हर तरफ हाहाकार मचा हैं ,हर आत्मा चीत्कार कर रही हैं ,हर मन की भावनाएं आक्रोशित हो रही हैं। हर हृदय व्यथित हैं,दुखी हैं हालत से ,परिवार और बच्चों से ,समाज से ,कानून से ,व्यवस्था से,पर्यावरण से। दोषारोपण कर रहे हैं एक दूसरे के मानसिकता पर ,युवापीढ़ी पर ,सरकार पर । प्रश्नचिन्ह लगा रहे कि -क्या होगया हैं मानव को ,कहा जा रहा हैं हमारा समाज ,क्युँ मरती जा रही हैं संवेदनाएं ,आखिर और कितना गिरेगा मनुष्य ,कहा जा कर रुकेगी हमारी ये तत्कालीन सभ्यता ?ऐसे कितने सवाल रोज उठ रहे हैं ,एक स्वर में हम कह रहे हैं -"कितने बुरे दिन आ गए हैं ,ये तो घोर कलयुग हैं। "
कुछ के लिए तो ये सिर्फ शोर मचाना भर हैं ,उन्हें बस ये जताना हैं कि -देखो जी, मैं भी देश समाज और मानवता के लिए चिंतित हूँ जबकि बहुत हद तक इन परिस्थितियों के जिम्मेदार वे स्वयं होते हैं। इसी हालत में कुछ मनुष्यरूपी जानवर भी हैं जो मस्त हैं अपनी मस्ती में ,सूअरों की तरह कीचड़ में डूबे हुए,उन्हें सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति नजर आती हैं ,उन्हें तो बस भूख मिटानी हैं अपनी क्षुधा की , अपनी जिस्म की ,वो गिद्धों की तरह बोटियाँ नोच नोचकर खा रहे हैं ,वो बोटी इंसानी जिस्म की हैं या जानवरों की कोई फर्क नहीं उन्हें। दूसरों के तन और मन दोनों को प्रताड़ित करना ही इन पिचासरुपी आत्माओं का काम होता हैं।
परन्तु कुछ संवेदनशील आत्माएं हैं जो विचलित हो रही हैं इंसान और प्रकृति के इस बदलते स्वरूप को देखकर ,चिंतित हो रही हैं कि -कहाँ तक जाएगी ये बर्बरता ,कब तक बने रहेंगे हम गैरजिम्मेदार,क्या मनुष्य अंततः जानवर ही बन जाएगा ?बंदर से विकसित होकर मानव बने थे और अब धीरे धीरे दानव और भेड़ियां या उनसे भी गिरे हुए वेह्शी दरिंदे बनते जा रहे हैं। नहीं पता कहाँ अंत होगा इसका? हवाओं में साँस लेना मुश्किल हैं ,पानी पीने के लायक नहीं ,भोजन जहरीले हो चुके हैं ,मानव को नोच कर मानव खा रहा हैं ,दुःख -दुःख और सिर्फ दुःख ही नजर आ रहा हैं ,क्या ये धरती नरक बन जाएगी ?कोमल आत्माएं अधीर हो रही हैं, खुद को लाचार महसूस कर रही हैं ,विकल हैं कि -कैसे बदलेगे ये हालत ,ये परिस्थितियाँ ,ये समाज ,ये पर्यावरण ?
