बुधवार, 4 मार्च 2020

" बाबुल का आँगन "

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आदरणीया आशा भोसले जी के आवाज़ में वन्दनी फिल्म का एक हृदयस्पर्शी गीत.....

अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन ने लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ 
दिजो संदेशा भिजाय रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...

अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आए रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...

बैरन जवानी ने छीने खिलौने
और मेरी गुड़ियाँ चुराई
बाबुल  मैं थी तेरे नाज़ों की पाली
फिर क्यों हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती
न कोई नैहर से आये, रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल .
*********
     बचपन में जब भी मैं ये गीत सुनती मेरे भीतर कुछ टूटने सा लगता था ,हिय में एक हुक सी उठने लगती थी और आँखें स्वतः ही बरसने लगती थी। (आज भी ये गीत मुझे रुला देती हैं ) उस वक़्त मेरे लिए ये कल्पना से परे होता था कि -एक लड़की जो अपने बाबुल के आँगन में पली- बढ़ी....भाई -बहनों के साथ खेली -कूदी... उसे उसी आँगन में लौट के आने के लिए बाबुल से ही गुहार लगानी पड़ रही हैं......अपने घर -आँगन , माँ -बाबुल और सखियों के विरह में वो इस कदर तड़प रही हैं । इस गीत के एक- एक बोल मुझे तड़पा जाती  थी  ....और मैं माँ से पूछ बैठती थी - " आपकी शादी भी तो 13 वर्ष के उम्र में ही हो गई थी न और आप बताती हैं कि- दादाजी आपको एक साल तक मयेके नहीं जाने दिए थे ...फिर कैसे रही होगी आप नाना -नानी के बगैर। " मेरी बाते सुन माँ की आँखें भर जाती .....भीगें से स्वर में  बोलती - " उस जमाने में हम सब मजबूर होते थे बेटा   " ....लेकिन मैं नहीं जाऊँगी... अपने पापा को छोड़कर ...कभी नहीं जाऊँगी ...मैं तड़पकर बोल उठती। कैसी ये जग की रीत हैं जहा जन्म लिया वो घर-आँगन  अपना नहीं होता......किसी पराये घर और घरवालों  को अपना बनाकर उसे अपना  सर्वस्व सोप देना .....और पिता का घर पराया कहलाना .....किसने बनाई ये रीत .. किसी और घर भेज दिया वो तो .सह ले ......मगर अपना घर पराया हो जाना ,क्यूँ  ? ऐसे अनगिनत सवाल मेरा बालमन करता रहता और जबाब ना मिलने पर और भी बेचैन हो जाता। 

     मगर जैसे- जैसे बड़ी हुई ये एहसास होने लगा ..इस जग की रीत से मैं भी नहीं बच सकती .. बेटियों को एक ना एक दिन बाबुल का आँगन छोड़कर पी के घर जाना ही होता हैं... तब, ये बाते मुझे बेहद परेशान कर देती ....कैसे जाऊँगी मैं ये घर -आँगन छोड़कर ...जहाँ भाई -बहनों के साथ खेलते- कूदते ,हँसते- हँसाते बचपन और जवानी गुजरा हैं ....इस आँगन को छोड़ ....पापा को छोड़ नहीं जा पाऊँगी। लेकिन वो घडी भी आ ही गई और मुझे भी हर बेटी की तरह जाना ही पड़ा। पर शायद.... मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब बेटी रही हूँ...  साजन के घर जाने के बाद भी मुझसे मेरे बाबुल का आँगन पूरी तरह नहीं छूटा। पापा के नजर में मैं उस आँगन की तुलसी ही रही। 
  
    लेकिन वक़्त गुजरा और एक दिन.... वो दिन भी आ गया जब पापा ही उस आँगन को छोड़कर  हमेशा हमेशा के लिए चलें गए। आज तीन साल हो गए उनको गए हुए.....घर-आँगन  तो वही हैं ....पर उस घर की रौनक चली गई .....उस आँगन की तुलसी उजड़ गई। अब नहीं अच्छा लगता वही आँगन जहा पापा की आवाज़  सुनाई  नहीं  देती। मगर..... आँगन छूटा पापा का साथ नहीं ...वो आज भी हर पल मेरे साथ हैं ....हर घडी अपने होने का एहसास करा ही जाते हैं ....जब उदास होती हूँ आँसू पोछते हुए ,घबराती हूँ तो हिम्मत बढ़ाते हुए ,जब परेशान होती हूँ तो ढाढ़स बांधते हुए और जब खुश होती हूँ तो मेरे साथ खड़े मुस्कुराते हुए......

