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सोमवार, 4 मार्च 2019

एक खत पापा के नाम




आदरणीय पापा जी ,
                                सादर प्रणाम ,
  ये नहीं पूछूंगी कि- कैसे है आप ? कहाँ है आप ? क्योकि मैं जानती हूँ -आप उस परमलोक में है जहां सिर्फ आनन्द ही आनन्द है। ये भी जानती हूँ कि उस परम आनंद को छोड़ कर आप कभी कभी हम सब के इर्द गिर्द भी मडराते रहते है। जानती हूँ न अच्छे से आप, को इतना ज्यादा प्यार करते है आप हम सब से कि रह ही नहीं सकते हम सब से ज्यादा देर दूर और मुझसे तो और नहीं। याद है न माँ आप से कितना लड़ती थी मेरे शादी के लिए और आप क्या कहते थे -" मैं नहीं रह सकता अपनी बेटी से एक दिन भी दूर "और माँ गुस्सा होकर कहती -" कितने स्वार्थी बाप है आप " फिर आप झट से कहते -मैं  तुम्हारे साथ दहेज़ में चलूँगा है न  बेटा ,तुम्हारी सास से  कहूँगा कि बहु के साथ उसके बाप को भी कबुल करो तब अपनी बेटी विदा करुँगा और मैं भी आप से लिपट कर कहती -बिलकुल ठीक पापा जी। 

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

यादें

                        
 

                             "बहुत खूबसूरत होती है ये यादों की दुनिया ,
                                       हमारे बीते हुए कल के छोटे-छोटे टुकड़े 
                              हमारी यादों में हमेशा महफूज रहते हैं, 
                                      यादें मिठाई के डिब्बे की तरह होती है
                          एक बार खुला तो, सिर्फ एक टुकड़ा नहीं खा पाओगे "