बस एक बार इन परिस्थितियों से खुद को इतर रख चिंतन करें -घर -परिवार ,देश -समाज मानव मात्र से बनता हैं और मानव बनता हैं संवेदनाओं से ,संवेदनाएं ख़त्म तो मानव -दानव और जानवर सब एक समान , संवेदनाएं उपजती हैं हमारी अच्छी सोच और शुद्ध विचारों से ,और शुद्ध विचार पनपते हैं हमारे अच्छे संस्कारों से। हमारे संस्कार ही हमारा कर्म निर्धारित करते हैं और हमारे कर्म ही हमारा भाग्य या हमारी परिस्थिति जन्य दशा निर्धारित करता हैं।
परिस्थिति और परिवेश एक दिन में नहीं बनता और ना ही बिगड़ता हैं। ये एक धीमी प्रक्रिया हैं इसलिए ये बदलाव हमें दीखता नहीं ,जब तक हमें इस बदलाव का अहसास होता हैं तब तक परिस्थितियाँ हमारे नियंत्रण से बाहर चली गई होती हैं। परिस्थितियां खुद नहीं आती ,परस्थितियों के पैर नहीं होते ,हम बुलाते हैं उन्हें आमंत्रण देकर ,जब वो आ जाते हैं और जब तक नियंत्रण में होते हैं तब तक हमें उनके अच्छे या बुरे प्रभाव का एहसास ही नहीं होता ,फिर जब वो नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं तो हम विचलित होने लगते हैं। अक्सर एक पीढ़ी के द्वारा आमंत्रित की हुई परिस्थितियों के प्रभाव को उनकी अगली पीढ़ी और फिर उनकी अगली पीढ़ी भुगतती हैं।
हर तरफ शोर हैं "घोर कलयुग आ गया हैं ",घोर कलयुग एक दिन में तो आया नहीं हैं। इसे आमंत्रित तो हमारे दादा -परदादों ने किया था ,हमारे माँ -बाप की पीढ़ी ने उसे फूलने-फलने में पानी देने का काम किया। उन बेचारों की नादानी ये थी कि -" इन परस्थितियों का आगे क्या प्रभाव पड़ेगा ये वो समझ ही नहीं पाए और उनसे गलतियाँ होती चली गई." परन्तु हमारी पीढ़ी को ये " घोर कलयुग "का बुरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था फिर भी हमने सावधानियां वरतने के वजाय खुद को लाचार बना उन परस्थितियों के आगे सर झुकाते ही नहीं चले गए वरन अपनी स्वार्थपरता में लिप्त हो उसे और बद-से-बतर बनाते चले गए.ये कह कर अपना पला झाड़ते चले गए कि -एक मेरे सुधरने से क्या होगा और आज जब परिस्थितियाँ सुरसा की तरह मुँह फाड़े हमें निगलने के लिए आ खड़ी हुई हैं तो सबसे ज्यादा हाय -तौबा भी हम ही मचा रहे हैं।
सबसे ज्यादा हाय -तौबा वही मचाता हैं जो जानता हैं कि "ज्यादा गलती हमने की हैं "परन्तु ना इस बात को वो खुद कबूल करना चाहता हैं ना ही दुनिया के सामने आने देना चाहता हैं ,इतना ही नहीं सबके सामने खुद को सुर्खरू भी रखना चाहता हैं। अभी के परस्थिति में भी ज्यादा संख्या ऐसे ही लोगो की हैं। जो बेचारे नादान हैं वो तो मंथन करने में लगे हैं कि " कहाँ चूक हो गई मुझसे ,कैसे सुधार लाऊँ " परन्तु इनकी संख्या बहुत कम हैं। एक तीसरा तबका भी हैं जिनका काम ही होता हैं हैवानियत फैलाना ,ऐसे हैवान हर युग में होते थे ,होते हैं और होते रहेगें।
