शनिवार, 23 मई 2020

" अगर मैं कहूँ "


" तू कहे तो तेरे ही कदम के मैं निशानों पे चलूँ रुक इशारे पे "

   तुम्हारे क़दमों का अनुसरण करते हुए.....तुम्हारे पीछे- पीछे हमेशा से चलती रही हूँ....चलती  रहूंगी आखिरी साँस तक..... बिना कोई सवाल किये.....बिना किसी शिकायत के .....रास्ते चाहें पथरीले हो या तपती रेगिस्तान के...। तुम्हे तो मुझे आवाज़ देने की भी जरूरत नहीं पड़ती....ना ही पीछे मुड़कर देखने की .....क्योँकि तुम्हे इस बात का यकीन हैं कि -" मेरे पास कोई और दूसरी राह तो हैं नहीं.... जाऊँगी कहाँ.....तुम्हारे पीछे ही मुझे आना हैं....खुद को तुम्हे समर्पित जो कर चुकी हूँ.....मैं तो सदियों से यही करती आ रही हूँ....करती भी रहूंगी.....। "

     मगर,  आज ना जाने क्युँ तुमसे कुछ सवाल करने का दिल कर रहा हैं ...मुझे संदेह भी हैं कि-  क्या तुम मेरे सवालों का जबाब दे पाओगें ?  संदेह होने के वावजूद एक बार तुमसे पूछना तो जरुरी हैं न.....अगर मैं कहूँ कि
" क्या तुम भी कभी मेरे लिए ये कर सकोगे ....क्या हमेशा आगे चलने वाले "तुम" कभी मेरे  पीछे भी चल सकोगे....क्या तुम मेरे पदचिन्हो का अनुसरण कर सकोगे ....मैं हर पल तुम्हारी परछाई बन तुम्हारे पीछे रही हूँ.....क्या तुम कभी मेरी परछाई बन पाओगे ....? "  तुम्हारा  "अहम" तुम्हे करने देगा  मेरा अनुसरण....  हमेशा से तुम मुझे मंदबुद्धि समझते आये हो.....हमेशा तुम्हे ये लगा कि - मुझे ही तुम्हारे सहारे की जरूरत हैं....जबकि सहारा मैं तुम्हे देती हूँ...तुम्हारे पीछे- पीछे चल....मैं तुम्हे गिरने से बचाने की कोशिश करती रही हूँ .....
   तुम्हे लगता हैं कि -" तुम मेरा भरण पोषण करते हो जबकि इसमें आधी भागीदारी मेरी भी होती हैं...तुम्हे  लगता हैं तुम मुझे संभालते हो.....जबकि दुनिया भर की थकान को दूर करने के लिए तुम्हे मेरे आँचल के पनाह की जरूरत होती हैं.....मानती हूँ तुम अपने आँसू छुपा लेते हो.....मुझमे वो क्षमता नहीं....मेरे आँसू पलकों पर झलक आते हैं.....फिर भी बिना तुम्हारे कहे ही.....मैं तुम्हरे दर्द को अपने सीने में महसूस करती हूँ और तुम्हारे दर्द पर अपने स्नेह का मरहम लगाकर तुम्हारे होठो पर हँसी लाने की कोशिश करती हूँ...।
    बस पूछना चाहती हूँ - "क्या मैं कभी तुमसे आगे जाना चहुँ तो तुम मेरे पीछे-पीछे आ सकते हो...यकीन मानो आगे बढ़कर भी मैं तुम्हारी  राहो के कांटो को चुनकर, तुम्हारी राह को निष्कंटक ही करुँगी....बस,आगे बढ़ते हुए कभी जो "मैं "   डगमगाऊं तो क्या तुम मुझे संभाल लोगे....आगे-आगे चलने का ताना तो ना दोगें.....?

