रविवार, 23 दिसंबर 2018

"ज़िंदगी का सबक सिखाता " - दिसम्बर और जनवरी का महीना



        एक और साल अपने नियत अवधि पर समाप्त हो जाने को है और एक नया साल दस्तक  दे  रहा है। बस....एक रात और कैलेंडर पर तारीखें  बदल जायेगी। दिसम्बर और जनवरी महीने की कुछ अलग ही खासियत होती है। कहने को तो ये भी दो महीने ही तो है पर.....साल के सारे महीनो को बंधे रखते हैं। दोस्तों , क्या आप को भी लगता है कि - इन दोनों के बीच एक खास रिश्ता है ? 

मुझे लगता है...इन दोनों के बीच एक खास रिश्ता है बिलकुल रात और दिन के जैसे। दोनों एक ही धागे के दो सिरे ही तो है...कहने को दोनों दूर है...फिर भी एक दूसरे के साथ बंधे रहते हैं...दोनों के  बीच कभी  ना ख़त्म होने वाला एक रिश्ता होता है। जब ये दो महीने दूर जाते हैं...तो साल बदल जाते हैं और...जब पास आते हैं  तो आस बदल जाते हैं....एक का अंत हो रहा होता है तो दूसरे का आरंभ....। देखने में तो  ये दोनों एक से ही तो लगते हैं..एक  सा मौसम और एक  जितनी  ही  तारीखें.....बस, दोनों के अंदाज़ अलग होते हैं।  एक में ढेरों यादें होती है तो दूसरे में अनेको वादें।  

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

समंदर - " मेरी नज़र में "

 

       क्या कभी आपने समंदर किनारे बैठ कर उसकी आती-जाती लहरों को ध्यान से देखा हैं ? सागर दिन में तो बिल्कुल शांत और गंभीर होता है। ऐसा लगता है जैसे, अपना विशाल आँचल फैलाये....और उसके अंदर अनेकों  राज छुपाये....एक खामोश लड़की हो.....जिसने सारे जहां के दर्द और सारी दुनिया की गन्दगियों को अपने दामन मे समेट रखा है। लेकिन फिर भी खामोश है....उसे किसी से कोई शिकायत नहीं....कोई दुःख नहीं ....कोई तड़प नहीं। ( वैसे हमेशा से सागर को पुरुष के रूप में ही सम्बोधित किया गया है लेकिन मुझे उसमे एक नारी दिखती है) हाँ, कभी कभी उसमें हल्की-फुल्की लहरें जरूर उठती रहती है।  उस पल ऐसा लगता है जैसे, दर्द सहते-सहते अचानक से वो तड़प उठी हो और उसके दिल की तड़प ने ही लहरों का रूप ले लिया हो।  

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

" परिवर्तन " या पीढ़ियों में अन्तर

  उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ मैं ,बचपन और जवानी के सारे खूबसूरत  लम्हों को गुजार कर प्रौढ़ता के सीढ़ी पर कदम रख चुकी हूँ। तीन पीढ़ियों को देख चुकी हूँ या यूँ कहें कि उनके साथ जी चुकी हूँ। परिवर्तन तो प्रक्रति का नियम है इसलिए घर-परिवार, संस्कार और समाज में भी निरंतर बदलाव होता रहा है और होता रहेंगा । शायद इसीलिए हर पीढ़ी ने दूसरे पीढ़ी को ये जुमला जरूर कहा हैं कि - " भाई हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था ".लेकिन हमारी पीढ़ी ने वक़्त को जितनी तेज़ी से बदलते देखा है उतना शायद ही किसी और पीढ़ी ने देखा हो। और पढ़िये

सोमवार, 5 नवंबर 2018

टूटते - बिखरते रिश्ते


        आज कल के दौर में टूटते-बिखरते रिश्तों को देख दिल बहुत व्यथित हो जाता है और सोचने पर मज़बूर हो जाता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? आखिर क्या थी पहले के रिश्तो की खुबियां और क्या है आज के टूटते -बिखरते रिश्तों की वज़ह ? आज के इस व्यवसायिकता के दौड में रिश्ते- नातो को भी लाभ हानि के तराज़ू में ही तोला जाने लगा है। ज़िंदगी छोटी होती जा रही है और ख्वाहिशें बड़ी होती जा रही है। मैं ये नही कहूँगी कि मैं आप को रिश्तों को संभालना सिखाऊंगी,उसको निभाने की कोई टिप्स बताऊँगी। मैं ऐसा बिलकुल नहीं करुँगी क्यूँकि "रिश्ते" समझाने का बिषय बस्तु नहीं है। रिश्तों को निभाने के लिए समझ से ज्यादा  भावनाओं की जरुरत होती है। रिश्तों के प्रति आप का खूबसूरत एहसास, आप की भावनायें ही आप को रिश्ते निभाना सिखाता है और आज के दौर में इंसान भावनाहीन ही तो होता जा रहा है। मैं तो बस रिश्तों के बिखरने की वजह ढूंढना चाहती हूँ .और पढ़िये 



    एक शिशू जब माँ के गर्भ में पलता है तो वो सिर्फ माँ के शरीर के रक्तनलिकाओं और कोशिकाओं से ही नहीं जुड़ा होता, वो तो अपनी माँ की भावनाओ से, उसके एहसासों से भी जुड़ा होता है। जिस तरह माँ के शरीर के रोग-आरोग्य का शिशु के शरीर पर असर होता है उसी प्रकार माँ के भावनाओं का असर भी गर्भस्थ शिशु की मानसिकता पर भी होता है। यही नहीं माँ जिस वातावरण में रहती है उस वातावरण का भी पूरा असर बच्चे की मानसिकता पर होता है। ये एक वैज्ञानिक सत्य है जिसे लगभग सब जानते हैं, समझते हैं, मानते भी है पर अपनाते नहीं है। मेरी समझ से गलती की शुरुआत यही से होती है। 