परिस्थितियाँ जैसे बिगड़ती हैं वैसे धीरे धीरे उनमे सुधार भी लाया जा सकता हैं अगर ये " हाय -तौबा मचाने वाला तबका " अपनी गलतियों को स्वयं ही काबुल कर ले (दुनिया के सामने कबूलने की जरूरत नहीं हैं )और "नादान लोगों "का हाथ थाम उनके साथ सुधार के रास्ते पर चल पड़ें तो इन हैवानो से मुक्ति मिल सकती हैं और फिर समय का अच्छा दौड भी लाया जा सकता हैं। फिर शायद जिन बुरे दिनों से हम गुजर रहे हैं वो हालत अगली पीढ़ी को ना देखना पड़ें।
परिस्थितियों का रोना रोना छोड़ ,एक बार हम खुद से एक सवाल करें कि -क्या घर- परिवार ,बाल -बच्चे ,माँ -बाप ,भाई- बहन ,दोस्त -रिश्तेदार ,आस -पड़ोस से हमारे अच्छे संबंध हैं ?क्या उनके प्रति ,समाज और पर्यावरण के प्रति हमने अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया हैं? क्या हम खुद को कुछ लोगों के नजरों में भी स्नेह और सम्मान के काबिल बना सकें हैं? यदि हमारा मन एक पल में बिना झिझके " हाँ "में उत्तर देता हैं तो हमें घोर कलयुग की चिंता ही नहीं करनी। हम बेफिक्र रहे हमारे आस -पास आज भी सतयुगी वातावरण हैं। ऐसे सकारात्मक ऊर्जा वाले वातावरण में हम बिलकुल सुरक्षित हैं। परन्तु.......यदि हमें उत्तर सोचने के लिए तर्क -वितर्क करना पड़े या दूसरों को जिम्मेदार ठहराना पड़े तो हमें "घोर कलयुग ,घोर कलयुग "कहकर चिल्लाने का भी कोई हक नहीं हैं।
क्योकि इस तत्कालीन परिवेश को बनाने में हमारा भी पूरा योग्यदान हैं। हर युग ,हर परिस्थिति की शुरुआत घर से ही होती हैं। हमसे तो एक घर ,चंद रिश्तेदार ,माँ -बाप और बच्चे नहीं संभलते ,अपने साथी तक को तो हम पूर्ण सहयोग दे नहीं पाते और हम ही हैं जो समाज, कानून और सरकार पर अपनी बड़ी बड़ी राय देते रहते हैं। यकीनन हम सब अपने अपने विचारों का शुद्धिकरण कर, ईमानदारी से अपना अपना घर संभाल ले तो बाकि परिस्थितियां अपने आप संभल जाएगी। दुनिया में अगर प्यार ,शांति और भाईचारा चाहिए तो वो शुरुआत घर से ही होगी।
" सतर्कता गई दुर्घटना हुई " ये बात भी यूँ ही नहीं कही गई हैं। शुद्ध और सकारात्मक सोच के साथ साथ सतर्कता ही इस परिस्थिति से निकलने में हमारी सहायता कर सकती हैं। किसी भी घटनाक्रम पर तर्क वितर्क करने से बेहतर सोच यही हैं कि हम सदा ही ये कोशिश करें कि अपने घर -परिवार में ,आस पड़ोस में सतर्कता वरते और एक ऐसी सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकें जो आगे हमें ये दिन ना दिखाए। जो गुजर गया उसे बदला नहीं जा सकता पर आगे ना हो इसकी कोशिश तो की जा सकती हैं।
ये सत्य हैं कि -" हम सुधरेंगे युग सुधरेगा ,हम बदलेगें युग बदलेगा "और सत्य हर तर्क -कुतर्क से परे हैं।
सहमत बिलकुल आपकी बात से ... सकारात्मक सोच आज ख़त्म है ... तेजी का युग हर बात का फैंसला तेजी से चाहता है ... लगता है पता नहीं इतना कुछ खो जाएगा अगर आज नहीं हुआ तो ... और जिसके भी मन की नहीं होती ... साड़ी दुनिया को जला देना चाहता है वो ... अपने अपने वाद को सही ठहराने की होड़ चल रही है आज ... घर के बच्चों को समझाने, सुलझाने और संवेदनशील बनाने की बात कोई नहीं करता ...
