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शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

पर्दा नहीं जब कोई खुदा से ....



    
    " पर्दा "  यानि किसी भी खूबसूरत  या बदसूरत व्यक्ति ,वस्तु या बातो के ऊपर एक आवरण रख देना या यूँ भी कह सकते हैं कि उसकी हक़ीक़त को छुपा देना। जीवन में हमे अक्सर जरूरत पड़ ही जाती हैं एक ऐसे आवरण की जो हमारे जिस्म को, हमारी सोच को, हमारे बोल को, यहां तक की हमारे कर्मो को भी ढके रखे। जिस्म को तो एक पर्दें से ढकना जरुरी हैं ये तो सभ्यता हैं। हम आदि मानव तो रहे नहीं जिसको जिस्म  पर भी पर्दें डालने की जरुरत नहीं थी। जिस्म को तो कभी कभी  लोगो की बुरी नजर से बचाने के लिए जरुरत से  ज्यादा भी छुपाना पड़ता हैं। लेकिन  सोच ,बोल और कर्म को पर्दे की क्या जरूरत ? पर इन्हे भी छुपाना पड़ता हैं ???? 

     अब सवाल ये उठता हैं कि हमे किससे छुपाना पड़ता हैं  खुद से ,खुदा से या दुनिया वालो से। हम दुनिया वालो से भले ही सब कुछ छुपा ले पर खुद से और खुदा से कुछ छुपाना  मुमकिन हैं क्या ? खुदा की बात छोड़े क्या हम अपने सोच ,बोल और कर्म पर अच्छाई या बुराई रुपी पर्दा  डाल कर खुद के मन से वो सब छुपाने में सफल हो पाते  हैं क्या ? कभी ना कभी तो हमारा मन उस पर्दे से बाहर निकलने के लिए मचलेगा न ????

    कभी  कभी आप अपने अच्छे कर्मो को तो छुपा सकते हैं, छुपाना भी चाहिए क्योकि " अपना आप बड़ाई " शोभा नहीं देता। वैसे भी अच्छे कर्मो पर तो आप ज्यादा दिन तक पर्दा डाल भी नहीं सकते। क्योकि अच्छे कर्मो की खुश्बू बंद दरवाजे से भी   खुद ब  खुद बाहर निकल समूचे वातावरण को सुगंधित कर देती हैं। हाँ  ,बुरे कर्मो को आप जरूर पर्दा-दर - पर्दा ढ़क सकते हैं। अपनी गन्दी अंतरात्मा पर अच्छाई का आवरण डाले बहुत ही सम्भ्रांत व्यक्तित्व आप को आपने आस पास हमेशा देखने को मिल ही जाते होंगे या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसे ही लोगो की तदाद ज्यादा हैं, हम चारो तरफ से उनसे ही घिरे हैं। 

     मैं अक्सर सोचती हूँ ऐसे व्यक्ति जो अच्छाई का आवरण ओढ़े घूमते हैं उनका मन कभी तो उन्हें धिधकारता होगा। हाँ ,जरूर धिधकारता होगा ,आप लाख अपने अंतर्मन को दबाना चाहे वो चीत्कार जरूर करेगा ,आप उसकी आवाज़ को भले ही अनसुना करे पर वो चीख चीख कर अपनी आवाज़ खुदा तक जरूर पंहुचा देगा। फिर कुछ छुपा नहीं रहेगा ,सारे पर्दे हट जायेगे ,सारे राज खुल जाएंगे। फिर कहाँ जाकर और किस चीज से आप अपना मुख छुपायेंगे। सोचे जरा ........ 

     मुझे बचपन में सुनी  एक कहानी याद आ रही है -एक व्यक्ति था सात्विक  जीवनशैली ,सात्विक विचार और सात्विक भोजन अर्थात उसका  व्यक्तित्व दुनिया के सामने संतरूपी था। परन्तु  वो जैसा दिखता था वैसा था नहीं तो जाहिर हैं वो सारे गलत काम पर्दे में करता था। वो जब भी नदी में नहाने जाता और जब वो पानी में डुबकी लगता तो पानी के अंदर ही बड़ी  चालाकी से एक मछली गटक जाता और मन ही मन खुश होकर कहता -" ऐसा चोरी किया जो खुदा ने भी नहीं देखा " एक दिन एक मछली उसके गले में अटक गई और खुदा ने उसे समझा दिया कि मुझसे कुछ नहीं छिपा। उसे अपने किये की सजा मिल गई। 

