शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

आईं झुम के बसंत....

 

    


   बसंत अर्थात "फुलों का गुच्छा", बसंत, अर्थात  "शिव के पांचवें मुख से निकला एक राग" बसंत जिसके "अधिष्ठाता देवता ही कामदेव" हो, ऐसे ऋतु के क्या कहने।"बसंत" इस शब्द के स्मरण मात्र से ही दिलों में  फुल खिलने लगते हैं...तन-मन प्रफुल्लित हो जाता है....हवाओं में मादकता भर जाती है... यूँ ही नहीं इसे "ऋतुओं का राजा" कहते हैं...

शास्त्रों के अनुसार  इसी ऋतु के पंचमी तिथि को संगीत की देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था। अवतरित होते ही देवी ने जैसे ही वीणा के तारों को झंकृत किया संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन  गतिमान होने लगी। वीणा की झंकार से संगीत का जन्म हुआ।

 "सरस्वती" हमारी परम चेतना है। ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका है। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही है। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। वास्तव में सरस्वती का विस्तार ही वसंत है, उन्ही का स्वरूप है– वसंत।  

 ऐसे "ऋतुराज बसंत" का आगमन होने वाला है.... अब प्रकृति अपना  श्रृंगार करेगी.....खेतों में पीली-पीली सरसों अपनी स्वर्णिम छटा बिखेरते हुए लहलहाने लगेगी....बाग-बगीचे रंग-बिरंगी फुलों से भर जाएंगे.... और तितलियाँ उन फुलों से रंगों को चुराने लगेगी....गेहूं की बालियां खिलने लगेगी....पेड़ों पर नई कोंपले आने लगेगी....आम की डालियों पर  आईं मंजीरियों (बौर) से वातावरण मादक होने लगेगा....कोयलिया गाने लगेगी....पपीहा पी-पी कर अपने प्रियतम को पुकारने लगेगी.....बसंती वयार अपनी पूरी मादकता लिए झुमने लगेगी और सर्दी को अलविदा कहेंगी।

क्या सचमुच ऐसा होगा?

आज से बीस साल पहले तक यही नजारा दृश्यमान होता था अब भी होगा तो जरूर...भले ही आधे अधूरे स्वरुप में हो ।प्रकृति अपना कर्म नहीं छोड़ेंगी,भले ही अब हम इसका आनंद उठाए या ना उठाए। उठाएंगे भी कैसे? हमने तो प्रकृति का रूप ही नहीं अपने जीने के ढंग को भी बिगाड़ने में कोई कसर जो नहीं छोड़ी है। प्रकृति तो एक माँ की भाँति हमारे सभी गुनाहों को माफ़ कर पुरी कोशिश कर रही है कि अब भी वो हमें ऐसा वातावरण दे सकें जिसमें हम खुशहाल जीवन जी सकें।

 लेकिन अब वो मनोरम दृश्य कहाँ ?

अब तो बस कवियों की कविताओं में ही बसंत आता है और कब चुपके से चला जाता है पता ही नहीं चलता....

मुझे आज भी बचपन के वो दिन याद आ ही जाती है।जब बसंत पंचमी के दिन हर घर और स्कूल में सरस्वती पूजा का आयोजन होता था।( ये त्यौहार विषेशकर बिहार और बंगाल में ज्यादा मनाया जाता है) हम पीले रंग के फ्रॉक में इतराते धूमते-फिरते थे। मेरी मां भी पीली साड़ी पहनती थी।हम ही क्या सारे लड़के-लड़कियाँ और औरतें सभी पीले वस्त्र ही पहनते थे। ऐसा लगता था जैसे सरसों के फूलों ने हमें सँवार दिया हो। उस दिन हमारी खुशी और उत्साह का ठिकाना नहीं होता... होता भी क्यों नहीं... गर्म कपड़ों से मुक्ति जो मिली होती थी। ये अलग बात है कि रात होते ही फिर गर्म कपड़े पहनने ही होते थे। लेकिन ये उम्मीद पकी होती थी कि अब सर्दी जाने वाली है....