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद दिगंबर जी ,मेरी लेख पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से मेरा लिखना सार्थक हुआ ,आप तो विदेश में बसे हैं ,दौड्ता -भागता शहर ,ऐसे में अगर दो पल रूक कर आप अपनी संवेदनाओं का आकलन कर लेते हैं ,ये सचमुच बहुत बड़ी बात हैं ,सादर नमस्कार आपको
हटाएंप्रिय कामिनी , तुम्हारे इस सारगर्भित लेख में आक्रोश है और सीख भी , कि अब ना सुधरेंगे तो बहुत देर हो जायेगी |सच में ऐसा लगता है बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए , जब सब कुछ ठीक ठाक था |व्याह शादियों में पत्तल का चलन था | दाल -चावल से लेकर छप्पन से भी एक सौ छप्पन भोग का चलन [ जिसमें जाकर लोग भूल ही जाते हैं कि घर बेगाना सही पर पेट तो अपना ही है ] , और पत्तल के बाद क्रोकरी के बाद अब use and through तक पहुँच गये | नाजाने कितनी शादियाँ और कितना कचरा |ढेर नहीं पहाड़ लग जाएँ जिससे | शादी के अगली सुबह अथवा रात में नज़ारा इतना भयंकर होता है मानों यहाँ इंसानों का नहीं जानवरों का भोज हो | खेतों में बहुत दिन नहीं हुए जब बहुत कम यूरिया खाद का इस्तेमाल होता था , आज तो बस हाई ब्रिड बीज और यूरिया खाद के साथ अनाप -शनाप दवाइयों का छिडकाव |खाने की थाली जहरीली होती जा रही है |और लोक व्यवहार तो चिंता में डाले जा रहा है |संवेदनाओं का हवास होता जा रहा है | सभ्य समाज में असभ्य चलन आतंकित कर रहा है | जाति - धर्म और भाषावाद में उलझकर हम ना जाने किस और जा रहे हैं | सरकार और उग्र युवा पीढ़ी पर दोषारोपण कर हम अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं |सच में सब देख कर क्षोभ भी होता है और दुःख भी | तुमने सच लिखा सखी , शुरुआत अपने से हो , छोटी ही सही , पर एक पहल जरूरी है अन्यथा हम अपनी आने वाली पीढियों के लिए जहरीली हवा और वैमनस्यता का जहर छोड़कर जायेंगे उसके सिवाय कुछ नहीं |
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,तुमने अपनी प्रतिक्रिया से लेख को विस्तार दे दिया जो कि तुम हमेशा ही निष्पक्ष भाव से करती हो। सखी स्वयं का अवलोकन कर स्वयं को सुधारना एक छोटी पहल नहीं हैं अपितु इसके लिए साहस की जरूरत होती हैं। अपनी गलती तक तो हम मानते नहीं सुधार कैसे लाएंगे। इसलिए सभी आसान रास्ता चुनते हैं " पला झाड़ना " इसकेलिए बस दो काम करना होता हैं ,एक कि "अरे ,सभी तो यही करते हैं एक मेरे ना करने से क्या होगा "और दूसरा और आसान " दोषारोपण करना " तुम्हारी सारी बातों पर और भी विस्तार से चर्चा करेंगे ,अपनी अगली लेख में ,सादर स्नेह
हटाएंआदरणीया कामिनी जी,
जवाब देंहटाएंआपके इस नजरिये से शायद सभ्यता की इस पीढ़ी को कुछ अक्ल आ जाए। वैसे, आपने सच कहा है कि एक तीसरा तबका भी हैं जिनका काम ही होता हैं हैवानियत फैलाना ,ऐसे हैवान हर युग में होते थे , होते हैं और होते रहेगें।
मनुष्य अगर तटस्थ रहकर समाज कल्याण की बात करे तो कल्याणकारी युग की कल्पना सार्थक हो सकथी है। परन्तु निहित स्वार्थों के वश में लोग कुछ भी करते हैं, जिनके दूरगामी सामाजिक, मानसिक, दार्शनिक व चारित्रिक दुष्परिणाम होते हैं ।
आपकी इस सार्थक पहल व प्रबुद्ध लेखन हेतु आप बधाई के पात्र हैं ।
मेरे विचारों पर आपकी इस सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल से आभारी हूँ पुरुषोत्तम जी ,आज़ादी के इतने सालो बाद भी देश सुलग रहा हैं ,अब भी अपने विवेक को नहीं जगाएंगे तो कब , सादर नमन
हटाएंचिन्तन परक आलेख ,प्रिय कामिनी जी
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने दोषारोपण करने की प्रवृति
अपनी कमियों पर पर्दा डालने का प्रयास है।
आत्मावलोकन, आत्मचिंतन आत्मनिरीक्षण
किसी के स्वभाव में नहीं।यही कारण है कि
समाज पतन की ओर अग्रसर है।हम दूसरों की कमियां गिनाने में पूरी उम्र निकाल देते हैं और अपनी देखने में एक पल भी नहीं गंवाते। बस यहीं से समस्याओं का जन्म होता है।आपका आभार 🙏 इतने उत्कृष्ट लेखन के लिए।
सहृदय धन्यवाद सखी ,आपने सही कहा हम कितना वक़्त दूसरों की कमियां गिनवाने में लगाते ,पर चंद सेकेंड भी अपने अवगुणों ढूढ़ने के लिए नहीं देते ,क्योकि हम अपनी मानसिकता ही बना चुके हैं कि -हम सही हैं ,आभार आपका मेरे लेख का मर्म समझने के लिए ,सादर
हटाएंकामिनी दी,बहुत ही चिंतनपरक एवं विचारणीय आलेख। सही कहा आपने की जब तक हैम खुद की गिरेबान में झांक कर नहीं देखेंगे, खुद नही सुधरेंगे तब तक कुछ नहीं सुधर सकता।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी आप सभी के सकारात्मक प्रतिक्रिया से मेरा लिखना सार्थक हुआ ,सादर नमन
हटाएंयह सत्य है कि -" हम सुधरेंगे युग सुधरेगा ,हम बदलेगें युग बदलेगा "और सत्य हर तर्क -कुतर्क से परे हैं।
जवाब देंहटाएंआपके इस मन्त्र में बहुत बड़ी सीख है यदि सहअस्तित्व और बन्धुत्व के भाव को हम अपने आस-पास देखना चाहते हैं तो...