     एक नन्हे से बीज को एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनाने के लिए एक अच्छी ज़मीन, अच्छी आबो-हवा और अच्छा खाद-पानी देना होता है तब वो एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनता है। तो जब एक पौधे के लिए हमें इतना सब कुछ करना होता है तो फिर क्या मानव के भ्रूण को एक स्वस्थ शिशु और एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमें एक स्वस्थ शरीर जहाँ वो भ्रूण पले, जब वो भ्रूण गर्भ में एक शिशु का आकर ले रहा हो तो उससे एक शुद्ध भावना के साथ बंधे रखने की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए ? जब वो शिशु जन्म लेता है तो क्या हमें उसे एक खुशियों से भरा हुआ घरेलू वातावरण नहीं देना चाहिए ? अगर हम ये सब उसे नहीं दे सकते तो फिर हम उस शिशु से कैसे उम्मीद रख सकते हैं कि वो एक अच्छा इंसान बनेगा ? जब वो एक अच्छा इंसान नहीं बनेगा तो भावनाओं  को क्या समझेगा और जब भावनायें ही नहीं समझेगा तो रिश्तों को क्या निभाएगा ?
     पुराने ज़माने में एक औरत जब गर्भवती होती थीं तो उसके खान-पान,रहन -सहन पर पूरा ध्यान दिया जाता था, उसे अधाय्तम से भी जोड़े रखा जाता था, बच्चा जब जन्म लेता था तो उसे प्यार और सहोद्र से भरा वातावरण मिलता था।बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-मामा, बुआ-मौसी जैसे रिश्तों से घिरा होता था। ये सारे रिश्ते उसे अलग-अलग भावनाओं से जोड़ते और अलग-अलग तरीको से उसे ज्ञान भी देते थे। 
    दादा-दादी से वे प्यार दुलार पाते थे, और अपनी फ़रमाइशे भी मनवाते थे और बड़ो का आदर-सम्मान करना भी सीखते थे।  माँ-बाप से एक सुरक्षित देख-भाल पाते थे और अनुशासन सीखते थे। चाचा-मामा,बुआ- मौसी  उन्हें खेल-खिलौने देते थे और साझेदारी सिखाते थे। इस तरह ये सारे रिश्ते मिलकर उन्हें पालते और एक अच्छा इंसान बनाते थे। इस तरह शिशु को बचपन से ही अपने सारे रिश्तों का भान हो जाता था। उन्हें दादा-दादी का आदर करना भी आता था और लाड लगा कर अपनी फ़रमाइसे भी पूरी करवाना आता था। उन्हें ये एहसास होता था कि माँ मेरे लिए कितना दर्द सह कर रात-रात भर जाग कर मेरी देखभाल करती है, बाप अपनी सारी  इच्छाओं को अधूरा छोड़ मेरी हर ख़ुशी को पूरा करता है। ये एहसास ही उनके दिल में इन रिश्तों के प्रति वो भावनायें देता था जिनसे उसे रिश्तों को निभाने की प्रेरणा मिलती थी। उसे इन रिश्तों के प्रति अधिकार और कर्तव्य का भी बोध हो जाता था। वो अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते हुए देखते थे तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की सेवा करना अपना कर्तव्य लगता था जिसे उस वक़्त पुण्य का काम समझा जाता था। 
      अब आते हैं आधुनिकता के युग में, आधुनिक युग में अगर सबसे ज्यादा परिवर्तन हुआ तो नारियो में हुआ।  "नारी" जो हमेशा से एक सुसंस्कृत परिवार और एक सभ्य समाज की नीव रही है। नारियो ने इस युग में अपने आप को सुशिक्षित और स्वालम्बी बनाया है जो उनकी सब से बड़ी उपलब्थी है और प्रशंसा के काबिल भी है। नारियो ने अपना सम्मान तो पा लिया लेकिन अपनी सबसे बड़ी और कीमती धरोहर " संस्कार" को खोती चली गई। नारियो ने घर की दहलीज़ पार कर बाहर की दुनिया में अपने आप को स्थापित तो कर लिया परन्तु घर खाली करती चली गई। घर बाहर दोनों की दोहरी भूमिका निभाते-निभाते वो एक भरे पुरे सयुक्त परिवार को खो बैठी। 



      उनकी अत्यधिक आज़ादी की चाह ने धीरे-धीरे प्यार और रिश्तों के हर बंधन को खोल दिया।  इसका असर आने वाली पीढ़ियों पर कैसे पड़ा अब इस पर विचार करते हैं। आज़ादी की चाह ने सबसे पहले सयुक्त परिवार को एकल परिवार का रूप दिया। क्योंकि जहाँ सास-ससुर रहेंगे वहाँ थोड़ा तो बंधन और अनुशासन में रहना ही पड़ेगा। देवर-जेठ जैसे रिश्ते होंगे तो थोड़ा कर्तव्य भी निभाना ही पड़ेगा।  नए युग की नारियों ने अपने इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनकी सिर्फ एक लालसा "और आज़ादी" की चाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी और रिश्तेदारी निभाने नहीं दिया और परिवार बिखरते चले गए।  



