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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

"ह्यूमन साइकोलॉजी"

 


 

 "आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे 

          बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए " 

इस गीत की मधुर सुरलहरी वातावरण को एक सुखद एहसास से भर रहा  है सोनाली खुद को आईने में निरखते हुए अपनी बालों को सवाँर रही है और गीत के स्वर के साथ स्वर मिलाते हुए  गुनगुना भी रही। और मैं ...खुद को निरखती हुई सोनाली को निरखे जा रही हूँ। अचानक सोनाली की नजर मुझ पर  पड़ी, मेरी भावभंगिमा को देख वो थोड़ी झेप सी गई। थोड़ा शर्म थोड़ा नखरा दिखाते हुए बोली-"क्या देख रही हो माँ।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा-"बस, अपनी बेटी को खुश होते हुए देख रही हूँ....उसके चेहरे के निखरते हुए रंग-रूप को देख रही हूँ....उसके बदले हुए हाव-भाव को देख रही हूँ।वो मेरे पास आकर मुझसे लिपटते हुए बोली-" हाँ माँ,जब से राज मेरे जीवन में आया है न सबकुछ अच्छा-अच्छा सा लग रहा है" फिर मेरे चेहरे को गौर से देखते हुए पूछ बैठी -"तुम भी खुश हो न माँ"  मैं झट से खुद को उससे  अलग कर ये कहते हुए उठ गई कि -अब हटो मुझे जाने दो, बहुत काम पड़ा है। पता नहीं ऐसा क्यूँ लगा जैसे सोनाली ने मेरी दुखती रंग पर हाथ रख दिया हो या मेरी कोई चोरी पकड़ ली हो। 

(राज और सोनाली की कहानी जानने के लिए पढ़े-"पीला गुलाब " और "बदनाम गालियाँ या फूलों से भरा आँगन ")

   राज और सोनाली ने जब से मेरे सामने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया था और मैंने उनकी ख़ुशी पर अपनी रज़ामंदी की मुहर लगा दी थी तब से वो दोनों बड़े खुश रहने लगे थे और मेरे आगे भी थोड़े खुल से गए थे। अब उन्हें अपनी भावनाओं को छुपाने की जरूरत जो नहीं थी। चुकि शुरू से भी मैं उनके साथ दोस्त बनकर ही रही थी तो अब वो मुझे और भी अच्छा दोस्त समझने लगे थे और उन्हें मुझसे कोई खास झिझक नहीं थी। मगर वो अपनी मर्यादाओं का उलंघन कभी नहीं करते। राज हमारे ही बिल्डिंग के एक फ्लैट में ही रहता था तो काम से आने के बाद अक्सर वो हमारे साथ ही रहता था या यूँ कहे सिर्फ सोने अपने घर जाता था। वैसे तो ज्यादा वक़्त वो दोनों मेरे साथ ही गुजारते थे,कही भी आना जाना हो मुझे साथ ही लेकर जाते थे। मैं कहती भी कि -बेटा, आप दोनों जाओं मुझे रहने दो। पर दोनों नहीं मानते कहते, आपके बिना मज़ा नहीं आएगा....फिर आप घर में अकेली कैसे रहोगी....क्या करोगी, वगैरह-वगैरह। वो दोनों एक दूसरे के साथ खूब मौज-मस्ती करते,एक दूसरे को छेड़ते या लड़ते,लड़ने के बाद सॉरी बोल एक दूसरे को मनाते,एक दूसरे की पसंद के खाने बनाते या ऑडर कर मंगवाते, एक दूसरे के पसंद-नापसंद का भी पूरा ख्याल रखते।जब से राज मिला था सोनाली रोज सुबह उठकर मेरे लिए चाय बनाकर मुझे जगाने आती। मुझे प्यार करके जगाने के बाद कहती- माँ राज को बुला लाऊँ। मैं भी हामी भर देती वो ख़ुशी-ख़ुशी भागकर जाती और राज को बुला लाती फिर हम तीनो एक साथ ही चाय पीते। जबकि, पहले मुझे चाय लेकर सोनाली को जगाना पड़ता था। उसे ऐसा करते देख मुझे बेहद ख़ुशी होती और तसल्ली भी कि-मेरी सोनाली बड़ी हो गयी अब कल को घर-गृहस्ती का बोझ जब उसके कंधे पर पड़ेगा तो वो सरलता और ईमानदारी से संभाल लेगी। 