      वैसे तो ये एक फिल्म का संवाद है परन्तु है सत-प्रतिशत सही.....यादें सचमुच ऐसी ही तो होती है और अगर वो यादें बचपन की हो तो " क्या कहने " फिर तो आप उनमे डूबते ही चले जाते हो....परत- दर -परत खुलती ही जाती हैं....खुलती ही जाती...कोई बस नहीं होता उन पर। उन यादों में भी सबसे प्यारी यादें स्कूल के दिनों की होती है। वो शरारते....वो मस्तियाँ....वो दोस्तों का साथ....खेल कूद और वार्षिक उत्सव के दिन....शिक्षकों के साथ थोड़ी-थोड़ी चिढ़न और ढेर सारा सम्मान के साथ प्यार....हाफ टाइम के बाद क्लास बंक करना और फिर अभिभावकों के पास शिकायत आना....फिर उनसे डांट सुन दुबारा ना करने का वादा करना और फिर वही करना...सब कुछ बड़ी सिद्दत से याद आने लगती है। सच बड़ा मज़ा आता था...क्या दौर था वो. ........
       ऐसी ही मेरे बचपन की एक कभी ना भूलने वाली यादें है....उस जमाने में तो हम सरकारी स्कूल में पढ़ते थे लड़को और लड़कियों का स्कूल ज्यादातर अलग अलग होता था। मैं तेज़,मेघावी  मगर थोड़ी शरारती बच्चों की क्षेणी में आती थी। हमारी एक टीचर थी " उर्मिला दी "( हमारे  स्कूल में टीचर को "दीदी " कह कर सम्बोधित करते थे ) वैसे तो वो किरानी के पद पर कार्यरत थी पर जब भी किसी शिक्षिका की अनुपस्थिति होती तो उन्हें  हिंदी पढ़ाने को भेज दिया जाता था। मेरी शरारतो की वजह से उनकी नजर हर वक़्त मुझपे ही रहती थी और उनके जरूरत से ज्यादा रोक-टोक करने के कारण में उनसे थोड़ी चिढ़ी हुई। हम दोनों के बीच हमेशा एक शीतयुद्ध जैसे हालात बना रहता था...जब भी वो क्लास में प्रवेश करती दुर्भाग्य से मैं कोई न कोई गलती करते पकड़ी ही जाती थी और वो सजा सुना ही देती थी। कभी-कभी तो मेरे कारण पुरे क्लास को सजा भुगतनी पड़ती क्योंकि लगभग पूरी क्लास से मेरी दोस्ती थी अगर उन सब ने मेरे पक्ष में बोल दिया तो मेरे साथ-साथ वो सब भी सजा की पात्र बन जाती थी। सजा भी क्या..सब को धुप में खड़ा कर देना। उनके इस सजा से हम सब परेशान हो गए थे। 
      एक दिन दोस्तों ने कहा -कामिनी कुछ तो कर यार...हम सब धुप में खड़ा हो हो कर परेशान हो गए है। एक दिन जब उन्होंने हमें धुप में खड़ा किया तो 10 -15 मिनट बाद ही मैं गश खा के गिर पड़ी....मेरे अचानक गिरने से लड़कियां चिल्लाने लगी...उनका शोर सुन सारी टीचरे और प्रिंसिपल तक आ गई। मुझे उठाकर क्लास रूम में लाया गया...मुँह पर पानी के छींटे मरे गए...पंखा किया गया तब मैंने आँखे खोली। प्रिंसिपल ने पूछा -किसने तुम सब को इतनी कड़ी धुप में खड़ा किया था। सबने एक स्वर में बोला- -उर्मिला दी ने...वो हमेशा हमें यही सजा दे देती है। प्रिंसिपल ने उन्हें ऑफिस में मिलने को कहा और चली गई। उर्मिला दी के तो होश उड़ गए ,उन्हें सदमा सा लग गया वो मेरे पास आकर मेरे सर पर हाथ फेरती हुई पूछी -"तुम ठीक तो हो न " मैंने "हां "में सर हिला दिया  फिर वो चली गयी। सब के जाते ही मैं ढहाके लगाती हुई खड़ी हो गई। सारी लड़कियों ने चौकते हुए पूछा - "तू ये सब नाटक कर रही थी क्या ?" मैं इतराते हुए बोली -जी हां ,अब देखना वो हमें कभी धुप में खड़ा नहीं करेगी। सब ढहाके लगाने लगे और उधर उर्मिला दी को प्रिंसिपल ने खूब डाटा कि अगर उस लड़की को कुछ हो जाता तो। 
       लेकिन पता नहीं उन्हें मुझसे क्या बैर था वो हाथ धो के मेरे पीछे पड़ी रहती और उनका साथ देती क्लास की मोनिटर उषा  जो मुझसे थोड़ी चिढ़ी रहती थी।  मैं उनकी सजाओ से बचने का कोई न कोई रास्ता निकल ही लेती थी। आख़िरकार एकदिन हम दोनों के बीच खुल कर असली युद्ध हो ही गया। वाक्या प्रीबोर्ड परीक्षा के समय का है। परीक्षा के दौरान उषा नकल कर रही थी उसी दौरान क्लास में उर्मिला दी प्रवेश की उनको देखते ही उसने वो नकल का पर्चा मेरी डेस्क पर फेक दिया...मैंने झट वो पर्ची उठा कर छुपाना चाहा कि कही उर्मिला दी देख ना ले। लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि उन्होंने उषा को पर्ची फेकते तो नहीं देखा किन्तु मुझे पर्ची उठाकर छुपाते देख लिया। उन्हें तो जैसे सुनहरा अवसर मिल गया हो...वो तेज़ी से भागती हुई मेरे पास आई और चिल्लाने लगी -कामिनी सीधे-सीधे पर्चा निकल दो....मैंने  सब देख लिया है। मैं समझ गई कि आज अगर ये पर्चा उनके हाथ लग गया तो मेरा भविष्य चौपट हो ही जायेगा...ये सारा खुंदक निकाल लेगी और मुझे बोर्ड परीक्षा से निष्कासित करवा कर ही मानेगी। मैंने सोचा लगता है आज युद्ध का आखिरी दिन हैं तो  क्यों न आज आर-पार का  युद्ध हो ही जाये...पर्चा तो मैं किसी हाल में इन्हे नहीं दूंगी। 
      मैंने थोड़ी बुद्धि से काम लिया और अपने आप को संयमित रखते हुए कहा -"दी आप को गलतफहमी हुई है पर्चा मेरे पास नहीं है।"वो गुस्से से बोली - "झूठ मत बोलो...मैंने अपनी आँखों से देखा है...चलो, बाहर निकलो..मैं चेकिंग करुँगी।" उनकी बेटी स्वर्णा जो मेरी दोस्त थी वो सब कुछ देख चुकी थी लेकिन उसने मेरा साथ देते हुए कहा- "उसके पास नहीं है माँ " लेकिन उर्मिला दी कहाँ मानने वाली थी...मानती भी कैसे उन्होंने तो सब कुछ देखा था। चुकि लड़कियों का स्कूल था तो उन्हें ये अधिकार था कि वो मेरे कपडे उतरवा सकती थी। मैं सब जानती थी फिर भी शांत स्वर में बोली -" बेशक आप मेरे कपडे उतरवा ले और तसल्ली कर ले लेकिन ये काम प्रिंसिपल के सामने होगा। वो और गुस्सा हो गई लेकिन मैं भी उनको हाथ नहीं लगाने दी ,आख़िरकार दूसरी टीचर जाकर प्रिंसिपल को बुला लाई। मैंने प्रिंसिपल से कहा -आप मेरे कपडे उतरकर चेकिंग कर सकती है...लेकिन यदि मेरे पास से पर्ची नहीं निकला तो आप इन्हे क्या कहेगी ये भी बताये....क्योकि आप जानती है इनकी तो आदत हो गई है मुझे पर आरोप लगाने की...लेकिन आज तो ये मेरे भी भविष्य एवं सम्मान का प्रश्न है। मैंने अपनी बुद्धि लगायी और उनके हर वक़्त की मुझसे  नाराजगी को ही अपना हथियार बना लिया। क्लास की आधी से ज्यादा लड़कियां तो  मेरे साथ थी ही उन्होंने भी मेरा भरपूर समर्थन किया। प्रिंसिपल ने खुद ही मेरी तलाशी ली...मेरा सौभाग्य जो उन्हें कुछ नहीं मिला। उन्होंने कहा -" सारे अपने-अपने स्थान पर जाओ और पेपर करो ,उर्मिला मैम आप मेरे साथ ऑफिस में आये। " मेरे तो जान में जान आई और उर्मिला दी बड़बड़ाये जा रही थी -"ऐसा कैसे हो सकता है मैंने अपनी आँखों से देखा था मेरा यकीन करें। "
