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बुधवार, 9 सितंबर 2020

"नशा" एक मनोरोग



शीर्षक -"नशा" एक मनोरोग 

"शराब"किसी ने इसकी बड़ी सही व्याख्या की है
श -शतप्रतिषत
रा -राक्षसों जैसा
ब -बना देने वाला पेय
    सच है, शराब पीने वाला या कोई भी नशा करने वाला धीरे-धीरे राक्षसी प्रवृति का ही हो जाता है। उन्हें ना खुद की परवाह होती है ना ही घर-परिवार की।
आखिर क्यूँ ,एक व्यक्ति किसी चीज़ का इतना आदी हो जाता है कि-अपनी ही मौत को आप आमंत्रित करता है?
 आखिर कोई व्यक्ति नशा क्यों करता है?
चाहे वो शराब पीना हो, सिगरेट या बीड़ी पीना हो, गुटका या तम्बाकू खाना हो, बार-बार चाय-कॉफी पीने की लत हो या फिर और कोई गलत लत हो ।इसके पीछे क्या कारण होता  है ?
 वैसे तो इसके कई कारण है मगर मुख्य है -
     1. शुरू-शुरू में सभी शौकिया तौर पर इन सभी चीज़ो को लेना शुरू करते हैं । वैसे भी आज कल तो शराब और ड्रग्स लेना फैशन और स्टेंट्स सिंबल बन गया है। युवावर्ग खुद को "कूल" यानि बिंदास, बेपरवाह चाहे जो नाम देदे वो दिखाने की कोशिश में इन गलत आदतों को अपनाते हैं। लड़कियाँ भी इसमें पीछे नही है। मगर धीरे-धीरे नशा जब इनके नशों में उतरता है तो वो इन्हें अपना गुलाम बना लेता है फिर इनका खुद पर ही बस नहीं होता।

     2.  अक्सर हम लोग  कोई भी नशा तब भी करते हैं जब हम  खुद को असहज महसूस करते हैं, या किसी भी कारणवश हमें  कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा होता है, दुखी होते हैं,परेशान होते हैं । ऐसी अवस्था में  हमारा मन भटकता है और हम  खुद को अच्छा या फ्रेश महसूस कराने के लिए मन को कही और मोड़ने की कोशिश करते हैं। उस वक़्त सही-गलत से मतलब नहीं होता,बस खुद को खो देना या भूल जाना ही चाहते हैं। ऐसी  मनःस्थिति में अगर कही भटक गए तो वो भटकाव स्थाईरूप से अपना लेते हैं। क्योँकि थोड़ी देर के लिए ही सही वो "भटकाव" हमें ख़ुशी और शुकुन देता है। 
      सिर्फ शराब या ड्रग्स ही नहीं अक्सर लोग चाय-कॉफी तक के आदी हो जाते हैं। आमतौर पर घरों में भी देखा जाता है कि जब भी कोई शारीरिक या मानसिक तौर पर थकान महसूस करता है तो एक कप चाय या कॉफी की फरमाईस कर देता है। ये चाय-कॉफी थोड़ी देर के लिए उसे ताजगी महसूस करवाती है। चाय-कॉफी में मौजूद निकोटिन और कैफीन थोड़ी देर के लिए आपके मन और शरीर को आराम तो दे जाती है मगर ये भी तो एक तरह का नशा ही है धीरे-धीरे  हम इसके आदी हो जाते हैं। अधिक मात्रा में इसका  सेवन भी शरीर को नुकसान ही पहुँचता है। परन्तु, इस नशा से सिर्फ खुद का शरीर ही बर्बाद होता है जबकि शराब और ड्रग्स का नशा तो तन-मन, घर-परिवार, समाज और देश तक को क्षति पहुँचता है।इस "नशा" का कितना बड़ा दुष्परिणाम होता है, इसके कारण समाज में और कितनी सारी बुराई जन्म लेती है, कितने आकस्मिक मौत होते हैं ये सारी बातें तो बताने की जरूरत ही नहीं है। ये तो सभी जानते हैं कि -"ये आदत" गलत है फिर भी इसके गुलाम बनकर मौत तक की परवाह नहीं करते। 
आखिर कैसी मानसिकता है ये ?
 "नशा" भी एक मनोरोग ही है।इस बात को डॉक्टर भी मानते है।इसमें भी तो इंसान अपना मानसिक संतुलन खो ही देता है न।यदि उसका अपने दिलों-दिमाग पर कंट्रोल होता तो मुझे नहीं लगता कि-कोई भी अपने मौत को आमंत्रण भेजता। यदि कोई व्यक्ति "पागल" हो जाता है यानि किसी भी तरह से अपना मानसिक संतुलन खो देता है तो परिवार तुरंत उसको डॉक्टर के पास ले जाता है इलाज करवाता है जरूरत पड़ने पर हॉस्पिटल तक में रखा जाता है। 

मगर जब कोई व्यक्ति "नशे का आदी" होने लगता है तो हमें वो "गंभीर रोग"क्यों नहीं लगता है ?
इस "जानलेवा रोग" की गंभीरता को समझ हम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते हैं ?
हम क्यों सिर्फ उसे एक बुरी आदत समझ कर नज़रअंदाज़ करते चले जाते हैं ?
शुरुआत में नज़रअंदाज़ करना और फिर वही रोग जब कैंसर का रूप धारण कर लेती है तब ही हमें होश क्यों आता है ?
और आखिरी पल में ही हमें मान-सम्मान,धन-सम्पति यहाँ तक की जीवन तक दाँव पर क्यों लगाना पड़ता है ?
क्या समय रहते हम सचेत नहीं हो सकते ?