    उनका ये प्यार और साथ देखकर मैं खुश होती ..बहुत-बहुत खुश होती मगर, कभी-कभी मन यूँ ही उदास हो जाता। जब भी उन दोनों को एक दूसरे में मगन देखती, हँसी-ठिठोली करते देखती.....होठों पर तो मुस्कान आ जाती मगर, पता नहीं क्यूँ आँखों में आँसू भी आ जाते। उन दोनों की ख़ुशी मेरे लिए बहुत मायने रखती थी यूँ कहे अनमोल थी मगर, उनकी ख़ुशी को देखकर अंदर एक टीस सी उभर जाती। शायद, थोड़ी जलन सी भी होने लगती....एक खालीपन सा महसूस होने लगता......अपने जीवन को टटोलने लगती.....ये तलाश मुझे अतीत में धकेल देती.....अतीत में घूमते हुए खुद से सवाल कर बैठती -"क्या मैंने जीवन जिया हैं या बस वक़्त गुजरा है ?"  वक़्त भी कैसा कि- जिसे खगालने पर ख़ुशी के एक मोती तक को पाने का सुख भी ना मिलाता  हो..... एक दुःख अंदर कचोटने लगता काश,  हम भी आज की पीढ़ी में जन्म लिये होते.....हमारे माँ-बाप भी हमारी भावनाओं को समझ पाते....अतीत की गलियों में भटकते-भटकते आँखों में ऐसी चुभन होने लगती कि -आँसू स्वतः ही निकल पड़ते.....आँसुओं के खारेपन का स्वाद आते ही झट, वर्तमान में लौट आती......आँसू पोछती.....खुद को मजबूत करती और खुद से ही एक प्रण लेती....."जो मुझे नहीं मिला वो मैं  अपनी संतान को दूँगी....वो हर ख़ुशी  पाने में उनका साथ दूँगी जो उनके वर्तमान और भविष्य दोनों को महका दे।" और वो पल मुझे खुद पर ही गर्व करने के लिए काफी होता। ऐसे  लम्हे  एक बार नहीं कई बार मेरे आगे से गुजरता.....मैं उदास होती....भीतर एक टीस उभरती....जिस पर खुद ही मरहम लगाती.....खुद की हौसला अफजाई करती......खुद की ही पीठ थपथपाती मगर, खुद पर गुजरते इन पलों का एक भी असर अपनी सोनाली पर ना होने देती। 

    साइकोलॉजी पढ़ा तो बहुत था मैंने मगर,  इन दिनों मैं ह्यूमन  साइकोलॉजी के कुछ खास थ्योरी को अच्छे से महसूस कर पा रही हूँ। आप कितने भी निस्वार्थी हो जाओं, कही ना कही एक छोटा सा स्वार्थ छुपा ही रहता है......आप कितने भी त्यागी बन जाओं मगर, कही ना कही उस त्याग की कसक दिल में बनी ही रहती है..... दूसरे की ख़ुशी में कितने भी खुश हो जाओं मगर, हल्की सी जलन आपको जलाती ही है।  (वो दूसरा आपका सबसे प्रिय ही क्यों ना हो ) इतना ही नहीं खुद को किसी के ख़ुशी का निमित समझना या खुद को ये  श्रेय देना कि-मेरी वजह से ये अच्छा हुआ है, ना चाहते हुए भी आपके भीतर अहम भाव ला ही देता है। एक और सच से रूबरू हुई "बहुत ज्यादा ख़ुशी भी कभी-कभी तन्हाई और खालीपन का एहसास करवाती है।" सच,यही है "ह्यूमन  साइकोलॉजी"

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...