रो रहे हैं।आज .. हद तो तब हो गई, जब एक देश की बेवकूफी और लापरवाही ने सम्पूर्ण विश्व के वातावरण में चिंता ,डर ,खौफ और मौत की मिलावट कर दी हैं।क्या  अब भी हम नहीं जागेंगे ?  विज्ञान और वैज्ञानिकों ने खुद को भगवान ही समझ रखा हैं मगर -" प्रकृति कभी भी किसी को भी नहीं बख्शती.....हाँ ,जैसे जौ के साथ घुन भी पीसते हैं वैसे ही हम भी उनके गुनाहों में पीस रहें हैं ...

    आज "  मिलावट " का सम्राज्य अपनी सारी  हदों को पार कर चुका  हैं और अब तो हम इस मिलावट के आदि भी  हो गए हैं।  मिलावट करने की प्रवृति हम में इस कदर समाहित हो गई हैं कि हमें  खुद ही आभास तक नहीं होता कि -हम कब - कब, कहाँ -कहाँ, कैसी- कैसी मिलावट कर जाते हैं। हमने अपने धर्म ग्रंथो  में मिलावट की ,अपने संस्कारों में मिलावट की ,अपनी स्नेह और सहयोग में मिलावट की, यहां तक कि - आज ममता भी मिलावटी हो गई हैं। कितना गिरेंगे, कहाँ तक गिरेंगे ,कही रुकेंगे भी या नहीं ? 
    हमारी हर गलती हमे सबक भी सिखाती हैं मगर सबक सीखना कौन चाहता हैं ?  जब पहली बार प्रगति के नाम पर हमारे खाध समाग्रियों में मिलावट शुरू की गई होगी, उस वक़्त सभी आँखें मूंदे ना बैठे होते तो आज भोजन -हवा -पानी शुद्ध होता। मगर किसी ने उन्हें रोकना टोकना तो छोड़े लालच में आकर खुद भी उसी मिलावट का हिस्सा बनते चले गए।हमें ये समझ ही नहीं आया कि -इसी भोजन -पानी का सेवन तो हम और हमारा परिवार भी तो करेंगा ।  काश ,जब अधोगिकरण के नाम पर शुरू हुई इस"  मिलावट " के खिलाफ उसी वक़्त किसी ने भी आवाज़ उठाई होती तो आज हालात ऐसे नहीं होते।  आज इन मिलावटी खाद्य समाग्रियों का सेवन करते करते जब हम आपने आप को रुग्ण कर बैठे हैं तो ऑर्गेनिक फ़ूड की तलाश में निकल रहें हैं। 

     जब पहली बार आधुनिकता के नाम पर हमारे संस्कारों का हनन होना शुरू हुआ ,काश किसी ने उसका विरोध कर उन्हें वही रोक दिया होता। आज जब पूरा विश्व इस कोरोना नामक महामारी के चपेट में आ चूका हैं तब हम सबको अपने उन्ही  संस्कारों का महत्व  समझ आने लगा हैं जिन्हे हम दकियानूसी बताते थे। आज हमें  हमारी हर एक खूबी दिखाई दे रही हैं ,मगर कब तक ,ये जागरण भी तो क्षणिक ही हैं जैसे ही इस  महामारी की हवा गुजर जाएगी हम फिर  से सब भूल जाएंगे।ऐसे जागरण को हम "श्मसान जागरण  " का नाम दे सकते हैं। श्मसान में जाने पर थोड़ी देर के लिए  सभी  को ये एहसास  हो ही जाता हैं कि -ये जीवन नश्वर हैं ,इससे मोह नहीं होना चाहिए " मगर श्मसान से बाहर आते ही फिर वही मोह -माया और वही जीवनशैली बन जाती हैं। 