      ये कहानी  पापा अक्सर हमे सुनाया करते थे जब भी हम कुछ गलत करते थे और वो हमे पकड़ लेते तो यही जुमला कहते - आप लोग  क्या सोच रहे थे कि " ऐसा चोरी किये जो खुदा ने भी नहीं देखा " और ये कह वो ठहाके लगाकर हंसने लगते।  हम सब झेप जाते थे और अपनी गलती मान पापा के आगे कान पकड़ लेते थे। बचपन में तो इस कहानी के असली भाव को हम समझ नहीं पाते थे लेकिन अब समझ आता हैं कि -हम लाख कोशिश करे अपने व्यक्तित्व को, अपने सोच -विचार को ,अपने बोल को और अपने कर्मो को कभी भी किसी भी तरह के पर्दे से नहीं ढक़ सकते या यूँ भी कह सकते हैं कि ऐसा कोई पर्दा ईश्वर ने बनाया ही नहीं जिससे ये ढका जा सके। हाँ , अपने मद में मदहोश हम ये झूठा प्रयास अवश्य करते रहते हैं। 

     आज ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं कि कल  जिन्होंने भी संत का नकाब ओढ़ रखा था ,आज वो दुनिया के सामने बेनकाब हैं। लाख पर्दे में अपने गुनाहो को छुपा लो वो एक न एक दिन सबको नजर आ ही जायेगा। क्यों छुपाये हम अपनी खूबसूरती या बदसूरती को किसी से ? क्यों किसी भी वस्तु की हकीकत को छुपाने के लिए उस पर आवरण रख दे ? क्यों मुख से ऐसा कुछ निकले जिसके प्रभाव को कम करने के लिए हमे उसके ऊपर कोई दूसरी बात कह कर पहली  बात पर आवरण डालना पड़े ? क्यों हम ऐसा कोई भी काम करे जिस के लिए  हमे खुद से , खुदा से या जग से मुँह छुपाना पड़े ? 
   क्युँ न हम अपनी सोच को ,अपने लफ्जो को ,अपने कर्मो को इतना प्रभावशाली और पारदर्शी बनाएं कि हमे किसी भी आवरण की जरूरत ही ना पड़े। अपनी नजरों को इतना पाक बनाएं कि किसी को भी अपनी खूबसूरती या बदसूरती को छुपाना ही ना पड़े। क्युँ न हम ऐसे काम करे कि निःसकोच हो, बिना डरे, हम शान से सर उठाकर ये कह सके -
                               
                             " पर्दा नहीं जब कोई खुदा से बंदो से पर्दा करना क्या "







गुरुवार, 26 सितंबर 2019

तेरे सुर और मेरे गीत .....

                           
                                                     " तेरे  सुर और मेरे  गीत 
                                             दोनों मिलकर बनेगे प्रीत " 


      इस गीत के सिर्फ एक पंक्ति से  ही गीतकार भरत व्यास ने जीवन में सच्चे प्रेम और ख़ुशी को पाने का हर रहस्य खोल दिए हैं। यदि  सुर और गीत की तरह एक हो गए तो जीवन में शास्वत प्रेम की धारा स्वतः ही बहने लगेगी। फिर ना कोई बिक्षोह का डर होगा ना कोई मिलने की तड़प। फिर इस  नश्वर जगत में  भी जीवन  इतना सुरमयी हो जायेगा कि जीते जी स्वर्ग सुख की अनुभूति हो जाएगी। 


     इस गीत के एक पंक्ति ने ही जीवन के बड़े गूढ़ रहस्यो को अपने भीतर समाहित कर रखा हैं कि सच्ची प्रीत वही हैं ,सच्चा रिश्ता वही हैं जो सुर और गीत की तरह एकाकार हो। उस वक़्त के तत्कालीन परिवेश में ( जब ये गीत रचा गया था ) ये भावनाएं विशुद्ध रूप से देखने को मिलती थी। परन्तु आज के समाज में हर एक रिश्ते में  " अपनी ढ़पली अपना राग  " जैसे हालात हैं। कोई अपना  सुर दे रहा हैं तो कोई अपना ही गीत गए जा रहा हैं। उन्हें नहीं मतलब हमारे सुर और गीत एक दूसरे से मिल भी रहे हैं या नहीं ,हर एक को अपना ही  किया हुआ अच्छा लग रहा हैं। बस एक दूसरे को दोष देने में लगे हैं कि - " मेरे तो सुर बड़े मधुर हैं तुम्हारे ही गीत के बोल अधूरे हैं " तो कोई कहता हैं - " नहीं जी ,मैंने तो गीत के बोल बहुत सुंदर लिखे हैं तुमने ही सही सुर नहीं दिए।" 
    