      हम सिर्फ सरकार को दोष देते हैं। हाँ,ये भी सत्य है कि -राजस्व बढ़ाने के नाम पर सरकार गली-गली, हर नुक्क्ड़ पर शराब के ठेके लगवा रही है,डॉक्टरों और दवाखानों के माध्यम से धड़ल्ले से ड्रग्स बेचा जा रहा है। ये तो सत्य है कि -शराब और ड्रग्स से किसी को फायदा है तो सिर्फ  राजनेताओं को,पुलिस को,शराब और ड्रग्स माफिया को,कुछ हद तक डॉक्टरों और दवाखाना वालों को भी। क्योंकि दवाओं के नाम से भी बहुत से ड्रग्स बेचे जाते हैं।ये नादान भी तो ये नहीं समझते कि-इस बुरी लत का शिकार होकर उनके अपने भी तो जान गवाँते हैं,मगर लालच तो अँधा होता है न ।हम घरों में भी देखते हैं कि-स्वार्थ और लालच से वशीभूत होकर अपनों का अहित अपने ही करते हैं, ये तो फिर बाहरी दुनिया के लोग है इन्हे सिर्फ अपने लाभ से मतलब है।

स्वहित के लिए,परिवार के हित के लिए सोचने का काम किसका है ?
 मेरी समझ से तो,ये सिर्फ और सिर्फ हमारा काम है, सरकार या समाज का नहीं। 
कोई भी हमारे हित के बारे में क्यों सोचेगा, क्यों परवाह करेगा??
   सबसे पहले तो हर इंसान  का पहला फ़र्ज़ है "स्वयं" की सुरक्षा करना।फिर भी,यदि कोई अपना  मानसिक संतुलन खोकर किसी भी कारणवश  इस "मनोरोग" से ग्रसित हो चुका है तो दूसरा फ़र्ज़ परिवार वालों का होता है। परिवार का फ़र्ज़ है प्यार से या सख्ती से,सही सूझ-बुझ से उस व्यक्ति का मार्गदर्शन करें या सही इलाज करें। रोग के शुरूआती दिनों में यदि उस व्यक्ति और परिवारवालों  के नज़रअंदाज़ करने के कारण, रोग ज्यादा भयानक हो चुका है तब भी "जब जागे तभी सवेरा" के सिद्धांत को अपनाते हुए तुरंत सजग हो जाना चाहिए अर्थात  जैसे ही परिवार को पता चले कि-मेरे घर का अमुक व्यक्ति अब इस व्यसन का आदी हो चुका है तो वो इसे गंभीर रोग मानकर तुरंत ही उसका  इलाज करवाये। छोटे से फोड़े की शुरुआत से ही चिकित्सा शुरू कर देनी चाहिए  कैंसर बनने तक का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।
मेरी समझ से "नशा मुक्ति" का सबसे सही और सरल उपाय है "परिवार की जागरूकता"
     कितनी ही बार "नशा मुक्त राज्य" बनाने के नाम पर कई राज्यों में शराब पर रोक लगाया गया है,कई बार कितने गैलन शराब को बहाकर बर्बाद किया गया है परन्तु फायदा कुछ नहीं हुआ। ना सरकार इस पर काबू कर सकती है ना ही समाजिक संस्था "नशा मुक्ति अभियान" का ढ़ोग कर हमारी नस्ल को नशा से मुक्त करा सकती है, सिर्फ और सिर्फ हमारा परिवार ही इस भयानक रोग से हमें बचा सकता है। 
     हाँ,अगर इसके लिए सामाजिक संस्थाओं को जागरूकता लानी है तो घर-घर जाकर परिवार को इस गंभीर रोग के बारे में सजग करना चाहिए,उन्हें समझाना चाहिए कि- यह एक आदत या व्यसन नहीं है बल्कि  हर मानसिक रोग की भांति यह भी एक मानसिक रोग ही है। अपने बच्चों में शुरू से अच्छे संस्कार रोपित कर उन्हें इस बुराई से बचने के लिए सजग करते रहना ही हमारा फर्ज होना चाहिए। 
   मगर समस्या तो सबसे बड़ी यही है कि- माँ-बाप या कोई बड़ा  क्या राह दिखाएंगे जबकि फैशन के नाम पर वो खुद को ही नशे में डुबो रखे है। "यहाँ तो कूप में ही भांग पड़ी है" 
    "कोरोना" महामारी बनकर आया था नवंबर 2021 की शुरुआत तक भारत में 4 लाख 44 हजार लोगों की और पूरी दुनिया में  50 लाख से ज्यादा लोगो की मौत हो चुकी है,हाहाकार मचा हुआ था ।  मगर गौर करने वाली बात ये है कि- हर साल अकेले  भारत में ढाई लाख से ज्यादा लोग सिर्फ शराब पीने के कारण मरते हैं। ।(ये आंकड़ा 2018 का है,नशामुक्ति अभियान चलाने वाले  डा0 सुनीलम के फरवरी 2020 में किये गए नए सर्वे के मुताबिक  भारत में ये आंकड़ा  प्रतिवर्ष 10 लाख है)
     सोचने वाली बात ये है कि-" कोरोना महामारी से डरकर अपने घर-परिवार को उससे बचाने के लिए हम कितने उपाय कर रहे थे और हैं भी,कितने सजग है हम। क्या कभी भी "नशा महामारी" की गंभीरता को समझ अपनी सजगता  बढ़ाने की कोशिश की है हमने?  हाँ,नशा भी तो एक छूत का रोग,एक महामारी ही तो बनता जा रहा है। हमारी युवापीढ़ी ही नहीं हम खुद भी यानि माँ-बाप तक भी देखा-देखी के चलन में, फैशन के नाम पर इस छूत रोग के चपेट में आते जा रहे हैं। 
"कोरोना महामारी" तो एक-न-एक दिन चला जाएगा, मगर नशा जैसी  भयानक महामारी जो हमारे युवाओं को, हमारे घरों को, हमारे समाज को खोखला किये जा रहा है क्या वो कभी रुकेगा? 





