" अनकहे " यानि जो कहा ना गया हो "अल्फ़ाज़ "जो ख़ामोशी को एक आवाज़ दे सकें। वैसे तो ख़ामोशी के अपने ही अल्फ़ाज़ होते हैं ,एक आवाज़ होती हैं मगर वो अल्फ़ाज़ समझना सब के बस की बात नहीं हैं। ख़ामोशी के अल्फ़ाज़ को समझना एक गहरी साधना हैं एक "योगाभ्यास "हैं। जब आप इस साधना में रत रहते हो तो खामोशियाँ भी मुस्कुराने लगती हैं ,गुनगुनाने लगती हैं, आपके अंतर्मन को गुदगुदाने लगती हैं और आपके तन मन को वो सुकून दे जाती हैं जिसे परमानंद कहते हैं। जीवन का सच्चा सुख वही हैं जिसमे आत्मा को परमानंद की अनुभूति हो ,यह सत्य हैं ,शाश्वत हैं।परमानंद की अवस्था में आत्मा राग -द्वेष रहित होकर निर्लिप्त भाव में रहती हैं। अरे ये क्या .............मैं तो आध्यात्म की ओर जाने लगी। ये तो बड़ा गूढ़ विषय हैं जिसे समझना थोड़ा मुश्किल हैं और उसमे उलझना या उसे अपनाना तो और मुश्किल।
मैं तो यहाँ "अनकहे अल्फाज" की बात कर रही थी। वैसे भी ख़ामोशी का मतलब तो ये हो गया कि हम खुद को पूर्णतः शब्दहीन रखना चाहते हैं या रखते हैं। हम अपने जुबा को ही नहीं अपने मन को भी शब्दों से दूर रखना चाहते हैं।" अनकहे अल्फ़ाज़ " यानि आप कहना तो बहुत कुछ चाहते हैं, वो बातें जो आपके होठो पर हैं मगर आप उसे शब्द नहीं दे पा रहे हैं। कभी दे नहीं पा रहे हैं ,कभी देना नहीं चाहते और कभी ये ख्वाहिश कि शब्दों में बिना पिरोए ही उसे कोई समझ ले।वो अल्फ़ाज़ जो जेहन से निकाले नहीं निकलता , हृदय में धारा प्रवाह बहता रहता हैं ,गले में फँस बन अटका रहता हैं पर जुबां पर नहीं आता।
सोचती हूँ.......ये" अनकहे अल्फ़ाज़ आखिर "जाते कहाँ हैं जिनको आवाज़ नहीं मिल पाती ?क्या वो छिप जाते हैं बंद आँखों के पलकों के नीचे या लबो पे लगे सख्त तालो के पीछे या कही ये चुपके से आकर तकिये के नीचे सिराहने तले सो तो नहीं जाते ? क्या ये सिराहने तले चैन से सो जाते होंगे या जुबा के ताले तोड़ बाहर आने को मचलते होंगे ? वो कभी आँखों पर लगे पलकों के दरवाज़ों को खोल बाहर झाँकने की कोशिश तो करते ही होंगे न। या शायद डरते होंगे वो बाहर आने से ,पर चैन से सो भी तो नहीं पाते होंगे न। फिर सोचती हूँ..... आखिर ये डरते किससे हैं ? शायद वो सोचते होंगे कि इन शब्दों के मर्म को कही कोई नहीं समझा सका तो.......?
लेकिन कब तक ??? मेरा दिल कहता हैं कि -एक ना एक दिन ये छुपे अल्फ़ाज़ सराहने को छोड़ सपनो के रास्ते आँखों के दरवाज़े से बाहर आ ही जाएंगे ,लफ्जो का सहारा ले होठों के दरवाजे की बेड़ियाँ तोड़ ही देंगे। यदि वो ना कर पाए तो .......... क्योंकि इन अल्फाज़ो की गहरी नींद अक्सर बुरे सपनों के सफर दिखती रहती हैं और मन की बेचैनी को बढाती रहती हैं। फिर अचानक एक दिन ऐसा होता हैं जैसे , मन की बेचैनियों को कानों ने सुन ली हो और उस बुरे सपने को खुली आँखों से बाहर फेक दिया हो। फिर क्या वो अल्फ़ाज़ सुकून की कलम बन जाते हैं और ख़ामोशी उसकी स्याही। फिर वो अनकहे अल्फ़ाज़ जो तकिये के सिराहने में छुपाकर रखा था ,पलकों के नीचे बसा कर रखा था ,बंद लबो में दबा कर रखा था ,गीत ,गजल ,कविता ,कहानी बन कागज पर उतरने लगते हैं और अनगिनत जुबां के अल्फ़ाज़ बन गुनगुनाने लगते हैं।
अब जब अनकहे अल्फाजों ने सारे ताले तोड़ ही दिए ,सारे पहरे हटा ही दिए तो फिर अब रोके ना उसे ,टोके ना उसे ,बहने दे उसे कागज के दिलों पर बेपरवाही से। सुकून के कलम से निकला हर लफ्ज इबादत बन जाएगा । किसी शायर ने बहुत खूब कहा हैं -
तेरे अल्फ़ाज़ तेरे लफ्ज बयाँ करते हैं।
कुछ हकीकत तो कुछ ख्यालात बयाँ करते हैं।।