    कोई नहीं कहता -"  मैं अपने  गीतों के बोल को तुम्हारे  सुरो के अनुरूप बदल लेती हूँ। "  या " मैं तुम्हारे हर गीत के बोल को अपने सुरों में बड़े प्यार से  पिरो लुगा। "  माना किसी और के गीत के साथ सुर और ताल मिलना कभी कभी मुश्किल हो जाता है.गीत को सुर ना दे पाए तो क्या हुआ सुर को ताल तो दे ही सकते हैं वो भी नहीं कर पाए तो भी कोई बात नहीं सुर के साथ सुर तो मिला ही सकते हैं। दूरदर्शन पर बहुत पहले एक गीत आता था " मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा " अगर हम  सुर से सुर ही  मिला ले तो भी हमारा जीवन सुरमयी हो जायेगा। 


      जब तक एक गीत को सुंदर सुरो से लयबद्ध नहीं किया जायेगा तब तक  मनभावन संगीत सुनने को नहीं मिलेगा। परन्तु आज के परिवेश में व्यक्ति के जीवन में ना सुर हैं ना ताल ,गीत के बोल भी भावहीन हो चुके हैं ,ऐसे में  मधुर संगीत कहाँ से सुनाई देगा। हर तरफ बस हाहाकार मचा हैं ,हर रिश्ते में दरार पड़ी हैं ,चाहे वो पति पत्नी हो ,माँ -बेटी हो ,पिता- पुत्र हो ,दोस्त- रिश्तेदार हो या प्रेमी- प्रेमिका हो। क्योकि जीवन से सच्चा संगीत चला गया हैं ,संगीत बेसुरा हुआ पड़ा हैं और भावनाएं खंडित। हर एक  मनुष्य की आत्मा तड़प रही हैं एक मधुर बोल सुनने को, जिसे सुन उसका  अंतःकरण भी  सुरमयी बन सके। लेकिन समस्या ये हैं कि सब सुनना ही चाहते  हैं कोई बोलने का प्रयास नहीं कर रहा। पहले आप खुद अपने अंतःकरण से एक सच्चा और मधुर सुर तो निकलो ,उस सुर पर कोई ना कोई एक मधुर गीत की रचना जरूर कर देगा। 


      सिर्फ संगीत में ही नहीं ,जीवन में भी सुर और ताल का मिलना बहुत ही जरुरी हैं।जीवन का सुर और ताल हैं -सच्ची "श्रद्धा और विश्वास " ये दोनों जिस किसी भी रिश्ते में समाहित होगा उस रिश्ते में संगीत की तरह मधुरता तो होगी ही, साथ ही साथ इस तरह के प्यारे रिश्ते से जन्मे जीवन संगीत की मधुरता  से उस व्यक्ति का जीवन ही नहीं वरन उसका घर- परिवार और  समाज भी सुरमयी  हो जायेगा।  गीतकार रविन्द्र जैन ने आज  के दौड में सच्चे प्यार के लिए तरसते  हर एक दिल की ख्वाहिश को कुछ इस तरह से वया किया हैं -


                                           तु जो मेरे सुर में सुर मिला ले ,संग गा ले।  
                                          तो जिंदगी हो जाये  सफल।। 
                                  तु जो मेरे मन को घर बना ले ,मन लगा ले। 
                                            तो बंदगी हो जाए सफल।। 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

जाने चले जाते हैं कहाँ .....