 



































"कोरोना" महामारी बनकर आया है अब तक पुरे विश्व में करीब नौ लाख से ज्यादा लोग और सिर्फ भारत में लगभग 72-73000


सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

हमारे त्यौहार और हमारी मानसिकता

ये है हमारी परम्परागत दिवाली 

गैस चैंबर बन चुकी दिल्ली को क्या कोई सरकार ,कानून या धर्म बताएगा कि  " हमें पटाखे जलाने चाहिए या नहीं?" क्या  हमारी बुद्धि- विवेक बिलकुल मर चुकी है ? क्या हममे सोचने- समझने की शक्ति ही नहीं बची जो हम समझ सकेंं  कि - क्या सही है और क्या गलत ? क्या अपने जीवन मूल्यों को समझने और उसे बचाने के लिए भी हमें किसी कानून की जरुरत है ? क्या हमें हमारे बच्चों के बीमार फेफड़े नहीं दिखाए देते जो एक- एक साँस मुश्किल से ले रहे है ? क्या तड़प तड़प कर दम तोड़ते हमें हमारे बुजुर्ग दिखाई नहीं देते ?तो लानत है हम पर,  हम इंसान क्या जानवर कहलाने के लायक भी नहीं है।  और पढ़िये 

रविवार, 2 जून 2019

विवाह -संस्कार


     हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मरण तक कई संस्कार होते हैं जैसे -पुंसवन संस्कार ,अन्नप्रासन संस्कार ,मुंडन संस्कार ,उपनयन संस्कार ,विवाह संस्कार एवं दाह -संस्कार आदि।वैसे तो संस्कार सोलह माने गए है (कही-कही तो 48 संस्कार भी बताये गए है ) लेकिन ये छह संस्कार तो महत्वपूर्ण है जो अभी तक अपने टूटे- बिखरे रूप में  निभाए ही जा रहे हैं।  " संस्कार "यानि वो गुण जो सिर्फ आपके शरीर से ही नहीं वरन आत्मा तक से जुड़ जाते हैं। मान्यता ये है कि -आत्मा से जुड़े गुण एक जन्म से दूसरे जन्म तक स्थाई रूप से बनी रहती है। यदि आत्मा पूर्व जन्म से कोई दुर्गुण लेकर आयी भी  है तो ये सारे संस्कार उस आत्मा की सुधि भी करते हैं और शायद इसीलिए विवाह संस्कार भी होते हैं और ये मानते हैं कि -विवाह एक जन्म नही वरन जन्म-जन्म का साथ होता है। 

सोमवार, 20 मई 2019

दम तोड़ती भावनायें

   


     "क्या ,आज भी तुम बाहर जा रहे हो ??तंग आ गई हूँ मैं तुम्हारे इस रोज रोज के टूर और मिटिंग से ,कभी हमारे लिए भी वक़्त निकल लिया करो। " जैसे ही उस आलिशान बँगले के दरवाज़े पर हम पहुंचे और नौकर ने दरवाज़ा खोला ,अंदर से एक तेज़ आवाज़ कानो में पड़ी ,हमारे कदम वही ठिठक गये। लेकिन तभी बड़ी शालीनता के साथ नौकर ने हमे अंदर आने का आग्रह किया। अंदर एक बड़ा सा गेस्ट रूम था जो सारे आधुनिक प्रसाधनो से सुसज्जित था। नौकर हमे बैठने का इशारा कर ये कह कर चला गया कि -मैडम को आप के आने की सुचना देता हूँ। अंदर जाते ही वो आवाज़ जो अब तक चीखने  सा हो चूका था और तेज़ आने लगी।स्पष्ट हो चूका था कि पति पत्नी एक दूसरे पर चीख चिल्ला  रहे हैं।  मैंने अपनी दोस्त स्वाति की तरफ प्रश्नसूचक निगाह से देखा ,उसने धीरे से कहा -कोई बात नहीं न बैठो ,बड़े  घरो में तो ये सब होता ही रहता है। मैंने कहा - क्या ,ये चीखना -चिलाना ? वो बोली - हां ,इग्नोर करो। 

शनिवार, 11 मई 2019

" माँ "

      


   " मदर्स डे " आने वाला है अभी से सोशल मिडिया पर " माँ " शब्द पूरी तरह छा चूका है। सोशल मिडिया का वातावरण माँ मयी हो गया है, एक धूम सी है " माँ " पर ,कितनी सारी प्यारी-प्यारी ,स्नेहिल कविताऐं   रची जाएगी , कहानियाँ लिखी जायेगी और स्लोगन और quotes तो पूछिये मत एक से बढ़कर एक लिखे जायेगे। कुछ देर के लिए मन भ्रमित सा हो जायेगा -"हम तो यूँ ही बोलते रहते हैं कि -आज कल भावनाएं  मर चुकी है ,बच्चें माँ बाप की कदर नहीं करते ,वगैरह-वगैरह।" अरे नहीं ,देखें  तो हर एक की भावनाएं कैसी उमड़ी रही है ,सब के दिलों  में माँ के लिए प्यार ही प्यार दिखाई दे रहा है ,सब माँ के प्यार -दुलार ,त्याग और संस्कार की कितनी अच्छी-अच्छी बातें कर रहे हैं। कैसे कह सकते हैं.हम ...ऐसा कि- बच्चें  माँ बाप से सरोकार नहीं रखते। देखो तो, इन दिनों सभी माँ के भक्त ही दिखाई दे रहे हैं।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

" भाग्य विधाता "- कौन ??

