"माँ या बेटी..."कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
"माँ या बेटी..."कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 29 मार्च 2022

"माँ या बेटी..."




 

"अरे 11 बज गए" माँ को फोन करना था इंतज़ार कर रही होगी" नीरा अपने आप में ही बड़बड़ाई। किसको कॉल करना है...कितनी बार याद दिलाऊँ माँ, नानी चली गई....इतनी दूर जहाँ से कोई कॉन्टेक्ट नहीं हो सकता....मनु ने नीरा को पीछे से पकड़ते हुए कहा। अरे हाँ,मैं तो भूल ही जा रही हूँ -कहते हुए नीरा ने मुँह फेर लिया शायद, मनु से अपनी आँसुओं को छुपाना चाहती थी। माँ के जाने के बाद नीरा जब तक मायके में थी तब तक तो रश्मो-रिवाज में बिजी थी मगर जब से घर वापस आई थी रोज का यही हाल था। अक्सर दिन के 11 बजे और शाम को 7-8 बजे माँ को फोन करना उसकी दिनचर्या में शामिल था और उस टाइम पर वो अनायास फोन उठा ही लेती। मगर जैसे ही याद आती कि "माँ अब नहीं रही" उसके अंदर कुछ टूटता सा महसूस होने लगता। 

पिछले चार-पाँच महीना का दिनचर्या भी उस पर इस कदर हावी था कि-दिन हो या रात जब भी उसकी आँख लगती "आई माँ "कहते हुए वो उठ बैठती। पति और बेटी ने उसे बहुत हद तक संभाल लिया था...उन दिनों से उसे बाहर निकलने की भी पूरी कोशिश कर रहे थे  मगर, नीरा कैसे भुला पाती उन चार-पाँच महीनों को....जिसका एक-एक पल माँ के इर्द-गिर्द उनकी  सेवा में ही गुजरा था। चार-पाँच महीना क्या वो तो बीते चालीस साल से माँ की सेवा कर रही थी और अचानक एक दिन उसे छुट्टी मिल गई उसे लग रहा था जैसे उसके जीवन में कुछ करने को बचा ही नहीं.... 

मम्मा, अब बाहर आ जाओं  इन सब से चलो, मैं आपका सर सहला देती हूँ सो जाओं थोड़ी देर- मनु ने नीरा को बड़े प्यार से समझाया तो नीरा की ऑंखें फिर भर आई बोली- चालीस साल बेटा, भूलने में वक़्त तो लगेगा न...बेटा मैं  लगभग दस साल की थी.....उन दिनों माँ बहुत बीमार हो गई.....डॉक्टरों ने उन्हें तीन महीने का बेड रेस्ट बता दिया और मैंने  पूरा घर संभाल लिया....ना कभी माँ पुरी तरह ठीक हुईं और ना ही मेरे जीवन से वो तीन महीने कभी ख़त्म हुए....

 नीरा फिर अतीत की गहराईयों में खो गई....शादी के बाद भी वो मायके की जिम्मेदारियों से कहाँ मुक्त हो पाई थी....क्योंकि ससुराल में तो उसे परिवार मिला ही नहीं....इसलिए माँ-पापा ने उसे हमेशा खुद से ही बाँधे रखा और खुद नीरा भी माँ-पापा भाई बहनों की जिम्मेदारियाँ संभालते-सँभालते उनसे ऐसी जुड गई थी कि उससे भी वो बंधन तोडा ना गया। भाई जब तक कुंवारे थे अपने थे...शादी होते ही वो गैर के हो गए। बड़ा भाई तो बिलकुल बीवी के पल्लू से बंध गया...हाँ,छोटा अपनी बीवी से लड़-झगड़कर जुड़े रहने की कोशिश करता रहा और आखिरी वक़्त में भी माँ छोटे वाले भाई के घर ही रही थी। तन-मन दोनों से थक गई थी वो जिम्मेदारियाँ उठाते-उठाते ऊपर से भाभियों के लालझन ने उसे और तोड़ दिया था और फिर.....माँ के जाते ही अचानक से उसे सारी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल गई, कभी उसको खुद का वज़ूद हल्का लगने लगता और कभी इस खालीपन से वो बेचैन होने लगती।ऐसा नहीं था कि उसके ऊपर अपने घर-परिवार की जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन फिर भी उसे लगता जैसे सारा काम खत्म हो गया है....जबकि उसे भी पता था...काम ख़त्म नहीं हुआ है बस....जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ है... 

माँ की जीवन के आखिरी चार-पाँच महीने तो नीरा के लिए बेहद सुखद भी थे और कष्टदायक भी। सुखद इसलिए कि-आखिरी दिनों में उसे माँ की भरपूर सेवा करने का अवसर मिला और कष्टदायक इसलिए कि  माँ की पीड़ा उससे देखी नहीं जाती। जब माँ कुछ खाने की जिद्द करती और वो नहीं दे पाती,जब माँ अपनी शारीरिक पीड़ा से कराह उठती,बिस्तर से उठ कर घूमने की जिद्द करती, नहाने की जिद्द करती तो उसकी और अपनी बेवसी पर नीरा तड़प उठती थी। नीरा के लिए माँ एक-दो साल की छोटी बच्ची बन गई थी...छोटे बच्चें की तरह उसकी मालिस करना,स्पंजिंग करना,डाईपर बदलना,उसे सजाना-संवारना,अपने हाथो से खाना खिलाना, उसका दिल बहलाने के लिए घंटो उससे बातें करना, उसे भजन और गीता का पाठ सुनाना और उसके सारे नखरे उठाना बस...यही उसकी और उसके छोटे भाई की दिनचर्या बन गई थी। हाँ,उसका छोटा भाई भी अपनी बीवी की नाराजगी सहते हुए भी माँ के सेवा में एक बेटी की तरह से लगा था। 

