शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

" एक सोच "-  बदलाव  की ओर पहला कदम

   

    हर तरफ हाहाकार मचा हैं ,हर आत्मा चीत्कार कर रही हैं ,हर मन की भावनाएं आक्रोशित हो रही हैं। हर हृदय व्यथित हैं,दुखी हैं हालत से ,परिवार और बच्चों से ,समाज से ,कानून से ,व्यवस्था से,पर्यावरण से। दोषारोपण कर रहे हैं एक दूसरे के मानसिकता पर ,युवापीढ़ी पर ,सरकार पर । प्रश्नचिन्ह लगा रहे कि -क्या होगया हैं मानव को ,कहा जा रहा हैं हमारा समाज ,क्युँ मरती जा रही हैं संवेदनाएं ,आखिर और कितना गिरेगा मनुष्य ,कहा जा कर रुकेगी हमारी ये तत्कालीन सभ्यता ?ऐसे कितने सवाल रोज उठ रहे हैं ,एक स्वर में हम कह रहे हैं -"कितने बुरे दिन आ गए हैं ,ये तो घोर कलयुग  हैं। "

   कुछ के लिए तो ये सिर्फ शोर मचाना भर हैं ,उन्हें बस ये जताना हैं कि -देखो जी, मैं भी देश समाज और मानवता के लिए चिंतित हूँ जबकि बहुत हद तक इन परिस्थितियों के जिम्मेदार वे स्वयं होते हैं। इसी हालत में कुछ मनुष्यरूपी जानवर भी हैं जो मस्त हैं अपनी मस्ती में ,सूअरों की तरह कीचड़ में डूबे हुए,उन्हें सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति नजर आती हैं ,उन्हें तो बस भूख मिटानी हैं अपनी क्षुधा की , अपनी जिस्म की ,वो गिद्धों की तरह बोटियाँ नोच नोचकर खा रहे हैं ,वो बोटी इंसानी जिस्म की हैं या जानवरों की कोई फर्क नहीं उन्हें। दूसरों के  तन और मन दोनों को प्रताड़ित करना ही इन  पिचासरुपी आत्माओं का काम होता हैं।
    परन्तु कुछ संवेदनशील आत्माएं हैं जो विचलित हो रही हैं इंसान और प्रकृति के इस बदलते स्वरूप को देखकर ,चिंतित हो रही हैं कि -कहाँ तक जाएगी ये बर्बरता ,कब तक बने रहेंगे हम गैरजिम्मेदार,क्या मनुष्य अंततः जानवर ही बन जाएगा ?बंदर से विकसित होकर मानव बने थे और अब धीरे धीरे दानव और भेड़ियां या उनसे भी गिरे हुए वेह्शी दरिंदे बनते जा रहे हैं। नहीं पता कहाँ अंत होगा इसका? हवाओं में साँस लेना मुश्किल हैं ,पानी पीने के लायक नहीं ,भोजन जहरीले हो चुके हैं ,मानव को नोच कर मानव खा रहा हैं ,दुःख -दुःख और सिर्फ दुःख ही नजर आ रहा हैं ,क्या ये धरती नरक बन जाएगी ?कोमल आत्माएं अधीर हो रही हैं, खुद को लाचार महसूस कर रही हैं ,विकल हैं कि -कैसे बदलेगे  ये हालत ,ये परिस्थितियाँ ,ये समाज ,ये  पर्यावरण ?
   बस एक बार इन परिस्थितियों से खुद को इतर रख चिंतन करें -घर -परिवार ,देश -समाज मानव मात्र से बनता हैं और मानव बनता हैं संवेदनाओं से ,संवेदनाएं ख़त्म तो मानव -दानव और जानवर सब एक समान , संवेदनाएं उपजती हैं हमारी अच्छी सोच और शुद्ध विचारों से ,और शुद्ध विचार  पनपते हैं हमारे अच्छे संस्कारों से। हमारे संस्कार ही हमारा कर्म निर्धारित करते हैं और हमारे कर्म ही हमारा भाग्य या हमारी परिस्थिति जन्य दशा निर्धारित करता हैं।
   परिस्थिति और परिवेश एक दिन में नहीं बनता और ना ही बिगड़ता हैं। ये एक धीमी प्रक्रिया हैं इसलिए ये बदलाव हमें दीखता नहीं ,जब तक हमें इस बदलाव का अहसास होता हैं तब तक परिस्थितियाँ हमारे नियंत्रण से बाहर चली गई होती हैं। परिस्थितियां  खुद नहीं आती ,परस्थितियों के पैर नहीं होते ,हम बुलाते हैं उन्हें आमंत्रण देकर ,जब वो आ जाते हैं और जब तक नियंत्रण में होते हैं तब तक हमें उनके अच्छे या बुरे प्रभाव का एहसास ही नहीं होता ,फिर जब वो नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं तो हम विचलित होने लगते हैं। अक्सर एक पीढ़ी के द्वारा आमंत्रित की हुई परिस्थितियों के प्रभाव को उनकी अगली पीढ़ी और फिर उनकी अगली पीढ़ी भुगतती हैं। 