शुक्रवार, 22 मई 2020

" श्रमवीर "



 " अपनी मेहनत " या यूँ कहे कि -" अपनी मानवीय शक्ति " को बेचकर धन अर्जित करने वालो को " मजदुर या श्रमिक"  कहते हैं। धनवान धन लगता हैं ,बुद्धिमान बुद्धि,  मगर यदि श्रमिक अपना श्रम  प्रदान ना करे तो संसार में कोई भी सृजन असम्भव हैं।ये श्रमिक हमारे समाज के वो अभिन्न अंग हैं जिनके बिना ये बुद्धिजीवी और लक्ष्मीपुत्र  एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। फिर भी, इन श्रमिकों का  सबसे ज्यादा निरादर ये वर्ग ही करता  रहा हैं। निरादर ही नहीं शोषण करता रहा हैं।
   अब तक समाजशास्त्र में ये सब पढ़ा था, छोटी -मोटी  घटनाएं भी देखी  थी मगर इन दो महीनों में जो कुछ देखा- सुना वो कल्पना से परे हैं। जिनके बलबूते आपने इतनी बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी कर ली ,कितने कल -कारखानों के निर्माण में इनके श्रम को आपने चूस लिया ,   बिषम परिस्थितियों के आने पर इन मेहनतकशों को  क्या  आप  दो जून की  रोटी भी नहीं खिला सकते थे ?  अगर ये उद्योगपति अपना- अपना फ़र्ज़ निभाते और इन मजदूरों को अपने कारोबार का अभिन्न हिस्सा समझते , वो इस बात का एक बार भी मनन करते कि -"कल को फिर से  इनकी जरूरत हमें पड़ेगी ही , इसलिए हमें इनके हितो की रक्षा करनी ही चाहिए " तो शायद ये श्रमिक सरकार के द्वारा व्यवस्थित सेवा के द्वारा,  अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सुरक्षित अपने घर तक जा सकते थे और परिस्थिति बदलने पर ख़ुशी ख़ुशी अपने मालिक के पास वापस आ जाते।
 
    मगर जिनके सर पर  छत भी ना हो और पेट की अग्नि जिन्हे जला रही हो उन्हें  तपते रास्ते पर नगें पाँव चलना, रेल की पटरियों को अपना बिछावन बनाना, रास्ते पर दिए गए दान स्वरूप मिले चंद दानों से अपनी क्षुद्धा की अग्नि को शांत करना,  यकीनन  ज्यादा सहज लगा। हाँ,  ये अलग बात हैं कि -उनके इस हाल को देख मानवता कही मुँह दिखने लायक नहीं रही, अपने  सृजनकर्ताओ  के ऐसे अपमान पर प्रकृति और ज्यादा कुपित हुई पड़ी हैं ,तभी तो कही भूकंप ,कही शैलाव के रूप में अपना क्रोध बरपा रही हैं।

