बात उन दिनों की जब हम सब छोटे-छोटे थे। मेरे पापा इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में कार्यरत थे,हमें सरकारी क्वार्टर मिले थे। हमारी कॉलोनी में साफ-सफाई के लिए,बागवानी के लिए और घरों के टॉयलेट-बाथरूम तक के सफाई के लिए अलग-अलग कर्मचारी थे। उन्ही कर्मचारियों में एक थे "रामचंद्र अंकल" जी हाँ,हम उन्हें अंकल कहकर ही बुलाते थे, वो हमारे टॉयलेट-बाथरूम और नालियों की सफाई करने हर रोज आते थे। अब उन दिनों की मानसिकता के हिसाब से आप समझ ही सकते हैं कि-घर के बुजुर्ग उनके साथ कैसा व्यवहार कर सकते हैं। उन दिनों तो छुआ-छुत जैसी बीमारी अपने प्रवल रूप में थी। लेकिन.....हमारे घरों में ये कम होता था, थोड़ा बहुत दादी करती थी बाकी कोई नहीं। लेकिन रामचंद्र अंकल के लिए पापा की सख्त हिदायत थी कि उनके साथ कभी कोई गलत व्यवहार नहीं करेगा। उन्हें दफ्तर से लेकर सबके घरों में भी उतना ही सम्मान मिलता था जितना बाकी बड़े कर्मचारियों को मिलता था। दरअसल अंकल का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि कॉलोनी के साहब भी उन्हें "रामचंद्र जी" कहकर सम्बोधित करते थे बाकी उम्र के हिसाब से भईया,चाचा अंकल बुलाते थे। साहब को पीठ पीछे गालियाँ भले दे दी जाए ,मगर रामचंद्र अंकल के लिए... पीठ पीछे भी उनकी तारीफ ही होती थी।
पापा.. दादी कहती है कि- "रामचंद्र अंकल तो मेहतर है छोटी और नीच जाति के है और तो और वो बहुत छोटे कर्मचारी भी है "फिर भी सभी लोग उन्हें इतना मान-आदर क्यूँ देते हैं ? मेरे भोले मन को ये बाते उलझा रही थी सो एक दिन मैंने पापा से पूछ ही लिया। पापा ने उस दिन एक बात बड़े प्यार और गंभीरता से समझाई जो आज तक मैं कभी नहीं भूली। पापा ने कहा -"बेटा "प्रतिष्ठा" पद और जाति से नहीं मिलती, प्रतिष्ठा अपने व्यक्तित्व और व्यवहार से कमानी पड़ती है " और रामचंद्र ने ये कमाया है। फिर पापा ने उनकी कहानी बताई-रामचंद्र अंकल के पापा इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में कार्यरत थे जब वो 14 साल के थे तभी उनके पापा गुजर गए। उनके पापा का स्वभाव भी बड़ा मृदुल था और हर एक हाकिम उन्हें मानता भी था और इज्जत भी देता था। उन साहब लोगो ने जब रामचंद्र अंकल की आर्थिक मदद करनी चाही तो उन्होंने मना कर दिया। तब वो लोग उन्हें चाय-पानी पिलाने के लिए रख लिया और इस बहाने उनकी मदद करने लगे। जब वो 18 साल के हुए तो उनके पापा के जगह पर ही उन्हें नौकरी पर रख लिया।
रामचंद्र अंकल कठोर परिश्रमी,मृदुभाषी और बड़े स्वभिमानी भी थे कभी किसी से उनका झगड़ा तो दूर कहा-सुनी भी नहीं होती, बच्चें हो या बड़े साहब सबके साथ उनका व्यवहार नपातुला होता ,चेहरे पर शालीनता भरी एक मुस्कुराहट सदैव बनी रहती। इसी कारण कभी कोई साहब तक भी उनके साथ दुव्यवहार कर ही नहीं पाया और उन्हें "रामचंद्र जी' ही कहकर सम्बोधित किया और अपने बच्चों से भी उनका आदर करने को कहा।
मुझे आज भी याद है उनकी जेब टॉफियों से भरी रहती थी जो भी कोई बच्चा उनके करीब आता तो उन्हें "नमस्ते अंकल" जरूर कहता था और वो बड़े प्यार से उसकी हथेली पर दो टॉफियाँ रख देते थे और बच्चें "थैंक्यू अंकल" कहते हुए खुश हो जाते थे। आज खबर आई कि रामचंद्र अंकल नहीं रहे.... , जिनके व्यवहार ने बालपन में ही मुझे ये सीखा दिया था कि -"प्रतिष्टा कमानी पड़ती है"
उनकी याद आई तो ये संस्मरण आप से साझा कर लिया।