     हम इंसान हैं तो हम से गलती होती है और होती रहेगी ,हमारा स्वार्थी मन हमसे बार बार गलतियाँ करवाता ही रहेगा मगर समझदार वही हैं जो गलतियों से सबक सीखें और फिर उसे ना दोहराए। वो कहते हैं न -" जब जागों तभी सवेरा " जब तक नींद में थे कोई बात नहीं जब जाग गए तब तो विस्तर पर पड़े रहने की गलती ना करे। वैसे तो कोरोना नामक बिपदा प्रकृति जन्य नहीं इसे हम मानव ने ही बुलाया हैं मगर फिर भी प्रकृति माँ अपना फर्ज पूरा कर रही हैं वो इस बिपदा में भी हमें जगाना चाहती हैं, हमें सचेत करना चाहती हैं ,हमें रोकना चाहती हैं ,हम से मिन्नते कर रही हैं -" अब तो मेरे महत्व को समझो ,मेरा रूप और ना बिगड़ों, अपनी मुलभुत चीजों में जहर घोलना बंद करो। "  अब तो हम अपने देश ,अपनी संस्कृति अपने संस्कारों को पहचाने  उसे  अहमियत देकर उसका मान करना  सीखें। क्या हम अब भी नहीं जागेंगे ? अब भी देर नहीं हई हैं अपने भोजन -पानी - हवा में ,अपने विचार- व्यवहार- संस्कार में पश्चिमी सभय्ता की मिलावट करना बंद  करें।

    अगर मिलावट करनी ही  हैं तो ऐसी मिलावट करे - " जैसे पानी में शक़्कर ,दूध में दही " ताकि उसका स्वरूप भी बदले तो भी वो फायदेमंद ही रहे। अब वक़्त आ गया हैं -"  अब हमें मिलावट करनी ही होगी -प्रकृति में ऑक्सीजन की ,खाद्य समग्रियों में प्रकृतिक खाद की ,परिवार में संस्कार की ,समाज में सदभावना की ,देश में भाईचारे की और सबसे जरुरी प्रेम में परवाह की ,ताकि हम गर्व  से कहें -" मिलावट अच्छी हैं "




शुक्रवार, 20 मार्च 2020

" आखिरी साँस "

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      " मैं तुम्हारे साथ जीवन जी नहीं पाऊँगी तो क्या हुआ... मेरा वादा हैं तुमसे मरूँगी तुम्हारी ही बाँहों में .....आखिरी वक़्त में ... जब मैं तुम्हे आवाज़ दूँगी तो तुम आओगे न ......."  .कहते हुए मेरे होठ थरथरा रहे थे.....   आवाज़ लड़खड़ा रही थी .... " हाँ " में सर हिलाते हुए उसने कहा था.... तुम्हारी  उस आखिरी आवाज़ का मैं  आखिरी साँस तक इंतज़ार करूँगा..... फिर हम दोनों हमेशा हमेशा के लिए जुदा होकर अपने अपने कर्मपथ पर निकल पड़ें थे और फिर......

    इस कठिन कर्मपथ पर चलते हुए 35 साल गुजर गए ..... और आज मैं जीवन के आखिरी लम्हों से चंद कदमो के दुरी पर खड़ी हूँ।  मेरा तन और मन दोनों जीवन के इस लम्बे सफर को तय करते करते थक चूका हैं .....
रोगग्रस्त हो चूका हैं....... मैं विस्तर पड़ पड़ी हूँ .... अपने ही कहे उन शब्दों को , उससे किये अपने वादें को याद कर तड़प रही हूँ...... हर एक साँस में कश्मकश हो रही हैं...  अपने मर्यादाओं के दायरे को लांघकर.....कैसे आवाज़ दूँ उसे ..... अगर हिम्मत जुटाकर मैं आवाज़ दे भी दूँ तो..... ..क्या वो आ पाएगा .....अपनी घर -गृहस्थी 
और समाज के बंदिशों को तोड़कर .......?

      मेरी अंतरात्मा की तड़प बढ़ती जा रही हैं..... मेरा शरीर धीरे -धीरे मेरा साथ छोड़ता जा रहा हैं.... एक एक साँस को सहेजते हुए मैं उसके आने की राह देख रही हूँ ...उसे आवाज़ तो नहीं दे पाई हूँ फिर भी ...आस लगाए बैठी हूँ.... वो आएगा ,जरूर आएगा ......बस ,मुझे उसके  इंतज़ार में अपने साँसों  को थामे रखना हैं ....बस, ये काली स्याह रात गुजर जाए .......अगर सुबह तक वो नहीं आया तो ....एक बार उसे पुकारूँगी जरूर..... मर्यादाएं टूटती हैं तो टूट जाए ...
    