     एकल परिवार में माँ के शरीर की सही देख-भाल न होने के कारण भूण को एक स्वस्थ शिशु बन कर विकशित होने के लिए एक निरोगी काया न मिली और अध्यत्मिकता का वातावरण तो आज के समाज से बिलुपत ही हो गया है। इन कारणों से बच्चे को विकसित होने के लिएना स्वस्थ शरीर मिला ना अच्छी मानसिकता। दादा-दादी का सांनिध्य ना मिलने के कारण बच्चों ने आदर सम्मान करना नहीं सीखा, बच्चों की फ़रमाइशे बेहिसाब होती है जो पहले के रिश्ते मिलकर पूरी करते थे जो अकेले माँ-बाप का पूरा करना मुश्किल था तो बच्चें  जिद्दी हो गए, बच्चों के जिद्दी होने का एक कारण और भी था माँ-बाप अपने बच्चों के हर रिश्ते की कमी को स्वयं पूरा करना चाहते है और पूरा करते भी है जिसका बुरा प्रभाव ये हुआ की बच्चें "ना" सुनना ही नहीं चाहते हैं और जिद्दी होते चले जा रहे हैं। परिवार में चाचा-मामा आदि रिश्ते नहीं होने के कारण बच्चों ने साझेदारी भी नहीं सीखा।  एक बच्चे का चलन  बन जाने के कारण अपने से छोटो को प्यार करना भी उन्हें नहीं आया, बच्चों ने अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते भी नहीं देखा तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की परवाह नहीं रही।  हम रिश्तों के प्रति उनके दिल में कोई भावना ही नहीं दे पाए तो फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं  कि वो कोई रिश्ते निभायेगे ? उनके लिए हर रिश्ता " give and take " बन कर रह गया। 
     ये तो थी आधुनिक युग की बातें,अब तो इंटरनेट युग है और इस ज़माने की लड़कियाँ तो ये शर्त रखकर ही शादी करती है कि - "हमारे साथ आप के माता-पिता नहीं रहेंगे" मैंने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि - "एक औरत ही सुसंस्क़ृत परिवार और सभ्य समाज की नीव होती है". पुरुष की भागीदारी इसमें द्वितीय किरदार के रूप में होती है। औरत में ही कर्तव्यपराण्यता, प्यार, सेवा, संस्कार, और त्याग जैसी भावनाये होती है। भारत का इतिहास ऐसी नारियो की गाथाओ से भरा पड़ा है. 

     मैं ये नहीं कहती कि हम नारियाँ अपना उत्थान ना करें, सदियों से हमारे स्वाभिमान को जो कुचला गया है और आज भी कुचला जा रहा है, उस स्वाभिमान को पूर्णतः हासिल करना हमारा पहला कर्तव्य है परन्तु, हम नारियों को अपने उत्थान और सम्मान के साथ-साथ अपने संस्कार को भी संजोये रखना होगा।  वो संस्कार जिसके कारण भारतवर्ष में नदियों को पूजा जाता है, वो संस्कार जिसके वजह से भारत में ईंट और गारे से बने मकान को "घर" कहा जाता है, वो संस्कार जिसमे जन्म देने वाले माँ-बाप को ईश्वर तुल्य समझा जाता है, इन संस्कारों को संभालना भी हम नारियों का ही कर्तव्य है . वरना एक-एक करके हमारे जीवन से हर रिश्ता और उसके प्यार की मिठास खोती चली जाएगी और इसके कसुरवार सिर्फ हम होंगे आनेवाली पीढ़ी नहीं.

सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

"दिल तो बच्चा है जी"



     ज़िंदगी हर पल एक चलचित्र की तरह अपना रंग रूप बदलती रहती है। है न , जैसे चलचित्र में एक पल सुख का होता है तो दुसरा पल दुःख का...फिर अगले ही पल कुछ ऐसा जो हमें अचम्भित कर जाता है और एक पल के लिए हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि "क्या ऐसा भी होता है ?"ढाई तीन घंटे की चलचित्र में बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर दिख जाता है। हमारा जीवन भी तो एक चलचित्र ही है फर्क इतना है कि- चलचित्र में हमें  "The end "देखने को मिल जाता है वो भी ज्यादा से ज्यादा खुशियों से भरा अंत। हमारे जीवन का The end क्या, आगे क्या होगा ये भी हमें नहीं पता होता है।और पढ़िये

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2018

सोना के बेटे की-" हीरा" बनने की कहानी



चलिये ,सोना की कहानी को आगे बढ़ाते है और जानते है कि -कैसे उनका बेटा हीरा बन चमका और अपने माँ के जीवन में शीतलता भरी रौशनी बिखेर दी।
सोना की बाते सुन माँ ने उन्हें पहले चुप कराया और फिर सारी बात बताने को कहा। सोना ने बताया कि- मेरी बहन ने मेरे बेटे को अब आगे पढ़ाने से मना कर दिया है। क्युकि मेरे बेटे के साथ ही उसका बेटा भी 10 वी का परीक्षा दिया था लेकिन वो फेल हो गया है इस बात से मेरी बहन नाराज़ है और बेटा आगे पढ़ने के ज़िद में खाना पीना छोड़ रखा है। फिर वो सकुचाती हुई बोली - मालकिन आप के भाई तो प्रोफ़ेसर है न ,आप अगर मेरे बेटे को उनके यह रखवा देगी तो आप का बड़ा एहसान होगा वो उनके घर का सारा काम करेगा ,बर्तन -चौका ,खाना -पीना ,बाजार- हाट सब करेगा बस वो मेरे बेटे को कॉलेज में दाखिला करवा देंगे ,मेरी बहन के घर भी तो वो ये सारे काम करके ही पढ़ा है। माँ एकदम से चौकी - क्या, अपनी सगी मौसी के घर वो ये सब कर के पढ़ा है ?लानत है उस मौसी पर। फिर माँ ने सोना को समझाया कि - मैं कुछ करती हूँ , चिंता नहीं करो और बेटे को भी जाकर खाना खिलाओ ,सब ठीक हो जायेगा। और पढ़िये

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

कहानी सोना की


"सोना "हाँ ,यही नाम था घुंघट में लिपटी उस दुबली पतली काया का। जैसा नाम वैसा ही रूप और गुण भी।  कर्म तो लौहखंड की तरह अटल था बस तक़दीर ही ख़राब थी बेचारी की। आज भी वो दिन मुझे अच्छे से याद है जब वो पहली बार हमारे घर काम करने आई थी। हाँ ,वो एक काम करने वाली बाई थी। पहली नज़र मे देख कर कोई उन्हें काम वाली कह ही नहीं सकता था। कोई उन्हें कामवाली की नज़र से देखता भी नहीं था वो तो सबके घर के एक सदस्य जैसी थी। बच्चे बूढ़े सब उन्हें सोना ही बुलाते थे बस हम भाई बहन उन्हें प्यार से ताई या अम्मा कह के बुलाते थे। प्यार और इज्जत तो सब उनकी करते थे पर हमारे परिवार को उनसे और उन्हें हम सब से एक अलग ही लगाव था।   और पढ़िये  

