"माँ फिल्मों में सावन के रिमझिम पर इतने सारे गीत क्यों बने है.....क्या ख़ासियत थी इस महीने की....हमने तो कभी इसे इतना बरसते नही देखा.....हमारे लिए तो ये आग उगलता घुटन भरा मौसम ही होता है।" हाँ , बेटा तुम लोग कैसे देखोगे...हमने ऋतुओं का रंग-रूप जो बिगाड़ दिया....बारिश का होना बृक्षों के होने ना होने पर निर्भर करता है और हमने तो धरती को वृक्ष विहीन ही करने की ठान रखी है। पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर हमने ऋतुओं को भी अपना स्वभाव बदलने पर मजबूर कर दिया है।
बेटा तुम्हें पता है- भारत-वर्ष की सबसे बड़ी ख़ासियत कहो या खूबसूरती वो है "यहाँ के रंग बदलते चार मौसम "शीत,बसंत,ग्रीष्म और रिमझिम बरसता सावन यानि बरसात" ये ऋतुएँ ही हमारे भारतवर्ष को सम्प्रभुता भी प्रदान करती है। सबसे बड़ी विशेषता है इन ऋतुओं के शुरू होने से पहले इन से जुड़े तीज-त्यौहार....एक ऐसी प्रक्रिया जो हमें परिवर्तन का नियम सिखाती है और इस परिवर्तन के अनुसार तन-मन को ढालना भी सिखाती है। दो ऋतुओं के बीच आने वाले नवरात्रि के नौ दिन के नियम जो हमारे शरीर को आने वाले मौसम के अनुकूल सहजता से परिवर्तित करने के लिए बनाये गए थे।
हमने बचपन के दिनों में देखा है- कैसे एक नियत समय पर हर मौसम आ जाता था और उसकी पूर्व से ही तैयारी हर घर में शुरू हो जाती थी। जैसे अश्विन नवरात्रि जिसे शरदीय नवरात्रि भी कहते हैं,इसका आना यानि "अब बरसात के जाने और सर्दी के आने का समय हो गया है।" दशहरा से हल्की मीठी ठंढ तन-मन को गुदगुदाने लगती थी और सर्दी के लिए गर्म कपड़ो की तैयारी के लिए महिलाओं के हाथ में ऊन -सलाई दिखने लगती थी....घरो को गर्म रखने के लिए आग जलाने की व्यवस्था होने लगती थी...दीवाली पर घरों की अच्छे से सफाई होती थी ताकि बरसात में फैले कीड़े-मकोड़ो और गंदगी की सफाई हो जाए...क्योंकि चार महीने तो कड़कती ठंड के कारण घरों की विस्तृत सफाई तो हो नहीं पायेगी। वैसे ही बरसात ऋतु के स्वागत की तैयारी तो पुरजोर होती थी क्योंकि पता ही नहीं होता था कि -एक बार इंद्रदेव बरसना शुरू हुए तो फिर कब रुकेंगे। घरों की तैयारियां अलग और किसानों की तैयारी अलग...आखिर पुरे साल का अनाज जो देकर जाते थे इंद्रदेव।
हिंदी महीने का आषाढ़ माह यानि जुलाई महीना से बारिश शुरू हो जाती थी,बिल्कुल अपने नियत समय पर,ज्यादा से ज्यादा एकाध -दो दिन ऊपर नीचे । बारिश शुरू होने से पहले घरों में राशन भर लिया जाता था,खासतौर पर जलावन यानि लकड़ियां। उन दिनों तो अधिकांश घरों में लकड़ी ही मुख्य ईंधन था। जो शहर में रहते थे वो थोड़ा स्टेंडर होते उनके यहाँ कुन्नी के चूल्हे की व्यवस्था थी। ( लकड़ियों से निकले बुरादे को एक विशेष प्रकार के चूल्हे में भरकर एक-दो लकड़ियों की सहायता से जलाई जाती थी जिसमे मिट्टी के साधारण चूल्हे के अपेक्षा थोड़ी ज्यादा सहूलियत होती थी )बेटा, बृक्ष हमारे जीवन का मुख्य हिस्सा थे वो हमें शुद्ध हवा और बारिश ही नहीं वरन पर्याप्त ईंधन भी देते थे मगर, ईंधन के लिए लोग पूरा पेड़ नहीं काटते थे...देखकर हर पेड़ से सुखी डाली ही काटी जाती थी।
तुम्हें बचपन की एक घटना सुनती हूँ -बात 82 -83 की है। आषाढ़ शुरू होने के 10 दिन पहले से ही माँ, पापा को बोल रही थी कि -"बरसात शुरू हो जायेगा कुन्नी और लकड़ी आँगन में ही पड़ा है उसे ऊपर रखवाने की व्यवस्था करवा दीजिए...थोड़ा और कुन्नी और लकड़ी भी मंगवा दीजिए " (बरसात के दिनों में जलावन को मचान बनाकर एक शेड के नीचे रखा जाता था ) पापा आजकल कर के टाल रहे थे। एक रात बारिश शुरू हो गई,कुन्नी और लकड़ी की चिंता में माँ की नींद गायब हो गई और वो पापा की भी नींद हराम करने लगी -"अब सारा जलावन भींग जाएगा सुबह बच्चों के लिए खाना कैसे बनाऊँगी " पापा बोले-अरे,आज पहली ही बारिश है....इतना थोड़े ही बरसेगा....कुछ नहीं होगा तुम्हारे जलावन को...