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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

"बैठ झरोखे सोच रही हूँ----"

मेरी पहली कविता, एक तुच्छ प्रयास 

(जानती हूँ गलतियाँ बहुत हुई होगी,यकीन करती हूँ कि-आप सब के सानिध्य में सीख भी जाऊँगी )

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बैठ झरोखे सोच रही हूँ 

क्यूँ,पतझड़ के दिन आते हैं

         हर वर्ष बसंत आकर             

क्या, जीवन-पाठ  पढ़ाते हैं  

परिवर्तन है सत्य सृष्टि का 

याद दिलाकर जाते हैं 

रंग बदलते शाखों के पत्ते 

धीरे-धीरे मुरझाते हैं 

तोड़कर बंधन 

अपनी शाखों से 

फिर धरा पर गिर जाते हैं 

 सूनी डाली हो जाती है 

दर्द लिए  बिछड़न का 

बैठी-बैठी मैं देखूं 

ढंग भी ये कुदरत का  

अगली सुबह 

अब उसी शाख पर 

नई सृजन देख रही हूँ 

छोटी-छोटी कोमल पत्तियां  

नन्हे शिशु के कोमल तन सा 

जन्म देकर नई रचना को 

 प्रकृति हमें समझाती है 

जन्म-मरण तो लगा रहेगा 

जीवन आनी-जानी है 

चंचल शैशव धीर-धीरे 

यौवन को छूता जाएगा  

यौवन खुद के रूप पर 

इठलाता नजर आएगा

लेकिन एक समय के बाद  

बुढ़ापा भी आएगा  

सत्य-सनातन है मृत्यु तो  

हे मानव ! इससे तू 

कब तक भाग पायेगा 

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