   वो तो  श्रमवीर हैं ,कर्मवीर हैं ,जिनकी हड्डियां धुप में तपी हैं, उन्हें कौन डरा सकता हैं ,जो झूठे आश्वासनों के  शब्दजालो के  बंधन को कई बार तोड़ चुके हैं, उन्हें कौन बाँध सकता हैं ,वो तो निकल पड़े हैं ,बे-खौफ अपनी मंज़िल की ओर ,रास्ते में किसी साथी की मौत की कीमत भी वो बड़ी हिम्मत से चुका देंगे और सीने में उसके बिछड़ने का ग़म  लिए बाकी बचे अपने प्यारों को ले, फिर आगे बढ़ जायेगे। क्योँकि प्रकृति ने उन्हें और कुछ दिया हो या ना दिया हो लेकिन सब्र करना ,मेहनत करने की क्षमता और हिम्मत बेहिसाब दे रखा हैं। अगर कही किसी रोज ऐसा हो गया कि -प्रकृति ने उन्हें ,ये दृढ़निश्चय  भी दे दिया कि - "भूख से मर जायेगे मगर अपनी जन्मभूमि का साथ ना छोड़ेगे और इन महानगरों की ओर जहां मानव भी  पथ्थर के होते हैं वहां पलायन नहीं करेंगे फिर क्या होगा ? " ये श्रमवीर  तो जैसे- तैसे अपना गुजरा कर लेंगे , जो कि उन्हें अच्छी तरह  आता है ,  मगर इन उद्योगपतियों का क्या होगा?
   इतना तो तय है  कि - ये भूख ,ये अपमान ,ये चोट ,ये दर्दनाक सफर हर एक मुसाफिर की  कई पुश्तें भुलाये नहीं भूल पायेगी। अगर किसी ईमानदार इतिहासकार की आत्मा जाग उठी और उसने इन " श्रमवीरों " के साथ हुए इस अमानवीयता को उनके इस दर्दनाक सफर की व्यथा -कथा को यथार्थ रूप में अंकित कर दिया तो इन   बुद्धिजीवियों  और लक्ष्मीपुत्रों  की  कई पुश्तों  के माथे पर कलंक का ऐसा कालिख लगेगा जो आसानी से नहीं धुलेगा।  हम  पूरी तरह से सरकार को दोषी करार नहीं दे सकते , जितना  सरकार दोषी हैं उनसे कही ज्यादा वो उद्योगपति  दोषी हैं जो अपने साथ काम कर रहे कामगारों पर थोड़ी सी दयाभाव भी नहीं दिखा सकें।  बड़े-   बड़े मालिकों की बात छोड़े , क्या मध्यमवर्गी और उच्च मध्यमवर्गी भी  अपने घरों  में काम करने वाली  बाई , चौकीदार ,सफाई कर्मचारी तक पर भी दयाभाव दिखा पा रहे हैं? अगर हाँ ,तो उनमे मानवीयता जिन्दा हैं और उन्हें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं।
  आज  इन सब हालातों  को देखते हुए , मेरे भीतर भी बहुत ग्लानि होती हैं - " हम निम्न मध्यमवर्गी लोग आज के हालात में खुद को ही नहीं संभाल पा रहे हैं तो इनकी क्या मदद करेंगे और कैसे करेंगे ?बस उनके प्रति एक संवेदना भर दिखाकर चंद पंक्तियां  लिख देते हैं।  मजदुर तो हम निम्न मध्यमवर्गी भी हैं मगर फर्क ये हैं कि- हम कागज कलम लेकर बड़े हुए हैं और उसी से अपना गुजारा करते हैं। यदि हम एक मजदुर साथी को  एक वक़्त का भोजन भी करा सकें,  तो शायद हम खुद को क्षमा कर सकें।

   

बुधवार, 20 मई 2020

" अपना अपना स्वर्ग -नरक "


   भारतीय मान्यता हैं कि -" हर मनुष्य को उसके कर्मो के हिसाब से मरने के बाद स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होती हैं। मेरी समझ से तो ये स्वर्ग और नरक इसी धरती पर हैं। आखिर ये " स्वर्ग और नरक " हैं क्या ? शायद , सुखी -संपन्न जीवन या ये भी कह सकते हैं कि अपनी मर्जी ,अपने पसंद का जीवन स्वर्ग हैं और दुःख दरिद्रता भरा या अपनी पसंद से बिपरीत जीवन नरक हैं। या शायद,  जहाँ प्रेम ,परवाह ,अपनत्व और शांति हो वो जगह स्वर्ग हैं और जहाँ कलह, कलेश, लालच और घृणा का वास हो , वो जगह नरक हैं। ये तो लोग अपनी अपनी मानसिकता से तय कर लेते हैं। 
 