                       

                                 जाने चले जाते हैं कहाँ ,दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ 
                                                  कैसे ढूढ़े कोई उनको ,नहीं क़दमों के निशां 

     अक्सर, मैं भी यही सोचती हूँ आखिर दुनिया से जाने वाले कहाँ चले जाते हैं ? कहते हैं  इस जहाँ  से परे भी कोई जहाँ है, हमें छोड़ शायद वो उसी अलौकिक जहाँ में चले जाते हैं। क्या सचमुच ऐसी कोई दुनिया है ? क्या सचमुच आत्मा अमर है ? क्या वो हमसे बिछड़कर भी हमें देख सुन सकती है? क्या वो आत्माएं भी खुद को हमारी भावनाओं से जोड़ पाती है ? क्या वो दूसरे जहाँ में जाने के बाद भी हमें  हँसते देखकर खुश होते हैं और हमें  उदास देख वो भी उदास हो जाते हैं ? श्राद्ध के दिन चल रहे हैं सारे लोग पितरो के आत्मा की तृप्ति के लिए पूजा-पाठ ,दान-पुण्य कर रहे हैं, क्या हमारे द्वारा  किये हुए दान और तर्पण हमसे बिछड़े हमारे प्रियजनों की आत्मा तक पहुंचते हैं और उन्हें तृप्त करते हैं ? ऐसे अनगिनत सवाल मन में उमड़ते रहते हैं ,ये सारी बाते सत्य है या मिथ्य ?

      युगों से श्राद्ध के विधि-विधान चले आ रहे हैं, हम सब अपने पितरो एवं प्रियजनों के आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ, दान-पुण्य और जल तर्पण करते आ रहे हैं। आत्मा जैसी कोई चीज़ का इस ब्रह्माण्ड में आस्तित्व तो है इसकी पुष्टि तो विज्ञान भी कर चूका है। पर क्या इन बाहरी क्रियाकलापों से आत्मा को तृप्ति मिलती होगी ? मुझे नहीं पता आत्मा तिल और जल के तर्पण से तृप्त होती है या ब्राह्मणों को भोजन कराने से ,गाय और कौओ को रोटी खिलाने से या गरीबों में वस्त्र और भोजन बांटने से, मंदिरो में दान करने से या पूजा-पाठ-हवन आदि करने से। 

     मुझे तो बस इतना महसूस होता है कि हमसे बिछड़ें  हमारे प्रियजनों की आत्मा  एक अदृश्य तरगों के रूप में हमारे  इर्द-गिर्द तो जरूर रहती है और हमें  दुखी  देख तड़पती है और हमें  खुश देखकर संतुष्ट होती है, उनके द्वारा  दिए गए अच्छे संस्कारों का जब हम पालन करते हैं तो उन्हें शांति मिलती है,  अपने प्रियजनों को सुखी और संतुष्ट देख उन्हें तृप्ति मिलती है  और हमारे सतकर्मो  से उन्हें मोक्ष मिलती है। 


     मुझे तो यही महसूस होता है, जिन्हे हम प्यार करते हैं वो आत्माएं शायद हमारे आस-पास ही होती है वो भी  अनदेखी  हवाओं की तरह बस हमें  छूकर गुजर जाती है।उन्हें याद करके एक पल के लिए आँखें मूंदते ही हमें  उनका स्पर्श महसूस होने लगता है। हम ही उन्हें महसूस नहीं करते शायद वो भी हमारे सुख-दुःख, आँसू और हँसी को महसूस करते  होंगे तभी तो यदा-कदा हमारे  सपनो में आकर  हमें  दिलासा भी दे जाते हैं और कभी-कभी तो अपने होने का एहसास भी करा जाते  हैं । 


     शायद, मृतक आत्माओं के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि ही श्राद्ध है। सिर्फ विधि-विधान का अनुसरण नहीं बल्कि हर वो कार्य जिसमे परहित छुपा हो और पूरी श्रद्धा के साथ की गयी हो, अपने पितरो के प्रति आदर ,सम्मान और प्यार के भावना के साथ की गई हो, अपने पितरो के सिर्फ सतकर्मो को याद करके की गई हो वही सच्ची श्रद्धांजलि है। 

       शायद, ये श्राद्धपक्ष सिर्फ हमें  हमारे पितरो और प्रियेजनों की याद दिलाने ही नहीं आता बल्कि हमें  ये याद दिलाने के लिए भी आता है कि -एक दिन हमें  भी इस जहाँ को छोड़ उस अलौकिक जहाँ में जाना है जहाँ  साथ कोई नहीं होगा  सिर्फ अपने कर्म ही साथ जायेगे और पीछे छोड़ जायेगे अपनी अच्छे कर्मो की दांस्ता और प्यारी सी यादें  जो हमारे प्रियजनो के दिलो में हमारे लिए हमेशा जिन्दा रहेगी और वो अच्छी यादें हमारे वर्तमान व्यक्तित्व पर ही निर्भर करेगी। 