    भोर की पहली किरण के साथ मेरी नजर चौखट पर जा टँगी ....तभी दरवाज़े पर एक साया सा दिखा...... लगा अब तो ये मेरा आखिरी पल ही हैं ....शायद यमराज आ ही गए ....वो कहते हैं न कि-- आखिरी पल, एक साया के रूप में आता हैं .....धीरे धीरे वो साया मेरे करीब आता जा रहा था  ...... मगर ये क्या उसे देख मुझे भय नहीं लग रहा...... मुझे तो सुकुन मिल रहा हैं ......मेरी तरफ बढ़ते उसके हर एक  कदम के साथ मेरे जिस्मो -जान में ख़ुशी की तरंगे उठ रही हैं .....अब वो साया मेरे बिलकुल करीब खड़ा था.... मेरी आँखों में जैसे नूर आ गया .... तुम आ गए ....  उसकी तरफ अपनी बाँहे फैलते हुए .मैंने कहा .....
      उसने फिर से उसी  चिरपरिचित अंदाज़ में " हाँ " में सर हिलाया और  मेरे सरहाने आकर बैठ  गया ....मेरे सिर को उसने अपने गोद में ले लिया..... उसके आँखों से टप- टप मोती टपके और वो मेरे होठो से लगते हुए मुख में जा गिरे.....मेरे मुख में  अब पवित्र गंगाजल की बुँदे आ गिरी  हैं ..... मेरे मोक्ष का पल अब मेरे करीब हैं। मेरी नजर उसके चेहरे पर टिकी हैं ....आँखों से बहते आँसूं उसके स्नेह से अभिभूत हो ,उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहें हैं .....आँखे उसे जी भर के देखना चाहती हैं .....उसके चेहरे को ,उसके रोम रोम को समेट कर अपनी अंतरात्मा में  समा लेना चाहती हैं मगर ......ये क्या मेरी दृष्टि तो धुंधली हुई जा रही हैं .....यकीनन अब मेरी साँसे भी मेरा साथ छोड़ना चाह रही हैं पर....... अब गम नहीं हैं... मैंने वो पल पा लिया हैं .... जिसके लिए इतनी लम्बी तपस्या की थी ......मैंने उसे नमन करते हुए सुकुन भरी अपनी आखिरी साँस ले ली...
वो मौत थी या मेरी जिन्दगी........ ?
नहीं पता .....








शनिवार, 14 मार्च 2020

" भाईचारा "