       मुझे नहीं पता मरने के बाद क्या होता हैं ? पर अपने जीवन के अनुभव से इतना तो जरूर समझ चुकी हूँ कि -"  कर्मो " का यानि अपने किये का फल आपको भुगतना ही पड़ता हैं ,ये सृष्टि का नियम हैं। इसे हम अपनी अना या विवकहीनता के कारण बेतुकी बात भले ही कह देते हैं मगर हमारी अंतरात्मा इस सत्य को जरूर काबुल करती हैं। हाँ ,कभी कभी भले लोगो को आकरण दुःख पाते देख मन इस बारे में चिंतन करने लगता हैं कि -कही सचमुच पिछले जन्म की मान्यता सही तो नहीं , कही ये पिछला कर्मा तो नहीं ? लेकिन अक्सर ये भी देखने में आता हैं कि -एक ना एक दिन उस भले आदमी की अच्छाइयों की कद्र होती हैं और उसके अच्छे कर्मो का फल भी उसे जीते -जी मिलता ही हैं। हाँ ,कभी कभी देर भले हो जाए। वैसे भी हमारे कर्मो का फल मिलने में थोड़ी देर तो होती ही हैं जैसे ,आज हम अपने शरीर के साथ लापरवाही कर रहें हैं तो उसकी सजा हमें हमारा शरीर एक -दो साल बाद ही देगा न। 
    खैर ,जो भी हो मगर आज के परिवेश में,  इस बिषम परिस्थिति में जब कि -सबको अपने मर्जी के बिपरीत ही चलना पड़ रहा हैं, ये कर्मफल विशेष रूप से उजागर होते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लग रहा हैं जैसे प्रकृति हमसे अत्यंत रुष्ट होकर ,कोई प्रपंच रच रही हैं और हमें जीते- जी ही, अपने -अपने कर्मफलों को भोगने का अनुभव कराना चाहती हैं।  इसी धरा पर  हमने जो  खुद से ही अपना -अपना  स्वर्ग नरक निर्मित  कर रखा हैं, उसे भोगने को सृष्टि  हमें मजबूर कर रही हैं। 
    आज ये महामारी और इससे जूझते सम्पूर्ण विश्व के लोगो को देखकर एक बात तो हर एक ने स्वीकार कर ली हैं कि -ये  सारी मुसीबतें मानव ने खुद ही निर्मित की हैं और खुद के किए को उन्हें भुगतना ही पड़ेगा। प्रकृति के आगे हमारा वज़ूद  नगण्य हैं और उससे छेड़छाड़ के हमारे दुःसाहस का परिणाम ही प्रकृति हमें दे रही हैं। खुद को महाशक्ति समझने का गुरुर रखने वाले देशों को भी अपनी औकात पता चल गई हैं। आज वो भी लाचार और बेबस होकर मौत का तांडव देख रहे हैं। 
    खैर ,ये तो बहुत बड़ी बड़ी बाते हैं इसका विश्लेषण करने का दुःसाहस " मैं " मंदबुद्धि नहीं करुँगी। मगर छोटी छोटी घटनाक्रमो  को देखकर भी  मैं हतप्रस्थ हूँ। जिस प्रकृति को हमने दूषित कर रखा था, वो प्रकृति खुद का शुद्धिकरण कर चुकी हैं, मगर हमें कैद में रहने की सजा सुना चुकी ताकि हम उसका आनंद ना उठा सकें ,यकीनन ये हमारी सजा ही तो हैं। " लॉकडाऊन " हर व्यक्ति के लिए ,हर परिवार के लिए ,हर समाज के लिए,  हर देश के लिए एक नया अनुभव ,एक नई सीख ,एक नई समझ ,एक नई चेतावनी लेकर आया हैं। जिसने भी जिस वस्तु विशेष या उस व्यक्ति विशेष की, जो हर पल उसे प्राप्त था मगर उसने कभी उसकी कदर नहीं की थी, उसे उसी चीज़ के लिए तरसा रहा हैं, उसकी अहमियत भी समझा रहा हैं।  यही नहीं जिन्हे जो  चीज़ ,रिश्ते या व्यक्ति नापसंद थे, उन्हें उन्ही  के साथ रहने को मजबूर कर रहा हैं। जिस भारतीय संस्कृति की ,औषधी की, योग की हमने अवहेलना की थी, आज उसी को अपना जीवन रक्षक मान उसके प्रयोग करने को हम मजबूर हैं  और उसे बढ़ावा भी दे रहे हैं। 
   जहाँ तक बात करे भारतीय रिश्तों की तो , उसकी भी हमने बड़ी नाकदरी की हैं और आज वही परिवार, वही घर ही हमारा  सब से सुरक्षित बसेरा बना हुआ हैं। परन्तु हमारे  पिछले कर्मो के हिसाब से यानि हमने पहले से ही जो अपने घर का वातावरण बना रखा था , उसी के बुनियाद पर आज हमारा खुद का घर ही हमारे लिए स्वयं निर्मित स्वर्ग और नरक का रूप ले चूका हैं और हम उसे भोगने को विवश हैं। जिस परिवार में सारी व्यस्तता के वावजूद पहले से ही प्रेम ,परवाह और एक दूसरे की कदर करने की मानसिकता थी आज वो नमक रोटी खाकर ,सारे अभावो को झेलने के वावजूद भी  खुश हैं क्योंकि उन्हें एक दूसरे के साथ समय बिताने का अवसर मिला हैं। मगर जिस परिवार में हमेशा पारिवारिक सुख के वजाय आर्थिक सुख को अहमियत दी गई थी जहाँ एक दूसरे के साथ एक पल भी गुजरना वक़्त की बर्बादी समझा जाता था ,आज वो घर पूरी तरह नरक का रूप ले चूका हैं।