शनिवार, 20 अक्टूबर 2018

प्यार एक रूप अनेक


" प्यार क्या है ? " सदियों से ये सवाल सब के दिलों में उठता रहा है और सदियों तक उठता रहेंगा। सबने इस सवाल का जबाब ढूढ़नें की पूरी कोशिश भी की है। "प्यार" शब्द अपने आप में इतना व्यापक  और विस्तृत  है कि -इसकी व्याख्या  करना बड़े-बड़ों  के लिए भी काफी मुश्किल रहा है तो मेरे  जैसे छोटे कलमकारों की क्या बिसात  जो इसके बारें में कुछ लिखे .लेकिन फिर भी मैं ये हिमाकत कर रही हूँ। अपने जीवन के अनुभव से जो कुछ भी मैंने जाना और समझा है वही आप सब से साझा कर रही हूँ। .और पढ़िए 
     " प्यार " शब्द तो एक है लेकिन इसके रूप अनेक है माँ बाप का प्यार ,भाई बहन का प्यार, पति- पत्नी का प्यार, दोस्तों का प्यार, प्रेमी- प्रेमिका का प्यार और भगवान-भक्त का प्यार। ये सब तो प्यार के ही रूप है लेकिन देखा ये जाता है कि इन सारे प्यार के रूपों में सब से ज्यादा चर्चे सिर्फ दो रूपों की होती हैं। उनके ही किस्से कहानियाँ  हमेशा से सुनने को मिलते आ रहे हैं।  वो है प्रेमी-प्रेमिका का प्यार और भक्त का भगवान से  प्यार ,बाकी प्यार जैसे माँ बाप से बच्चों का प्यार, भाई बहन का प्यार और दोस्ती के किस्से यदा कदा सुनने को मिलते हैं।  वैसे प्यार का सबसे पवित्र और अनोखा रूप भगवान से भक्त का और एक माँ का उसके छोटे बच्चों  से प्यार ही है।  इससे सुन्दर और पवित्र प्यार का और कोई  रूप हो ही नही सकता। लेकिन इतिहास उठा कर देखे तो सबसे ज्यादा प्यार के फसाने प्रेमी-प्रेमिका के ही मिलते है,राधा-कृष्ण, हीर-राँझा, लैला-मजनू ,सोहनी-महिवाल और न जाने कितने किस्से है इस प्यार के अनादि काल से अब तक। सारी फिल्मों  की कहानियां  भी इसी प्यार के ही ऊपर बनती है।  यहाँ  तक की प्यार शब्द का नाम आते ही सबके जेहन में सिर्फ और सिर्फ एक लड़का-लड़की का प्यार ही आता है। तो क्या वाकई कुछ खास बात है इस प्रेमी-प्रेमिका  वाले प्यार में ? तो  क्या बाकी और  सारे प्यार का कोई महत्व नहीं? मेरे जेहन में भी बचपन से ही ये सवाल उठता रहता था। काफी जद्दोजहद रहती थी मेरे दिल में कि " ऐसा क्युँ है ? " उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ  मैं और आज सारे जवाब मुझे थोड़े बहुत समझ आ रहे हैं। 
     तो शुरू करते हैं माँ-बाप के प्यार से- ये रिश्ता हमें ईश्वर की तरफ से मिलता है। कहते हैं कि हमारे अच्छे-बुरे कर्मो के रूप में ही हमे अच्छें या बुरे माँ बाप मिलते हैं। तो ये हमारी किस्मत हुई और इसी खून के रिश्ते से हमारे बाकी  रिश्ते जैसे भाई-बहन वैगेरह-वैगेरह जुड़े होते हैं। ये सारे रिश्ते अधिकार और कर्तव्य के डोर से बंधे होते हैं। जब तक हम बच्चें होते हैं तब तक हमारा किसी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं होता सिर्फ और सिर्फ हमारा सब पे अधिकार होता है।  उस वक़्त हमें माँ-बाप का भरपूर प्यार मिलता है और हम भी उन्हें बेहिसाब प्यार करते हैं। भाई-बहन के रिश्तों की तो बात ही क्या... वहाँ तो न अधिकार होता है और ना ही कोई कर्तव्य..होता है तो सिर्फ प्यार। यहां  तक कि छोटी-छोटी बातों पर तकरार  भी बड़े प्यारे-प्यारे  होते हैं।  रूठना-मनाना, लड़ना-झगड़ना फिर भी एक दूसरें पर जान देना।  लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते हैं और अधिकार के साथ साथ कर्तवय भी शामिल होने लगता है फिर इस अधिकार और कर्तव्य  रुपी डोर के बीच स्वार्थ की गांठे पड़ने लगाती है और धीरे-धीरे प्यार की जगह स्वार्थ लेने लगता। ये स्वार्थ आपस में मनमुटाव लाता है और फिर दिलो में दूरियां  आ जाती  है। अक्सर ये दूरियां  इतनी बढ़ जाती है कि भाई-भाई हो या भाई-बहन एक दूसरे की सूरत तक देखना नहीं चाहते। कभी-कभी माँ-बाप का प्यार भी इस स्वार्थ रुपी गांठ से अछूता नहीं रहता। उम्र का एक दौड़ आते-आते बच्चों को माँ-बाप बोझ लगने लगते हैं और माँ-बाप को वो बच्चें जो आर्थिक रूप से थोड़े कमजोर होते हैं।  इस रिश्ते को कमजोर करने के कुछ और भी कारण होते हैं जैसे दूसरे परिवार से बहु या दामाद के रूप में नए सदस्य का घर में आना और उनका एक दूसरे को दिल से स्वीकार नहीं करना। इस तरह माँ-बाप और बच्चों के बीच के प्यार की तपिस को स्वार्थ ठंढा कर देता है। ये लगभग हर घर की कहानी है।  वैसे इसमें अपवाद  भी है तभी तो चंद किस्से माँ-बाप और भाई बहन के प्यार के भी है।  लेकिन आमतौर पर इन रिश्तों का प्यार वक़्त के साथ स्वार्थ की बलि चढ़ जाता हैं। 
     अब प्यार का दूसरा रूप, वो है " दोस्ती " का। दोस्त हम बड़ी सूझ-बुझ के साथ अपने स्वभाव के अनुकूल ही बनाते है यूँ  कहे कि  ये रिश्ता हम अपने बुद्धि - विवेक से खुद चुनते हैं। दोस्ती एक अनमोल धन है जो जितना मिले कम ही लगता हैं। "दोस्ती" जिसमे सबसे ज्यादा सुकून और मस्ती होती है, दोस्ती में हर ख़ुशी और गम बेझिझक हो कर बाँट लेते हैं। यहाँ  अधिकार और कर्तव्य  भी नहीं होते है सिर्फ प्यार होता है।  फिर भी ये रिश्ता भी टिकाऊ नहीं हो पाता. क्योंकि वक़्त के साथ कुछ मज़बूररियों  के कारण ये रिश्ता दम तोड़ देता है। जैसे लड़कपन के दोस्त, स्कूल के दोस्त, फिर कॉलेज के दोस्त,ये सारे दोस्त मज़बूरी बस ही सही वक़्त के साथ छूटते चले जाते हैं और धीरे धीरे धूमिल भी हो जाते हैं।  इसमें भी कुछ अपवाद है, कुछ दोस्ती उसी प्यार और खुलुस के साथ ताउम्र जिन्दा रहती है।  तभी तो दोस्ती मूवी भी बनी है। 
  