   हर तरफ शोर हैं "घोर कलयुग आ गया हैं ",घोर कलयुग एक दिन में तो आया नहीं हैं। इसे आमंत्रित तो हमारे दादा -परदादों ने किया था ,हमारे माँ -बाप की पीढ़ी ने उसे  फूलने-फलने  में पानी देने का काम किया। उन बेचारों की नादानी ये थी कि -" इन परस्थितियों का आगे क्या प्रभाव पड़ेगा ये वो समझ ही नहीं पाए और उनसे गलतियाँ होती चली गई."  परन्तु हमारी पीढ़ी को ये " घोर कलयुग "का बुरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था फिर भी हमने सावधानियां वरतने के वजाय खुद को लाचार बना उन परस्थितियों के आगे सर झुकाते ही नहीं चले गए वरन अपनी स्वार्थपरता में लिप्त हो उसे और बद-से-बतर बनाते चले गए.ये कह कर अपना पला झाड़ते चले गए कि -एक मेरे सुधरने से क्या होगा और आज जब परिस्थितियाँ  सुरसा की तरह मुँह फाड़े हमें निगलने के लिए आ खड़ी हुई हैं तो सबसे ज्यादा हाय -तौबा भी हम ही मचा रहे हैं। 
   सबसे ज्यादा हाय -तौबा वही मचाता हैं जो जानता हैं कि "ज्यादा गलती हमने की हैं "परन्तु ना इस बात को वो खुद कबूल करना चाहता हैं ना ही दुनिया के सामने आने देना चाहता हैं ,इतना ही नहीं सबके सामने खुद को सुर्खरू भी रखना चाहता हैं। अभी के परस्थिति में भी ज्यादा संख्या ऐसे ही लोगो की हैं। जो बेचारे नादान हैं वो तो मंथन करने में लगे हैं कि " कहाँ चूक हो गई मुझसे ,कैसे सुधार लाऊँ " परन्तु इनकी संख्या बहुत कम हैं। एक तीसरा तबका भी हैं जिनका  काम ही होता हैं हैवानियत फैलाना ,ऐसे हैवान हर युग में होते थे ,होते हैं और होते रहेगें। 
   परिस्थितियाँ जैसे बिगड़ती हैं वैसे धीरे धीरे उनमे सुधार भी लाया जा सकता हैं अगर ये " हाय -तौबा मचाने वाला तबका " अपनी गलतियों को स्वयं ही काबुल कर ले (दुनिया के सामने कबूलने की जरूरत नहीं हैं )और "नादान लोगों "का हाथ थाम उनके साथ सुधार के रास्ते पर चल पड़ें तो इन हैवानो से मुक्ति मिल सकती हैं और फिर समय का अच्छा दौड भी लाया जा सकता हैं। फिर शायद जिन  बुरे दिनों से हम गुजर रहे हैं वो हालत अगली पीढ़ी को ना देखना पड़ें। 
   परिस्थितियों का रोना रोना छोड़ ,एक बार हम खुद से एक सवाल करें कि -क्या घर- परिवार ,बाल -बच्चे ,माँ -बाप ,भाई- बहन ,दोस्त -रिश्तेदार ,आस -पड़ोस से हमारे अच्छे संबंध हैं ?क्या उनके प्रति ,समाज और पर्यावरण के प्रति हमने अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया हैं? क्या हम खुद को कुछ लोगों के नजरों में भी स्नेह और सम्मान के काबिल बना सकें हैं? यदि हमारा मन एक पल में बिना झिझके " हाँ "में उत्तर देता हैं तो हमें घोर कलयुग की चिंता ही नहीं करनी। हम  बेफिक्र रहे हमारे आस -पास आज भी सतयुगी वातावरण हैं। ऐसे सकारात्मक ऊर्जा वाले वातावरण में हम बिलकुल सुरक्षित हैं। परन्तु.......यदि हमें उत्तर सोचने के लिए तर्क -वितर्क करना पड़े या दूसरों को जिम्मेदार ठहराना पड़े तो हमें "घोर कलयुग ,घोर कलयुग "कहकर चिल्लाने का भी कोई हक नहीं हैं। 
  क्योकि इस तत्कालीन परिवेश को बनाने में हमारा भी पूरा योग्यदान हैं। हर युग ,हर परिस्थिति की शुरुआत घर से ही होती हैं। हमसे तो एक घर ,चंद रिश्तेदार ,माँ -बाप और बच्चे नहीं संभलते ,अपने साथी तक को तो हम पूर्ण सहयोग दे नहीं पाते और हम ही हैं जो समाज, कानून और सरकार पर अपनी बड़ी बड़ी राय देते रहते हैं। यकीनन हम सब अपने अपने विचारों का शुद्धिकरण कर, ईमानदारी से अपना अपना घर संभाल ले तो बाकि परिस्थितियां अपने आप संभल जाएगी। दुनिया में अगर प्यार ,शांति और भाईचारा चाहिए तो वो शुरुआत घर से ही होगी। 
    " सतर्कता गई दुर्घटना हुई " ये बात भी यूँ ही नहीं कही गई हैं। शुद्ध और सकारात्मक सोच के साथ साथ सतर्कता ही इस परिस्थिति से निकलने में हमारी सहायता कर सकती हैं। किसी भी घटनाक्रम पर तर्क वितर्क करने से बेहतर सोच यही हैं कि हम सदा ही ये कोशिश करें कि  अपने घर -परिवार में ,आस पड़ोस में सतर्कता वरते और एक ऐसी सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकें जो आगे हमें ये दिन ना दिखाए। जो गुजर गया उसे बदला नहीं जा सकता पर आगे ना हो इसकी कोशिश तो की जा सकती हैं। 