     गलत कहते हैं लोग -"खाली हाथ आये थे हम ,खाली हाथ जायेगे" ना हम खाली हाथ आये है ना खाली जायेगे। हम जब जायेगे तो साथ अपने कर्मो का पिटारा लेकर जायेगे और जब भी फिर इस जहाँ में वापस आना होगा तो उन्ही कर्मो के हिसाब से अपने हाथों  में अपने भाग्य की लकीरें ले कर आयेगे। हाँ,भौतिक सुख-सुविधा के सामान और अपने प्रिये यही पीछे छूट जायेगे। 

     यकीनन,ये श्राद्ध हमें  याद दिलाने आता है कि -इस दुनिया में तुम्हारा आना-जाना लगा रहेंगा और तुम्हारे कर्म ही तुम्हारे सच्चे साथी है। इस श्राद्धपक्ष मैं अपने  प्रिय पापा और भाई तुल्य बहनोई जो मुझे भी अपनी बड़ी बहन समान सम्मान और स्नेह देते थे उनके प्रति अपनी सच्चीश्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ और उन्हें ये वचन भी देती हूँ कि-मैं उनके अधूरे कामो को, अधूरे सपनो को पूरा करने की पूरी ईमानदारी से कोशिश करुँगी। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे।    

रविवार, 2 जून 2019

विवाह -संस्कार


     हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मरण तक कई संस्कार होते हैं जैसे -पुंसवन संस्कार ,अन्नप्रासन संस्कार ,मुंडन संस्कार ,उपनयन संस्कार ,विवाह संस्कार एवं दाह -संस्कार आदि।वैसे तो संस्कार सोलह माने गए है (कही-कही तो 48 संस्कार भी बताये गए है ) लेकिन ये छह संस्कार तो महत्वपूर्ण है जो अभी तक अपने टूटे- बिखरे रूप में  निभाए ही जा रहे हैं।  " संस्कार "यानि वो गुण जो सिर्फ आपके शरीर से ही नहीं वरन आत्मा तक से जुड़ जाते हैं। मान्यता ये है कि -आत्मा से जुड़े गुण एक जन्म से दूसरे जन्म तक स्थाई रूप से बनी रहती है। यदि आत्मा पूर्व जन्म से कोई दुर्गुण लेकर आयी भी  है तो ये सारे संस्कार उस आत्मा की सुधि भी करते हैं और शायद इसीलिए विवाह संस्कार भी होते हैं और ये मानते हैं कि -विवाह एक जन्म नही वरन जन्म-जन्म का साथ होता है। 

शनिवार, 11 मई 2019

" माँ "

      


   " मदर्स डे " आने वाला है अभी से सोशल मिडिया पर " माँ " शब्द पूरी तरह छा चूका है। सोशल मिडिया का वातावरण माँ मयी हो गया है, एक धूम सी है " माँ " पर ,कितनी सारी प्यारी-प्यारी ,स्नेहिल कविताऐं   रची जाएगी , कहानियाँ लिखी जायेगी और स्लोगन और quotes तो पूछिये मत एक से बढ़कर एक लिखे जायेगे। कुछ देर के लिए मन भ्रमित सा हो जायेगा -"हम तो यूँ ही बोलते रहते हैं कि -आज कल भावनाएं  मर चुकी है ,बच्चें माँ बाप की कदर नहीं करते ,वगैरह-वगैरह।" अरे नहीं ,देखें  तो हर एक की भावनाएं कैसी उमड़ी रही है ,सब के दिलों  में माँ के लिए प्यार ही प्यार दिखाई दे रहा है ,सब माँ के प्यार -दुलार ,त्याग और संस्कार की कितनी अच्छी-अच्छी बातें कर रहे हैं। कैसे कह सकते हैं.हम ...ऐसा कि- बच्चें  माँ बाप से सरोकार नहीं रखते। देखो तो, इन दिनों सभी माँ के भक्त ही दिखाई दे रहे हैं।

सोमवार, 6 मई 2019

हँसते आँसु



हजारो तरह के ये होते हैं आँसु
अगर दिल में गम है तो रोते हैं आँसु
ख़ुशी में भी आँखे भिगोते हैं आँसु
इन्हे जान सकता नहीं ये जमाना
मैं खुश हूँ मेरे आँसुओं पे न जाना
मैं तो दीवाना, दीवाना, दीवाना 