     पहला प्यार का रिश्ता जो हमें भगवान देता है वो है खून के रिश्ते, दूसरा प्यार का रिश्ता जो हम  खुद बनाते हैं वो है दोस्ती।अब आता है तीसरा प्यार का रिश्ता वो है पति-पत्नी का. ( वैसे तो कहते हैं कि " जोड़ियां ऊपरवाला बनता है."लेकिन मैं ये नहीं मानती.) इस रिश्ते को बनाने में तो बहुतों  का हाथ होता है परिवार, समाज, जाति -धर्म, परम्परा ये सारे मिल कर पति-पत्नी के रिश्ते को बनाते हैं। इसमें एक लड़का-लड़की का कोई हाथ नहीं होता। इस रिश्ते की तो बुनियाद ही स्वार्थ से शुरू होती है।लड़की के माँ-बाप को लड़की की शादी कर अपना बोझ हल्का करने का स्वार्थ, लड़के के माँ-बाप को एक सेवा करने वाली बहु और ढेर सारा दहेज़ पाने का स्वार्थ, लड़के को एक अच्छी पत्नी जो सिर्फ उसकी मर्ज़ी पर जिए उसका स्वार्थ,लड़की को धन-धन्य से परिपूर्ण ससुराल और बहुत प्यार करने वाले पति के चाहत का स्वार्थ। ये तो पूरा रिश्ता ही स्वार्थ में लिपटा  होता हैं।इस रिश्ते के बनने की वज़ह तो स्वार्थ होता है लेकिन ये निभता सिर्फ और सिर्फ समझौते के बलबूते ही है। क्योंकि  जब ये रिश्ता एक बार बन जाता है तो इसे निभाना भी एक पारिवारिक और सामाजिक मज़बूरी हो जाती है। शुरू-शुरू में जब जिस्मानी भूख मिटने की चाह होती है तो पति-पत्नी के बीच वक्ती  लगाव हो जाता है,एक साथ रहते- रहते थोड़ा बहुत प्यार भी हो जाता है,एक दूसरे का ख्याल भी रहता है।  लेकिन वक़्त के साथ पारिवारिक दायित्यो को पूरा करते-करते कब वो थोड़ा प्यार भी जीवन से चला जाता है पता ही नही चलता। उस प्यार को खोने का एहसास भी तब होता है जब दोनों में से एक दूसरे को छोड़ हमेशा के लिए इस दुनिया से चला जाता है। वरना जीते जी तो स्वार्थ और शिकायतों का ही जीवन में जगह होता है। 90 के दशक तक इस रिश्ते में औरतो को ही ज्यादा समझौते करने पड़ते थे अपने अरमानों  को ताक  पर रख कर उन्हें पति की ख्वाइशों  को पूरा करना होता था।  लेकिन अब ज्यादा समझौते पति कर रहे हैं क्योंकि लड़कियां  अब काफी उग्र हो चुकी है। शायद ये भी एक सामाजिक परिवर्तन है।  खैर, हमारा विषय -वस्तु  ये नहीं है हम तो प्यार की बात कर रहे हैं। इस पति-पत्नी के रिश्ते में भी कुछ अमर प्यार के उदाहरण है। कुछ पति-पत्नी ऐसे भी होते है जो पहली मिलन से ही एक दूसरे को समर्पित हो जाते हैं और कुछ वो जिन्हे प्रेमी-प्रेमिका से पति पत्नी बनने का सौभाग्य मिल गया हो , ऐसे पति-पत्नी की जोड़ी लाखों  में एक होती है। 
     
