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सोमवार, 4 मार्च 2019

एक खत पापा के नाम




आदरणीय पापा जी ,
                                सादर प्रणाम ,
  ये नहीं पूछूंगी कि- कैसे है आप ? कहाँ है आप ? क्योकि मैं जानती हूँ -आप उस परमलोक में है जहां सिर्फ आनन्द ही आनन्द है। ये भी जानती हूँ कि उस परम आनंद को छोड़ कर आप कभी कभी हम सब के इर्द गिर्द भी मडराते रहते है। जानती हूँ न अच्छे से आप, को इतना ज्यादा प्यार करते है आप हम सब से कि रह ही नहीं सकते हम सब से ज्यादा देर दूर और मुझसे तो और नहीं। याद है न माँ आप से कितना लड़ती थी मेरे शादी के लिए और आप क्या कहते थे -" मैं नहीं रह सकता अपनी बेटी से एक दिन भी दूर "और माँ गुस्सा होकर कहती -" कितने स्वार्थी बाप है आप " फिर आप झट से कहते -मैं  तुम्हारे साथ दहेज़ में चलूँगा है न  बेटा ,तुम्हारी सास से  कहूँगा कि बहु के साथ उसके बाप को भी कबुल करो तब अपनी बेटी विदा करुँगा और मैं भी आप से लिपट कर कहती -बिलकुल ठीक पापा जी। 

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

यादें

                        
 

                             "बहुत खूबसूरत होती है ये यादों की दुनिया ,
                                       हमारे बीते हुए कल के छोटे-छोटे टुकड़े 
                              हमारी यादों में हमेशा महफूज रहते हैं, 
                                      यादें मिठाई के डिब्बे की तरह होती है
                          एक बार खुला तो, सिर्फ एक टुकड़ा नहीं खा पाओगे "

      वैसे तो ये एक फिल्म का संवाद है परन्तु है सत-प्रतिशत सही.....यादें सचमुच ऐसी ही तो होती है और अगर वो यादें बचपन की हो तो " क्या कहने " फिर तो आप उनमे डूबते ही चले जाते हो....परत- दर -परत खुलती ही जाती हैं....खुलती ही जाती...कोई बस नहीं होता उन पर। उन यादों में भी सबसे प्यारी यादें स्कूल के दिनों की होती है। वो शरारते....वो मस्तियाँ....वो दोस्तों का साथ....खेल कूद और वार्षिक उत्सव के दिन....शिक्षकों के साथ थोड़ी-थोड़ी चिढ़न और ढेर सारा सम्मान के साथ प्यार....हाफ टाइम के बाद क्लास बंक करना और फिर अभिभावकों के पास शिकायत आना....फिर उनसे डांट सुन दुबारा ना करने का वादा करना और फिर वही करना...सब कुछ बड़ी सिद्दत से याद आने लगती है। सच बड़ा मज़ा आता था...क्या दौर था वो. ........

बुधवार, 2 जनवरी 2019

जीवन का अनमोल "अवॉर्ड "

                                                                   " नववर्ष मंगलमय हो "
                                                       " हमारा देश और समज नशामुक्त हो "

                                           नशा जो सुरसा बन हमारी युवा पीढ़ी को निगले जा रहा है...
                                    अपने आस पास नजरे घुमाये देखे...आये दिन कई घर और ज़िंदगियाँ 
                                इस नशे रुपी सुरसा के मुख में समाती जा रही है। मेरे जीवन से जुड़ा मेरा ये 
                                                  संस्मरण नशामुक्ति के खिलाफ एक आवाज़ है........


        सुबह-सुबह अभी उठ के चाय ही पी रही थी कि फोन की घंटी बजी...मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से  चहकते हुए शालू की आवाज़ आई, हैलो माँ --" Merry Christmas" मैंने कहा -" Merry Christmas you too" बेटा , मैं अभी-अभी सो कर उठी हूँ और उठते ही मैंने सोचा सबसे पहले अपने सेंटा को  Wish करूँ--वो चहकते हुए  बोली।  मैंने कहा --बेटा, मैं तो आप से इतनी दूर हूँ और...पिछले साल से मैंने आप को कोई गिफ्ट भी नहीं दिया..फिर मैं आप की सेंटा कैसे हुई? उसने बड़े प्यारी आवाज़ में कहा -" माँ,आप जो हमें गिफ्ट दे चुकी है उससे बड़ा गिफ्ट ना किसी ने दिया है और ना दे सकता है...उससे बड़ा गिफ्ट तो कोई हो ही नहीं सकता "  मैं थोड़ी सोचती हई बोली --ऐसा कौन सा बड़ा  गिफ्ट मैंने दे दिया आप को बच्चे, जो मुझे याद भी नही। रुथे हुए गले से वो बोली -" पापा " आपने हमें हमारे पापा को वापस हमें दिया है माँ। ये सुन मैं निशब्द हो गई। 


सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

"दिल तो बच्चा है जी"



     ज़िंदगी हर पल एक चलचित्र की तरह अपना रंग रूप बदलती रहती है। है न , जैसे चलचित्र में एक पल सुख का होता है तो दुसरा पल दुःख का...फिर अगले ही पल कुछ ऐसा जो हमें अचम्भित कर जाता है और एक पल के लिए हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि "क्या ऐसा भी होता है ?"ढाई तीन घंटे की चलचित्र में बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर दिख जाता है। हमारा जीवन भी तो एक चलचित्र ही है फर्क इतना है कि- चलचित्र में हमें  "The end "देखने को मिल जाता है वो भी ज्यादा से ज्यादा खुशियों से भरा अंत। हमारे जीवन का The end क्या, आगे क्या होगा ये भी हमें नहीं पता होता है।और पढ़िये

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "


         
     

     फुर्सत के चंद लम्हे जो मैं खुद के साथ बिता रही हूँ। घर से दूर,काम -धंधे,दोस्त - रिस्तेदारों से दूर,अकेली सिर्फ और सिर्फ मैं। हाँ,आस-पास  बाहरी दुनिया है कुछ लड़के - लड़कियां  जो मस्ती में डूबे हैं ,कुछ बुजुर्ग जो अपने पोते - पोतियों के साथ खेल रहे हैं ,कुछ और लोग है जो शायद मेरी तरह बेकार है या किसी का इंतज़ार कर रहे हैं । पास से ही एक सड़क गुजर रही है जिस पर गाड़ियों का आना-जाना जारी है। इन सारे शोर-शराबो के वावजूद मुझे बहुत सुकुन महसूस हो रहा है.ना कोई चिंता - फ़िक्र है ना कोई विचार, सिर्फ ख़ामोशी है। ऐसा शायद इसलिए है कि हर वक़्त लोगो में घिरी रहने और काम धंधो में उलझी रहने वाली "मैं" जिसे अकेले वक़्त गुजरने का पहला मौका मिला है। दरअसल,मेरी बेटी ने एक institute ज्वाइन किया है और आज उसके क्लास का पहला दिन है।
     
    अनजान शहर ,अनजान रास्ते हैं तो मुझे उसके साथ आना पड़ा। तीन  घंटे की उसकी क्लास है तो मेरी भी तीन घंटे की क्लास लग गई और वक़्त गुजरने के लिए मैं पास के ही एक पार्क में आ बैठी। मैं काफी बातूनी हूँ चुप बैठ ही नहीं सकती तो सोचा क्यूँ न आज खुद से ही बातें कर लूँ। "खुद से बातें "लोग पागल नहीं समझेंगे। तो सोचा कागज कलम का सहारा ले लेती हूँ। मैंने पास बैठे एक लड़के से एक पेपर माँगा पेन तो हर वक़्त मेरे साथ होता ही है और बैठ गई खुद से बात करने।और पढ़े 

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

हर पल सिखाती ज़िन्दगी



  दोस्तों,मैं कोई शायरा,लेखिका या कवयित्री नहीं हूँ। मैंने जवानी के दिनों में डायरी के अलावा कभी कुछ नहीं लिखा है। हाँ , बचपन से कुछ लिखने की चाह जरूर थी। लेकिन किस्मत कुछ ऐसी रही कि छोटी उम्र से ही जो पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझी तो बस उलझी ही रह गई। उम्र के तीसरे पड़ाव में आ गई लेकिन...कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि- कुछ वक़्त खुद के साथ बिताऊँ ...खुद से बातें करूँ...खुद को समझूँ.....खुद के अंदर झांक के देखूँ  कि -मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ, मैं कैसी  हूँ ,मेरा खुद का कोई वज़ूद है भी या नहीं ?
     अपने जीवन की कहानी और उसकी उलझनों को बता कर मैं आप को बोर नहीं करुँगी क्योंकि मेरी पीढ़ी की हर औरत का मेरे जैसा ही हाल रहा। खुद के लिए कम जीना और दुसरों  के लिए ज्यादा। हाँ,ये जरूर बताऊँगी कि मेरी लाइफ में बदलाव कैसे आया। भगवान ने मुझे एक बड़ी प्यारी सी बेटी दी है अभी वो  20 साल की है उसका सपना ऎक्ट्रेस बनने का है और उसी का सपना पूरा करने मैं मुंबई मायानगरी में आई हूँ। यहाँ  सिर्फ मैं और मेरी बेटी ही है। मैंने अपने समय के सारे रूढ़िवादिताओं  को तोड़ कर अपनी बेटी की माँ कम और दोस्त ज्यादा बनने की कोशिश की है। उसमे बहुत हद तक कामयाब भी रही हूँ। मैं अपनी बेटी की ही नहीं उनके दोस्तों की भी दोस्त हूँ। वो अपनी सारी बातें  मुझसे बेझिझक शेयर करते हैं। उन्हें मेरे साथ घुमने या मूवी देखने जाने में भी कोई परहेज़ नहीं होता। संझेप में कहूँ तो मेरे साथ भी वो फुल एन्जॉय करते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि वो मेरी respect नहीं करते हैं। मैं भी अपनी सीमाओं का ध्यान रखती हूँ और जितना space उनसे रखना चाहिए रखती भी हूँ। कहने का मतलब, दोस्त के साथ-साथ माँ का रोल भी बाखूबी निभाती हूँ।  जवानी में वो  वक़्त जो मैं कभी जी नहीं पाई थी और सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा पल जी भी पाऊँगी  वो मिला है मुझे इन बच्चों के साथ।               फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "


    जीवन में आये इस परिवर्तन में कुछ अलग ही तरह से वक़्त गुजारने का मौका मिला मुझे। शाम के वक़्त समुन्द्र के  किनारे  घूमना....घंटो बैठे -बैठे समुन्द्र की आती जाती लहरों को निरखना....वहाँ बच्चों और युवाओं  को मस्ती करते देखना....बुजुर्गो को टहलते या रिलेक्स करते देखना....कभी कभी पार्क में बैठ कर झूला झूलना.....हर जिम्मेदारियों  से दूर हूँ मैं। हाँ ,कभी-कभी फ़िक्र होती है घर की,पति की ,भाई बहनों की,माँ की याद भी बहुत आती है। लेकिन इन जगहों  पर आकर मेरी सारी फ़िक्र सारी यादें  पता नहीं कहाँ चली जाती है। दिल बिलकुल सुकून में डूब जाता है। फुर्सत के इन पलों  में बहुत सारे ख़्यालात उमड़ने लगे। मैं उन ख्यालातों को शब्दो में पिरौने लगी और मेरी लेखनी चल पड़ी। मैंने सोचा क्यों न मैं नये  दोस्त बनाऊँ  और उनसे अपनी बाते share करूँ , उनसे कुछ सीखूँ। 
    जिस तरह हर इंसान का जीवन को जीने का  अपना ही अंदाज़ होता है उसी तरह जीवन को, जीवन की परिस्थितियों को, रिश्तों को, समाज को और यहाँ  तक की व्यक्ति विशेष को देखने का भी उनका अपना एक नज़रिया होता है ,अपना एक दृश्टिकोण होता है।  वो अपनी ही नज़रिये से हर परिस्थिति को देखता है , समझता है , संभालता है  और सीखता भी है . यूँ  कहे कि सारा खेल नज़र और नज़रिये का है।  जैसे एक गिलास में आधा गिलास पानी है तो उसे देख कर कोई गिलास आधा भरा कहेंगा तो कोई आधा खाली, ऐसी एक दृष्टि या दृष्टिदोष के कारण कोई अपनी बिगड़ी ज़िंदगी सुधर लेता है तो कोई अपनी सुधरी- सवरी ज़िंदगी बिगड़ लेता है। 

   मैं भी जीवन के 40-45 बसंत देख चुकी हूँ. मैंने यही देखा है कि ये जीवन आप को हर पल कुछ-न-कुछ सिखाती ही रहती है बशर्ते आप सीखना चाहे तो। मैंने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव से बहुत कुछ सीखा है। मैं अपने ब्लॉग में आप से अपना यही अनुभव share करुँगी। वैसे तो जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला तो आप के खुद का ही जीवन होता है लेकिन इंसान देख कर और पढ़कर भी बहुत कुछ सीखता है।कभी-कभी एक छोटा बच्चा भी आप को बहुत कुछ सीखा जाता है।

      जीवन में कुछ भी शास्वत नहीं है।हर पल जीवन बदलता रहता है अगर आज आप बहुत सुखी है तो जरुरी नहीं की कल आप को दुःख ना देखना पड़ें और आज अगर दुःख है तो एक-ना-एक दिन ख़ुशियाँ वापस जरूर आएगी और जो दुःख जायेगा वो आप को कुछ-ना-कुछ जरूर सीखा कर ही जायेगा।  महत्वपूर्ण ये है कि आप उनमे से कितनी बातों  को ग्रहण करते हैं और उसे आगे अपने जीवन में कैसे अपनाते हैं ।आपने देखा होगा चिड़िया तिनका -तिनका जोड़ कर अपना घोसला बनती है और आँधी आकर एक पल में उनके घोसले को उड़ा ले जाती है। चिड़िया बैठ कर उस घोसले का मातम नहीं मानती बल्कि आँधी के थमते ही वो फिर तिनका इकठा करने में जुट जाती है आज के युवा पीढ़ी से हमने यही सीखा है कि -
                                               " जो गुजर गया वो कल की बात थी "

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...