      प्रिंसिपल बाहर जाते ही उन्हें डांटने लगी -" क्या बैर  है आप को उससे...हर वक़्त उस पर दोषारोपण ही करती रहती हैं और आज तो आपने हद ही कर दी। " भगवान के दया से उस दिन मैं बच गई लेकिन गुस्सा बहुत आ रहा था। मैंने उनकी बेटी से पूछ ही लिया - "क्या दुश्मनी है तुम्हारी माँ को मुझसे क्युँ हर वक़्त वो मेरे पीछे पड़ी रहती है ?"  मेरी बात सुनते ही स्वर्णा रो पड़ी फिर जब उसने अपनी और अपनी माँ की सारी आपबीती बताई तो   हम सब स्तब्ध रह गये। चार सालो से मैं उसके साथ थी मगर इस हकीकत से अनजान थी। उसने बताया कि -    "  मेरी माँ को मेरे पापा सालो पहले छोड़ कर कही चले गए है...नहीं पता कहाँ है जिन्दा है या मर गये है...माँ बड़ी मुश्किल से हम पांच भाई बहनो की परवरिश कर रही है...नौकरी भी तो स्थाई नहीं हुई है अभी...ये सारी परिस्थितियां झेलते-झेलते वो चिड़चिड़ी हो गयी हैं और अक्सर एक ही बात और एक ही व्यक्यि के पीछे पड़ जाती है...जब भी कोई थोड़ा सा गलती करते दीखता है या कोई उन्हें गलत ढहरता है तो वो उस व्यक्ति के पीछे ही पड़ जाती है और अपने आप को सही साबित करने में लग जाती है...तुम उन्ही व्यक्तियों में से एक हो बस, कामिनी तुम ऐसा समझो मेरी माँ मानसिक रूप से बीमार है- कहते कहते वो रोने लगी। 
     स्वर्णा की सारी बाते सुन मुझे उर्मिला दी से सहानभूति हो गई ,उनके लिए दिल में इज्जत बढ़ गई और अपने किये पर पछतवा भी होने लगा। हमारे समय में प्रीबोर्ड के बाद स्कूल से छुट्टी मिल  जाती थी सो हमारा स्कूल आना जाना बंद हो गया और उर्मिला दी से मुलाकात भी नहीं हुई। लेकिन खबर मिली कि - उनके पति की मौत की सुचना आई है। बोर्ड का  परीक्षाफल आने पर मैं उर्मिला दी के घर जब मिठाई का डब्बा लेकर गई तो देखा -उर्मिला दी सफेद साडी में बड़े ही शांत मुद्रा में बैठी थी ,मैंने उनके पैर छुये और डब्बा उनकी तरफ बढ़ा दिया ,उन्हेने मेरे सर पर अपना हाथ रखा और एक टुकड़ा मिठाई लेकर खा ली। मैंने कान पकड़ कर कहा -" सॉरी दी ,मैंने स्कूल में आप को बहुत परेशान किया है न...मैं उन सारी गलतियों के लिए आप से क्षमा चाहती हूँ...मुझे माफ़ कर दे। उन्होंने बड़े शांत भाव से मुझे गले लगते हुए बोली -कोई बात नहीं बच्चे...वो तो आप का बचपना है। फिर मैं एक-एक करके अपनी सारी शरारते बताती गई और उसे सुन उर्मिला दी हंसती रही। मैंने इससे पहले कभी उन्हें इस तरह खुलके हँसते नहीं देखा था। मैंने स्वर्णा से पूछा - " ये तबदीली कैसे हुई?" उसने कहा -"जब से पापा की मौत की खबर आई है न माँ बदल सी गई है...बिलकुल शांत हो गई है..चिड़चिड़ाना और गुस्सा करना तो भूल ही गई है...नौकरी भी स्थाई हो गई है न...अब सब ठीक है कामिनी। "
       उस वक़्त मेरा बालमन उन सभी बातों की गहराइयों को अच्छे से नहीं समझ पाया  था ,खासतौर पर ये बात कि  " पति के मरने के बाद वो शांत कैसे हो गई " जब बड़ी हुई तो समझ पाई कि जीते जी पति से दुरी और उसमे भी ये पता नहीं हो कि वो कहाँ  है जिन्दा हैं या मर गया ऐसी अवस्था तो जीते जी वो अग्निचिता है जो औरत को मरता नहीं है बल्कि धीरे-धीरे सुलगाता है लेकिन जब पति चिता के हवाले हो जाता है तो सब्र आ जाता है। यकीनन उर्मिला दी का यही दुःख था। 
      मेरी  हर गलती की स्वीकारोक्ति [ Confession ] के बाद उर्मिला दी मुझसे इतनी प्रभावित हो गई कि मुझे हद से ज्यादा प्यार करने लगी , उनसे एक घरेलू संबंध सा हो गया ,यहां तक कि जब मैं बड़ी हो गई तो मेरे लिए अपने बेटे का रिश्ता लेके आ गई। हमारे में जन्मपत्री मिलान  को बहुत महत्व देते है और उनके बेटे से मेरी जन्मपत्री नही मिली। सो रिश्ता तो नहीं हुआ पर उनका प्यार मेरे लिए कभी कम नहीं हुआ। वो मेरी शादी में भी आई ,जब वो मेरे पति से मिली तो उनके यही शब्द थे -"ये मेरी सबसे प्रिये छात्रा है...वैसे तो इसने मुझे बहुत तंग किया है लेकिन इसमें एक सबसे बड़ी खूबी हैं- ये दिल की बहुत अच्छी और सच्ची है...आप इसके जुबान पर मत जाइएगा। " मेरे पति आज भी उनकी बातों को याद करते हैं। मेरे घर के हर उत्सव में वी शामिल रही। हमेशा उनके दिल से मेरे लिए दुआ ही निकली। 
       आज वो इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी बेटी आज भी मेरी दोस्त है। उर्मिला दी की यादें अब भी मेरे साथ हैं ,उनका प्यार ,उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ बना रहा। उन्होंने मुझे जीवन की सबसे बड़ी सीख दी कि -" इंसान को उसके ऊपरी व्यवहार से मत जाँचो, क्युँकि इंसान का ऊपरी व्यवहार तो परिस्थितियों का गुलाम होता है ,उसकी अंदरूनी खूबसूरती को जानने ,पहचानने और समझने की कोशिश करो। " सच ,गुरु हर रूप में ज्ञान ही दे जाते हैं ,तभी तो कहते हैं -