" भाईचारा " अर्थात जहां... भाइयों के जैसे आचार -विचार और व्यवहार हो। या ये भी कह सकते हैं कि -" अपने सुख दुःख को साझा करने वालों का समूह  " वैसे भाईचारे की व्याख्या तो पारिवारिक संबंधों के दायरे में ही की जाती हैं लेकिन हमारे देश में इसकी झलक  रक्त संबंधों से परे  जाति  और धर्म से भी ऊपर देखने को मिलती थी । तभी तो भारत देश की प्राचीन  अवधारणा ही हैं " वसुधैव कुटुंबकम "अर्थात सारा विश्व ही एक परिवार हैं। मगर इस देश का दुर्भाग्य कि -आज विश्व भाईचारा तो दूर की बात हैं परिवार से  भी भाईचारा  शब्द लुप्त होता जा रहा हैं।
   मैं  तो सौभाग्यशैली रही हूँ  कि -मैंने  अपने परिवार का वो दौर भी देखा हैं..... जहां पर तीन दादा और उनके तेरह बच्चे [यानि हमारे चाचा और बुआ ] सब प्रेम और भाईचारे के ऐसे डोर से बंधे थे कि -मुझे दसवीं में जाने के बाद भी ये ज्ञात नहीं हुआ था कि - कौन मेरे सगे  दादा -दादी ,बुआ -चाचा हैं और कौन चचेरे । हम सिर्फ उन्हें बड़े दादा ,छोटे दादा ,मंझिले दादा के नाम से ही जानते थे, इतना प्यार और अपनत्व था और आज.... सब कुछ बिखर चूका हैं। हमारे परिवार का सौभाग्य हैं या पुराने संस्कार जो आज कम से कम हमारे सगे भाई तो एक साथ हैं......और घरों में तो ये भी देखने को नहीं मिलता।
     आँखें बंद करके एक पल को सोचती हूँ तो लगता हैं ये तो कल ही की बात हैं.... जहां परिवार तो छोड़े... आस -पड़ोस में भी जाति और धर्म से ऊपर का  भाईचारा था। हमारे कलोनी में हिन्दू -मुस्लिम और ईसाई तीनो धर्म के लोग रहते थे और..... वहाँ भी हमें सबका घर अपना ही घर सा लगता था। हर त्यौहार मिल जुल कर मनाना ,कोई भी दुःख या बिपदा आए सब का एक जुट हो जाना..... ये सब अब एक सपना सा लगता हैं।
     आपको अपनी एक आपबीती सुनती हूँ -हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम इंजीनियर का  परिवार रहता था ,उन को एक बेटा और एक बेटी थी और हम दो भाई और दो बहन..... हमारे दोनों परिवार में बहुत ही ज्यादा स्नेह था ,हम छ हर वक़्त एक साथ रहते थे ......हमें कभी एहसास ही नहीं होता था  कि -हम दो धर्म के लोग हैं। कुछ दिनों बाद उनका ट्रांस्फर दूसरे शहर में हो गया। लेकिन हमारी दोस्ती टूटी नहीं....हमारा मिलना जुलना होता रहा। [ये दोस्ती आज तक कायम हैं ,उनकी बेटी मेरी सबसे प्रिय सहेली आज भी हैं ]
    92  की बात हैं जब बाबरी मस्जिद कांड हुआ था देश में चारो तरह दंगे हो रहे थे। मेरी सहेली का भाई [ जो मेरा भी प्रिय भाई हैं मैं उसे राखी भी बांधती हूँ ]  जो उस वक़्त 17 -18 साल का था ,उसे किसी जरुरी काम से मेरे शहर आना पड़ा। दिन में वो अपने सारे काम निपटा कर दोस्तों से मिलजुल कर जब वो मेरे घर आने को हुआ तो.... उसका एक खास दोस्त जो मुस्लिम था ....और उसे बहुत मानता था उसने कहा -" शहीद तुम रात बिताने वहाँ  जाओगे ...वो लोग तो हिन्दू हैं ...तुम्हे डर नहीं लग रहा हैं ...मेरी मानो तो तुम मेरे पास ही रूक जाओं " .शहीद ने जबाब दिया -" वो हिन्दू या मुस्लिम नहीं हैं वो मेरे चाचा -चाची का घर हैं जहां मेरे भाई -बहन मेरा इंतज़ार कर रहे हैं ....उनसे सुरक्षित जगह मेरे लिए कोई हो ही नहीं सकता " ये कह कर वो मेरे घर रुकने आ गया। घर आने पर वो मेरी माँ से लिपटकर बोला -"देखो ना चाची, सब कैसी बातें कर रहे थे... मुझे आपके पास आने से रोक रहे थे.... दंगे हुए हैं रश्ते तो नहीं बदले "
    ये था उस दौर का भाईचारा और आज भाई ही भाई का दुश्मन बना हुआ हैं। ऐसा ना हो कि -प्यार ,बंधुत्व ,भाईचारा  जैसे शब्द ही डिक्शनरी से लुप्त हो जाए। इस शब्द और इसके आस्तित्व को संभालना सहेजना और आने वाली अगली पीढ़ी तक इसे पहुंचना..... अब ये हमारी  पीढ़ी का ही  दायित्व हैं। हमारी लापरवाहियों के वजह से ये लुप्त हुआ हैं तो खामियाजा भी हम ही भुगत रहे हैं और इसका भुगतान भी हम ही करेंगे।

  वैसे इस बार के दिल्ली के दंगे - फसादों ने ये तो साबित कर दिया कि -हमारे नववुवको में विवेक जागृत हो चूका हैं और वो अब धर्म और जाति के नाम पर अपना आपा नहीं खोने वाले।  " वसुधैव कुटुंबकम "वाले संस्कार के बीज अब  भी हमारे भीतर कही न कही बचा हैं.... जरुरत हैं तो  सिर्फ अनुकूल आबो -हवा देकर उन्हें सींचने की....



गुरुवार, 5 मार्च 2020

" कोरोना वायरस "की होम्योपैथिक दवा

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कोरोना वायरस "
आज कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया में हाहाकार मचा रखा हैं ,हर देश की सरकार इससे निपटने की पूरी कोशिश कर रही हैं। आए दिन कोई ना कोई एक नया वायरस आकर हमारे दिलों में दहशत फैला जाता। ये सारे वायरस के फैलने की वजह हमेशा से हमारा गलत खान पान और लापरवाही ही रही हैं और खास तौर पर एक व्यक्ति विशेष की लापरवाही की सजा सब भुगतते हैं। 

कोरोना वायरस क्या हैं ?कैसे फैलता हैं  ?इससे वचाव कैसे कर सकते हैं ?क्या क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए इसके बारे में सोशल मिडिया पर बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध हैं। लेकिन परेशानी ये हैं कि -ये जानकारी सब एक दूसरे से सिर्फ साझा भर कर रहे हैं खुद भी इसका पालन  कर रहे हैं या नहीं ,पता नहीं। 