   चेतावनी स्वरूप आई ये बिषम परस्थितियाँ आज हमें एक और अवसर प्रदान कर रही हैं ,हमसे कह रही हैं -" सम्भल जाओ ,सुधर जाओ ,अभी भी वक़्त हैं कदर करो अपनी प्रकृति की ,अपनी संस्कृति की ,अपने संस्कारो की ,अपने रिश्तों की ,अपने स्वर्गरूपी घर की.... 

शनिवार, 16 मई 2020

" क्षितिज के उस पार "



    चलो, यहाँ से कही दूर चले चलते हैं....। कहाँ..?  यहाँ से बहुत दूर कही....जहाँ कोई पावंदियाँ नहीं..बंदिशें नहीं....।नहीं जा सकते...। क्युँ..?  वहाँ तक जाने के लिए भी हमें उन्ही बंदिशों को तोडना होगा... उनसे बगावत करनी होगी....जिसकी हिम्मत हम में नहीं हैं ....एक प्यार को पाने के लिए कई प्यार के बंधनों को  हमें तोड़ने होंगे ...कर पाओगे क्या तुम..?  नहीं मुझमे भी हिम्मत नहीं...कई आँखों को अश्कों से भिगोने की...।

    फिर ...?  फिर क्या...  तय करते हैं अपना अपना सफर...निभाते हैं जन्मो से बंधे सारे प्रेम के  बंधनो को...कही न कही,  किसी सीमा पर....पुरे होंगे सारे कर्म ... टूटेगी सारी पावंदियाँ ...मुक्त होंगे हर बंधन से फिर मिलते हैं...।  तब तक...?
    मैं धरती ... तुम मेरे आकाश बन जाओ... एक दुरी पर ही सही.... रहेंगे हर पल आमने सामने ...एक दूसरे के नजरों के सामने ....दुनिया से नजरे बचाकर मिलते रहेंगे क्षितिज पर...।  वो मिलन तो आभासी होगा न... नहीं जी सकता तुमसे दूर होकर ....तुम मेरे नजरों के सामने होगी पर मैं तुम्हे छू नहीं सकता.... मुझे तुम पर गुस्सा आ रहा हैं....। तो करों ना गुस्सा ....जब गुस्साना तो सूरज से  ताप लेकर मुझे जलाना .....मैं जलूँगी  तुम्हारी तपिस में ......यही तो सजा होगी  मेरी....। तुम्हारी बहुत याद आएगी....। जब कभी मेरी याद आये, बादल बन बरस जाना मुझ पर .....मैं समेट लुंगी अपने दामन में तुम्हारे अश्कों के एक एक बून्द को ....भिगों लूँगी तुम्हारे आँसुओं में खुद को ....मेरी तपन भी कुछ कम हो जाएगी.....।जब कभी तुम्हे स्पर्श करने का दिल चाहा तो...। तब , चंदा से चाँदनी लेकर मेरी रूह को छू लेना तुम ....रोशन कर देना मेरी रोम रोम को  ....तुम्हारी शीतल स्पर्श पाकर धन्य हो जाऊँगी मैं .....भूल जाऊँगी मैं भी अपने सारे गम ....तुम्हारा प्यार चाँदनी बन कर मेरी रूह को छूती रहेगी और मैं खुद को उसमे सराबोर करती रहूँगी.....। बीच में आमावस भी तो आता हैं फिर.....। फिर क्या ,हमें एक दूसरे को  देखने के लिए  किसी रौशनी की जरूरत तो नहीं.....हाँ , स्पर्श ना करने के वो दिन इंतज़ार में गुजारेगें ....।
      दुनिया को दिखाने के लिए हम दूर दूर हैं..... पर देखो न , हमारा मिलन तो होता रहा हैं और होता रहेगा..... हमारे मिलन स्थल को ही तो दुनिया " क्षितिज " कहकर बुलाती हैं...... नादान हैं दुनिया,   वो क्या जाने प्यार करने वाले ना कभी बिछड़े हैं ना बिछड़ेंगे .....वो हमारे मिलन स्थल " क्षितिज " को भी ढूढ़ने की कोशिश करते रहते हैं पर आसान हैं क्या " प्रेमनगर " को ढूँढना....  वहाँ तो सिर्फ सच्चे प्यार करने वाले ही पहुँच सकते हैं...। हाँ, सही कहा तुमने  " क्षितिज  के उस पार " ही तो प्यार करने वालों का बसेरा हैं .....तो चलों ,वादा रहा जीवन के सारे कर्तव्य पुरे कर मिलते हैं...    " क्षितिज के उस पार "  अपने प्रेमनगर में....।  हाँ, वादा रहा  ..

