" अपनी मेहनत " या यूँ कहे कि -" अपनी मानवीय शक्ति " को बेचकर धन अर्जित करने वालो को " मजदुर या श्रमिक" कहते हैं। धनवान धन लगता हैं ,बुद्धिमान बुद्धि, मगर यदि श्रमिक अपना श्रम प्रदान ना करे तो संसार में कोई भी सृजन असम्भव हैं।ये श्रमिक हमारे समाज के वो अभिन्न अंग हैं जिनके बिना ये बुद्धिजीवी और लक्ष्मीपुत्र एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। फिर भी, इन श्रमिकों का सबसे ज्यादा निरादर ये वर्ग ही करता रहा हैं। निरादर ही नहीं शोषण करता रहा हैं।
अब तक समाजशास्त्र में ये सब पढ़ा था, छोटी -मोटी घटनाएं भी देखी थी मगर इन दो महीनों में जो कुछ देखा- सुना वो कल्पना से परे हैं। जिनके बलबूते आपने इतनी बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी कर ली ,कितने कल -कारखानों के निर्माण में इनके श्रम को आपने चूस लिया , बिषम परिस्थितियों के आने पर इन मेहनतकशों को क्या आप दो जून की रोटी भी नहीं खिला सकते थे ? अगर ये उद्योगपति अपना- अपना फ़र्ज़ निभाते और इन मजदूरों को अपने कारोबार का अभिन्न हिस्सा समझते , वो इस बात का एक बार भी मनन करते कि -"कल को फिर से इनकी जरूरत हमें पड़ेगी ही , इसलिए हमें इनके हितो की रक्षा करनी ही चाहिए " तो शायद ये श्रमिक सरकार के द्वारा व्यवस्थित सेवा के द्वारा, अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सुरक्षित अपने घर तक जा सकते थे और परिस्थिति बदलने पर ख़ुशी ख़ुशी अपने मालिक के पास वापस आ जाते।
मगर जिनके सर पर छत भी ना हो और पेट की अग्नि जिन्हे जला रही हो उन्हें तपते रास्ते पर नगें पाँव चलना, रेल की पटरियों को अपना बिछावन बनाना, रास्ते पर दिए गए दान स्वरूप मिले चंद दानों से अपनी क्षुद्धा की अग्नि को शांत करना, यकीनन ज्यादा सहज लगा। हाँ, ये अलग बात हैं कि -उनके इस हाल को देख मानवता कही मुँह दिखने लायक नहीं रही, अपने सृजनकर्ताओ के ऐसे अपमान पर प्रकृति और ज्यादा कुपित हुई पड़ी हैं ,तभी तो कही भूकंप ,कही शैलाव के रूप में अपना क्रोध बरपा रही हैं।
वो तो श्रमवीर हैं ,कर्मवीर हैं ,जिनकी हड्डियां धुप में तपी हैं, उन्हें कौन डरा सकता हैं ,जो झूठे आश्वासनों के शब्दजालो के बंधन को कई बार तोड़ चुके हैं, उन्हें कौन बाँध सकता हैं ,वो तो निकल पड़े हैं ,बे-खौफ अपनी मंज़िल की ओर ,रास्ते में किसी साथी की मौत की कीमत भी वो बड़ी हिम्मत से चुका देंगे और सीने में उसके बिछड़ने का ग़म लिए बाकी बचे अपने प्यारों को ले, फिर आगे बढ़ जायेगे। क्योँकि प्रकृति ने उन्हें और कुछ दिया हो या ना दिया हो लेकिन सब्र करना ,मेहनत करने की क्षमता और हिम्मत बेहिसाब दे रखा हैं। अगर कही किसी रोज ऐसा हो गया कि -प्रकृति ने उन्हें ,ये दृढ़निश्चय भी दे दिया कि - "भूख से मर जायेगे मगर अपनी जन्मभूमि का साथ ना छोड़ेगे और इन महानगरों की ओर जहां मानव भी पथ्थर के होते हैं वहां पलायन नहीं करेंगे फिर क्या होगा ? " ये श्रमवीर तो जैसे- तैसे अपना गुजरा कर लेंगे , जो कि उन्हें अच्छी तरह आता है , मगर इन उद्योगपतियों का क्या होगा?
इतना तो तय है कि - ये भूख ,ये अपमान ,ये चोट ,ये दर्दनाक सफर हर एक मुसाफिर की कई पुश्तें भुलाये नहीं भूल पायेगी। अगर किसी ईमानदार इतिहासकार की आत्मा जाग उठी और उसने इन " श्रमवीरों " के साथ हुए इस अमानवीयता को उनके इस दर्दनाक सफर की व्यथा -कथा को यथार्थ रूप में अंकित कर दिया तो इन बुद्धिजीवियों और लक्ष्मीपुत्रों की कई पुश्तों के माथे पर कलंक का ऐसा कालिख लगेगा जो आसानी से नहीं धुलेगा। हम पूरी तरह से सरकार को दोषी करार नहीं दे सकते , जितना सरकार दोषी हैं उनसे कही ज्यादा वो उद्योगपति दोषी हैं जो अपने साथ काम कर रहे कामगारों पर थोड़ी सी दयाभाव भी नहीं दिखा सकें। बड़े- बड़े मालिकों की बात छोड़े , क्या मध्यमवर्गी और उच्च मध्यमवर्गी भी अपने घरों में काम करने वाली बाई , चौकीदार ,सफाई कर्मचारी तक पर भी दयाभाव दिखा पा रहे हैं? अगर हाँ ,तो उनमे मानवीयता जिन्दा हैं और उन्हें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं।
आज इन सब हालातों को देखते हुए , मेरे भीतर भी बहुत ग्लानि होती हैं - " हम निम्न मध्यमवर्गी लोग आज के हालात में खुद को ही नहीं संभाल पा रहे हैं तो इनकी क्या मदद करेंगे और कैसे करेंगे ?बस उनके प्रति एक संवेदना भर दिखाकर चंद पंक्तियां लिख देते हैं। मजदुर तो हम निम्न मध्यमवर्गी भी हैं मगर फर्क ये हैं कि- हम कागज कलम लेकर बड़े हुए हैं और उसी से अपना गुजारा करते हैं। यदि हम एक मजदुर साथी को एक वक़्त का भोजन भी करा सकें, तो शायद हम खुद को क्षमा कर सकें।