     अब बात करते हैं प्रेमी-प्रेमिका के रिश्ते की तो  ये रिश्ता ना भगवान बनाते हैं, ना परिवार और समाज,ना ही इंसान खुद।  ये रिश्ता बनाया नहीं जाता और अगर बन जाये तो तोडा भी नहीं जाता या यूँ कह सकते हैं कि ना इसको बनाने में किसी का जोर चलता है ना तोड़ने में। आप चाह कर भी किसी से प्यार नहीं कर सकते और ना ही अपने आप को किसी को प्यार करने से रोक पाते हैं  और अगर प्यार हो जाये तो फिर आप खुद कोशिश करे या पूरी दुनिया जोर लगा दे आप उस प्यार से दूर भी नहीं हो पाते। कहते है- " प्यार किया नहीं जाता हो जाता है " इस रिश्ते को बनाने में सिर्फ दिल और आत्मा का हाथ होता हैं  बाहरी  किसी भी तत्व का इससे कोई सरोकार नहीं।  हम हज़ारों  लोगो से मिलते है पर कोई एक जिस पर पहली नज़र पड़ते ही ऐसा महसूस होता है जैसे कि वो हमारी ही आत्मा का बिछुड़ा हुआ टुकड़ा है। उसे देखते ही उस पर अपना सब कुछ न्यौछावर  करने को जी चाहता है ,इससे ही हम प्यार कहते हैं। जब किसी से प्यार होता है तो रूप-रंग, जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, परिवार-समाज कुछ इसके बीच नहीं आता, यहां  ये सारी  बाते महत्वहीन हो जाती हैं।  इस प्यार में अधिकार और कर्तव्य की डोर भी नहीं होती इसलिए इसमें स्वार्थ की गांठ भी नहीं पड़ती , होता है तो सिर्फ " प्यार और परवाह " सिर्फ एक ख्वाहिश  होती है एक दूसरे में खो जाने की, एक दूसरे पर न्योछावर  हो जाने की बस।  इस प्यार में मिलना और बिछड़ना भी कोई मायने नहीं रखता  यानि उनका प्यार किसी भी परिस्थिति में कम नहीं होता हैं। कहते हैं  राधा कृष्ण 15-16 साल की उम्र में ही बिछड़ गए थे और फिर कभी नहीं मिले लेकिन उनका प्यार कभी कम नहीं हुआ , उन्हें हम " प्यार के देवता" के रूप में पूजते हैं। कहते हैं  लैला बिलकुल काली थी कोई खूबसूरती नहीं थी उसमे फिर मजनूँ  क्यों उसका दीवाना था  यानि इस प्यार में जिस्मानी वज़ूद भी महत्वहीन हैं।  ये सिर्फ और सिर्फ एक रूहानी रिश्ता है जिसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने कभी किसी से ऐसा प्यार किया हो।  ये अलग बात है कि ऐसे रिश्ते को इस समाज ने  कभी समझा ही नहीं और जाति- धर्म, अमीरी-गरीबी उच्च-नीच और कभी अपने पारिवारिक स्वार्थ के लिए प्यार करने वालो की कुर्बानी देता चला आया। अगर इस समाज ने इस रिश्ते की कुर्बानी ना दी होती और उन्हें फलने -फूलने का सौभाग्य दिया होता तो यकीनन आज दुनिया में स्वार्थ और नफरत की जगह सिर्फ और सिर्फ प्यार पनपता। 
   अब आखिरी रिश्ता है भक्त और भगवान का. तो हमारी समझ से भक्त-भगवान और प्रेमी-प्रेमिका के रिश्ते में बड़ा ही बारीक़ अंतर हैं।  एक प्रेमी अपने प्रियतम में भगवान का अंश  देखता है और एक भक्त अपने भगवान को ही अपना प्रियतम बना लेता हैं।  जैसे मीरा ने भगवान कृष्ण को ही अपना पति मान लिया था और उनके प्रेम में दीवानी होकर दुनिया से बेगानी हो गई  थी, भक्त रसखान वो भी कृष्ण के दीवाने थे। आज भी कृष्ण को चाहने वाले पुरुष भी अपने आप को राधा रानी की तरह सवारते है और खुद को उनकी प्रेमिका ही मानते हैं। 
    अब गलती से भी आप मेरे इस फ़साने को आज के ज़माने से नहीं जोड़ लेना। क्योकि इस युवा वर्ग ने प्यार को व्यवहारिकता  का रूप दे दिया है माँ-बाप को पता है कि हमारा काम बच्चों  को पाल-पोस कर बड़ा करना है इसके बाद हमारा  इन पर कोई हक़ नहीं , बच्चों  को पता है कि हम बड़े हो गये है तो हमे शादी कर अलग घर बसना है, माँ-बाप हमारी जिम्मेदारी नहीं हैं। इस नई  जेनरेशन  को अपनी पसंद से शादी करने के लिए किसी की इजाजत की भी जरुरत नहीं, शादी न निभाने पर इन्हे उस शादी को तोड़ने में भी कोई गुरेज नहीं। आज कल के युवा वर्ग उसे प्यार का नाम देते है जिसमे पहले हमबिस्तर होते है फिर साल दो साल साथ गुजारते है अगर इसके बाद भी उनमे लगाव बाकी  रहा तो सोचते है की हमे शादी करनी चाहिए या नहीं। अब ऐसे रिश्तो के माहौल में भगवान- भक्त, और हीर-राँझा को ढूढ़ना थोड़ा मुश्किल है ,ये रिश्ता तो विलुप्त सा हो रहा हैं। 
      इन सब के वावजुद अब भी ऐसा नहीं है कि पूरी दुनिया ही प्यार के इस नए रूप में डूब गई हैं। अभी भी इस धरती पर कहीं -न -कहीं  कुछ ऐसे घर है जहां  निस्वार्थ सा प्यार भरा परिवार रहता है, कहीं -न -कहीं वो दोस्तों का मस्ती भरा साथ बचा है जिन्हे कोई भी मज़बूरी दूर ना कर पाई  है, अभी भी कुछ प्रेमी बचे है जो इस आत्मा विहीन दुनिया  में भी आत्मा से जुड़े हैं, भले ही उनके प्यार के किस्से ना बने हो, चर्चे ना हुए हो लेकिन उनका प्यार भी राधा-कृष्ण और हीर-राँझा के प्यार से कम नहीं। आज भले ही भगवान में आस्था ना बची हो लेकिन कहीं -न -कहीं  कोई मीरा और रसखान है जिनके लिए भगवान ही सब कुछ हैं।  जिस दिन ये धरती प्यार विहीन हो जाएगी वही दिन कयामत का दिन होगा ऐसा मेरा मानना हैं। 
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    इन सारे प्यार के रिश्तो के अलावा एक रिश्ता और है जो सबसे सर्वोपरि है वो है " इंसानियत का रिश्ता " ये प्यार तो बिलकुल ही दुनिया से ख़त्म हो गया है. दोस्तों, हो सके तो हम इस प्यार के रिश्ते को बचाने की कोशिश करे ,अगर ये रिश्ता ख़त्म हो गया तो धरती रहेगी तो लेकिन नर्क से भी बुरे हालत में। 

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "


         
     