शनिवार, 2 मई 2020

एक चेहरे पे कई चेहरे ...

   
 


  अरुण अपनी  शादी की 12वी  सालगिरह मना रहा था, छोटी सी पार्टी थी, उसके कुछ खास दोस्त अपनी पत्नियों के साथ आये थे। हँसी -ढहाको का दौर चल रहा था , अरुण अपने दोस्तों के साथ मस्त था और उसकी पत्नी सुहानी सबकी आवो-भगत में लगी थी। अरे, भाभी आप भी आओ न... कहाँ बीजी हो आप -अरुण के दोस्त सुरेश ने सुहानी को आवाज़ दी। हाँ -हाँ सुहानी आ जाओ तुम भी- अरुण का ध्यान सुहानी के तरफ गया और उसने भी उसे आवाज़ दी।अभी आई -सुहानी ने हँसते हुए कहा और  जूठे बर्तनो को समेटते हुए  किचन में चली गई। तभी अरुण ने आवाज़ लगाई-  अरे, सुहानी आना तो सबके लिए कॉफी बनाकर भी लेते आना ....डिनर के बाद कॉफी पीने का मज़ा ही अलग होता है.... क्युँ हैं न यार , वो सुरेश की तरफ मुखातिब होकर बोला। अरे ,छोडो ना यार भाभी को कितना परेशान करेगा -सुरेश ने टोका। कॉफी ही तो बनानी है कौन सा मुश्किल काम है -अरुण लापरवाही से बोला। सुहानी कॉफी लेकर आई सबको पकड़ते हुए अपनी कॉफी का कप हाथ में लिए उन सब के बीच आकर बैठ गई। कोई लफ़ीते सुना रहा था तो कोई अपनी  पत्नी के शान में कशीदें पढ़ रहा था और पत्नियाँ अपने पति की कमियाँ गिना रही थी और सब ठहाके लगा रहें थे। सुहानी भी उनकी हँसी में अपनी हँसीं मिलाने की कोशिश कर रही थी। हँसते-हँसते उसकी नजर आईने में दिखती अपनी परछाई पर गई... उसे अपना ही चेहरा अजनबी सा लगने लगा। क्या  "ये मैं ही हूँ" क्या मैं जो दिखती हूँ वैसी ही हूँ....कितने मुखोटे लगा रखे हैं मैंने अपने चेहरे पर...ख़ुशी के,संतुष्टि के ...मैं तो अपना ही चेहरा नहीं पहचान पा रही हूँ- कई सवाल खुद-ब-खुद उसके होठों पर आ गए। वो अपने ही अक्स में खुद को तलाशने लगी। 
   तभी अरुण उसके करीब आकर बैठते हुए बोला-देख रही हो न..धीरज अपनी  बीवी के शान में कितने कशीदें पढ़ रहा है, कमीना कही का ...अगर इतनी ही प्यारी है तो बाहर क्यों गुलछर्रे उडाता है... वो रोहन को देखो बहादुरी के कितने डींगे मार रहा है घर जाए बीवी भींगी बिल्ली बना देगीं....और देखो सबसे कमाल के तो सुरेश जी है...दुसरो की बीवियों की परवाह करना कोई इनसे सीखे....अपनी बीवी के मरने जीने की खबर ही नहीं रहती इन्हें।  सुहानी बोली-  उन्हें छोड़िए ,अस्थाना जी को देखिये ...कितना मुस्कुरा रहें हैं....जबकि उन्हें अच्छे से पता है वो अब चंद दिनों के मेहमान है....मौत उनका बुलावा लेकर कभी भी आ सकती है। हाँ यार,यहाँ हर एक के चेहरे पर एक मुखौटा लगा है....बदचलनी पर शराफत का ....बेईमानी पर ईमानदारी का....तो किसी के दर्द भरे चेहरे पर ख़ुशी  का-अरुण ने कहा। 
     सुहानी पतिदेव के चेहरे को गौर से देखती हुई बोली-  हाँ ,सच कह रहे हैं आप, ऐसा लगा जैसे वो भी अरुण को  पहचानने की कोशिश करती हुई....खुद से ही सवाल कर  रही हो -शादी के 12  साल के लम्बे सफर के बाद भी क्या मैं आपको और आप मुझे जान पाए है....हमने भी तो अपने चेहरे पर कई मुखौटे लगा रखें हैं....और सबसे बड़ा मुखौटा हैं "समझौते" का। सुहानी की चेहरे पर शायद सारे सवाल उभर आये थे...अपनी तरफ उठी हुई उसकी  आँखो को देख अरुण थोड़ा सहमा...और वो भी सुहानी के चेहरे को निहारने लगा....शायद, वो सुहानी के चेहरे पर आए सवालो को पढ़ने की कोशिश कर रहा था  ... आज सुहानी उसे थोड़ी अजनबी सी लगी ...