  


  " मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य  सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो  और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने  तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

धर्म क्या हैं ??



       धर्म क्या हैं ? धर्म क्यों हैं ?धर्म कैसा होना चाहिए ? क्या सचमुच हमारे जीवन में धर्म की आवश्यकता  हैं ?धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व होना चाहिए ?मानव का सबसे बड़ा या पहला धर्म क्या होना चाहिए ? धर्म के बारे में ना जाने इस तरह के कितने सवाल हमारे मन मस्तिष्क में उठते रहते है।हर युग में,हर समाज में ,हर सम्प्रदाय में  यहां तक की हर व्यक्ति अपने अपने तरीके से इन सवाल के खोज में लगा रहता हैं। धर्म के संबंध में बड़ी विभिन्ताएं देखने को मिलती हैं। एक देश और एक ही जाति के लोगो के धार्मिक आचरण में भी बड़ी अंतर् दिखाई देता हैं। सामान्य जन दान -पुण्य ,पूजा -पाठ और बाहरी कर्मकांडों को ही धर्म का नाम देते हैं। यही धार्मिक कर्मकांड धीरे -धीरे सामाजिक रीति -रिवाज का रूप धारण कर लेता हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि से तर्क पूर्वक सोच समझ कर धर्म का आचरण करते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं। 

     सभी धर्मो की यही मान्यता हैं कि उनका धर्म अनादि हैं। लेकिन एक बात सभी धर्मो में समान रूप से दिखाई देती हैं,सभी धर्म एक ही सत्य पर आधारित हैं कि कोई ऐसी शक्ति हैं जो हम पर नियंत्रण रखती हैं और जिसने कुछ नियम कानून बनाये हैं और उसका पालन करना ही हमारा परम् धर्म हैं। इन नियम कानून में भी समय समय पर पैगंबरो और अवतारो ने आकर उनका पुनरुथान भी करते रहे हैं। सारे धर्मो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं लेकिन सभी धार्मिक गुरुओ ने अपने कथन के अपूर्णता को भी  स्वीकारा हैं। शायद यही कारण है कि अनादि काल से अब तक हर धर्म के स्वरूप में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सभी धर्मो में नए सुधारक आते गए और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर समय ,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार उनमे परिवर्तन करते गये। अवतारी महापुरुषों ने अपने समय के परिस्थिति और स्थान को बहुत महत्व दिया था। 

       जब वैदिक युग में ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ गई और लोग अपने कर्तव्य का पालन छोड़ पूजा पाठ में ही लगे रहते थे तब भौतिकवादी वाममार्ग की शुरुआत हुई ,जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया। इस तरह धर्म में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार धर्मो में परिवर्तन हर धर्म के धार्मिक ग्रंथो  में देखने को मिलेगी। 

       मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक  रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य  से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं। 

     धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस  जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं। 

       लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय  करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं। 

      संक्षेप में कह  हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी  धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं। 

बुधवार, 27 मार्च 2019

हमारी प्यारी बेटियाँ

                                       

    कहते हैं "बेटियाँ" लक्ष्मी का रूप होती है, घर की रौनक होती है। ये बात शत प्रतिशत सही है। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि बेटियाँ ही इस संसार का मूल स्तंभ है। वो एक सृजनकर्ता और पालनकर्ता है। प्यार और अपनत्व की गंगा बेटियों से ही शुरू होती है और बेटियों पर ही ख़त्म हो जाती है। लेकिन आज हमारा विषय हमारी प्यारी बेटियों पर नहीं है बल्कि बेटियों के " बेटी से बहू "बनने के सफर पर है।

रविवार, 24 मार्च 2019

माँ- बेटी " कल आज और कल "

    

        कहते है, औरत को बेटी से ज्यादा बेटे की चाह होती है लेकिन मुझे ये धारणा थोड़ी गलत लगती है। पुत्र की कामना शायद वो सिर्फ परिवार और पति के इच्छा को पूरा करने और वंश को आगे बढ़ाने के मोह वश करती है। क्यूकि हमारे देश में औरते अपने ख़ुशी से ज्यादा दुसरो की ख़ुशी का ख्याल रखती है। वरना ,हर औरत अपने बच्चे में अपना अक्स देखना चाहती है। एक बेटी को पालने पोसने और सजाने -सवारने में उसे जो आत्मिक ख़ुशी मिलती है उसे शब्दों में बया करना मुश्किल है।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

एक सवाल ???

   

      मम्मी एक बात बताऊँ  ,"साहिल के दिल में न मेरे लिए फीलिंग्स है। "क्या मतलब ?" मैंने ने आश्चर्य पूछा। मतलब ये कि -साहिल मुझे पसंद करता है। मनु ने बड़ी बेतकल्लुफी से ये बात कही। मैंने फिर पूछा -लेकिन वो तो तुम्हारा दोस्त है न। हाँ माँ ,यही तो परेशानी है लड़के सिर्फ दोस्त बन के क्यों नहीं रह सकते ,क्यों गर्लफ्रेंड बनना ही उनके लिए जरुरी होता है ? मैं तो परेशान हो गई हूँ मम्मी ,जब भी मुझे लगता है कि ये लड़का अब मेरा अच्छा दोस्त बन गया है तभी वो मुझे प्रपोज़ कर मुझे दुखी कर देता है,मैं इंकार कर देती हूँ  फिर वो मेरा दोस्त भी नहीं रहता और तुम तो जानती हो मुझे दोस्त चाहिए बॉयफ्रेंड नहीं। ये सारी बाते मनु बड़ी ही सहज भाव से कह रही थी और मैं  ख़ामोशी से सब सुन रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि -कितनी जल्दी बड़ी हो गई न मनु ।  कितनी सुलझी  सी बाते  करने लगी है।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