 "मिलन " फिल्म का ये गाना वाकई लाजबाब है। आनंद बक्शी के लिखे बोल रूह तक में समां जाते हैं। सच ,जब अंतर्मन में भावनाये मचलती है तो दिल की सतह पर दर्द की तपिस से जो बादल उमड़ते हैं वो आँखों से पानी की बून्द बन बरस जाते हैं।  आँसु ,महज आँखों से बहती पानी की बून्द भर नहीं है, ये आँसु प्रियतम के वियोग में बहे तो आँखों से लहू के कतरे बन बरसते हैं तो वही  प्रिये मिलन के इंतज़ार में बहे आँसु  फूल बन राहो में बिखर जाते हैं  और प्रियतम से गले मिलते ही ये आँसु मोती बन जाते हैं। और जब कभी कोई अपना छल करता है तो यही आँसु  आँखों से अंगारे बन बरसने लगते हैं। सच ,आँसु  के भी कितने रूप है ? 

मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

" भाग्य विधाता "- कौन ??

  


  " मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य  सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो  और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने  तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

धर्म क्या हैं ??



       धर्म क्या हैं ? धर्म क्यों हैं ?धर्म कैसा होना चाहिए ? क्या सचमुच हमारे जीवन में धर्म की आवश्यकता  हैं ?धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व होना चाहिए ?मानव का सबसे बड़ा या पहला धर्म क्या होना चाहिए ? धर्म के बारे में ना जाने इस तरह के कितने सवाल हमारे मन मस्तिष्क में उठते रहते है।हर युग में,हर समाज में ,हर सम्प्रदाय में  यहां तक की हर व्यक्ति अपने अपने तरीके से इन सवाल के खोज में लगा रहता हैं। धर्म के संबंध में बड़ी विभिन्ताएं देखने को मिलती हैं। एक देश और एक ही जाति के लोगो के धार्मिक आचरण में भी बड़ी अंतर् दिखाई देता हैं। सामान्य जन दान -पुण्य ,पूजा -पाठ और बाहरी कर्मकांडों को ही धर्म का नाम देते हैं। यही धार्मिक कर्मकांड धीरे -धीरे सामाजिक रीति -रिवाज का रूप धारण कर लेता हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि से तर्क पूर्वक सोच समझ कर धर्म का आचरण करते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं। 

     सभी धर्मो की यही मान्यता हैं कि उनका धर्म अनादि हैं। लेकिन एक बात सभी धर्मो में समान रूप से दिखाई देती हैं,सभी धर्म एक ही सत्य पर आधारित हैं कि कोई ऐसी शक्ति हैं जो हम पर नियंत्रण रखती हैं और जिसने कुछ नियम कानून बनाये हैं और उसका पालन करना ही हमारा परम् धर्म हैं। इन नियम कानून में भी समय समय पर पैगंबरो और अवतारो ने आकर उनका पुनरुथान भी करते रहे हैं। सारे धर्मो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं लेकिन सभी धार्मिक गुरुओ ने अपने कथन के अपूर्णता को भी  स्वीकारा हैं। शायद यही कारण है कि अनादि काल से अब तक हर धर्म के स्वरूप में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सभी धर्मो में नए सुधारक आते गए और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर समय ,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार उनमे परिवर्तन करते गये। अवतारी महापुरुषों ने अपने समय के परिस्थिति और स्थान को बहुत महत्व दिया था। 

       जब वैदिक युग में ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ गई और लोग अपने कर्तव्य का पालन छोड़ पूजा पाठ में ही लगे रहते थे तब भौतिकवादी वाममार्ग की शुरुआत हुई ,जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया। इस तरह धर्म में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार धर्मो में परिवर्तन हर धर्म के धार्मिक ग्रंथो  में देखने को मिलेगी। 

       मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक  रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य  से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं। 

     धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस  जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं। 

       लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय  करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं। 

      संक्षेप में कह  हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी  धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं। 

रविवार, 24 मार्च 2019

माँ- बेटी " कल आज और कल "

    