                                           गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णु , गुरुर्देवो महेश्वरः। 
                                गुरुः साक्षात् परब्रह्मा ,तस्मै श्री गुरुवे नमः।। 





बुधवार, 2 जनवरी 2019

जीवन का अनमोल "अवॉर्ड "

                                                                   " नववर्ष मंगलमय हो "
                                                       " हमारा देश और समज नशामुक्त हो "

                                           नशा जो सुरसा बन हमारी युवा पीढ़ी को निगले जा रहा है...
                                    अपने आस पास नजरे घुमाये देखे...आये दिन कई घर और ज़िंदगियाँ 
                                इस नशे रुपी सुरसा के मुख में समाती जा रही है। मेरे जीवन से जुड़ा मेरा ये 
                                                  संस्मरण नशामुक्ति के खिलाफ एक आवाज़ है........


        सुबह-सुबह अभी उठ के चाय ही पी रही थी कि फोन की घंटी बजी...मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से  चहकते हुए शालू की आवाज़ आई, हैलो माँ --" Merry Christmas" मैंने कहा -" Merry Christmas you too" बेटा , मैं अभी-अभी सो कर उठी हूँ और उठते ही मैंने सोचा सबसे पहले अपने सेंटा को  Wish करूँ--वो चहकते हुए  बोली।  मैंने कहा --बेटा, मैं तो आप से इतनी दूर हूँ और...पिछले साल से मैंने आप को कोई गिफ्ट भी नहीं दिया..फिर मैं आप की सेंटा कैसे हुई? उसने बड़े प्यारी आवाज़ में कहा -" माँ,आप जो हमें गिफ्ट दे चुकी है उससे बड़ा गिफ्ट ना किसी ने दिया है और ना दे सकता है...उससे बड़ा गिफ्ट तो कोई हो ही नहीं सकता "  मैं थोड़ी सोचती हई बोली --ऐसा कौन सा बड़ा  गिफ्ट मैंने दे दिया आप को बच्चे, जो मुझे याद भी नही। रुथे हुए गले से वो बोली -" पापा " आपने हमें हमारे पापा को वापस हमें दिया है माँ। ये सुन मैं निशब्द हो गई। 

      मुझे ऐसा लगा जैसे इस जीवन का सबसे बड़ा अवॉर्ड दे दिया हो मेरी बेटी ने मुझे। ईश्वर ने मुझे जो ये मनुज तन दिया है उससे मैंने कुछ तो ऐसा काम किया जो मेरी बेटी ने मुझे इतना बड़ा सम्मान दिया। सार्थक हो गया मेरा जीवन। मुझे वो सारी परेशानियां ,सारी कठिनाइयाँ ,लोगो की गालियाँ सब याद आने लगी लेकिन वे मुझे तकलीफ नहीं दे रही थी बल्कि एक सुखद एहसास करा रही थी। मैं ईश्वर को धन्यवाद देने लगी -हे प्रभु, अगर आप ने मुझे उस वक़्त वो शक्ति ना दी होती तो शायद मैं उस वक़्त एक दृढ निश्चय के साथ एक कठोर फैसला नहीं ले पाई  होती और आज मेरी शालू उस उपहार से वंचित रह जाती जो उसके जीवन की  सबसे बड़ी ख़ुशी है। 

     सच ,उस दिन पता नहीं मुझमे कहाँ से इतनी हिम्मत आ गई थी जो मैंने सारे परिवार के सामने कह दिया -" गुड्डी वापस अपने घर नहीं जायेगी वो यही रहेगी हमारे साथ दिल्ली में " सुन के सब स्तब्ध रह गये ,माँ पापा घबड़ा गये और भैया गुस्से में उठ कर चले गए। मैंने अपनी बात पुरी की - उसे वहाँ उस नर्क में भेजने से अच्छा है हम तीनो बच्चें समेत गुड्डी को मार डाले...अपनी बहन का यूँ रोज-रोज घुट-घुट कर मरना...मुझसे नहीं देखा जाता। " पापा ने कहा -  लेकिन ये कोई समाधान नहीं है बेटा ,कोई और रास्ता होगा। कोई रास्ता नहीं है पापा...उस नशेड़ी आदमी को जब तक उस के वातावरण से बाहर नहीं निकला जायेगा और सही तरीके से  इलाज नहीं करवाया जायेगा वो ठीक नहीं होंगे...रातों- दिन वो नशे में डूबे रहते हैं...सड़को पर यहाँ -वहाँ गिरे पड़े मिलते हैं...घर आ के कितने तमाशे करते हैं...पापा, आप एक बार इन बच्चों के डरे सहमे चेहरे तो देखें...जब वो चीखते-चिल्लाते हैं तो बच्चें कैसे सहमे से दुबक जाते हैं....पापा, समझने की कोशिश कीजिये वो नेपाल का बॉडर इलाका है जहां ७-८ साल के बच्चें भी नशा करते हैं वहाँ अपने रॉनी का भविष्य क्या होगा....ये दोनों लड़कियाँ  जो अभी मात्र सात साल और दस साल की है उनके जेहन पर कैसा असर होगा...जब वो देखेगी कि रोज रात को उसके पापा इधर - उधर नाले में पड़े होते हैं और उनकी  माँ उन्हें  उठा कर लाती है तो कैसी मानसिकता  बनेगी उनकी...मैं एक सांस में अपनी बात बोले जा रही थी। आप देखें तो पापा, शालू अभी से कितनी डरी  सहमी रहती है....पापा इन बच्चों का भविष्य खराब होते और अपनी बहन को यूँ  तिल - तिल कर मरते मैं नहीं देख सकती....उसके ससुराल वाले तो हाथ पर हाथ धरे तमाशबीन बने है....ऐसे हालत में हमें कुछ न कुछ तो करना होगा न पापा  - ये कहते -कहते मैं रो पड़ी।