"प्रकृति और इन्सान"


     नदी,सागर ,झील या झरने ये सारे जल के स्त्रोत है, यही हमारे जीवन के आधार भी है। ये सब जानते और मानते भी है कि " जल ही जीवन है." जीवन से हमारा तात्त्पर्य सिर्फ मानव जीवन से नहीं है। जीवन अर्थात " प्रकृति " अगर प्रकृति है तो हम है। लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या हम है ? क्या हम जिन्दा है? क्या हमने अपनी नदियों को , तालाबों को ,झरनो को ,समंदर को ,हवाओ को, यहाँ  तक कि धरती माँ तक को जिन्दा छोड़ा है? इन्ही से तो हमारा आस्तित्व है न....अपनी भागती दोड़ती दिनचर्या को एक पल के लिए रोके और अपनी चारो तरफ एक नज़र डाले और दो घडी के लिए सोचे....हमने खुद अपने ही हाथो अपनी प्रकृति को यहाँ तक की अपने चरित्र तक को कितना दूषित कर लिया है। 

सोमवार, 7 जनवरी 2019

" बृद्धाआश्रम "बनाम "सेकेण्ड इनिंग होम "







" बृद्धाआश्रम "ये शब्द सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कितना डरावना है ये शब्द और कितनी डरावनी है इस घर यानि "आश्रम" की कल्पना। अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में दो पल ठहरें और सोचे, आप भी 60 -65 साल के हो चुके हैं ,अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारियों से आज़ाद हो चुके हैं। आप के बच्चों के पास फुर्सत नही है कि वो आप के लिए थोड़ा समय निकले और आप की देखभाल करें।(कृपया ये लेख पूरा पढ़ेगे )

बुधवार, 2 जनवरी 2019

जीवन का अनमोल "अवॉर्ड "

                                                                   " नववर्ष मंगलमय हो "
                                                       " हमारा देश और समज नशामुक्त हो "

                                           नशा जो सुरसा बन हमारी युवा पीढ़ी को निगले जा रहा है...
                                    अपने आस पास नजरे घुमाये देखे...आये दिन कई घर और ज़िंदगियाँ 
                                इस नशे रुपी सुरसा के मुख में समाती जा रही है। मेरे जीवन से जुड़ा मेरा ये 
                                                  संस्मरण नशामुक्ति के खिलाफ एक आवाज़ है........


        सुबह-सुबह अभी उठ के चाय ही पी रही थी कि फोन की घंटी बजी...मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से  चहकते हुए शालू की आवाज़ आई, हैलो माँ --" Merry Christmas" मैंने कहा -" Merry Christmas you too" बेटा , मैं अभी-अभी सो कर उठी हूँ और उठते ही मैंने सोचा सबसे पहले अपने सेंटा को  Wish करूँ--वो चहकते हुए  बोली।  मैंने कहा --बेटा, मैं तो आप से इतनी दूर हूँ और...पिछले साल से मैंने आप को कोई गिफ्ट भी नहीं दिया..फिर मैं आप की सेंटा कैसे हुई? उसने बड़े प्यारी आवाज़ में कहा -" माँ,आप जो हमें गिफ्ट दे चुकी है उससे बड़ा गिफ्ट ना किसी ने दिया है और ना दे सकता है...उससे बड़ा गिफ्ट तो कोई हो ही नहीं सकता "  मैं थोड़ी सोचती हई बोली --ऐसा कौन सा बड़ा  गिफ्ट मैंने दे दिया आप को बच्चे, जो मुझे याद भी नही। रुथे हुए गले से वो बोली -" पापा " आपने हमें हमारे पापा को वापस हमें दिया है माँ। ये सुन मैं निशब्द हो गई। 


मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

" परिवर्तन " या पीढ़ियों में अन्तर

  उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ मैं ,बचपन और जवानी के सारे खूबसूरत  लम्हों को गुजार कर प्रौढ़ता के सीढ़ी पर कदम रख चुकी हूँ। तीन पीढ़ियों को देख चुकी हूँ या यूँ कहें कि उनके साथ जी चुकी हूँ। परिवर्तन तो प्रक्रति का नियम है इसलिए घर-परिवार, संस्कार और समाज में भी निरंतर बदलाव होता रहा है और होता रहेंगा । शायद इसीलिए हर पीढ़ी ने दूसरे पीढ़ी को ये जुमला जरूर कहा हैं कि - " भाई हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था ".लेकिन हमारी पीढ़ी ने वक़्त को जितनी तेज़ी से बदलते देखा है उतना शायद ही किसी और पीढ़ी ने देखा हो। और पढ़िये