ये सत्य हैं कि -" हम सुधरेंगे युग सुधरेगा ,हम बदलेगें युग बदलेगा "और सत्य हर तर्क -कुतर्क से परे हैं।


सोमवार, 2 दिसंबर 2019

ब्लॉग का एक साल -" एक यादगार सफर "





  वो कहते हैं न कि -" शामें कटती नहीं और साल गुजर जाते हैं ",देखें न ,कैसे एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला,हाँ आज मेरे ब्लॉग के सफर का एक साल पूरा हो गया। कभी सोचा भी नहीं था कि मैं अपना ब्लॉग बनाऊँगी ,ब्लॉग की छोड़ें कभी कुछ लिखूँगी ये भी नहीं जानती थी ,हाँ कुछ लिखने के लिए हर पल दिल मचलता जरूर था। तो ,जहाँ चाह होती हैं वहाँ राह खुद -ब -खुद मिल जाती हैं। हाँ ,कभी -कभी देर हो जाती हैं पर मिलती जरूर हैं और मुझे भी मिली। आज ही के दिन  सखी रेणु ने मेरे ब्लॉग को आप सभी से साझा किया था और  पहली टिप्पणी भी की थी और देखते ही देखते 4 -5 दिनों में ही आप सभी ने सहर्ष मुझे अपना लिया था। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था ,सब सपना सा लगता था।
सखी रेणु ,जो इस आभासी दुनिया में मेरी पहली प्रशंसक ,मार्गदर्शक और प्यारी सहेली बन कर आई। उन्होंने मेरे ब्लॉग का लिंक साझा कर मेरा परिचय ब्लॉग जगत के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों से कराया। मैं सखी रेणु की आजीवन आभारी रहूँगी  ,उन्होंने मुझे अपने स्नेह के काबिल समझा और साथ ही आप सभी दिग्गज साहित्य प्रेमियों से मुझे रूबरू भी कराया। अगर सखी रेणु ने मेरा साथ ना दिया होता तो मेरा ब्लॉग यूँ ही कही अंधकार में गुम होता। 
 ब्लॉग पर अपना पहला लेख तो मैंने 8 /10 /2018 को ही प्रकाशित किया था पर मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि इसे साझा कैसे करूँ। मुझे तो ब्लॉग का B भी नहीं पता था। ब्लॉग का नाम मैंने पहली बार अपनी एक दोस्त (जो मुझसे 12 -13 साल छोटी हैं और इंटरनेट की दुनिया में पूरी तरह रची बसी हैं )के मुख से सुना था। आज से डेढ़ साल पहले जब मैं अपनी बेटी के साथ दिल्ली से मुंबई शिफ्ट हो रही थी तो मैं थोड़ी चिंतित थी कि मुंबई में मैं अपना वक़्त कैसे गुजारूंगी ,बेटी तो अपने काम पर चली जाएगी तो मैं क्या करुँगी ? अनजाना जगह ,ना कोई दोस्त ,ना रिश्तेदार ,पुरे दिन का खालीपन ये सोच मैं थोड़ी परेशान थी। दिल्ली में फुर्सत ही नहीं मिलती हैं ,दिन के  4 -5 घंटे तो होमियोपैथिक प्रक्टिस में ही गुजर जाता हैं फिर घर -परिवार ,दोस्त -रिश्तेदार इन सब में दिन कैसे गुजर जाता हैं पता ही नहीं चलता लेकिन वहाँ क्या करुँगी ये सोच में चिंतित हो रही थी।  