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गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

मुमकिन है क्या ?

    



     कभी-कभी मुझे ये सोचकर बड़ा अचरज लगता है कि जो चीजे हमें अपनी जीवन को पकड़ने में मदद देती है,वही  चीज़े हमारी पकड़ से बाहर होती है। हम ना खुद उसके बारे में सोच सकते हैं ना किसी दूसरे को बता सकते हैं। क्या कोई अपने जन्म के घड़ी के बारे में कुछ याद कर सकता है या अपनी मौत के अनुभव को बता सकता है ? अपनी जन्म और मौत की घड़ी के अनुभव को साझा करना तो थोड़ा बेतुका है मगर, जब आपके आँखों के आगे किसी जीव का जन्म होता है वो चाहे इंसानी हो या पशु-पक्षी का उस पल की अनुभूति को भी क्या आप साझा कर सकते हैं ? 

    एक शख़्स जो आपके वज़ूद का अहम हिस्सा हो और वो आपकी ओर टकटकी बंधे हुए...आपकी ही हाथों में दुनिया को अलविदा कह चलता बने और आप कुछ ना कर सकें....आपनी बेबसी के उस पल को क्या आप शब्दों में वयां कर सकते हैं ? आपको पता है "मौत निश्चित" है चाहे वो अपनी हो या किसी और की मगर,  फिर भी किसी के मौत के बाद जीवन में आई खालीपन को आप शब्दों में किसी को पढ़ा सकते हैं ?

    जीवन और मौत तो थोड़ी दार्शनिक पीड़ा हो गई मगर, ख़ुशी के पलों में भी जो हमारी आंतरिक मनःस्थिति होती है उसे ही दुबारा हम फिर कभी उसी रूप में महसूस कर पाते हैं क्या ? क्या कोई अपने विवाह के अनुभव को हूबहू अपने भीतर दोहरा सकता है ? क्या हम उस अनुभव को साझा कर सकते हैं जब आप अपने भीतर के अकेलेपन को थोड़ा सरकाकर किसी दूसरे को वहाँ आने की इज़ाज़त देते है ? आपके भीतर के अकेलेपन को हौले से सरकाकर कब उस जगह पर कोई कब्ज़ा कर लेता है और आपको पता भी नहीं चलता। आपको पता ही नहीं चलता कि कब आपका वज़ूद आपके लिए ही बेमानी हो गया और उसके वज़ूद से जुडी छोटी-छोटी बातें भी आपके लिए अहमियत रखने लगी। ये सब जो आपको खुद पता नहीं फिर उस पल को दुबारा हूबहू महसूस करना या उसे शब्दों में पिरोना सम्भव है ? प्रथम मिलन की ख़ुशी और प्रीतम से बिछुड़न की पीड़ा को याद कर आपके भीतर एक ख़ुशी का उन्माद  या हुक जरूर उठ सकती है मगर हूबहू उस अनुभव को दुबार जीना या दूसरों को बताना संभव है क्या ?

      बच्चें  माँ-बाप के जीवन का अहम हिस्सा होते हैं, माँ-बाप उनकी ख़ुशी और जिम्मेदारियों को उठाने में जो सफर करते हैं उस 20-25 साल की पीड़ा और समझौते को क्या कोई बच्चा हूबहू जान पता है या जानना चाहता है ? माँ-बाप जो बच्चों के लिए अपना समस्त जीवन त्याग चुके होते हैं वही माँ-बाप जीवन संध्या में अपने जीवन यापन के लिए उन बच्चों के मोहताज़ होकर उनकी ओर लाचारी से देखते रहते हैं.....उनकी हृदय की इस पीड़ा को वो बच्चा कभी जान सकता है ? हाँ, वही बच्चा जब खुद माँ-बाप के उम्र तक आकर उस पीड़ा से गुजरता है तो थोड़ी देर लिए उसे अहसास भर होता है मगर उस दर्द को हूबहू जानना.....इतना ही नहीं जब मृत्यु उनके सामने खड़ी होती है तो.... उसी प्यारे बच्चें की एक झलक देखने की तड़प....बेटे की एक झलक देखने के लिए दरवाजे से टंगी उनकी आँखों को  पढ़कर उनकी मनोदशा को हूबहू कलमबद्ध करना मुमकिन है क्या ?

     चाहे कोई कितना भी बड़ा कलम का धनी क्यों ना हो जाए कुछ बातों और अनुभव को अल्फ़ाज़ों में वयां करना ना- मुमकिन है। लेखक उनकी भावनाओं को अपना नजरिया दे सकते हैं मगर, किसी की मनःस्थिति को लयबद्ध  नहीं कर सकते। किसी और की क्या....कोई अपनी ही भावनाओं को हूबहू कलमबद्ध करना तो दूर दुबारा हूबहू उस स्थिति को जी भी नहीं सकता....

( ये मेरा अपना नजरिया है )

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