    पापा थोड़े फिक्रमंद हुए और बोले -बेटा दामाद जी को कैसे रोकेंगे वो तो यहाँ किसी कीमत पर रूकने को राज़ी नहीं होंगे। मैंने कहा - मेरे पास एक उपाय है...हम किसी बहाने से गुड्डी को यहाँ रोक लेते हैं और उन्हें जाने देते हैं....थोड़े-थोड़े दिन करके गुड्डी को एक महीने रोकेंगे फिर उन से कह देंगे की गुड्डी अब वहाँ नहीं जाएगी आप को ही यहां आना होगा....पापा, मैं जानती हूँ वो मना करेंगे...वो और उन के घरवाले गुस्सा भी होंगे लेकिन....मुझे पक्का यकीन है वो एक न एक  दिन यहाँ जरूर आएंगे क्योकि मैं उनकी सबसे बड़ी कमजोरी जानती हूँ....वो गुड्डी को बहुत प्यार करते उससे दूर वो नहीं रह पाएंगे....हमें उनके इसी कमजोरी का फायदा उठा कर उन्हें उस नर्क से वापस ले कर आना है। पापा बहुत डरे हुए थे बोले -बेटा, कही  दमाद जी और उनके घर वाले गुड्डी को हमेशा के लिए छोड़ दिए उसे तलाक दे दिये तो मेरी बच्ची का क्या होगा। मैंने पापा को समझाया -पापा, पहली बात तो ये कि वो लोग ऐसा कुछ नहीं करेंगे और अगर तलाक दे भी देते हैं तो क्या हमारी बहन इस काबिल है कि वो अपने बच्चों को पाल सकती है....एक ऐसा इंसान जिसे अपने परिवार से ज्यादा नशा प्यारा है और उसका परिवार जो तमाशबीन बना एक औरत और तीन बच्चों को तिल-तिल  कर मरते हुए देख रहा है....वैसे पति और वैसे ससुराल से अच्छा है वो अकेली जिये। मैंने अपनी बातों पर जोर देते हुए कहा -पापा, आप मुझ पर यकीन करें...भरोसा रखें  मैं अपनी बहन का घर तोड़ नहीं रही बल्कि उसके टूटे हुए घर को बसाने की बात कर रही हूँ...मेरे पास पुख्ता प्लान है बस....आप मेरा साथ दे।
     मेरे समझने पर पापा माँ मान गए।  मैंने गुड्डी को समझाया कि -मेरी बहन  एक बात याद रखना...एक बार जो हम कदम उठा लगे तो पीछे मूड कर नहीं देखना है फिर चाहे जीत हो या हार वापस नहीं लौटेंगे...ये कसम खाओ .....मैं तुम्हारा घर बसाऊंगी यकीन रखना बहन मुझ पे। मेरी बहन ने मुझ पर भरोसा किया और मैंने भगवान पर और हम चल पड़े एक इंसान को नशामुक्त करा उसके पत्नी और बच्चों के पास वापस लेकर आने के अभियान पर।