जब मेरी दोस्त मुझसे मिलने आई तो बातों बातों में मैंने अपनी परेशानी उससे कही तो उसने कहा -दीदी आप ब्लॉग लिखना शुरू कर दे ,आप किसी भी विषय पर अच्छा बोल लेती हैं ,आपके खालीपन को दूर करने का ये अच्छा तरीका होगा। मैंने कहा -मुझे तो इंटरनेट का अच्छा ज्ञान भी नहीं हैं ,कैसे बनाऊंगी मैं ब्लॉग। उसने कहा -कुछ मुश्किल नहीं बस गूगल पर जाकर blogger .com टाइप करो और फिर फेसबुक की तरह उसपर अपना अकाउंट बना लो। उस वक़्त उससे ज्यादा कुछ जानने का समय  नहीं था। लेकिन ब्लॉग बनाना इतना भी आसान नहीं था वो भी उसके लिए जिसने अपना फेसबुक अकाऊंट भी खुद से नहीं बनाया हो। 
मुंबई आने पर महीना दिन तो व्यवस्थित होने में और घूमने में गुजर गया। उसके बाद जब बेटी काम पर जाने लगी तो बस ,मेरा अकेलापन मुझे काटने लगा। फिर अपनी दोस्त की कही बात याद कर मैंने गूगल सर्च करना शुरू किया,youtube पर सर्च कर ब्लॉग की एक एक बात समझने की कोशिश करने लगी। दो महीने के अथक प्रयास के बाद आख़िरकार मैं अपना ब्लॉग बनाने में कामयाब हुई। लेकिन ब्लॉग पर पाठक कहा से लाऊँ ,इसी खोजबीन में  मुझे शब्दनगरी मंच के बारे मै ज्ञात हुआ। मैंने उसपर अपना अकाउंट बनाया ,इस मंच से अपना लेख प्रकाशित करना मुझे थोड़ा आसान लगा। मैंने डरते डरते इस पर अपना एक  लेख  "प्यार एक रूप अनेक "प्रकाशित कर दिया। अगले दिन शब्दनगरी के द्वारा भेजे गए मेल को देख मेरी ख़ुशी और आश्चर्य का ठिकाना ना रहा ,उन्होंने मेरे लेख को "आज का सर्वश्रेष्ठ लेख "से सम्मानित कर मुख्यपृष्ठ  पर डाला था ,एक दो टिप्पणियाँ भी आ गई। मेरे लिए इतनी काफी था ,मैं कोई बड़ी साहित्यकार तो हूँ नहीं और नाही मुझमे बहुत ज्यादा प्रसिद्धि के चाह थी।  मैंने सोचा  इसी बहाने अच्छी अच्छी रचनाएँ पढ़ने को भी मिल जाएगी और कुछ लिखने का भी प्रयास करती रहूँगी ,मुझे अच्छा लगने लगा। मेरा सौभाग्य मेरी लगभग सभी लेखो को शब्दनगरी नै सर्वश्रेष्ठ लेख से सम्मानित किया ,इसके लिए मैं हमेशा शब्दनगरी की आभारी रहूंगी। 
फिर एक दिन  शब्दनगरी पर लिखे मेरे एक लेख पर सखी रेणु की प्रतिक्रिया आई। उनके स्नेहिल पहली प्रतिक्रिया से ही मुझे अपनत्व का एहसास होने लगा। हम बहुत जल्द एक दूसरे से घुल -मिल गए। वैसे आभासी दुनिया में मैं जल्दी से किसी से मित्रता करने में थोड़ी झिझकती हूँ। लेकिन  रेणु से मिलकर मुझे अच्छा लगने लगा। रेणु  ने मुझे अपने ब्लॉग पर आने का निमंत्रण दिया और साथ ही ये भी कहा कि -कामिनी तुम अपना ब्लॉग बनाओं ।मैंने रेणु को अपने ब्लॉग का लिंक भेजा और उनसे ये भी कहा कि वो मेरा मार्गदर्शन करें। अगले ही दिन रेणु ने मेरे ब्लॉग का लिंक आप सब से साझाकर मेरे जीवन में नई ख़ुशी ,नई ऊर्जा और नया उत्साह भर दिया। रेणु ने मुझे आप सब साहित्य प्रेमियों से मिलवाया ,साथ ही साथ मेरी टंकण अशुद्धियों के लिए भी मुझे सचेत करती रही ,मैं हमेशा रेणु की आभारी रहूँगी। 