कहने का मतलब मौसम में निश्चितता होती थी। आज तो एक दिन में ही मौसम कई बार रंग बदलते हैं। कहना पड़ता है कि-"मौसम आदमी की तरह रंग बदल रहा है" क्योंकि आदमियों ने इसे अपने रंग में जो रंग लिया है...हमें  अपने आप पर शर्म आनी चाहिए, अब भी वक्त है.. 

आईए हम सब मिलकर फिर से प्रकृति का संरक्षण करें और फिर से बसंत के वो दिन वापस लाए। हमारे छोटे-छोटे प्रयासों से ये संभव है। माँ सरस्वती कुपित हो रही है हम पर... आईए हम अपनी माँ के आँचल को फिर से रंग-बिरंगे रंगों से सराबोर कर दे और खुद भी उल्लासित होकर कहें-

आईं झुम के बसंत….

झुमो संग-संग में

आज रंग लो दिलों को

इक रंग में 

आप सभी को बसंत पंचमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं



रविवार, 30 जनवरी 2022

"गीता ज्ञान"-सत्य और असत्य

दो-चार दिन पहले सम्पूर्ण गीता को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो कौन नहीं जानता कि गीता का मुख्य सार है- आत्मा अजर-अमर, अविनाशी है तो मृत्यु का शोक कैसा, मृत्यु आत्मा के नये वस्त्र बदलने की प्रक्रिया मात्र है और दूसरा निष्काम कर्मयोगी बनो अर्थात कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

प्रत्येक व्यक्ति अर्थात आत्मा बचपन से ही ये ज्ञान सुन रहा है या यूं कहें कि कई जन्मों से सुन रहा है फिर भी इसे आत्मसात नहीं कर पाता। फिर  क्या मरणासन्न स्थिति में गीता का ज्ञान सुन कर किसी को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अर्थात किसी को जीवन का ज्ञान मिल सकता है ?

पहले कर्म की बातें करते हैं- कर्म कर फल की इच्छा ना करना ये कैसे स्वीकार कर लें कोई? छोटी से छोटी बात में भी प्रतिफल की इच्छा तो होती ही है न? यदि हम किसी से मुस्कुरा कर बात भी करते हैं तो हमारी यही कामना होती है कि सामने वाला भी हम से उतना ही प्यार से बातें करें। बाकी कर्मों का तो हिसाब ही छोड़ दें। अपने दैनिक जीवन पर नजर डालें तो पाएंगे कि- कर्मफल पाने की चाह तो हमें बचपन से ही सिखाया जाता है।

अब आत्मा की बात करें तो,जो शरीर सारा दुःख सुख,हर्ष और पीड़ा झेलता है सारे रिश्ते नाते निभाता है उसे एक अदृश्य आत्मा कैसे मान लें? जबकि सारा जीवन हमें शरीर को ही स्वस्थ और सुंदर बनाने शिक्षा दी जाती है, आत्मा को कैसे स्वस्थ और सुंदर बनाए ये तो कभी सिखाया ही नहीं गया। रिश्ते नाते को तोड़ मोह भंग कैसे कर पाएंगे जबकि सारा जीवन इन्हीं बंधनों में बांधे रखा गया हो।

 मरणासन्न अवस्था में आकर भी जब  किसी व्यक्ति के प्राण नहीं निकलते अर्थात उसको देह त्याग करने में पीड़ा होती है तो पंडित जन कहते हैं कि- गीता का पाठ करवा दो मुक्ति मिल जाएगी। 

कैसे? इस बात पर वो ये र्तक देते हैं कि-ज्ञान सुनने से मोह का त्याग होगा और मोह त्यागने से मुक्ति।

समस्त जीवन जिस पाठ का "क ख ग" भी नहीं जाना क्या, आखरी पलों में इस मुल ज्ञान को हम समझ भी पायेंगे, आत्मसात करने की बात तो दूर है ?

सारी उम्र जिस शरीर के सुन्दरता और इससे जुड़े रिश्ते नातों में उलझे रहे क्या एक पल में उसे अदृश्य आत्मा मान मोह भंग कर पाना सम्भव है? 

