मेरी पहली कविता, एक तुच्छ प्रयास
(जानती हूँ गलतियाँ बहुत हुई होगी,यकीन करती हूँ कि-आप सब के सानिध्य में सीख भी जाऊँगी )
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बैठ झरोखे सोच रही हूँ
क्यूँ,पतझड़ के दिन आते हैं
हर वर्ष बसंत आकर
क्या, जीवन-पाठ पढ़ाते हैं
परिवर्तन है सत्य सृष्टि का
याद दिलाकर जाते हैं
रंग बदलते शाखों के पत्ते
धीरे-धीरे मुरझाते हैं
तोड़कर बंधन
अपनी शाखों से
फिर धरा पर गिर जाते हैं
सूनी डाली हो जाती है
दर्द लिए बिछड़न का
बैठी-बैठी मैं देखूं
ढंग भी ये कुदरत का
अगली सुबह
अब उसी शाख पर
नई सृजन देख रही हूँ
छोटी-छोटी कोमल पत्तियां
नन्हे शिशु के कोमल तन सा
जन्म देकर नई रचना को
प्रकृति हमें समझाती है
जन्म-मरण तो लगा रहेगा
जीवन आनी-जानी है
चंचल शैशव धीर-धीरे
यौवन को छूता जाएगा
यौवन खुद के रूप पर
इठलाता नजर आएगा
लेकिन एक समय के बाद
बुढ़ापा भी आएगा
सत्य-सनातन है मृत्यु तो
हे मानव ! इससे तू
कब तक भाग पायेगा
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चित्र-स्वयं के कैमरे से