इसका सफल इलाज होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवा में है। होम्योपैथिक के आर्सेनिक एल्बम 30 में इस वायरस से लड़ने की क्षमता है। यह जानकारी सेवानिवृत्त होम्योपैथिक चिकित्सा अधिकारी एवं आरोग्य भारती के विंध्याचल मंडल विभाग प्रमुख डॉ० गणेश प्रसाद अवस्थी ने दी।इस बात को शशि जी ने भी साझा किया हैं और उनकी बातों से ही मुझे ये प्रेरणा मिली की मैं आप सब से ये जानकारी साझा करूँ। 

मैं खुद एक होमियोपैथिक प्रैक्टिसनर हूँ इसलिए आज मैं आप सब से एक जरुरी जानकारी साझा करना चाहती हूँ। उस पर यकीन कर आप कितना अमल करेंगे वो तो मैं नहीं जानती मगर एक डॉक्टर होने के नाते मैं ये अपना फर्ज समझ रही हूँ कि आप सभी से ये बहुमूल्य जानकारी साझा करूँ। अगर इस पर विश्वास करके आप इसका प्रयोग करेंगे तो यकीन मानिए कोरोना वायरस ही नहीं ,किसी भी तरह के वायरस से आप खुद को और परिवार को सुरक्षित रख पाएंगे। 

आर्सेनिक एल्बम 30 
एकोनाइट नेप 30
 इन्फ्लून्जियम 30 
यूपिटोरियम पर्फ़ 30 
सारी दवाएं Dr.Reckeweg  की होनी चाहिए 

इन चारो दवाओं को बराबर मात्रा में मिलाकर एक अलग शीशी में रख ले। तीन दिन लगातार सुबह खाली पेट इस मिश्रित दवा का दो बून्द सीधे जुबान पर टपका ले। उसके बाद जब तक वायरस फैला हो तब तक सप्ताह में दो बार रविवार और बुधवार को एक बार सुबह में ही लेते रहे। किसी भी तरह का वायरल इन्फेक्शन हो ही नहीं सकता। अगर हो गया हैं तो यही दवा रोग की तेज़ी के अनुसार ,दो दो घंटे के अंतराल पर ले सकते हैं। 

दवा लेते वक़्त सावधानियाँ -
दवा लेने से  आधे घंटे पहले और दवा लेने के आधे घंटे बाद भी कुछ खाना पीना नहीं हैं यानि मुँह में किसी भी तरह का स्वाद नहीं रहना चाहिए। बस इतनी सावधानियाँ बरतनी हैं। 

उम्मीद करती हूँ आप इस जानकारी का लाभ जरूर उठाएंगे। ये दवा पाँच साल तक आप सुरक्षित रख सकते हैं। इस जानकारी को जितना हो सके साझा करें।

अगर आप आर्युवेद को मानने वाले हैं तो ,गिलोय ,तुलसी के पते ,काली मिर्च का सेवन करें। ये भी बहुत लाभदायक हैं। 

बुधवार, 4 मार्च 2020

" बाबुल का आँगन "

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आदरणीया आशा भोसले जी के आवाज़ में वन्दनी फिल्म का एक हृदयस्पर्शी गीत.....

अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन ने लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ 
दिजो संदेशा भिजाय रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...

अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आए रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...