सोमवार, 5 नवंबर 2018

टूटते - बिखरते रिश्ते


        आज कल के दौर में टूटते-बिखरते रिश्तों को देख दिल बहुत व्यथित हो जाता है और सोचने पर मज़बूर हो जाता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? आखिर क्या थी पहले के रिश्तो की खुबियां और क्या है आज के टूटते -बिखरते रिश्तों की वज़ह ? आज के इस व्यवसायिकता के दौड में रिश्ते- नातो को भी लाभ हानि के तराज़ू में ही तोला जाने लगा है। ज़िंदगी छोटी होती जा रही है और ख्वाहिशें बड़ी होती जा रही है। मैं ये नही कहूँगी कि मैं आप को रिश्तों को संभालना सिखाऊंगी,उसको निभाने की कोई टिप्स बताऊँगी। मैं ऐसा बिलकुल नहीं करुँगी क्यूँकि "रिश्ते" समझाने का बिषय बस्तु नहीं है। रिश्तों को निभाने के लिए समझ से ज्यादा  भावनाओं की जरुरत होती है। रिश्तों के प्रति आप का खूबसूरत एहसास, आप की भावनायें ही आप को रिश्ते निभाना सिखाता है और आज के दौर में इंसान भावनाहीन ही तो होता जा रहा है। मैं तो बस रिश्तों के बिखरने की वजह ढूंढना चाहती हूँ .और पढ़िये 



    एक शिशू जब माँ के गर्भ में पलता है तो वो सिर्फ माँ के शरीर के रक्तनलिकाओं और कोशिकाओं से ही नहीं जुड़ा होता, वो तो अपनी माँ की भावनाओ से, उसके एहसासों से भी जुड़ा होता है। जिस तरह माँ के शरीर के रोग-आरोग्य का शिशु के शरीर पर असर होता है उसी प्रकार माँ के भावनाओं का असर भी गर्भस्थ शिशु की मानसिकता पर भी होता है। यही नहीं माँ जिस वातावरण में रहती है उस वातावरण का भी पूरा असर बच्चे की मानसिकता पर होता है। ये एक वैज्ञानिक सत्य है जिसे लगभग सब जानते हैं, समझते हैं, मानते भी है पर अपनाते नहीं है। मेरी समझ से गलती की शुरुआत यही से होती है। 



     एक नन्हे से बीज को एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनाने के लिए एक अच्छी ज़मीन, अच्छी आबो-हवा और अच्छा खाद-पानी देना होता है तब वो एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनता है। तो जब एक पौधे के लिए हमें इतना सब कुछ करना होता है तो फिर क्या मानव के भ्रूण को एक स्वस्थ शिशु और एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमें एक स्वस्थ शरीर जहाँ वो भ्रूण पले, जब वो भ्रूण गर्भ में एक शिशु का आकर ले रहा हो तो उससे एक शुद्ध भावना के साथ बंधे रखने की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए ? जब वो शिशु जन्म लेता है तो क्या हमें उसे एक खुशियों से भरा हुआ घरेलू वातावरण नहीं देना चाहिए ? अगर हम ये सब उसे नहीं दे सकते तो फिर हम उस शिशु से कैसे उम्मीद रख सकते हैं कि वो एक अच्छा इंसान बनेगा ? जब वो एक अच्छा इंसान नहीं बनेगा तो भावनाओं  को क्या समझेगा और जब भावनायें ही नहीं समझेगा तो रिश्तों को क्या निभाएगा ?
     पुराने ज़माने में एक औरत जब गर्भवती होती थीं तो उसके खान-पान,रहन -सहन पर पूरा ध्यान दिया जाता था, उसे अधाय्तम से भी जोड़े रखा जाता था, बच्चा जब जन्म लेता था तो उसे प्यार और सहोद्र से भरा वातावरण मिलता था।बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-मामा, बुआ-मौसी जैसे रिश्तों से घिरा होता था। ये सारे रिश्ते उसे अलग-अलग भावनाओं से जोड़ते और अलग-अलग तरीको से उसे ज्ञान भी देते थे। 
    दादा-दादी से वे प्यार दुलार पाते थे, और अपनी फ़रमाइशे भी मनवाते थे और बड़ो का आदर-सम्मान करना भी सीखते थे।  माँ-बाप से एक सुरक्षित देख-भाल पाते थे और अनुशासन सीखते थे। चाचा-मामा,बुआ- मौसी  उन्हें खेल-खिलौने देते थे और साझेदारी सिखाते थे। इस तरह ये सारे रिश्ते मिलकर उन्हें पालते और एक अच्छा इंसान बनाते थे। इस तरह शिशु को बचपन से ही अपने सारे रिश्तों का भान हो जाता था। उन्हें दादा-दादी का आदर करना भी आता था और लाड लगा कर अपनी फ़रमाइसे भी पूरी करवाना आता था। उन्हें ये एहसास होता था कि माँ मेरे लिए कितना दर्द सह कर रात-रात भर जाग कर मेरी देखभाल करती है, बाप अपनी सारी  इच्छाओं को अधूरा छोड़ मेरी हर ख़ुशी को पूरा करता है। ये एहसास ही उनके दिल में इन रिश्तों के प्रति वो भावनायें देता था जिनसे उसे रिश्तों को निभाने की प्रेरणा मिलती थी। उसे इन रिश्तों के प्रति अधिकार और कर्तव्य का भी बोध हो जाता था। वो अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते हुए देखते थे तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की सेवा करना अपना कर्तव्य लगता था जिसे उस वक़्त पुण्य का काम समझा जाता था। 
      अब आते हैं आधुनिकता के युग में, आधुनिक युग में अगर सबसे ज्यादा परिवर्तन हुआ तो नारियो में हुआ।  "नारी" जो हमेशा से एक सुसंस्कृत परिवार और एक सभ्य समाज की नीव रही है। नारियो ने इस युग में अपने आप को सुशिक्षित और स्वालम्बी बनाया है जो उनकी सब से बड़ी उपलब्थी है और प्रशंसा के काबिल भी है। नारियो ने अपना सम्मान तो पा लिया लेकिन अपनी सबसे बड़ी और कीमती धरोहर " संस्कार" को खोती चली गई। नारियो ने घर की दहलीज़ पार कर बाहर की दुनिया में अपने आप को स्थापित तो कर लिया परन्तु घर खाली करती चली गई। घर बाहर दोनों की दोहरी भूमिका निभाते-निभाते वो एक भरे पुरे सयुक्त परिवार को खो बैठी। 