  फिर कहाँ खो गई माँ....मैं जानती हूँ नानी माँ तुम्हारी माँ कम बेटी ज्यादा थी मगर....तुम्हारी एक बेटी मैं भी हूँ...अब मुझ पर ध्यान दो -मनु ने हँसते हुए कहा। नीरा ने मनु को गले लगा लिया वो उससे कहना चाहती थी..."अब तुम्ही तुम हो" मगर...होठ खामोश रहे उसके। उसकी चुप्पी देख मनु ही बोली- अच्छा ये राज तो बताओं नानी तुम्हारी माँ से बेटी कैसे बन गई....वो तो तुम्हारे साथ मुझसे भी ज्यादा नख़रे दिखाती थी....उतना तो मैंने भी तुम्हें तंग नहीं किया जितना उन्होंने किया। नीरा हँस पड़ी उसे माँ की आखिरी दिनों की बातें याद आ गई बोली- पता है बेटा, आखिरी दो महीने तो नानी बिलकुल छोटी बच्ची बन गई थी....हर वक़्त वो मेरा दुपट्टा पकडे रहती थी...अगर थोड़ी देर के लिए भी मैं उससे दूर हो जाती तो "माँ-माँ" चिल्लाने लगती और सबको परेशान कर देती....जब पास आऊँ तो मुझसे नाराज होकर बात नही करती...फिर मुझे उसको घंटों मनाना पड़ता और फिर ना छोड़कर जाने का वादा करना पड़ता...रात को जब सोती तब भी मुझे कसकर पकड़े रहती और पूछती...."सो जाऊँगी तो छोड़ कर जाओंगी तो नहीं" फिर....खुद ही हँसकर कहती -"माँ के साथ भी ऐसा ही किया करती थी" एक पल में मेरी बेटी बन जाती तो दूसरे पल में मेरी माँ....और कभी मुझे पहचानती ही नहीं, मुझसे पूछती- "तुम कौन हो" सबको पहचानती बस मुझे ही भूल जाती.....कभी-कभी तो मुझसे ही पूछती " नीरा कहाँ है मेरी नीरा को बुला दो"  जब मैं कहती- "मैं नीरा हूँ माँ तुम्हारी नीरा"  तो बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहती- "पता नहीं  मुझे क्या हुआ है,  तुम तो मेरी कस्तूरी बन गई हो...हर पल मेरे पास होती हो फिर भी मैं तुम्हें ही ढूँढती रहती हूँ"  

    मगर, ऐसा क्यों था माँ....तुम्हारा और उनका रिश्ता मुझे कभी समझ ही नहीं आया- ये कहते हुए मनु के चेहरे पर कुछ अलग ही भाव थे। नीरा ने गहरी साँस लेते हुए कहा- मैं भी कभी नहीं समझ पाई बेटा- सच, मेरा उनका रिश्ता कुछ अजीब ही था.....वो तो मुझे ही अपनी माँ मानती थी....पता नहीं क्यूँ उसको यकीन था कि- मैं उसकी  पिछले जन्म की माँ हूँ....अब पूर्वजन्म में विश्वास वजह था या मेरा उसका जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना वो तो परमात्मा ही जाने...वो अक्सर बीमार रहा करती थी और दस साल की उम्र से ही मैं उसकी सेवा करती रही....सेवा करते-करते कब वो मेरी माँ से मेरी बेटी बनी....हम दोनों नहीं जा पाए...तुमने तो देखा नहीं था न....आखिरी पल में भी उसकी आँखे मुझ पर ही टिकी थी मैं उसके चेहरे को साफकर क्रीम लगा रही थी....तुम्हे तो पता ही है न, नानी को क्रीम से कितना लगाव था...मैं उनसे बोल भी रही थी....चिंता ना करों जाते-जाते भी क्रीम लगाकर ही भेजूँगी और...पता है उसकी आँखे अचानक बड़ी हो गई और घुट्टी-घुट्टी सी आवाज आई "माँ"  मैं बोल भी रही हूँ हाँ,बोलो न और....मैं वहाँ से हाथ धोने चली गई...मामा देख रहा था बोला-माँ चली गई दीदी....और मैं सुन सी खड़ी देखती रह गई...उसने मेरे हाथों में ही प्राण तज दिया था....आखिरी शब्द "माँ" कहते हुए और मैं समझ ही नहीं पाई बेटा कि- मेरी माँ जा रही है- कहते-कहते नीरा फफक पड़ी।  मत रो माँ....नानी कितनी तकलीफ में थी...हम सब उनकी तकलीफ देखकर भगवान से उन्हें ले जाने की ही तो प्रार्थना कर रहें थे...उनका जाना जरूरी हो गया था....मनु नीरा के आँसुओं को पोछते हुए उसके सर को अपनी गोद में रख सहला रही थी....और छोटे बच्चे की तरह समझा भी रही थी...नीरा को लगा जैसे अब वो छोटी बच्ची है और मनु उसकी माँ बन गई है...... 





[चित्र-गूगल से साभार]  



"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...