सो जाओं और मुझे भी सोने दो " पापा ने समझा-बुझाकर माँ को सुला दिया। बारिश ने जेठ की तपती गर्मी से तन-मन को ऐसी राहत दी कि -हम सब घोड़े बेचकर सो गए। सुबह छह बजे माँ की नींद खुली,कमरे में अँधेरा था, माँ ने जैसे ही जमीन पर पैर रखा वो चीख पड़ी। उसकी चीख से हम सब उठ बैठे, पापा ने झट से लाईट जलाया तो देखते हैं कि -घर में एक-डेढ़ फुट पानी भर गया है और सारे हल्के-फुल्के सामान पानी में तैर रहे है। पापा जब दरवाजा खोल आँगन में गए तो होश उड़ गए उनके...सारा कुन्नी और पानी एक हो गया था और लकड़ियां बेचारी पानी में डूबी पड़ी थी। बारिश अब भी बहुत तेज हो रहा था...माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर...अब बादल नहीं माँ कड़क रही थी। उसने जो पापा की क्लास ली कि पूछो मत, पापा जीवन भर वो सुबह भूल नहीं पाए और फिर माँ के ऐसे हुक्म की नाफ़रमानी कभी नही की।
मेरी माँ वैसे तो बहुत ही शांत स्वभाव की थी...हमनें माँ-पापा को लड़ते कभी नहीं देखा था लेकिन...वो कहते हैं न कि -माँ सब कुछ सह जाती है मगर, बच्चों को भूखा रखने के ख्याल से ही वो सबसे लड़-भीड़ लेती है। मेरी माँ का भी वही हाल था। अब कुछ उपाय नहीं सूझ रहा था...पड़ोस के ऑफिसर फैमली ने हमारे घर की हालत बिन बताएं समझ लिया था..क्योंकि माँ की उनसे बहुत अच्छी दोस्ती थी..उन्होंने अपने घर से स्टोव (कैरोसिन ऑयल से जलने वाला चूल्हा )भेजा...फिर माँ ने एक चौकी के ऊपर सारी व्यवस्था की....तब कही जाकर खाना बना। हम बच्चों के लिए तो वो दिन उत्सव का था....हमें क्या मतलब कैसे खाना बन रहा है...हम तो बाढ़ और बारिश के मजे लेने में लग गए । बाढ़ के पानी के साथ रंग-बिरंगी मछलियां भी आ गयी थी....कॉलोनी के सारे बच्चें बारिश का मजे लेने मैदान में उतर गए...कोई मछली पकड़ रहा है ...कोई कागज की नाव पर सैर कर रहा है...कुछ लड़के एक दूसरे को उसी पानी में धो रहे है। उफ्फ!! क्या मस्ती का दिन था वो....आखिर मौसम की पहली बारिश जो थी।
क्या बताऊँ बेटा, बड़ी याद आती है उन दिनों की। उन दिनों हर मौसम का अपना एक खास महत्व और मजा था। हमें ये पता होता था कि -इस मौसम की ये जरूरतें है...ये पहनने को मिलेगा...ये खाने को मिलेगा...स्कूल आने-जाने का समय बदलेगा....एक उत्सुकता रहती थी हर चीज के लिए। मगर अब, आम और तरबूज खाने का इंतजार नहीं करना होता..क्योंकि वो अब हर मौसम में मिलता है....बारिश के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती....क्योंकि पता ही नहीं है वो कब बरसेगा...बरसेगा भी या नहीं...कही इतना बरसेगा की बाढ़ ला देगा...कही बून्द को भी किसान तरसेंगे।बेटा ,ये सब पर्यावरण के साथ हमारे खिलवाड़ का नतीजा है...प्रकृति के साथ आवश्यकता से अधिक छेड़-छाड़ ने मौसमो का मिजाज़ बदल दिया। 80-90 के दशक तक भी पर्यावरण का दोहन बहुत सोच-समझकर किया जाता था। अगर कोई पेड़-पौधे या प्रकृति के साथ खेलवाड़ करता भी था तो आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जैसे पर्यावरण के संरक्षक अपना तन-मन समर्पण कर प्रकृति की रक्षा करते थे। लेकिन धीरे-धीरे प्रकृति का अति दोहन हुआ और पर्यावरण बदला....फिर ऋतुओं ने भी अपना समय ही नहीं अपना रंग-ढंग भी बदल दिया। जिन सावन-भादों के रिमझिम फुहारों पर गीत और कविताएँ लिखी जाती थी....आज वो सावन आग उगल रहा है।अब तो बस कवियों के कल्पनाओं में ही सावन गीत भी मुस्कुरा लेते है।
बच्चें, हमारी पीढ़ी ने बड़ी नासमझी की मगर...तुम सब तो जेट-नेट युग के बच्चें हो...तुम्हें तो हमसे कही ज्यादा ज्ञान है....कम से कम तुम सब तो ऐसी गलती नहीं करों....जितना तुम से बन पड़े उतना ही प्रकृति का संरक्षण खुद भी करों और अपने दोस्तों को भी प्रेरित करों.....जितना हो सकें पेड़ लगाओ....क्योंकि पेड़ नहीं होंगे तो बारिश भी नहीं होगी। पेड़ और बारिश का साथ ऐसा जैसे तन के साथ साँस जुड़ा होता है...जब तक साँस चल रही है....ये शरीर जिन्दा है, वैसे ही जब तक बृक्ष जिन्दा है...तब तक बारिश है, बृक्ष और बारिश है .....तो सृष्टि पर खाध-पदार्थ है....साँस लेने के लिए प्राण-वायु है और.....ये दोनों है तो ही हमारा अस्तित्व है। तुम आज मुझसे सावन के बारे में पूछ रही हो...कही तुम्हारी गलतियों की वजह से तुम्हारे बच्चें एक दिन तुम से ये ना पूछे कि -"माँ बारिश क्या होती है ?"