      मेरे पति ने और छोटे भाई ने भरपूर साथ दिया। मैं अपनी बहन और बच्चों को अपने घर ले के आ गई। पापा ने कहा था कि मैं उन्हें मायके में ही रहने दूँ, पर मैंने पापा को समझाया कि-ये संघर्ष बहुत बड़ा है पता नहीं कितने दिन लगे...मैं अपनी बहन और बच्चों को भाभियों पर बोझ नहीं बनने दूंगी...आप सारा खर्च उठालेगे फिर भी अगर भाभियो ने बच्चों को किसी भी चीज़ के लिए रोका-टोका तो गुड्डी क्या मैं नहीं सह पाऊँगी....ये बच्चें मेरे भी है माँ कहते  हैं मुझे....उनका किसी चीज़ के लिए तरसना मैं नहीं सह पाऊँगी...मैं कोई धना सेठ नहीं लेकिन फिर भी मेरे पास जो कुछ होगा हम प्यार से मिल बाँट के खा लगे। फिर जैसा हमने सोचा था वही हुआ जैसे ही हमने दमाद जी से कहा -गुड्डी नहीं  जाएगी आपको दिल्ली आना  होगा ,उसी पल युद्ध का शंखनाद हो गया,सारी प्रतिक्रियाऐ वैसे ही हुए जैसे हमने सोच रखा था।
      पहले तो उसके ससुराल वालो  ने  पापा को उल्टा सीधा सुनाया फिर तलाक की धमकी भी देने लगे। मैंने पापा को समझाया था कि- आप उन लोगो से कोई बहस नहीं करेंगे बस, इतना ही कहेगे कि -आप सब को जो उचित लगे करे लेकिन मेरी बेटी वापस नहीं जाएगी....आप अपने भाई को यह भेजे हम उनका इलाज करवाएंगे....उनका उस माहौल से निकलना जरुरी है....वहाँ रहते हुए वो कभी नशामुक्त नहीं हो पायेगे ,पापा ने वैसा ही किया। मेरे बहनोई और उनके घरवालों को समझ आ गया था कि ये सब किया-धरा मेरा है और मेरी बहन मेरे घर में है। वो जब भी बहन को फोन करते तो मुझे गन्दी-गन्दी गालियाँ देते ,यहाँ  तक कि शालू जो मेरी बहन की बड़ी बेटी है और मात्र १० साल की थी उसे भी फोन कर मेरे लिए गन्दी गालियाँ  और बदुआएँ देते। फ़ोन रख शालू मुझे पकड़कर रोने लगती और बोलती - माँ वो लोग और पापा आप को बहुत कोसते हैं....गालियाँ देते हैं...मुझे बिल्कुल अच्छा  नहीं लगता। तो मैं उसे समझती कि -कोई बात नहीं बच्चें ,उनकी गालियाँ मेरे लिए फूल बन जाएगी जिस दिन आप  के पापा अच्छे हो जायेगे। 
      बहन को मेरे पास रहते हुए जब ३-४ महीने हो गए और उधर बहनोई ने पी पी कर अपना बुरा हाल कर लिया। मैंने बहन को समझाया था कि -  जब भी नशे के हालत में वो फोन करे तुम एक ही बात बोलना " आजाये मेरे पास "आख़िरकार मेरे बहनोई टूटने लगे और एक दिन उन्होंने मुझे गन्दी गाली देते हुए बोला  कि -" मैं आऊँगा लेकिन उसके घर में नहीं आऊँगा " मैं बस इसी पल के इंतज़ार में थी मैंने १० दिन के अंदर ही बहन को एक अलग घर लेके अपने घर से सारे सामन की व्यवस्था कर उसे बसा दिया ,साथ के साथ २५००० के एक छोटी सी रकम से उसके लिये एक छोटी सी स्टेशनरी की दुकान भी कर दी। जैसे ही  मेरी बहन ने  उन्हें बताया कि  अब वो अलग घर में है तो मेरे बहनोई अपने घर वालो की मर्ज़ी के खिलाफ अपने बच्चो के पास आ गए। लेकिन समस्या ये थी कि यहाँ आने के बाद भी वो दिन रात नशे में धुत ही रहते थे। हमने लाख समझाया लेकिन कोई असर ना होता। तब हमने उन्हें नशामुक्ति केंद्र में भेजवा दिया जहां वो एक साल रहे,फिर उनकी कांसलिग हुई तब जाकर धीरे धीरे उनका नशा छूटा 
      इन सारे घटनाक्रम में ३-४ साल लग गए क्योकि मेरे बहनोई दिल्ली आते तो जरूर मगर १ - २ महीने से ज्यादा नहीं रुकते थे। बच्चो की याद आती तो आजाते और फिर जब घर वालो का दबाव होता तो वापस चले जाते। तब तक बहन के घर का सारा खर्च बच्चो की पढाई- लिखाई का खर्च मैं और पापा उठाते। जब हमने बहनोई को नशामुक्ति केंद्र में डाला तो उनके घरवालों को थोड़ा बहुत समझ आने लगा कि हमलोग उनका घर नहीं तोड़ रहे है बल्कि उनके भाई की जान बचा रहे है ,वो ये समझे की उनके भाई को उस माहौल से दूर करना कितना जरुरी था फिर वो लोग नॉर्मल हो गए और आर्धिक रूप से मदद भी करने लगे। आज मेरे बहनोई पूर्णतः स्वस्थ हो चुके है।  वो इस व्यसन के शिकार शुरू से नहीं थे शादी के १० साल बाद गलत संगत की वजह से उन्हें नशे की लत लग गई थी। पैसे की कमी तो उनके पास थी नहीं बस कर्म ही खोटे थे सो मेरे समझने पर बच्चो के भविष्य के लिए वो अपना घर बना दिल्ली में ही बस गए। २५००० की छोटी रकम से खोली गई दुकान आज बड़ी हो गई है।
       मेरे बहनोई मुझे अपनी बड़ी बहन मानते थे और है भी लेकिन नशे का गुलाम व्यक्ति जब खुद का नहीं होता तो मेरा क्या होता इसीलिए वो जब बुरे हाल में थे तो मुझे अपना दुश्मन समझ भला बुरा कहते थे ये बात मैं अच्छे से समझती थी इसलिए उस वक़्त के उनके किसी भी बातो को मैंने महत्व नहीं दिया था। आज मेरे वही बहनोई मेरे एक आवाज़ पर आधी रात को भी आ जायेगे। शालू जिसका बालमन एक एक घटनाक्रम का साक्षी था और जो इन सारी बातो को दिल से लगाई हुई थी और कहती थी कि -" माँ ना होती तो हमारा क्या होता "(वो सारे बच्चे मुझे माँ ही कहते है ) और आज क्रिसमस के दिन वो मुझे " सेंटा " कह अपनी कृत्यज्ञता जताई है। जब मैं इन सारे जंग से गुजर रही थी तो मैं ये सबकुछ अपना फ़र्ज़ समझ कर कर रही थी क्योकि मैं अपनी बहन और  उसके बच्चो को यूँ घुट घुट कर मरते नहीं देख पा  रही थी  बस इसीलिए मैंने अपने जीवन के ५ साल उसके साथ संघर्ष मे गुजरे। मेरे अंदर ये डर भी था कि मैंने जैसा सोचा है ऐसा नहीं हुआ और गुड्डी को उनलोगो ने छोड़ दिया या बहनोई को कुछ  हो गया तो क्या होगा,सारा इलज़ाम मेरे सर होगा सब मुझे ही दोषी कहेगे।  लेकिन दिल में ये विश्वास था कि मैं इन बच्चो को खुशियां देने निकली हूँ तो मेरा भगवान मेरे साथ है और मैं जरूर कामयाब रहूँगी।गुड्डी को बसा कर मैं खुश थी लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा बच्चा मेरे किये का इतना बड़ा अवार्ड देगा मुझे ,सेंटा कह कर सम्मानित करेगा। आज मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानती हूँ कि-" मैं  शालू की माँ हूँ "
      मैं यहां अपनी और अपनी बहन की जीवनगाथा नहीं सुना रही बल्कि इस आपबीती के माध्यम से ये बताना चाहती हूँ कि -आज कई औरतो का घर इस नशे की आग में झुलस रहा है और उसका साथ उसके ही परिवार वाले नहीं देते  बल्कि दोष भी उस औरत को ही दिया जाता है कि -" तुम्ही में कोई कमी होगी जो वो इस नशे की राह पर चल निकला है "मेरी बहन के साथ भी ऐसा ही होता था। ( हां मैं मानती हूँ कि कभी कभी औरत भी कसूरवार होती है ) परिवार के सदस्य बस एक दूसरे पर इलज़ाम लगते हुए तमाशबीन बने रहते है और एक इंसान मौत के मुह में चला जाता है और एक परिवार बर्बाद।  ऐसे वक़्त में परिवार के हर सदस्य को मिल कर इस समस्या का समाधान ढूढ़ना चाहिए और भटके हुये राही को राह पर ले आना चाहिए। .इसके लिए साम -दाम -दंड -भेद  सारी तरकीबे लगा उसे नशामुक्त करवा एक परिवार को जीते जी मरने से बचाना चाहिए।इन  दिनों  मेरी एक दोस्त का भाई जो मात्र ३५ साल का है ,शराब पी - पीकर उसका  लिवर ख़त्म हो  चूका है औरआज वो  ज़िंदगी और मौत से जूझ रहा है, तीन छोटे छोटे बच्चे है ,क्या करेगी वो औरत ,कैसे पालेगी बच्चो को,तरस आता है ऐसे आदमियों पर।ऐसा एक घर का किस्सा नहीं है आज कल तो ये व्यसन मुँह फाड़े खड़ा है। 
     मैं अक्सर सोचती हूँ कि -नशे में  ऐसी क्या बात है जो लोग इसके मोहपाश में गिरफ्त होकर इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते है ,घर -परिवार ,सुख -चैन ,वर्तमान -भविष्य यहां तक कि अपने स्वस्थ और प्राणो तक की बाज़ी लगा देते है। कोई क्यों हो जाता है यकायक नशे का दीवाना , गुलाम ,कठपुतली बन रह जाता है वो नशे का। क्यों हो जाता है वो पराधीन ,विवश और सम्मोहित। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है आंतरिक ,मनोवैज्ञानिक या भौतिक। क्या वो यथार्थ से कन्नी काटने के लिए पीता है या यथार्थ से भागने के लिए ,पलायन के लिए या आत्मविश्वाश जगाने के लिए।  वास्तव में अलग अलग लोग अलग अलग कारणों  से पीते  है जबकि समान्य कारणों से इसके गुलामो जाते है। 
     जब हम सोचते हैकि -लोग पीते क्यों है ? तो समान्यतः इन बातो पर ध्यान जाता है कुछ लोग तो बेकारी में पीते है तो कुछ काम की अधिकता के कारण पीते है ,कुछ लोग सोहबत में पीते तो कुछ अपनी ऊब मिटने के लिए ,कभी गम बहाना बनता है पीने का तो कभी ख़ुशी ,कोई बंधन के आकर्षण में पीता है तो कोई बंधनमुक्त होने के लिए ,कोई  गरीबी से परेशान होकर  पीता है तो किसी के लिए सुख सम्पनता के अधिकता पीने का कारण  बनती है। पीने का कारण कुछ  भी हो पर अंजाम एक सा होता है " बर्बादी और सिर्फ बर्बादी "  ये सब जानते है ,सब समझते है फिर भी जो एक बार इस मदिरा  को अपना  लिया तो उससे छुटकारा पाना मुश्किल हो  जाता है। 
     लोग कहते है कि नशा महबूबा है साथ लेके जाती है लेकिन मैं मानती हूँ कि -वो महबूबा नहीं बल्कि एक रखैल है। क्योकि कोई महबूबा अपने महबूब को और उसके घरौदे को सलामत देखना चाहती है,उसका बुरा नहीं चाहती वो तो एक रखैल या बेश्या का काम है जो पहले अपना गुलाम बनती है फिर बर्बाद कर देती है। तो ऐसी परिस्थिति में अगर सारा परिवार एक होकर इस नशे रुपी राक्षसनी के खिलाफ खड़े हो जाये तो वो हार मानेगी ही जरूर। ये मुहीम सिर्फ एक वयक्ति बिशेष के लिए नहीं बल्कि  पुरे समाज के लिए जरुरी है। वैसे कई  जगहो पर औरतो ने इस नशे  खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है परन्तु इसमें परिवार का सहयोग मिलना बहुत जरुरी है। तभी हमे पूर्णतः सफलता मिलेगी। जैसे हमारे परिवार ने हमारी शालू को उसके पापा के रूप मैं उसकी खुशियां लौटाई। 


