गुरुवार, 22 जुलाई 2021

"कल चमन था......"

     


 


  मत रो माँ -आँसू पोछते हुए कुमुद ने माँ को अपने सीने से लगा लिया। कैसे ना रोऊँ बेटा...मेरा बसा बसाया चमन उजड़ गया....तिनका-तिनका चुन कर...कितने प्यार से तुम्हारे पापा और मैंने ये घरौंदा बसाया था....आज वो उजड़ रहा है और मैं मूक बनी देख रही हूँ । ऐसा क्यूँ सोचती हो....ये सोचों ना एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बस रहा है...कुमुद ने माँ को ढाढ़स बंधाना चाहा। पर...वो मेरा घरौदा नहीं होगा न-कहते हुए माँ सिसक पड़ी। 

    किसी भी चीज़ से इतना मोह नहीं करते माँ....कल तुम्हारा था...आज इनका है...यही होता रहा है...यही होता रहेगा....फिर क्यों रोना - एक बार फिर कुमुद ने माँ को समझाने का प्रयास किया जब कि पिता के उजड़ते बगियाँ को देख उसका दिल भी रो रहा था...उससे भी दूर हो रही थी उसकी बचपन की यादें....भाई-बहनों के साथ गुजारे ठिठोली भरे दिन....उनका खुद का ही नहीं उनके  बच्चों की किलकारियाँ भी गुंजी थी इस घरौंदा में....पापा के जाते ही कैसे तहस-नहस हो गया। उसका दिल सैकड़ो सवाल कर रहा था-क्यों होता है ऐसा....क्यों बाहर से जिन सदस्यों को प्यार से अपना बनाकर हम घर लाते हैं....और ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें अपना घर ही नहीं जिगर के टुकड़े को भी सौप देते हैं....वही उस घर को लुट लेते हैं....क्या ज्यादा की ख्वाहिश होती है उन्हें.....जो वो एक माँ का दर्द नहीं समझते....मिट्टी-गारे के मकान को ही नहीं... चीर डालते हैं  माँ के दिल को। सवालों में उलझी...माँ को सीने से लगाये... खुद को संभालती हुई...कुमुद,  माँ को उलटे-सीधे तर्क से समझाने का प्रयास कर रही थी। 

माँ ये मिट्टी-गारे का घर है....क्यों रोना उसके लिए -कुमुद ने फिर माँ को समझाना चाहा। हाँ,बेटा मैं भी समझती हूँ.... तुम क्या समझ रही हो मुझे इस घर का  दुःख है.....मैंने कभी इन सुख-सुविधाओं के चीज़ों का मोल नहीं किया...मेरी सम्पति...मेरा गुरुर.....मेरे बगियाँ के फूल....तो बस मेरे बच्चें थे....जो जहाँ भी रहते थे महकते-चहकते रहते थे .....आज, मेरी सम्पति बिखर गई...मेरा गुरुर टूट गया....मेरे बगियाँ के फूल बिखर गए और...लोगों को तमाशा देखने का मौका मिल गया....कहाँ चूक हो गई मुझसे..... कहते हुए माँ फुट-फुटकर रोने लगी। 

तभी कही से एक गाने की आवाज़ सुनाई दी..... 

मुझको बर्बादी का कोई गम नहीं 

गम है बर्बादी का क्यूँ चर्चा हुआ 

कल चमन था, आज एक सहरा हुआ 

देखते ही देखते ये क्या हुआ ?

कुमुद ने महसूस किया- ये आवाज़ माँ के दिल से आ रही थी जिसे सुन कुमुद भी आँसू नहीं रोक पाई। 


रविवार, 11 जुलाई 2021

"खुद की तलाश जारी है..... "

 





     अक्सर कहा जाता है कि- "हर आदमी अकेला जन्मता है और अकेला ही मरता है।" मैं नहीं मानती.....हकीकत में वो उन सभी लोगो के साथ मरता है...जो उसके भीतर थे...जिससे वो लड़ता था...प्यार करता था। मरने वाला अपने भीतर एक पूरी दुनिया लेकर जाता है।कहाँ मुक्त कर पाता  है वो खुद को उन बंधनों से जिसमे वो आजीवन बंधा रहता है। वो अपने साथ-साथ अपने अपनों से जुडी वो सारी यादें...वो सारे रंजो-गम...वो सारी खुशियाँ और प्यार भी लेकर चला जाता है....उसका अपना तो कुछ होता ही नहीं है न... 