    फिर भी पता नहीं क्यूँ ....एक खालीपन सा लगता हैं... वो साया जो हरपल आस -पास होता हैं .....उन्हें  छूने का दिल करता हैं ....उनके पसंद के खाने बनाकर उन्हें खिलाने को दिल करता हैं ....उनकी खूब सारी सेवा करने को दिल करता हैं..... उनके  गले से लिपटकर जी भर के रोने को दिल करता ...पर इस जन्म में तो ये सब सम्भव नहीं......अब तो बस उनकी यादें ही रह गई हैं.... सिर्फ एक एहसास बाकी हैं .....
 ' पापा ,आप बहुत याद आते हैं ...."
आज 4 मार्च वो मनहूस दिन ...जिस दिन मेरे पापा हम सभी से साकार रूप में जुदा हो गए थे लेकिन.... निरंकार रूप में वो हरपल हम सभी के साथ ही होते हैं ....परमात्मा मेरे पापा के आत्मा को शांति प्रदान करें..... 

एक खत पापा के नाम 
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/03/ek-khat-papa-ke-naam.html

यादें पापा की
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/06/yaadein-papa-ki.html


37 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सहृदय धन्यवाद दी ,मेरी भावनाओं को साझा करने के लिए दिल से आभार ,सादर नमस्कार

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  2. बाबुल का आँँगन
    बहुत ही भावपूर्ण संस्मरण
    स्त्रियों का जीवन सचमुच बड़ा ही संघर्ष में होता है । बचपन से लेकर युवावस्था तक जिस घर को ,जिस आँँगन को वह अपना समझती हैं। वह पल भर में पराया हो जाता है।
    आपकी लेखनी को नमन।

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    1. सहृदय धन्यवाद शशि जी ,हाँ ,पता नहीं ये किसी रीत हैं ,बस सवाल वही है कि -दूसरे घर को आपने बनना सुखद हैं पर अपना घर पराया क्यों ?सादर नमस्कार

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  3. साथ ही बाबूजी जहाँँ कहीं भी हो उनकी छाया आप पर बनी रहे ऐसी कामना करता हूँँ।
    यादों के घरौंदा को संभाले रखें वह आपके आंँगन का सूनापन दूर करते रहेगा।

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  4. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
    सच बाबुल का आँगन बाबुल के बिना सूना लगता है और कई मौकों पर तो बहुत ही याद आते हैं वे बीते पल, जिन्हें जीने का फिर से मन करता है

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    1. दिल से शुक्रिया कविता जी ,आपकी सुंदर समीझा के लिए दिल से आभार ,सादर नमस्कार

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    1. सहृदय धन्यवाद विश्वमोहन जी ,सादर नमस्कार

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  6. बहुत ही हृदयस्पर्शी प्रस्तुति सखी ।

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    1. दिल से शुक्रिया शुभा जी ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमस्कार

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  7. मर्मस्पर्शी भाव लिए बेहतरीन लेख । आप पर बाबूजी का आशीर्वाद सदैव बना रहे । सादर नमन ।

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    1. दिल से शुक्रिया मीना जी ,आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमस्कार

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  8. . बहुत ही अच्छा लिखा आपने दिल को छू गई आपकी यह लेख.. हमारा भारतीय समाज ही ऐसा है जहां रीति-रिवाजों से इतर हम जा नहीं सकते हैं..।
    लेकिन अपना परिवार बसाने में भी एक अलग ही सुकून और आनंद है अंकल जी जहां कहीं भी होंगे उनकी आत्मा को शांति मिले उनका आशीष सदैव आपके सर पर बना रहे धन्यवाद

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    1. दिल से शुक्रिया अनु जी ,आपके स्नेह भरे इन शब्दों के लिए तहे दिल से आभार ,सादर नमस्कार

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  9. हृदयस्पर्शी लेखन प्रिय कामिनी जी।
    आपके अंतर से निकले भाव पाठक को विहृवल करने में सक्षम है। मर्मस्पर्शी स्नेहिल अभिव्यक्ति।
    आपके लेख सदैव मन के सूक्ष्म भावों को स्पर्श करते हैं।
    चाचा जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि🙏

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    1. सहृदय धन्यवाद श्वेता जी ,इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमन

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  10. हृदय से निकले भाव हृदय तक पहुँच गये आदरणीया मैम। बहुत खूब लिखा आपने।
    आदरणीय नाना जी को विनम्र श्रद्धांजलि।

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    1. सहृदय धन्यवाद आँचल ,इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार , स्नेह