                                                                   
                                                               " मेरी बेटी शालू को समर्पित "

सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

"दिल तो बच्चा है जी"


 
       ज़िंदगी हर पल एक चलचित्र की तरह अपना रंग रूप बदलती रहती है। है न , जैसे चलचित्र में एक पल सुख का होता है तो दुसरा पल दुःख का...फिर अगले ही पल कुछ ऐसा जो हमें अचम्भित कर जाता है और एक पल के लिए हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि "क्या ऐसा भी होता है ?"ढाई तीन घंटे की चलचित्र में बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर दिख जाता है। हमारा जीवन भी तो एक चलचित्र ही है फर्क इतना है कि- चलचित्र में हमें  "The end "देखने को मिल जाता है वो भी ज्यादा से ज्यादा खुशियों से भरा अंत। हमारे जीवन का The end क्या, आगे क्या होगा ये भी हमें नहीं पता होता है।और पढ़िये

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "


         
     

     
  फुर्सत के चंद लम्हे जो मैं खुद के साथ बिता रही हूँ। घर से दूर,काम -धंधे,दोस्त - रिस्तेदारों से दूर,अकेली सिर्फ और सिर्फ मैं। हाँ,आस-पास  बाहरी दुनिया है कुछ लड़के - लड़कियां  जो मस्ती में डूबे हैं ,कुछ बुजुर्ग जो अपने पोते - पोतियों के साथ खेल रहे हैं ,कुछ और लोग है जो शायद मेरी तरह बेकार है या किसी का इंतज़ार कर रहे हैं । पास से ही एक सड़क गुजर रही है जिस पर गाड़ियों का आना-जाना जारी है। इन सारे शोर-शराबो के वावजूद मुझे बहुत सुकुन महसूस हो रहा है.ना कोई चिंता - फ़िक्र है ना कोई विचार, सिर्फ ख़ामोशी है। ऐसा शायद इसलिए है कि हर वक़्त लोगो में घिरी रहने और काम धंधो में उलझी रहने वाली "मैं" जिसे अकेले वक़्त गुजरने का पहला मौका मिला है। दरअसल,मेरी बेटी ने एक institute ज्वाइन किया है और आज उसके क्लास का पहला दिन है।
     
    अनजान शहर ,अनजान रास्ते हैं तो मुझे उसके साथ आना पड़ा। तीन  घंटे की उसकी क्लास है तो मेरी भी तीन घंटे की क्लास लग गई और वक़्त गुजरने के लिए मैं पास के ही एक पार्क में आ बैठी। मैं काफी बातूनी हूँ चुप बैठ ही नहीं सकती तो सोचा क्यूँ न आज खुद से ही बातें कर लूँ। "खुद से बातें "लोग पागल नहीं समझेंगे। तो सोचा कागज कलम का सहारा ले लेती हूँ। मैंने पास बैठे एक लड़के से एक पेपर माँगा पेन तो हर वक़्त मेरे साथ होता ही है और बैठ गई खुद से बात करने।और पढ़े 

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

हर पल सिखाती ज़िन्दगी


                        