   सुहानी गहरी साँस लेते हुए बोली- हाँ , हम सब ने  "दिखावट का मुखौटा" लगा रखा हैं। "मुखौटा" यानी एक चेहरे पर लगा दूसरा चेहरा ....कभी-कभी तो एक ही चेहरे पर कई-कई मुखौटे लगे होते हैं....कही, पाप के मुख पर पुण्य का मुखौटा....कही, दुःख दर्द पर हँसी का मुखौटा.....कही, बेबसी-लाचारी पर आत्मनिर्भरता का  मुखौटा....कही, कई-कई बंधनो में हाथ-पाँव ही नहीं आत्मा तक बंधी होने के वावजूद खुद को बंधन मुक्त दिखाने का मुखौटा.... ये जीवन ही तो असली रंगमंच है जहाँ जरूरत और सहूलियत के मुताबिक मुखौटे बदलते रहते हैं.... हमने खुद पर इतने मुखोटे लगा रखे हैं कि - खुद ही खुद का असली चेहरा भूल गए है- कहते हुए सुहानी ने जूठे कप समेटे और चल पड़ी किचन की ओर...

" शोहरत "


     शोहरत ,प्रसिद्धि ,प्रतिष्ठा एक व्यक्ति के जीवन में ये शब्द बड़े मायने रखते हैं और इस" शोहरत रुपी फल" को खाने के लिए सभी लालायित भी रहते हैं। लेकिन ये फल खाना तो दूर उसे पाना भी आसान नहीं और अगर पा लिया तो खा कर पचाना भी आसान नहीं। शोहरत बाजार में बिकती तो हैं नहीं इसे खुद कमाना पड़ता हैं। इसे पाने  के लिए पहले खुद में दृढ़ इच्छाशक्ति का बीजारोपण करना होता हैं फिर अथक मेहनत से कर्म कर उसे सींचना होता हैं ,जब ये बीज अंकुरित होने को होता  हैं तो उस पल प्रकृति आपकी परीक्षा लेती हैं और  वक़्त बे वक़्त के आंधी -तूफान जैसी बिपरीत परिस्थितियां  आती रहती हैं ,कभी कभी तो ओला वृष्टि भी हो जाती हैं। उस पल इन परस्थितियों से घबराये बिना ,अपनी हिम्मत और अपनी हौसलो की मजबूत कर्मठ बाहों में उस अंकुरित बीज को समेटकर सुरक्षित रखना होता हैं तब कही जाकर वो बीज पेड़ बनता हैं और फिर उस पर शोहरत के फल लगते हैं।
    अथक  प्रयास के बाद जब  शोहरत मिल भी जाती  हैं तो भी उस फल का स्वाद मीठा तभी होगा जब उसको पाने के बाद आपको आत्मसंतुष्टि मिले वरना वो फल भी कड़वा ही लगेगा।उस शोहरत को संभालना भी बेहद जरुरी होता हैं उसका " मद " यदि सर चढ़ गया तो वो नासूर बन जाता हैं। शोहरत के फल को पचाना भी तभी सम्भव होगा जब आप अपने पैर जमीन पर टिकाए रहेंगे ,साथ ही साथ सयम,विनम्रता  और सज्जनता बनाए रखेंगे।