एक सखी का हाथ थामकर चली थी पता ही नहीं था आगे सफर में मुझे इतने सारे संगी -साथियों का सानिध्य और स्नेह मिल जाएगा। आदरणीया  बिभा दी ,यशोदा दी ,साधना दी जैसे सम्मानित रचनाकारों का आशीर्वाद मिला ,आदरणीया  कुसुम जी ,मीना भरद्वाज जी ,मीना शर्मा जी ,सुजाता जी ,शुभा जी ,सुधा देवरानी जी ,अनुराधा जी ,अभिलाषा जी ,ज्योति जी,कविता जी ,नीतू जी जैसी स्नेहिल सखियों का स्नेह ,सहयोग और प्रोत्साहन मिला ,मेरे ब्लॉग पर इनकी निरंतर उपस्थिति ने हर पल मेरा मनोबल बढ़ाया और मैं कुछ अच्छा लिखने का प्रयास करती रही हूँ। इतना ही नहीं श्वेता जी ,अनीता सैनी जी और अनु जी जैसी प्यारी बहनो का साथ मिला जिन्होंने मेरी रचनाओं को " पाँच लिंको का आनन्द "और चर्चामंच जैसे प्रतिष्ठित मंचो पर साझा कर मुझे अपने स्नेह डोर से बांध लिया। 
आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल जी ,रूपचन्द्र  शास्त्री जी ,रविंद्र सिंह यादव जी ,सुशील कुमार जोशी जी , विश्वमोहन जी ,ज्योति खेर जी ,पुरुषोत्तम जी ,दिगंबर जी जैसे ब्लॉग जगत के प्रतिष्ठित वरिष्ठ रचनाकार जिनकी रचनाओं को पढ़ने तक का सौभाग्य भी मुझे शायद कभी नहीं मिलता, उनके रचनाओं को पढ़ने का आनन्द भी मिला और उनका स्नेह ,आशीर्वाद और प्रोत्साहन पाकर मैं धन्य हुई। आदरणीय शशि जी ,लोकेश जी ,पंकज प्रियम जी रोहतास जी ,संजय भास्कर जी जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकरों ने मेरी  रचना पर अपनी अनमोल प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्साहवर्धन करते रहे। मैं कहाँ इस काबिल थी कि आप सभी का सानिध्य पा सकती थी ,आप सभी से जुड़कर मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानती हूँ। इस एक साल में जीवन ने मुझे बहुत बड़ा सदमा भी दिया परन्तु आप सब के बीच रहकर मैं उससे भी जल्दी उभर पाई। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास हैं कि आप सभी का  स्नेह और सहयोग मुझे हमेशा मिलता रहेगा। अगर इस एक साल के सफर में मुझसे कभी भी कोई भूल हुई हो तो मैं आपसभी से क्षमाप्रार्थी हूँ।  आप सभी का तहे दिल से आभार और सादर नमस्कार 
मेरा पहला लेख जिसमे अनगिनत गलतियाँ थी
हर पल सिखाती जिंदगी

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...