        कहते है, औरत को बेटी से ज्यादा बेटे की चाह होती है लेकिन मुझे ये धारणा थोड़ी गलत लगती है। पुत्र की कामना शायद वो सिर्फ परिवार और पति के इच्छा को पूरा करने और वंश को आगे बढ़ाने के मोह वश करती है। क्यूकि हमारे देश में औरते अपने ख़ुशी से ज्यादा दुसरो की ख़ुशी का ख्याल रखती है। वरना ,हर औरत अपने बच्चे में अपना अक्स देखना चाहती है। एक बेटी को पालने पोसने और सजाने -सवारने में उसे जो आत्मिक ख़ुशी मिलती है उसे शब्दों में बया करना मुश्किल है।

शनिवार, 16 मार्च 2019

एक विरहन ऐसी भी..........

                         
                        

                                                   यारा सिली सिली विरह की आग में जलना। 
                                                   ये  भी  कोई  जीना  हैं , ये  भी कोई  मरना। 
                                                   यारा सिली सिली विरह की आग में जलना। 
   
     विरह एक ऐसी अग्नि हैं जो विरहन के शरीर को ही नहीं आत्मा तक को धीमी धीमी आँच पर सुलगता रहता हैं। "ना मैं जीवति ना मरियो मैं विरहा मारो रोग रे ,वावरी बोले लोग।" बस यही दशा होती हैं उसकी। जब भी कोई विरह गीत ,कवित ,दोहे या छंद लिखे जाते है तो उनकी मुख्य नायिका राधा ,मीरा ,सीता या यशोधरा आदि ही होती हैं।इन सब ने असीम विरह वेदना सही हैं। पर क्या इन सब की विरह-वेदना एक सी थी। शायद नहीं ,जैसे प्रेम के अलग-अलग रूप और एहसास होते हैं वैसे ही विरह के भी कई रूप होते हैं और उनकी वेदना भी अलग -अलग होती  है। वैसे प्रेम और विरह की जो मुलभुत संवेदनाये होती हैं  वो तो एक सी ही होता है। 

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

एक सवाल ???

   

      मम्मी एक बात बताऊँ  ,"साहिल के दिल में न मेरे लिए फीलिंग्स है। "क्या मतलब ?" मैंने ने आश्चर्य पूछा। मतलब ये कि -साहिल मुझे पसंद करता है। मनु ने बड़ी बेतकल्लुफी से ये बात कही। मैंने फिर पूछा -लेकिन वो तो तुम्हारा दोस्त है न। हाँ माँ ,यही तो परेशानी है लड़के सिर्फ दोस्त बन के क्यों नहीं रह सकते ,क्यों गर्लफ्रेंड बनना ही उनके लिए जरुरी होता है ? मैं तो परेशान हो गई हूँ मम्मी ,जब भी मुझे लगता है कि ये लड़का अब मेरा अच्छा दोस्त बन गया है तभी वो मुझे प्रपोज़ कर मुझे दुखी कर देता है,मैं इंकार कर देती हूँ  फिर वो मेरा दोस्त भी नहीं रहता और तुम तो जानती हो मुझे दोस्त चाहिए बॉयफ्रेंड नहीं। ये सारी बाते मनु बड़ी ही सहज भाव से कह रही थी और मैं  ख़ामोशी से सब सुन रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि -कितनी जल्दी बड़ी हो गई न मनु ।  कितनी सुलझी  सी बाते  करने लगी है।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

वेलेंटाइनस डे -"प्यार का दिन "

     

       " वेलेंटाइनस डे"एक ऐसा शब्द...एक ऐसा दिवस...जो पश्चिमी सभ्यता से आया और पुरे विश्व के दिलों पर राज करने लगा। कुछ लोग कहते हैं कि-हर दिन प्यार का होता है तो फिर कोई खास दिन ही क्यों ?बात तो सही है लेकिन याद कीजिये आपने अपने किसी भी प्यार के रिश्ते में आखिरी बार कब आपने प्यार का इजहार किया था। शायद याद भी नहीं हो।वैसे भी आज कल हर रिश्ते में प्यार का बेहद आकाल पड़ा है वैसे मे कोई एक खास दिन तो होना ही चाहिए जब आप उस रिश्ते पर अपना प्यार जाहिर कर सकें,उनके लिए अपना एक दिन समर्पित कर सकें ,तभी तो मदर डे ,फादर डे ,फ्रेंडशिप डे ,वगैरह वगैरह बने हैं। सही भी है आज के समय में इसकी आवश्यकता भी बहुत है। पश्चिम से आयी हर हवा खराब नहीं होती....कुछ अच्छी भी होती है..परन्तु हम उन्हें अच्छी तरह समझे बिना आधा-अधूरा अपनाते हैं....वो खराब है। उन्ही में से एक ये "प्यार का दिन "है। ये पावन दिन सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका के लिए नहीं बना था बल्कि उस हर रिश्ते के लिए बना था जिनसे आप दिल से जुड़े होते हैं।परन्तु आज ये पवन दिन उन्माद में डूबे ,फूहड़ तरिके से मनमानी करते युवक-युवतियों का दिन बन गया है.शायद इसी वजह से कुछ राजनितिक दल और समाजिक संस्था इस दिन का विरोध भी करते हैं।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