     फुर्सत के चंद लम्हे जो मैं खुद के साथ बिता रही हूँ। घर से दूर,काम -धंधे,दोस्त - रिस्तेदारों से दूर,अकेली सिर्फ और सिर्फ मैं। हाँ,आस-पास  बाहरी दुनिया है कुछ लड़के - लड़कियां  जो मस्ती में डूबे हैं ,कुछ बुजुर्ग जो अपने पोते - पोतियों के साथ खेल रहे हैं ,कुछ और लोग है जो शायद मेरी तरह बेकार है या किसी का इंतज़ार कर रहे हैं । पास से ही एक सड़क गुजर रही है जिस पर गाड़ियों का आना-जाना जारी है। इन सारे शोर-शराबो के वावजूद मुझे बहुत सुकुन महसूस हो रहा है.ना कोई चिंता - फ़िक्र है ना कोई विचार, सिर्फ ख़ामोशी है। ऐसा शायद इसलिए है कि हर वक़्त लोगो में घिरी रहने और काम धंधो में उलझी रहने वाली "मैं" जिसे अकेले वक़्त गुजरने का पहला मौका मिला है। दरअसल,मेरी बेटी ने एक institute ज्वाइन किया है और आज उसके क्लास का पहला दिन है।
     
    अनजान शहर ,अनजान रास्ते हैं तो मुझे उसके साथ आना पड़ा। तीन  घंटे की उसकी क्लास है तो मेरी भी तीन घंटे की क्लास लग गई और वक़्त गुजरने के लिए मैं पास के ही एक पार्क में आ बैठी। मैं काफी बातूनी हूँ चुप बैठ ही नहीं सकती तो सोचा क्यूँ न आज खुद से ही बातें कर लूँ। "खुद से बातें "लोग पागल नहीं समझेंगे। तो सोचा कागज कलम का सहारा ले लेती हूँ। मैंने पास बैठे एक लड़के से एक पेपर माँगा पेन तो हर वक़्त मेरे साथ होता ही है और बैठ गई खुद से बात करने।और पढ़े 

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

हर पल सिखाती ज़िन्दगी



  दोस्तों,मैं कोई शायरा,लेखिका या कवयित्री नहीं हूँ। मैंने जवानी के दिनों में डायरी के अलावा कभी कुछ नहीं लिखा है। हाँ , बचपन से कुछ लिखने की चाह जरूर थी। लेकिन किस्मत कुछ ऐसी रही कि छोटी उम्र से ही जो पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझी तो बस उलझी ही रह गई। उम्र के तीसरे पड़ाव में आ गई लेकिन...कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि- कुछ वक़्त खुद के साथ बिताऊँ ...खुद से बातें करूँ...खुद को समझूँ.....खुद के अंदर झांक के देखूँ  कि -मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ, मैं कैसी  हूँ ,मेरा खुद का कोई वज़ूद है भी या नहीं ?
     अपने जीवन की कहानी और उसकी उलझनों को बता कर मैं आप को बोर नहीं करुँगी क्योंकि मेरी पीढ़ी की हर औरत का मेरे जैसा ही हाल रहा। खुद के लिए कम जीना और दुसरों  के लिए ज्यादा। हाँ,ये जरूर बताऊँगी कि मेरी लाइफ में बदलाव कैसे आया। भगवान ने मुझे एक बड़ी प्यारी सी बेटी दी है अभी वो  20 साल की है उसका सपना ऎक्ट्रेस बनने का है और उसी का सपना पूरा करने मैं मुंबई मायानगरी में आई हूँ। यहाँ  सिर्फ मैं और मेरी बेटी ही है। मैंने अपने समय के सारे रूढ़िवादिताओं  को तोड़ कर अपनी बेटी की माँ कम और दोस्त ज्यादा बनने की कोशिश की है। उसमे बहुत हद तक कामयाब भी रही हूँ। मैं अपनी बेटी की ही नहीं उनके दोस्तों की भी दोस्त हूँ। वो अपनी सारी बातें  मुझसे बेझिझक शेयर करते हैं। उन्हें मेरे साथ घुमने या मूवी देखने जाने में भी कोई परहेज़ नहीं होता। संझेप में कहूँ तो मेरे साथ भी वो फुल एन्जॉय करते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि वो मेरी respect नहीं करते हैं। मैं भी अपनी सीमाओं का ध्यान रखती हूँ और जितना space उनसे रखना चाहिए रखती भी हूँ। कहने का मतलब, दोस्त के साथ-साथ माँ का रोल भी बाखूबी निभाती हूँ।  जवानी में वो  वक़्त जो मैं कभी जी नहीं पाई थी और सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा पल जी भी पाऊँगी  वो मिला है मुझे इन बच्चों के साथ।               फुर्सत के चंद लम्हे -"एक मुलाकात खुद से "


    जीवन में आये इस परिवर्तन में कुछ अलग ही तरह से वक़्त गुजारने का मौका मिला मुझे। शाम के वक़्त समुन्द्र के  किनारे  घूमना....घंटो बैठे -बैठे समुन्द्र की आती जाती लहरों को निरखना....वहाँ बच्चों और युवाओं  को मस्ती करते देखना....बुजुर्गो को टहलते या रिलेक्स करते देखना....कभी कभी पार्क में बैठ कर झूला झूलना.....हर जिम्मेदारियों  से दूर हूँ मैं। हाँ ,कभी-कभी फ़िक्र होती है घर की,पति की ,भाई बहनों की,माँ की याद भी बहुत आती है। लेकिन इन जगहों  पर आकर मेरी सारी फ़िक्र सारी यादें  पता नहीं कहाँ चली जाती है। दिल बिलकुल सुकून में डूब जाता है। फुर्सत के इन पलों  में बहुत सारे ख़्यालात उमड़ने लगे। मैं उन ख्यालातों को शब्दो में पिरौने लगी और मेरी लेखनी चल पड़ी। मैंने सोचा क्यों न मैं नये  दोस्त बनाऊँ  और उनसे अपनी बाते share करूँ , उनसे कुछ सीखूँ। 
    जिस तरह हर इंसान का जीवन को जीने का  अपना ही अंदाज़ होता है उसी तरह जीवन को, जीवन की परिस्थितियों को, रिश्तों को, समाज को और यहाँ  तक की व्यक्ति विशेष को देखने का भी उनका अपना एक नज़रिया होता है ,अपना एक दृश्टिकोण होता है।  वो अपनी ही नज़रिये से हर परिस्थिति को देखता है , समझता है , संभालता है  और सीखता भी है . यूँ  कहे कि सारा खेल नज़र और नज़रिये का है।  जैसे एक गिलास में आधा गिलास पानी है तो उसे देख कर कोई गिलास आधा भरा कहेंगा तो कोई आधा खाली, ऐसी एक दृष्टि या दृष्टिदोष के कारण कोई अपनी बिगड़ी ज़िंदगी सुधर लेता है तो कोई अपनी सुधरी- सवरी ज़िंदगी बिगड़ लेता है। 