    दोस्तों,मैं कोई शायरा,लेखिका या कवयित्री नहीं हूँ। मैंने जवानी के दिनों में डायरी के अलावा कभी कुछ नहीं लिखा है। हाँ , बचपन से कुछ लिखने की चाह जरूर थी। लेकिन किस्मत कुछ ऐसी रही कि छोटी उम्र से ही जो पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझी तो बस उलझी ही रह गई। उम्र के तीसरे पड़ाव में आ गई लेकिन...कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि- कुछ वक़्त खुद के साथ बिताऊँ ...खुद से बातें करूँ...खुद को समझूँ.....खुद के अंदर झांक के देखूँ  कि -मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ, मैं कैसी  हूँ ,मेरा खुद का कोई वज़ूद है भी या नहीं ?
     अपने जीवन की कहानी और उसकी उलझनों को बता कर मैं आप को बोर नहीं करुँगी क्योंकि मेरी पीढ़ी की हर औरत का मेरे जैसा ही हाल रहा। खुद के लिए कम जीना और दुसरों  के लिए ज्यादा। हाँ,ये जरूर बताऊँगी कि मेरी लाइफ में बदलाव कैसे आया। भगवान ने मुझे एक बड़ी प्यारी सी बेटी दी है अभी वो  20 साल की है उसका सपना ऎक्ट्रेस बनने का है और उसी का सपना पूरा करने मैं मुंबई मायानगरी में आई हूँ। यहाँ  सिर्फ मैं और मेरी बेटी ही है। मैंने अपने समय के सारे रूढ़िवादिताओं  को तोड़ कर अपनी बेटी की माँ कम और दोस्त ज्यादा बनने की कोशिश की है। उसमे बहुत हद तक कामयाब भी रही हूँ। मैं अपनी बेटी की ही नहीं उनके दोस्तों की भी दोस्त हूँ। वो अपनी सारी बातें  मुझसे बेझिझक शेयर करते हैं। उन्हें मेरे साथ घुमने या मूवी देखने जाने में भी कोई परहेज़ नहीं होता। संझेप में कहूँ तो मेरे साथ भी वो फुल एन्जॉय करते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि वो मेरी respect नहीं करते हैं। मैं भी अपनी सीमाओं का ध्यान रखती हूँ और जितना space उनसे रखना चाहिए रखती भी हूँ। कहने का मतलब, दोस्त के साथ-साथ माँ का रोल भी बाखूबी निभाती हूँ।  जवानी में वो  वक़्त जो मैं कभी जी नहीं पाई थी और सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा पल जी भी पाऊँगी  वो मिला है मुझे इन बच्चों के साथ।               फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "


    जीवन में आये इस परिवर्तन में कुछ अलग ही तरह से वक़्त गुजारने का मौका मिला मुझे। शाम के वक़्त समुन्द्र के  किनारे  घूमना....घंटो बैठे -बैठे समुन्द्र की आती जाती लहरों को निरखना....वहाँ बच्चों और युवाओं  को मस्ती करते देखना....बुजुर्गो को टहलते या रिलेक्स करते देखना....कभी कभी पार्क में बैठ कर झूला झूलना.....हर जिम्मेदारियों  से दूर हूँ मैं। हाँ ,कभी-कभी फ़िक्र होती है घर की,पति की ,भाई बहनों की,माँ की याद भी बहुत आती है। लेकिन इन जगहों  पर आकर मेरी सारी फ़िक्र सारी यादें  पता नहीं कहाँ चली जाती है। दिल बिलकुल सुकून में डूब जाता है। फुर्सत के इन पलों  में बहुत सारे ख़्यालात उमड़ने लगे। मैं उन ख्यालातों को शब्दो में पिरौने लगी और मेरी लेखनी चल पड़ी। मैंने सोचा क्यों न मैं नये  दोस्त बनाऊँ  और उनसे अपनी बाते share करूँ , उनसे कुछ सीखूँ। 
    जिस तरह हर इंसान का जीवन को जीने का  अपना ही अंदाज़ होता है उसी तरह जीवन को, जीवन की परिस्थितियों को, रिश्तों को, समाज को और यहाँ  तक की व्यक्ति विशेष को देखने का भी उनका अपना एक नज़रिया होता है ,अपना एक दृश्टिकोण होता है।  वो अपनी ही नज़रिये से हर परिस्थिति को देखता है , समझता है , संभालता है  और सीखता भी है . यूँ  कहे कि सारा खेल नज़र और नज़रिये का है।  जैसे एक गिलास में आधा गिलास पानी है तो उसे देख कर कोई गिलास आधा भरा कहेंगा तो कोई आधा खाली, ऐसी एक दृष्टि या दृष्टिदोष के कारण कोई अपनी बिगड़ी ज़िंदगी सुधर लेता है तो कोई अपनी सुधरी- सवरी ज़िंदगी बिगड़ लेता है। 

   मैं भी जीवन के 40-45 बसंत देख चुकी हूँ. मैंने यही देखा है कि ये जीवन आप को हर पल कुछ-न-कुछ सिखाती ही रहती है बशर्ते आप सीखना चाहे तो। मैंने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव से बहुत कुछ सीखा है। मैं अपने ब्लॉग में आप से अपना यही अनुभव share करुँगी। वैसे तो जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला तो आप के खुद का ही जीवन होता है लेकिन इंसान देख कर और पढ़कर भी बहुत कुछ सीखता है।कभी-कभी एक छोटा बच्चा भी आप को बहुत कुछ सीखा जाता है।

      जीवन में कुछ भी शास्वत नहीं है।हर पल जीवन बदलता रहता है अगर आज आप बहुत सुखी है तो जरुरी नहीं की कल आप को दुःख ना देखना पड़ें और आज अगर दुःख है तो एक-ना-एक दिन ख़ुशियाँ वापस जरूर आएगी और जो दुःख जायेगा वो आप को कुछ-ना-कुछ जरूर सीखा कर ही जायेगा।  महत्वपूर्ण ये है कि आप उनमे से कितनी बातों  को ग्रहण करते हैं और उसे आगे अपने जीवन में कैसे अपनाते हैं ।आपने देखा होगा चिड़िया तिनका -तिनका जोड़ कर अपना घोसला बनती है और आँधी आकर एक पल में उनके घोसले को उड़ा ले जाती है। चिड़िया बैठ कर उस घोसले का मातम नहीं मानती बल्कि आँधी के थमते ही वो फिर तिनका इकठा करने में जुट जाती है आज के युवा पीढ़ी से हमने यही सीखा है कि -
                                               " जो गुजर गया वो कल की बात थी "

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...