 जीवन पर्यन्त जिन कर्मों का वहिखाता खोलें रखा एक पल में उसे बंद कर पाना आसान है क्या?

मेरी समझ से तो बिल्कुल नहीं। ये एक असत्य सत्य है जो ना जाने कितने युगों से हमारी मन मस्तिष्क पर हावी है।

तो फिर, गीता का हमारे जीवन में महत्व क्या है?

क्यों इसे एक महान ग्रंथ का दर्जा मिला है?

हमने अपने बुजुर्गो को हमेशा ये कहते सुना होगा कि- गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। तो फिर क्यों, उन्होंने इस जीवन जीने की कला को ना ही खुद अपनाया ना हमें ही सिखाया ? क्यों जीवन के आखिरी क्षणों में ही इस ज्ञान को सुनने का कर्मकांड बनाया गया। क्यों इतने महान ग्रंथ को सिर्फ अदालत में शपथ लेने के लिए ही उपयोग में लाया गया

  क्या इसके सुत्र (इक्वेशन) इतना मुश्किल था जिसे आम जीवन में अपनाना सम्भव नहीं था ?

 सम्पूर्ण गीता को सुनने के बाद मेरी बुद्धि विवेक तो यही कहती है कि- इस ज्ञान को आत्मसात करने से सरल कुछ है ही नहीं बशर्ते इसकी शिक्षा हमें बचपन से दी गई होती।

एक बार गीता के प्रमुख सुत्रो पर विचार करते हैं- 

१.मै एक आत्मा हूं जो अमर है, शरीर हमारा वस्त्र है जिसका एक निश्चित समय पर नष्ट हो जाना तय है।

"आत्मा का मतलब क्या है- आत्मा यानि वह शक्ति जो सोचती है निर्णय लेती है,कर्म करती है।ये शरीर इन कर्मों को करने का माध्यम है।"

इस एक बात को मानने से हमें गुरेज क्यों होता है। जबकि हमारे सामने अनेकों उदाहरण आ जाते हैं जहां ये सिद्ध होता रहता है कि एक ही आत्मा कई रूपों में आती है। हममें से हर एक ने ये अनुभव भी किया होगा कि घर का सदस्य मरणोपरांत किसी ना किसी रूप में उसी घर में जन्म लेकर आता है। ये सारी बातें सब मानते हैं अनुभव भी करते हैं मगर ना जाने क्यों आत्मसात करने से कतराते हैं? अब यदि इसे आत्मसात कर लिया तो जन्म मरण के भय से मुक्ति मिल जाएगी। अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि- आत्मा जैसी कोई शक्ति है।

२.सुत्र- कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

कितना सरल है इसे समझना,यदि हम अच्छे कर्म करते हैं तो उसके फल के बारे में क्या सोचना क्योंकि अच्छे कर्म वही करता है जिसे प्रतिफल की आशा ही नहीं होती। अच्छाई सिर्फ़ देना जानती उसे पाने की आस ही नहीं होती।

चिन्ता सिर्फ़ बुरे कर्मों की करनी चाहिए। अच्छाई को चिंता करने की जरूरत ही नहीं।

 ३.प्रमुख सुत्र- जो हुआ वो सही हुआ जो होगा सही होगा।

आप जैसा करोगे वैसा ही तो पाओगे। फिर इसमें क्या सोचना? ये तो प्रकृति का नियम है कर्मों के हिसाब से ही परिणाम होता है तो जो हुआ सही हुआ।

४.सुत्र- मनुष्य का प्रथम धर्म है स्वयं को जानना।

मगर, हमें बाहरी दुनिया में ही खोये रहना पसंद है खुद को जानने का कभी प्रयास ही नहीं करते। यदि स्वयं को जान लिया तो कुछ जानने के लिए बचा ही नहीं।

ऐसे ही गीता में अनेक ऐसे सुत्र है जहां काम,क्रोध,लोभ, मोह जैसी प्रवृतियों पर कैसे अंकुश लगाएं ये समझाया गया है। गीता के सभी सुत्र आपको अज्ञानता के अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाएगा। इसके एक एक सुत्र अर्थात इक्वेशन को जीवन में अपनाने की कला यदि बचपन से ही हमें सिखाई जाती तो जीवन इतना दुष्कर ना होता।एक सफल जीवन के निर्माण करने में गीता का ज्ञान अहम भूमिका निभाता है इसमें तो कोई संशय था ही नहीं फिर क्यों इसे सिर्फ एक धर्म ग्रंथ बना कर रखा गया?