   मैं भी जीवन के 40-45 बसंत देख चुकी हूँ. मैंने यही देखा है कि ये जीवन आप को हर पल कुछ-न-कुछ सिखाती ही रहती है बशर्ते आप सीखना चाहे तो। मैंने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव से बहुत कुछ सीखा है। मैं अपने ब्लॉग में आप से अपना यही अनुभव share करुँगी। वैसे तो जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला तो आप के खुद का ही जीवन होता है लेकिन इंसान देख कर और पढ़कर भी बहुत कुछ सीखता है।कभी-कभी एक छोटा बच्चा भी आप को बहुत कुछ सीखा जाता है।

      जीवन में कुछ भी शास्वत नहीं है।हर पल जीवन बदलता रहता है अगर आज आप बहुत सुखी है तो जरुरी नहीं की कल आप को दुःख ना देखना पड़ें और आज अगर दुःख है तो एक-ना-एक दिन ख़ुशियाँ वापस जरूर आएगी और जो दुःख जायेगा वो आप को कुछ-ना-कुछ जरूर सीखा कर ही जायेगा।  महत्वपूर्ण ये है कि आप उनमे से कितनी बातों  को ग्रहण करते हैं और उसे आगे अपने जीवन में कैसे अपनाते हैं ।आपने देखा होगा चिड़िया तिनका -तिनका जोड़ कर अपना घोसला बनती है और आँधी आकर एक पल में उनके घोसले को उड़ा ले जाती है। चिड़िया बैठ कर उस घोसले का मातम नहीं मानती बल्कि आँधी के थमते ही वो फिर तिनका इकठा करने में जुट जाती है आज के युवा पीढ़ी से हमने यही सीखा है कि -
                                               " जो गुजर गया वो कल की बात थी "

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

मेरे बारे में



नमस्कार दोस्तों ,

      मैं कामिनी सिन्हा ,मै होमियोपैथ डॉक्टर हूँ । मेरी जन्म भूमि तो बिहार चम्पारण जिला है।हाँ जी ,अपने सही समझा वही जगह जहाँ से गाँधी जी ने अपने सत्याग्रह की शुरुआत की थी। लेकिन शादी के बाद दिल्ली आ बसी और फिर वही की होकर रह गई। बहुत याद आता है अपना घर अपनी जन्मभूमि। लेकिन क्या कर सकते हैं  जिंदगी जहाँ  ले जाये वहाँ जाना ही पड़ता है। खैर ,मैं अपने बारे में आप को कुछ और बता दूँ  ,मैंने सोशियोलॉजी  विषय में   M.A भी किया  है। बचपन  से  ही  मेरी  रूचि  हिंदी  साहित्य में  काफी  रही है। लेखन  का  भी  काफी शौक था  लेकिन  घरेलु  उलझनों  में  उलझ  कर  वो  शौक  कही  खो  गया। अब  जीवन  की  उलझनों  से  थोड़ी  फुर्सत  मिली है  तो  फिर  दिल में एक  नया  जीवन शुरू करने  की  चाह  जगी  है। सोचा, क्यों न कुछ नये दोस्त बनाऊँ कुछ उनकी सुनु कुछ अपनी सुनाऊँ और आज कल के इस व्यस्त जीवन के दौड भाग में तो बस दोस्तों का साथ ही थोड़ा सुकुन देता है,। मैं यहाँ अपने विचारो को कहानी और लेख के माध्यम से आप से साझा करुँगी

       जिस तरह हर इंसान की  जिंदगी को जीने का  अपना ही अंदाज़ होता है उसी तरह जीवन को, जीवन की परिस्थितियों को, समाज को और यहाँ  तक की व्यक्ति विशेष को देखने का भी उनका अपना एक नज़रिया होता है ,अपना एक दृश्टिकोण होता है. वो अपनी ही नज़रिये से हर परिस्थिति को देखता है , समझता है , संभालता है और सीखता भी है . यूँ  कहे कि सारा खेल नज़र और नज़रिये का है. जैसे एक गिलास में आधा गिलास पानी है तो उसे देख कर कोई गिलास आधा भरा कहेंगा तो कोई आधा खाली. ऐसी एक दृस्टि या दृस्टिदोष के कारण कोई अपनी बिगड़ी ज़िंदगी सुधर लेता है तो कोई अपनी सुधरी- सवरी ज़िंदगी बिगड़ लेता है. जीवन को और इस जीवन की परिस्थितियों को मैंने किस नज़रिये से देखा है और कैसे सीखा है ये मैं यहाँ  आप सब से साझा करुँगी आप भी मेरे इस पेज से जुड़ कर अपना अनुभव साझा करें  ताकि हम अपनी अगली पीढ़ी को कुछ सीखा सकें और कुछ उनसे भी सीख सकें  .मेरे इस पेज का सिर्फ यही उदेस्य है कि हम एक दूसरे से अपने जीवन का अनुभव साझा कर उन छोटी-छोटी ख़ुशी को फिर से ढूढ़ सकें  जो हमसे हमारी छोटी छोटी भूल के कारण खो गई या हम उन छोटे-छोटे कारणों को ढूढ़े जिनके वज़ह से हमारे जीवन में बड़े-बड़े बड़े गम आ गए हैं .

इसीलिए तो मेरे ब्लॉग का नाम dristikoneknazriya.blogspot.com है। 

About us:-

Name   -   Kamini Sinha

City      -  Delhi

Contact - kaminisinha1971@gmail.com


"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...