बहुत प्रभावशाली और चिन्तनपरक लेख कामिनी जी । सस्नेह वन्दन ।
सहृदय धन्यवाद मीना जी ,मैंने तो बस अपने अंतर्मन में उमड़ते भावनाओं को जिसमे मेरी चिंता ,दुःख और थोड़ा बहुत आक्रोश भी शामिल हैं को आप सभी से साझा किया र आप सभी ने इसे चर्चा का विषय बना कर मेरा लिखना सार्थक कर दिया। मेरे पापा हमेशा यही कहते थे -बेटा ,दूसरों से पहले खुद का अवगुण देखों तुम अगर सही हो तो तुम्हे अपने आस पास अच्छाइयां नजर आएगी। बस बचपन से इसी मंत्र का पालन करती आई हूँ। सादर नमन एवं आभार आपको
हटाएंवाह!!प्रिय सखी ,बहुत ही प्रभावित किया है आपके इस आलेख नें । सही कहा आपने ..घर से शुरुआत करने से ही समाज सुधर पाएगा ...।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद शुभा जी ,आप सभी के सकारत्मक प्रतिक्रिया से मेरा लिखना सार्थक हुआ ,आभार आपका ,सादर नमन
हटाएंसही कहा कामिनी जी..बदलाव की शुरुआत स्वयं से करना ही सार्थक परिणाम लायेगा...दुनिया भर में खोट ढूँढने से पहले अपने अंतर्मन अपने आचरच और व्यवहार का आकलन आवश्यक है। हमारा सकारात्मकता ही परिवर्तन की पहली सीढ़ी है।
जवाब देंहटाएंआपके सुंदर और सार्थक विचार बहुत अच्छे लगे।
बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी ,आप सभी के सकारत्मक प्रतिक्रिया से मेरा लिखना सार्थक हुआ ,ये प्रयास अब बहुत जरुरी हो गया हैं ,समय रहते अब हमारी पीढ़ी को ही शुरुआत करनी होगी ,आभार आपका ,सादर स्नेह
हटाएंप्रभावशाली लेखन
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर ,सर्वप्रथम मेरे ब्लॉग पर स्वागत हैं आपका , मेरा लेख आपको अच्छा लगा इसके लिए दिल से आभारी हूँ सादर नमन
हटाएंसहृदय धन्यवाद अनीता जी ,मेरे लेख को चर्चामंच पर स्थान देने के लिए आभार आपका ,सादर स्नेह
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद लोकेश जी ,सादर
हटाएंकामिनी जी, सकारात्मक सोच रखने की बहुत अच्छी बात कही आपने ! बस समस्या यह है कि यह दुर्लभ वस्तु भारत में लुप्त-प्राय है.
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर ,आपने मेरा लेख पढ़ा मेरे लिए सौभाग्य की बात हैं ,अपनी सही कहा कि ये एक दुर्लभ और लुप्त-प्राय वस्तु ही हो गई हैं ,मैं भी बस ढूढ़ने का ही प्रयास कर रही हूँ ,उम्मीद तो कर सकते हैं न कि शायद अभी भी वो कुछ दिलों में जिन्दा हो ,बहुत बहुत आभार आपका मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए ,सादर नमन
हटाएंAti sundar
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