"पार्क" अर्थात खुला मैदान
लेकिन बिडंबना ये है कि-इतने खुले में भी आकर सब अपने आप में ही बंद रहते हैं। पुरे मैदान में हर तरह के हर उम्र के लोग दिखते है पूरा मैदान भरा होता है मगर कोई किसी का नहीं होता। आप दुसरे को देखते है दूसरा आपको। एक दूसरे के चेहरे को देखकर बस मन ही मन ये अनुमान लगाते रहते हैं कि -क्या वो खुश है या दुखी ?क्या वो अपने जीवन से संतुष्ट है या मेरी तरह वो भी असंतुष्ट। किसी को उदास देखकर भी कोई उसके पास जाकर संतावना के दो बोल भी नहीं बोलता। हाँ,कभी-कभी उसकी उदासी आपको और भी गहरी उदासी दे जाती है तो कभी किसी की मुस्कुराहट देख आप भी मन ही मन मुस्कुरा लेते है, पास में हँसते-खेलते,खिलखिलाते बच्चों को देखकर आप भी थोड़ी देर के लिए अपने बचपन में लौट जाते हैं बस। बिना किसी के दर्द बाँटे भी शायद थोड़ी तसल्ली तो यह जरूर मिलती होगी। शायद यही वजह है कि जब अकेले कमरे में तकलीफ बढ़ने लगती है तो अक्सर लोग बाहर निकल जाते हैं सड़कों पर,पब्लिक पार्क में या किसी पब में ही। यहाँ कोई आपको तसल्ली ना भी दे तो भी आपका दुःख या आपका मूड दूसरी तरफ करवट ले लेता है,इससे दुखों का बोझ कम तो नहीं होता बस एक कंधे से दूसरे कंधे पर चला जाता है और थोड़ा रिलैक्स हो जाते है।
"पार्क" हमें ही सुकून नहीं देता होगा यकीनन हमारी मौजूदगी से उसे भी सुकून मिलता ही होगा,बच्चों की किलकारियों से वो भी गुलजार रहता था बड़ों के सुख-दुःख का साक्षी होना उसे भी भाता होगा। मगर इन दिनों तो सबका ये सहारा भी छूट गया है।आप कामकाजी है तो एक दहशत के साथ दफ्तर जा रहे हैं और डरते-डरते घर वापस आ रहे हैं। अगर घरेलु है तो बस एक बंद कमरा और साथ में आपकी नींद उड़ाने वाली खबरें। हमारे जीवन के साथ-साथ पार्क में भी वीरानियाँ पसरी हुई है और बच्चें चारदीवारियों में कैद है....साँझ की बेला कटे नहीं कटती।
जीवन का ये रूप पहले कभी नहीं देखा गया था और परमात्मा ना करें आगे किसी पीढ़ी को देखना पड़ें।