"मेरी समझ से गीता का मूल सार बस यही है कि- आप की सोच आप के व्यक्तित्व का निर्माण करती है और आप का व्यक्तित्व आपको कर्म करने की प्ररेणा देता है और आप का कर्म आपके भाग्य का निर्माण करता है।"

गीता को विश्व की सबसे महान ग्रंथ का दर्जा मिला है। इसके जैसी पुस्तक ना पहले लिखा गया ना ही आगे लिखें जाने की संभावना ही है।इस पुस्तक में दिए गए सुत्र (इक्वेशन) किसी खास जाति,देश या प्रदेश पर लागू नहीं होता विश्व के समस्त मानव जाति पर लागू होता है।

मुझे बहुत दुःख होता है कि जीवन जीने की कला सीखाने वाली इस ग्रंथ को एक खास तबके ने अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु जनमानस से दूर रखा और भ्रमित भी किया कि मरणासन्न पर सुन लो मोक्ष की प्राप्ति होगी। गीता के ज्ञान को तो हर घर में बचपन से ही सिखाने समझाने और आत्मसात कराने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ जैसे रटे रटाए प्रार्थना के साथ हमें ईश्वर पुजन की विधि सिखाईं गई और सही मायने में ईश्वर क्या है, कौन है उनसे कैसे जुड़े, उनसे अपना सम्बन्ध कैसे बनाएं जो हर पल वो हमारे सुख दुःख में काम आ सकें।ये नहीं बताया गया वैसे ही गीता को भी सिर्फ एक धार्मिक और पुजनीय पुस्तक बताया गया ये कहा गया - "बहुत गूढ़ विषय है इसे आम जीवन में अपनाना  मुश्किल है।"  जबकि इसके एक एक सुत्र व्यक्त्तिव निर्माण की प्रक्रिया सिखाती है जीवन जीने की कला सिखाती है । इसके सुत्रो को जीवन में अपना कर जीवन सुखमय भी बनाया जा सकता है इस सत्य से हमेशा दूर रखा गया।

पांच हजार साल से भी ज्यादा वक्त बीत गया हैं लेकिन गीता के उपदेश आज भी हमारे जीवन में उतने ही प्रासंगिक है।

मेरे मन में ये प्रश्न उठ रहा है-

पहला प्रश्न- तो फिर इसे जीवन में अपनाने की कला क्यों नहीं सिखाई गई?

दुसरा प्रश्न-  आज भी हम खुद भी इसके ज्ञान को जीवन में धारण कर और अपने बच्चों को भी इसकी शिक्षा क्या नहीं दे सकते ?






मंगलवार, 4 जनवरी 2022

"जीवन-मृत्यु"

"ज़िन्दगी तो बेवफा है, एक दिन ठुकराएगी

मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी"

 जी हाँ, मौत महबूबा ही तो है वो कभी आप का पीछा नहीं छोड़ती और महबूबा के साथ जाने में कैसा डर कैसी घबड़ाहट.... मगर,क्या इतना आसान होता है "मौत"को महबूबा समझना?

"मौत" एक शाश्वत सत्य..जो एक ना एक दिन  सबको अपने गले से लगा ही लेती है। "मौत" शरीर की होती है आत्मा की नहीं...आत्मा तो अजर अमर अविनाशी है।"मौत"जो अंत नहीं एक नव जीवन का आरंभ है.....