    हमें तो सिर्फ व्यक्ति विशेष की प्रसिद्धि दिखाई देती हैं उसके सफर की कठिनाईयां  नहीं। शोहरत और प्रसिद्धि पाने वाले कई महान व्यक्ति की जीवन गाथा जानने के बाद उनके हौसले के प्रति नतमस्तक होना पड़ता हैं।
संगीत के सम्राट कहे जाने वाले नौशाद जी ,जिनके नाम पर मुंबई में एक मार्ग भी  हैं,  उन्होंने भी एक दिन में ये उपाधि अर्जित नहीं की थी। 16 साल के कठिन सफर से उन्हें गुजरना पड़ा था।  16 साल अपने लक्ष्य को पाने के लिए वो सघर्षरत रहें। कहते हैं- उनके द्वारा संगीतबद्ध की हुई  उनकी पहली फिल्म " बैजू बाबरा "ने  ब्रॉड -वे  सिनेमा हॉल में अपनी गोल्ड जुबली मनाई। उसी  ब्रॉड-वे सिनेमा हॉल में उस सफलता का  जश्न मनाया जा रहा था,  उस वक़्त सारे पत्रकार उन्हें ढूँढ रहे थे और  नौशाद जी उसी सिनेमा हॉल के  बालकनी में खड़े होकर रो रहे थे। तब फिल्म के डायरेक्टर विजय भट्ट जी ने उनसे पूछा - " क्या ये ख़ुशी के आँसू हैं ?"  तो नौशाद जी उस बालकनी के सामने से जाती चौड़ी सड़क के उस पार फुटपाथ की ओर इशारा करते हुए बोले -" विजय जी ,उस पार के फुटपाथ से इस पार आते -आते सोलह साल लग गए ,सोलह साल पहले कई सालो तक वही  फुटपाथ ही मेरा घर था जहाँ कई राते मैंने सिर्फ पानी पीकर काटी हैं,जहाँ पर जागती आँखों से यहाँ तक आने के सपने देखता था,मगर ना कभी हिम्मत हारी ना आँसू बहाए ,ये वही आँसू हैं जो उस वक़्त बहा नहीं पाया था। "

" शोहरत " जिसे पाने के लिए कई त्याग करने होते हैं और कितनी ही  कठिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता हैं तब कही जाकर हम इसका रसपान कर पाते हैं। 

"सूखने लगे है प्राकृतिक जलस्रोत"

"विश्व जल दिवस" 22 मार्च पर कुछ विशेष....      हमारा देश "भारत" अनेकों नदियों एवं पर्वतों की भूमि है।कहते हैं ये सात महा...