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बुधवार, 4 मई 2022

"मत करो पानी बर्बाद"

  


    मैं दिल्ली महानगर में रहती हूँ (वैसे फ़िलहाल तो मुंबई में हूँ ) यहाँ पानी की जो किल्लत है वो जगजाहिर है । मगर, आज मैं आप सभी से दिल्ली वालों की एक शर्मनाक आदत को साझा करना चाहती हूँ। उनकी सिर्फ़ इस आदत की वजह से मुझे ये कहते हुए बहुत शर्म आती है कि "मैं दिल्ली से हूँ " 

    दिल्ली वाले जितना ज्यादा पानी का रोना रोते हैं उससे कहीं ज्यादा वो पानी की बर्बादी करते हैं।कम से कम मैंने इतनी ज्यादा पानी की बर्बादी कहीं नहीं देखी।आज से 25 साल पहले जब मैं दिल्ली आई थी उस वक़्त लोगों को पानी के लिए परेशान  होते देखती तो बड़ी दया आती थी। हम तो थे बिहार से वहाँ कभी पानी और हवा की किल्ल्त नहीं हुई थी (फिर भी हम पानी, बिजली की बर्बादी नहीं करते थे) तो मेरे लिए ये बड़ी दर्दनाक परिस्थिति थी। मैं बहुत परेशान और दुखी हो जाती थी कि-क्या दिन आ गए है ? लेकिन जैसे-जैसे यहाँ के आबो-हवा को समझने लगी तो लगा इनके साथ जो हो रहा है उसके जिम्मेदार ये खुद है। सप्लाई वाटर (पीने का पानी) की जो ये बर्बादी करते थे (और अभी भी करते हैं ) उसे देख मेरा खून खौल उठता था। कई बार तो पड़ोसियों से कहा-सुनी भी हो जाती। यहाँ के लोग पीने के पानी से ही घर के दरो-दिवार और यहाँ तक कि सड़कों को भी धोते है। कपडे धोने में भी पीने के पानी का यूज ही करते हैं वो भी बहुत लापरवाही से। आप  यकीन नहीं करेंगे जब पानी का टैंकर आता है  तो यहाँ की स्थिति जंग जैसी हो जाती है। जिसका रसूख है वो तो टंकी ही भर लेता है और नहाने-धोने,कपडे धोने,बर्तन धोने तक में यूज़ करता है और जो बेचारा है उसे तो पीने तक को पानी नसीब नहीं होता। इस बात को लेकर कई बार पानी के टैंकर के पास हाथापाई तक होती ही रहती है। आपने अख़बारो में कई बार इस पर ख़बरें पढ़ी  भी होगी। यदि सभी तरीके से सिर्फ पीने के लिए पानी लेते तो एक टैंकर एक मुहल्ले के लिए काफी होता मगर यहाँ ये भावना तो होती ही नहीं है। 

    वर्तमान समय में परिस्थितियाँ बहुत हद तक सुधरी है मगर अभी  भी कई इलाकों में पानी की बहुत ही ज्यादा किल्ल्त है। जिसे पानी मिल रहा है वो दूसरे के दर्द से आँख चुराए हुए है। ऐसा नहीं है कि-उन्हें तकलीफ का अंदाज़ा नहीं बस "आज मेरी जरूरत की पूर्ति हो रही है न, बाकियो से क्या लेना-देना" ये भावना भरी हुई है।जब सप्लाई वाटर आता है तो आप जिधर भी नज़र घुमा ले हर घर के टंकी से पानी ओवर फ्लो होकर गिरता नज़र आएगा आपको। (वैसे केजरीवाल ने फ्री का पानी बिजली देकर लोगों की लापरवाही को और बढ़ावा दे दिया है, पानी बिजली की कीमत तो पहले भी  पता नहीं था अब और सोने-पे-सुहागा हो गया है। उस पर मजे की बात ये कि जो सबसे ज्यादा बर्बादी करते हैं महंगाई का रोना भी सबसे ज्यादा वही रोते हैं  ) ऐसी लापरवाही जैसे कि -पानी का मोटर चला कर सो गए हो। कितनी बार तो अपने पड़ोसियों को फोन कर के मैंने जगाया है और टोका है कि-कितना पानी बर्बाद करते हो आप ? तो जबाव मिलता है- "अरे, क्या हो गया थोड़ा सा पानी गिर गया तो, आप भी न मिसेज सिन्हा ओवर रिएक्ट करते हो"। और जिस दिन पानी नहीं आता है उस दिन सबसे ज्यादा हाय-तौबा मचाने वाले भी वही लोग होते हैं जो पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी करते हैं। संग का रंग चढ़ता ही है तो मेरी भाभी भी वैसे ही पानी की बर्बादी करने लगी।रोको-टोको तो वहीं भाषा बोलती जो अक्सर सभी बोलते हैं कि- " एक मेरे ना करने से क्या होगा" एक दिन मेरा पांच साल का भतिजा उन्हें छत पर पानी बिखेरते हुए देख लगभग चीखते हुए उनसे बोला-" सारा पानी तुम लोग ही खत्म कर दो, हमारे बड़े होने तक पानी बचेगा ही नहीं,हम तो प्यासे ही मरेंगे " उसकी इस बात पर मेरी भाभी को अक्ल आईं और उस दिन से उन्होंने पानी बर्बाद नहीं करने की कसम खाई। अपने भतिजे की बातें सुन उस दिन मुझे महसूस हुआ कि- हम बच्चों को क्या सिखायेंगे शायद, अब बच्चें ही हमें सिखाये और जैसे मेरी भाभी को सद्बुद्धि मिली काश, सबको मिल जाए।

    यमुना नदी किचड़ सा बना पड़ा है। पानी के कारण इतनी दुर्दशा होने के वावजूद किसी की आँख नहीं खुल रही। मैं सरकार या प्रशासन से क्यों शिकायत करूं जबकि दोष हमारा है हम ही जागरूक नहीं हो रहें हैं। प्रशासन तो फिर भी जैसे-तैसे पानी की व्यवस्था कर ही रहा। गन्दे पानी को ही कैमिकल प्रोसेस से शुद्धिकरण कर हम तक पहुंचाया जा रहा है। नदी,ताल तलैया सब सूख रहें हैं फिर भी हम जाग नहीं रहें। मेरा अपना अनुभव है कि- जितना बड़ा शहर है वहाँ उतना ही प्रकृति सम्पदा की कमी है और वहाँ के लोग उतना ही ज्यादा लापरवाही से प्रकृति का दोहन कर रहें हैं। गर्मी तेजी से बढ़ती जा रही है और उसी अनुपात में जगह-जगह पानी की किल्ल्त भी होती जा रही है। समुन्द्र के खारे पानी को मीठा बनाने का प्रयोग जल रहा है। यदि हम प्रकृति के प्रति जागरूक नहीं हुए तो एक दिन समुन्द्र तक को पी जाएंगे। लोगों को जागरूक करने के लिए एक बहुत बड़े मुहिम की दरकार तो है ही मगर उससे पहले  हमें खुद को सुधारने की जरूरत ज्यादा है। मेरा मानना है कि-यदि हम जागरूक हो गए तो आधी समस्या का समाधान तो हो ही जाएगा। मैंने स्वयं अपने आस-पास के लोग को टोकते और समझाते हुए सुधारने का प्रयास किया है और बहुत हद तक मुझे सफलता भी मिली है।हमारे छोटे-छोटे प्रयास ही बदलाव लाने में सक्षम है। 

(मेरा ये लेख अप्रैल महीने के प्रकृति दर्शन पत्रिका में आया था )








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