तभी तो किसी के मरने के बाद हमें भी अपने भीतर एक खालीपन महसूस होता है  क्योंकि हमें लगता है कि उसके साथ हमारा भी एक हिस्सा हमेशा के लिए खत्म हो गया। दुसरो के मरने पर हमें  जो दुःख होता है वो भी थोड़ा बहुत स्वार्थी किस्म का दुःख ही होता है क्योंकि वो अकेला नहीं जाता हमारा एक हिस्सा भी साथ ले जाता है। 

हाँ,सच में ले जाता है...अब देखे न माँ-बाप के गुजरने के बाद हमारे जीवन में जो बच्चें का किरदार होता है वो तो हमेशा के लिए खत्म हो जाता है न....खत्म हो जाता है उनके साथ हमारी मासूमियत....जो उनके सानिध्य में जाते ही महसूस होने लगता था। हम भी इसीलिए रोते है कि-अब इस जन्म में हम किसी को माँ-पापा कहकर नहीं बुला पाएंगे। 

मुझे महसूस होता है कि-हमारे जीवन में हर एक के साथ हमारा एक खास किरदार होता है....उस व्यक्ति की अच्छाइयों या बुराईयों से कही ना कही हमारा भी एक अंश जुड़ा होता है....और उसके जाते ही हमारे भीतर का वो हिस्सा खाली हो जाता है। 

 हमारे भीतर हमारा तो कुछ होता ही नहीं...सब कुछ औरों का होता है।कभी एक पल के लिए हम कल्पना करें कि -आने वाला पल मेरा आखिरी पल है और एक बार पलट कर अतीत की और देखें...... 

जब हम अपने अतीत के तहों को प्याज के छिलके की तरह एक-एक करके उतारते जाएगें तो देखेंगे....सब अपना-अपना हिस्सा लेने आ गए है। माँ-बाप,भाई-बहन,दोस्त-रिश्तेदार,पति-बच्चें, सारे छिलके दूसरों के हिस्से का निकलेगा  आखिर में बची  एक सूखी डंठल ही हमारे हाथ रह जायेगी जो किसी काम की नहीं रहती जिसे ही मृत्यु के बाद जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है। हाँ....वो सुखी डंठल भी खाली कहाँ जा पाती....वो भी तो उन छिलकों की महक अपने भीतर लिए ही जाती है। 

वैसे ही जब मनुष्य जन्म भी लेता है तब भी उसके अंदर कितने लोग....कितनी भावनाये छिपी होती है...जब बच्चा जन्म लेता है तो अपने आप हँसता है और खुद ब खुद रोने भी लगता है उस वक़्त कहते हैं कि-वो अपने पुराने रिश्तो से जुडी ख़ुशी और दर्द को जी रहा है.....तो अकेला कहाँ आता है वो ?

हम प्रेम और रिश्तो के बंधनो में इस कदर बँधे होते हैं कि -मरने के बाद भी नहीं छूट पाते। तभी तो हिन्दू धर्म में कहते हैं कि-"मरता शरीर है आत्मा तो अमर होती है और वो नया शरीर धारण कर बार-बार उसी परिवेश में जन्म लेती जिससे वो जुडी होती है।" हमने अक्सर अपने घरों में ये कहते सुना होगा "ये जो बच्चा जन्मा है न वो फलां की तरह दिखता है या आचरण करता है।" शायद,वो होता है तभी तो परिवार में भी किसी एक के साथ ऐसा जुड़ाव होता है जैसे जन्म-जन्म का साथ हो। अपनों के साथ ही क्यूँ....कभी-कभी तो किसी अनजाने के साथ भी जन्म-जन्म का साथ महसूस होता है। 

क्यूँ होता है ऐसा ? हमारा अपना कुछ क्यूँ नहीं होता ? 

वो एक गीत के बोल है न-

"दिल अपना और प्रीत पराई 

किसने है ये रीत बनाई "

सब ठीक है...अच्छा लगता है इस पराई प्रीत में जलना मगर...अपने आस्तित्व का क्या ?

अक्सर प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से कहते हैं -"तू मुझमे मुझसे ज्यादा है "

क्यूँ ज्यादा है ?खुद में ही हम खुद क्यूँ नहीं होते ?

खुद में खुद की तलाश जारी है..... 



गुरुवार, 8 जुलाई 2021

"तो क्या हुआ---- "

 


खो गई मंजिल

 भटक  गया पथिक 

 तो क्या हुआ ----?

पहुँचने की लगन तो है। 

ढल गई शाम

 घिर गया तम 

तो क्या हुआ ----?

प्रभात आगमन की आस तो है। 

उड़ गए पखेरू 

रह गया पिंजरा रिक्त 

तो क्या हुआ ----?

आत्म-अमरता का विश्वास तो है। 

बिछड़ गए तुम

 टूट गया दिल 

तो क्या हुआ ----?

तुम्हारे  जीवित स्पर्श का एहसास तो है।  

झड़ गए पत्ते 

छा  गया मातम 

तो क्या हुआ ----?

बासंतिक वयारों का शोर तो है। 

सूख गया सागर 

बढ़ गई प्यास 

तो क्या हुआ ----?

प्रेम अश्रु का प्रवाह तो है। 

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"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...