" दिल की नजर "


                                       
                                                 
 " नज़रे मिलती हैं और नज़ारे बदल जाते है
  दिल धड़कता हैं और फ़साने बन जाते है "
       
      हैं न, इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे पहली नज़र का प्यार ना हुआ हो,प्यार दिल करता है पर कहते है-" सारा कुसूर नज़रो का हैं. "सही भी है ,इस जीवन का सारा खेल नज़र और नज़रिये का ही तो होता हैं किसी को पथ्थर में भगवान  नज़र आते हैं किसी को भगवान भी पथ्थर के नज़र आते हैं। 

             कबीरदास जी ने कहा  -
 " पाथर पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहाड़, 
  तासे यह चाकी भली पीस खाए संसार."

रविवार, 23 दिसंबर 2018

"ज़िंदगी का सबक सिखाता " - दिसम्बर और जनवरी का महीना



        एक और साल अपने नियत अवधि पर समाप्त हो जाने को है और एक नया साल दस्तक  दे  रहा है। बस....एक रात और कैलेंडर पर तारीखें  बदल जायेगी। दिसम्बर और जनवरी महीने की कुछ अलग ही खासियत होती है। कहने को तो ये भी दो महीने ही तो है पर.....साल के सारे महीनो को बंधे रखते हैं। दोस्तों , क्या आप को भी लगता है कि - इन दोनों के बीच एक खास रिश्ता है ? 

मुझे लगता है...इन दोनों के बीच एक खास रिश्ता है बिलकुल रात और दिन के जैसे। दोनों एक ही धागे के दो सिरे ही तो है...कहने को दोनों दूर है...फिर भी एक दूसरे के साथ बंधे रहते हैं...दोनों के  बीच कभी  ना ख़त्म होने वाला एक रिश्ता होता है। जब ये दो महीने दूर जाते हैं...तो साल बदल जाते हैं और...जब पास आते हैं  तो आस बदल जाते हैं....एक का अंत हो रहा होता है तो दूसरे का आरंभ....। देखने में तो  ये दोनों एक से ही तो लगते हैं..एक  सा मौसम और एक  जितनी  ही  तारीखें.....बस, दोनों के अंदाज़ अलग होते हैं।  एक में ढेरों यादें होती है तो दूसरे में अनेको वादें।  

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

समंदर - " मेरी नज़र में "

 

       क्या कभी आपने समंदर किनारे बैठ कर उसकी आती-जाती लहरों को ध्यान से देखा हैं ? सागर दिन में तो बिल्कुल शांत और गंभीर होता है। ऐसा लगता है जैसे, अपना विशाल आँचल फैलाये....और उसके अंदर अनेकों  राज छुपाये....एक खामोश लड़की हो.....जिसने सारे जहां के दर्द और सारी दुनिया की गन्दगियों को अपने दामन मे समेट रखा है। लेकिन फिर भी खामोश है....उसे किसी से कोई शिकायत नहीं....कोई दुःख नहीं ....कोई तड़प नहीं। ( वैसे हमेशा से सागर को पुरुष के रूप में ही सम्बोधित किया गया है लेकिन मुझे उसमे एक नारी दिखती है) हाँ, कभी कभी उसमें हल्की-फुल्की लहरें जरूर उठती रहती है।  उस पल ऐसा लगता है जैसे, दर्द सहते-सहते अचानक से वो तड़प उठी हो और उसके दिल की तड़प ने ही लहरों का रूप ले लिया हो।  

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...