बैरन जवानी ने छीने खिलौने
और मेरी गुड़ियाँ चुराई
बाबुल  मैं थी तेरे नाज़ों की पाली
फिर क्यों हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती
न कोई नैहर से आये, रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल .
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     बचपन में जब भी मैं ये गीत सुनती मेरे भीतर कुछ टूटने सा लगता था ,हिय में एक हुक सी उठने लगती थी और आँखें स्वतः ही बरसने लगती थी। (आज भी ये गीत मुझे रुला देती हैं ) उस वक़्त मेरे लिए ये कल्पना से परे होता था कि -एक लड़की जो अपने बाबुल के आँगन में पली- बढ़ी....भाई -बहनों के साथ खेली -कूदी... उसे उसी आँगन में लौट के आने के लिए बाबुल से ही गुहार लगानी पड़ रही हैं......अपने घर -आँगन , माँ -बाबुल और सखियों के विरह में वो इस कदर तड़प रही हैं । इस गीत के एक- एक बोल मुझे तड़पा जाती  थी  ....और मैं माँ से पूछ बैठती थी - " आपकी शादी भी तो 13 वर्ष के उम्र में ही हो गई थी न और आप बताती हैं कि- दादाजी आपको एक साल तक मयेके नहीं जाने दिए थे ...फिर कैसे रही होगी आप नाना -नानी के बगैर। " मेरी बाते सुन माँ की आँखें भर जाती .....भीगें से स्वर में  बोलती - " उस जमाने में हम सब मजबूर होते थे बेटा   " ....लेकिन मैं नहीं जाऊँगी... अपने पापा को छोड़कर ...कभी नहीं जाऊँगी ...मैं तड़पकर बोल उठती। कैसी ये जग की रीत हैं जहा जन्म लिया वो घर-आँगन  अपना नहीं होता......किसी पराये घर और घरवालों  को अपना बनाकर उसे अपना  सर्वस्व सोप देना .....और पिता का घर पराया कहलाना .....किसने बनाई ये रीत .. किसी और घर भेज दिया वो तो .सह ले ......मगर अपना घर पराया हो जाना ,क्यूँ  ? ऐसे अनगिनत सवाल मेरा बालमन करता रहता और जबाब ना मिलने पर और भी बेचैन हो जाता। 

     मगर जैसे- जैसे बड़ी हुई ये एहसास होने लगा ..इस जग की रीत से मैं भी नहीं बच सकती .. बेटियों को एक ना एक दिन बाबुल का आँगन छोड़कर पी के घर जाना ही होता हैं... तब, ये बाते मुझे बेहद परेशान कर देती ....कैसे जाऊँगी मैं ये घर -आँगन छोड़कर ...जहाँ भाई -बहनों के साथ खेलते- कूदते ,हँसते- हँसाते बचपन और जवानी गुजरा हैं ....इस आँगन को छोड़ ....पापा को छोड़ नहीं जा पाऊँगी। लेकिन वो घडी भी आ ही गई और मुझे भी हर बेटी की तरह जाना ही पड़ा। पर शायद.... मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब बेटी रही हूँ...  साजन के घर जाने के बाद भी मुझसे मेरे बाबुल का आँगन पूरी तरह नहीं छूटा। पापा के नजर में मैं उस आँगन की तुलसी ही रही। 
  
    लेकिन वक़्त गुजरा और एक दिन.... वो दिन भी आ गया जब पापा ही उस आँगन को छोड़कर  हमेशा हमेशा के लिए चलें गए। आज तीन साल हो गए उनको गए हुए.....घर-आँगन  तो वही हैं ....पर उस घर की रौनक चली गई .....उस आँगन की तुलसी उजड़ गई। अब नहीं अच्छा लगता वही आँगन जहा पापा की आवाज़  सुनाई  नहीं  देती। मगर..... आँगन छूटा पापा का साथ नहीं ...वो आज भी हर पल मेरे साथ हैं ....हर घडी अपने होने का एहसास करा ही जाते हैं ....जब उदास होती हूँ आँसू पोछते हुए ,घबराती हूँ तो हिम्मत बढ़ाते हुए ,जब परेशान होती हूँ तो ढाढ़स बांधते हुए और जब खुश होती हूँ तो मेरे साथ खड़े मुस्कुराते हुए......

    फिर भी पता नहीं क्यूँ ....एक खालीपन सा लगता हैं... वो साया जो हरपल आस -पास होता हैं .....उन्हें  छूने का दिल करता हैं ....उनके पसंद के खाने बनाकर उन्हें खिलाने को दिल करता हैं ....उनकी खूब सारी सेवा करने को दिल करता हैं..... उनके  गले से लिपटकर जी भर के रोने को दिल करता ...पर इस जन्म में तो ये सब सम्भव नहीं......अब तो बस उनकी यादें ही रह गई हैं.... सिर्फ एक एहसास बाकी हैं .....
 ' पापा ,आप बहुत याद आते हैं ...."
आज 4 मार्च वो मनहूस दिन ...जिस दिन मेरे पापा हम सभी से साकार रूप में जुदा हो गए थे लेकिन.... निरंकार रूप में वो हरपल हम सभी के साथ ही होते हैं ....परमात्मा मेरे पापा के आत्मा को शांति प्रदान करें..... 

एक खत पापा के नाम 
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/03/ek-khat-papa-ke-naam.html

यादें पापा की
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/06/yaadein-papa-ki.html


"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...