      उनकी अत्यधिक आज़ादी की चाह ने धीरे-धीरे प्यार और रिश्तों के हर बंधन को खोल दिया।  इसका असर आने वाली पीढ़ियों पर कैसे पड़ा अब इस पर विचार करते हैं। आज़ादी की चाह ने सबसे पहले सयुक्त परिवार को एकल परिवार का रूप दिया। क्योंकि जहाँ सास-ससुर रहेंगे वहाँ थोड़ा तो बंधन और अनुशासन में रहना ही पड़ेगा। देवर-जेठ जैसे रिश्ते होंगे तो थोड़ा कर्तव्य भी निभाना ही पड़ेगा।  नए युग की नारियों ने अपने इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनकी सिर्फ एक लालसा "और आज़ादी" की चाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी और रिश्तेदारी निभाने नहीं दिया और परिवार बिखरते चले गए।  



     एकल परिवार में माँ के शरीर की सही देख-भाल न होने के कारण भूण को एक स्वस्थ शिशु बन कर विकशित होने के लिए एक निरोगी काया न मिली और अध्यत्मिकता का वातावरण तो आज के समाज से बिलुपत ही हो गया है। इन कारणों से बच्चे को विकसित होने के लिएना स्वस्थ शरीर मिला ना अच्छी मानसिकता। दादा-दादी का सांनिध्य ना मिलने के कारण बच्चों ने आदर सम्मान करना नहीं सीखा, बच्चों की फ़रमाइशे बेहिसाब होती है जो पहले के रिश्ते मिलकर पूरी करते थे जो अकेले माँ-बाप का पूरा करना मुश्किल था तो बच्चें  जिद्दी हो गए, बच्चों के जिद्दी होने का एक कारण और भी था माँ-बाप अपने बच्चों के हर रिश्ते की कमी को स्वयं पूरा करना चाहते है और पूरा करते भी है जिसका बुरा प्रभाव ये हुआ की बच्चें "ना" सुनना ही नहीं चाहते हैं और जिद्दी होते चले जा रहे हैं। परिवार में चाचा-मामा आदि रिश्ते नहीं होने के कारण बच्चों ने साझेदारी भी नहीं सीखा।  एक बच्चे का चलन  बन जाने के कारण अपने से छोटो को प्यार करना भी उन्हें नहीं आया, बच्चों ने अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते भी नहीं देखा तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की परवाह नहीं रही।  हम रिश्तों के प्रति उनके दिल में कोई भावना ही नहीं दे पाए तो फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं  कि वो कोई रिश्ते निभायेगे ? उनके लिए हर रिश्ता " give and take " बन कर रह गया। 
     ये तो थी आधुनिक युग की बातें,अब तो इंटरनेट युग है और इस ज़माने की लड़कियाँ तो ये शर्त रखकर ही शादी करती है कि - "हमारे साथ आप के माता-पिता नहीं रहेंगे" मैंने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि - "एक औरत ही सुसंस्क़ृत परिवार और सभ्य समाज की नीव होती है". पुरुष की भागीदारी इसमें द्वितीय किरदार के रूप में होती है। औरत में ही कर्तव्यपराण्यता, प्यार, सेवा, संस्कार, और त्याग जैसी भावनाये होती है। भारत का इतिहास ऐसी नारियो की गाथाओ से भरा पड़ा है. 

     मैं ये नहीं कहती कि हम नारियाँ अपना उत्थान ना करें, सदियों से हमारे स्वाभिमान को जो कुचला गया है और आज भी कुचला जा रहा है, उस स्वाभिमान को पूर्णतः हासिल करना हमारा पहला कर्तव्य है परन्तु, हम नारियों को अपने उत्थान और सम्मान के साथ-साथ अपने संस्कार को भी संजोये रखना होगा।  वो संस्कार जिसके कारण भारतवर्ष में नदियों को पूजा जाता है, वो संस्कार जिसके वजह से भारत में ईंट और गारे से बने मकान को "घर" कहा जाता है, वो संस्कार जिसमे जन्म देने वाले माँ-बाप को ईश्वर तुल्य समझा जाता है, इन संस्कारों को संभालना भी हम नारियों का ही कर्तव्य है . वरना एक-एक करके हमारे जीवन से हर रिश्ता और उसके प्यार की मिठास खोती चली जाएगी और इसके कसुरवार सिर्फ हम होंगे आनेवाली पीढ़ी नहीं.