   ये आध्यात्म की बातें.... सब जानते हैं  और मानते भी है। फिर भी..."मौत' इतनी डरावनी क्यूँ लगती है। क्यूँ नहीं हम इसका मुस्कुराते हुए बाहें फैला कर स्वागत कर पाते हैं? क्यूँ जब इस दुनिया के भगवान आप के किसी अपने को ये कह देते हैं कि-"ये चन्द दिनों के मेहमान है"  तो हम उसी पल टुटकर बिखर जाते हैं? क्यूँ उस अपने का बिछड़ना असहनीय लगता है? उस व्यक्ति के दर्द और पीड़ा को देख कर एक पल को हम इस सत्य को स्वीकार भी कर ले कि इस जीर्ण-शीर्ण काया का नष्ट हो जाना ही उस व्यक्ति की मुक्ति है.... मौत उसके लिए वरदान है तब भी.... तिल-तिल कर नष्ट होती उस काया को देखना कितना दुष्कर होता है। ऐसा लगता है जैसे वो व्यक्ति ही नहीं हम भी उसके साथ पल-पल मौत के क़रीब जा रहें हैं..... "एक रिश्ते की मौत" ये  दर्द तब और बढ़ जाता है जब वो रिश्तेदार " मां-बाप"  हो। क्यूँकि सारे रिश्ते दुबारा मिल सकते है ये नहीं।

 ये तो जिन्दों की पीड़ा है उस मरने वाले की पीड़ा को तो शायद, कोई समझ ही नहीं सकता...यकिनन उसे शब्दों में बयां कर पाना उसके लिए भी दुष्कर ही नहीं असम्भव है। जन्म और मरण ही तो एक ऐसी प्रक्रिया है जो अव्यक्तं है और हमेशा रहेगा।

कहते हैं कि- आत्मा को भी शरीर छोड़ने से पहले कितने ही सुक्ष्म प्रकियाओ से गुजरना होता है। प्राण शक्ति अपनी उर्जा को सभी नाड़ियों से खींच  एकत्रित कर बाहर निकालने का प्रयास कर रही होती है और मोह वश आत्मा उसे निकलने देना नहीं चाहती और दोनों के बीच द्वंद्व होता रहता है, ये पीड़ा असहनीय होती है। ये भी कहते हैं कि आख़िरी घड़ी में जीवन के सारे कर्म चलचित्र की भांति आँखों के सामने से गुजरने लगते हैं और वो पल उस आत्मा के लिए बेहद पीड़ा दायक होती है। अर्थात कुल मिलाकर कर जीवन के इन आखिरी क्षणों की पीड़ा को इन्सान किसी से साझा भी नहीं कर सकता है।

ये तो आखिरी चन्द घंटों की प्रक्रिया होती है परंतु उससे पहले की उन यातनाओं का क्या....जब आप का शरीर धीरे-धीरे असहाय होता जा रहा हो... पहले तन के एक-एक अंग साथ छोड़ रहे हो और फिर आप की इन्द्रियों ने भी आप का कहना मानने से इंकार कर दिया हो।कितना मुश्किल होता होगा उस आत्मा के लिए जिसे महसूस हो रहा है कि वो पल-पल मौत की ओर बढ़ रहा है..... वो अपने प्रियजनों से कभी भी अन्तिम विदाई ले सकता है......उस पल मोह ग्रस्त आत्मा के लिए ये स्वीकार करना कि-

" ये अंत नहीं आरंभ है" सम्भव ही नहीं।

और वो प्रियजन जिनके लिए वो व्यक्ति उसकी पूरी दुनिया सदृश्य हो वो उसे तिल-तिल मरता देख रहा हो...पर कुछ नहीं कर सकता....उसके वश में सिर्फ इतना ही है कि वो कुरूर नियति के फैसले का इंतजार करता रहें....

किसी के लिए भी जीवन का ये सबसे मुश्किल वक्त होता है। जाने वाले के लिए भी और....ठहरने वालों के लिए भी.... 

क्यूँ, मन ये स्वीकार नहीं कर लेता कि-

जीवन एक ऐसा जंग है जिसमें हार ही जाना है

 एक दिन इस जहाँ को छोड़, उस जहाँ को ही जाना है....


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"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...