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बुधवार, 22 नवंबर 2023

"हमने देखी है "


हमारी पीढ़ियां  बदलाव की अप्रत्याशित दौर को देख रही हैं । कभी-कभी यकीन करना भी मुश्किल हो जाता है।गुजरा जमाना सपने सा लगता है और जो गुजर रहा है वो अपना नहीं लग रहा है और आने वाला कल डरा रहा है। 

वो हम ही है जिन्होंने रक्षाबंधन पर्व से लेकर छठ पर्व तक अति उत्साह और उमंग से भरे बचपन को जिया है, वो हम ही हैं जो छठ पूजा पर समस्त खानदान को एकत्रित होते देखा है,पूजा की पवित्रता और उसके सभी रीत- प्रीत को पुरी श्रद्धा - भक्ति से निभाते अति हर्षित एक-एक चेहरे को देखा है, त्योहारों पर मिलकर एक दूसरे पर प्यार और आशीर्वाद लुटाते अपनों को देखा है और अब भी वो हम ही हैं जो टुटते घरों को देख रहे हैं, एक-एक कर के  दूर होते हुए अपनों को देख रहे हैं,त्योहारों के अति विकृत होते स्वरूपों को भी देख रहे हैं।

   याद है हमें वो दिन भी जब, छठ पूजा पर दादी  के घर सारा खानदान यानी दादा का परिवार ही नहीं दादा के सारे भाइयों का परिवार भी एकत्रित होता था।फिर आया माँ का दौर तब भी दादा का पूरा परिवार जिसमे चचेरे हो या फुफेरे सभी अपने थे, जो एकजुट होकर त्योहार की खुशी मनाते थे।फिर आया हमारा दौर हम सिर्फ अपने भाई बहनों के साथ ही निभा रहे थे। लेकिन हम इसे भी ज्यादा दिनों तक संभाल नहीं पाए और सब से दूर हो कर कुछ दिखावे के दोस्तों तक सीमित रहने लगे।बीते कुछ सालों से खास तौर से करोना काल से ऐसे एकल हुए कि वो दोस्त भी कब छूट गए पता ही नहीं चला और अब ना जाने कौन सा युग शुरू हुआ जिसे समझना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल हो रहा है।आज त्योहार सिर्फ सोशल मीडिया पर दिखावा भर बन कर रह गया है। सजना-संवरना सब कुछ हो रहा है है मगर, उत्साह- उमंग, श्रद्धा-भक्ति, प्यार और अपनापन ना जाने कहा खो गया। त्योहारों पर भी सिर्फ अपने परिवार के दो चार सदस्य वो भी त्योहारों से जुड़े रस्मों को बस दिखावे के तौर पर निभाकर गुम हो जाते हैं इस मोबाइल रूपी मृग मरीचिका में। और हमारी पीढ़ी गुज़रे ज़माने में खोई हुई जबरन अपने संस्कारों की अक्षतों को समेटने की कोशिश करती रहती है, आज और कल में सामंजस्य स्थापित करती ढूंढती फिरती है उस खुशी और उमंग को, कहना चाहती है सबसे कि " हमने देखी है रक्षाबंधन में भाई- बहनों के निश्छल प्रेम को, महसूस किया है नवरात्रि में भक्ति के शीतल व्यार को, भाई दूज में कच्चे सूत से बंधे पक्के रिश्तो को, छठ पूजा के चार दिनों के कठिन कर्मकांडो को भी उत्साह और उमंग से निभाते अपनों को, मगर......वो भी नहीं कह सकते क्योंकि सुनेगा कौन...??? फिर थक कर उदास हो बीती यादों को समेटे बैठ जाती है एक कोने में....सोना चाहती है अतीत के तकिये पर सर रखकर मगर.....सो नहीं पाती, उलझी जो है अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित करने में...... अगली सुबह सोच रही होती है 

त्योहार कब आया और कब चल गया पता ही नहीं चला........

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...