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  11. प्रिय कामिनी , इस भावपूर्ण लेख के माध्यम से तुमने हर लड़की की मनोदशा का सूक्ष्म चित्रण कर दिया | हर शब्द मानों यादों से भावविहल मन की अतल गहराइयों से उमड़कर , उसकी हर कसक का आईना बन गया | सखी हम हमेशा से सुनते आये हैं ,कि नारी एक एसा पौधा होती है जिसे जब भी, जहाँ भी रोपो --एक बार हल्का मुरझाकर वहीँ हरियाली से भर अपना आसपास महका देती है | इसी गुण के चलते उसे सदियों सम्मान मिला है | कहते हैं पिता कितना भी धनाढ्य क्यों ना हो , बेटी को अपने घर रख नहीं पाया है | भले ही हम कितने आधुनिक क्यों ना हों जाएँ यही चाहते हैं , बिटिया अपने घर सुख से बसर करे || जिन की शादी आज से बीस- तीस साल पहले हुयी थी अथवा उससे भी पहले-- बिछड़ने की पीड़ा कहीं भयंकर थी | आज संचार के साधनों के माध्यम सक्रिय हैं और आज भले बेटियां नित वीडियो कालिंग के जरिये बात करती हैं पर घर से दूरी की पीड़ा उन्हें भी सताती तो जरुर होगी | वैसे उनकी तुलना में हमारी वय की लड़कियों ने उस दर्द को बखूबी महसूस किया है जब हफ़्तों मायके के पत्र की राह देखनी पड़ती थी | भले मेरी शादी से पहले मेरे ससुराल में लैंडलाइन फोन भी था और उनकी देखादेखी मेरे पिताजी ने भी फोन की सुविधा घर में ले ली थी पर उस वेदना को कुछ मिनट की बात कैसे कम कर सकती थी!! सदैव ही सब लड़कियां यही कहती हैं कि वे कभी बाबुल का आँगन छोड़ कर नहीं जायेंगी पर उन्हें अंततः जाना ही पड़ता है | और सखी तुमने एक बार फिर दिवंगत पापा को बड़ी ही भावुक मन से याद किया है | भले वो सशरीर हमारे बीच नहीं होते पर हमारे संस्कार के रूप में वे सदैव हमारे भीतर समाहित रहते हैं | आखिर उन्हीं के दिए ये संस्कार ही हमें समाज में पहचान दिलाते हैं | हम उन्हीं का साकार रूप ही तो हैं | उनकी पुण्यस्मृति को कोटि नमन |तुम्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं भावनाओं से भरे इस लेख के लिए | बन्दिनी का ये गाना तो मानों दिल ही निकाल ले जाता है | अनायास आज भी मायके दूर होने की टीस जगा देता है | सस्नेह --

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    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    2. सहृदय धन्यवाद सखी ,तुमने बिलकुल सही कहा ,इस सुंदर समीक्षा के लिए दिल से आभार , सादर स्नेह

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  12. भाव हृदय तक पहुँच गये हृदयस्पर्शी कामिनी दी

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    1. सहृदय धन्यवाद संजय जी ,इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार , सादर स्नेह

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  13. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(18-02-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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  14. बहुत ही मार्मिक लेख प्रिय सखी. एक एक शब्द.. मैं नहीं जाऊँगी तुम्हारे पापा को छोड़कर. यही होती है एक औरत सब समेट लेती है जीवनसाथी के साथ... आप का नाज़ुक मन... |
    बहुत सारा स्नेह प्रिय दीदी

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    1. दिल से धन्यवाद अनीता जी ,ये तो हर नारी के मन के भाव है ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर स्नेह सखी

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  15. बहुत ही हृदयस्पर्शी लेख कामिनी जी ! माँ पापा से ही मायका होता है उनके अभाव में सूनापन काट खाने को दौड़ता है...सच घर आँगन का पराया होना बेटी के लिए सबसे बड़ी सजा है....
    पापा की यादें ही उनके आशीर्वाद स्वरूप हर वक्त साथ हैं आपके और उनकी छाँव बनी रहे पुण्यस्मृति
    मेंं करबद्ध श्रद्धांजलि ।

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    1. सहृदय धन्यवाद सुधा जी ,आपने सही कहा -माँ -बाप से पीहर की रंगत होती हैं ,आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,प्रतिउत्तर देरी से देने के लिए क्षमा चाहती हूँ ,सादर नमन

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  16. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  17. हृदय स्पर्शी ,लेखन जैसे हर बेटी की मिलती-जुलती दास्तां ।
    आपने सभी के भावों को साक्षात उकेरा है कामिनी जी मर्म स्पर्शी सृजन।

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    1. हर बेटी की भावनाएं तो एक सी ही होतीहै कुसुम जी,सराहना हेतु हृदयतल से आभर एवं नमन

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  18. भले ही पिता सशरीर हमारे बीच नहीं होते पर हमारे संस्कार के रूप में वे सदैव हमारे भीतर समाहित रहते हैं | बिल्कुल सही कहा कामिनी दी। बहुत ही भावपूर्ण रचना।

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    1. सही कहा आपने ज्योति जी,सराहना हेतु बहुत बहुत धन्यवाद एवं नमन

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