शनिवार, 20 अक्टूबर 2018

प्यार एक रूप अनेक


" प्यार क्या है ? " सदियों से ये सवाल सब के दिलों में उठता रहा है और सदियों तक उठता रहेंगा। सबने इस सवाल का जबाब ढूढ़नें की पूरी कोशिश भी की है। "प्यार" शब्द अपने आप में इतना व्यापक  और विस्तृत  है कि -इसकी व्याख्या  करना बड़े-बड़ों  के लिए भी काफी मुश्किल रहा है तो मेरे  जैसे छोटे कलमकारों की क्या बिसात  जो इसके बारें में कुछ लिखे .लेकिन फिर भी मैं ये हिमाकत कर रही हूँ। अपने जीवन के अनुभव से जो कुछ भी मैंने जाना और समझा है वही आप सब से साझा कर रही हूँ। .और पढ़िए 
     " प्यार " शब्द तो एक है लेकिन इसके रूप अनेक है माँ बाप का प्यार ,भाई बहन का प्यार, पति- पत्नी का प्यार, दोस्तों का प्यार, प्रेमी- प्रेमिका का प्यार और भगवान-भक्त का प्यार। ये सब तो प्यार के ही रूप है लेकिन देखा ये जाता है कि इन सारे प्यार के रूपों में सब से ज्यादा चर्चे सिर्फ दो रूपों की होती हैं। उनके ही किस्से कहानियाँ  हमेशा से सुनने को मिलते आ रहे हैं।  वो है प्रेमी-प्रेमिका का प्यार और भक्त का भगवान से  प्यार ,बाकी प्यार जैसे माँ बाप से बच्चों का प्यार, भाई बहन का प्यार और दोस्ती के किस्से यदा कदा सुनने को मिलते हैं।  वैसे प्यार का सबसे पवित्र और अनोखा रूप भगवान से भक्त का और एक माँ का उसके छोटे बच्चों  से प्यार ही है।  इससे सुन्दर और पवित्र प्यार का और कोई  रूप हो ही नही सकता। लेकिन इतिहास उठा कर देखे तो सबसे ज्यादा प्यार के फसाने प्रेमी-प्रेमिका के ही मिलते है,राधा-कृष्ण, हीर-राँझा, लैला-मजनू ,सोहनी-महिवाल और न जाने कितने किस्से है इस प्यार के अनादि काल से अब तक। सारी फिल्मों  की कहानियां  भी इसी प्यार के ही ऊपर बनती है।  यहाँ  तक की प्यार शब्द का नाम आते ही सबके जेहन में सिर्फ और सिर्फ एक लड़का-लड़की का प्यार ही आता है। तो क्या वाकई कुछ खास बात है इस प्रेमी-प्रेमिका  वाले प्यार में ? तो  क्या बाकी और  सारे प्यार का कोई महत्व नहीं? मेरे जेहन में भी बचपन से ही ये सवाल उठता रहता था। काफी जद्दोजहद रहती थी मेरे दिल में कि " ऐसा क्युँ है ? " उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ  मैं और आज सारे जवाब मुझे थोड़े बहुत समझ आ रहे हैं। 
     तो शुरू करते हैं माँ-बाप के प्यार से- ये रिश्ता हमें ईश्वर की तरफ से मिलता है। कहते हैं कि हमारे अच्छे-बुरे कर्मो के रूप में ही हमे अच्छें या बुरे माँ बाप मिलते हैं। तो ये हमारी किस्मत हुई और इसी खून के रिश्ते से हमारे बाकी  रिश्ते जैसे भाई-बहन वैगेरह-वैगेरह जुड़े होते हैं। ये सारे रिश्ते अधिकार और कर्तव्य के डोर से बंधे होते हैं। जब तक हम बच्चें होते हैं तब तक हमारा किसी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं होता सिर्फ और सिर्फ हमारा सब पे अधिकार होता है।  उस वक़्त हमें माँ-बाप का भरपूर प्यार मिलता है और हम भी उन्हें बेहिसाब प्यार करते हैं। भाई-बहन के रिश्तों की तो बात ही क्या... वहाँ तो न अधिकार होता है और ना ही कोई कर्तव्य..होता है तो सिर्फ प्यार। यहां  तक कि छोटी-छोटी बातों पर तकरार  भी बड़े प्यारे-प्यारे  होते हैं।  रूठना-मनाना, लड़ना-झगड़ना फिर भी एक दूसरें पर जान देना।  लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते हैं और अधिकार के साथ साथ कर्तवय भी शामिल होने लगता है फिर इस अधिकार और कर्तव्य  रुपी डोर के बीच स्वार्थ की गांठे पड़ने लगाती है और धीरे-धीरे प्यार की जगह स्वार्थ लेने लगता। ये स्वार्थ आपस में मनमुटाव लाता है और फिर दिलो में दूरियां  आ जाती  है। अक्सर ये दूरियां  इतनी बढ़ जाती है कि भाई-भाई हो या भाई-बहन एक दूसरे की सूरत तक देखना नहीं चाहते। कभी-कभी माँ-बाप का प्यार भी इस स्वार्थ रुपी गांठ से अछूता नहीं रहता। उम्र का एक दौड़ आते-आते बच्चों को माँ-बाप बोझ लगने लगते हैं और माँ-बाप को वो बच्चें जो आर्थिक रूप से थोड़े कमजोर होते हैं।  इस रिश्ते को कमजोर करने के कुछ और भी कारण होते हैं जैसे दूसरे परिवार से बहु या दामाद के रूप में नए सदस्य का घर में आना और उनका एक दूसरे को दिल से स्वीकार नहीं करना। इस तरह माँ-बाप और बच्चों के बीच के प्यार की तपिस को स्वार्थ ठंढा कर देता है। ये लगभग हर घर की कहानी है।  वैसे इसमें अपवाद  भी है तभी तो चंद किस्से माँ-बाप और भाई बहन के प्यार के भी है।  लेकिन आमतौर पर इन रिश्तों का प्यार वक़्त के साथ स्वार्थ की बलि चढ़ जाता हैं। 
     अब प्यार का दूसरा रूप, वो है " दोस्ती " का। दोस्त हम बड़ी सूझ-बुझ के साथ अपने स्वभाव के अनुकूल ही बनाते है यूँ  कहे कि  ये रिश्ता हम अपने बुद्धि - विवेक से खुद चुनते हैं। दोस्ती एक अनमोल धन है जो जितना मिले कम ही लगता हैं। "दोस्ती" जिसमे सबसे ज्यादा सुकून और मस्ती होती है, दोस्ती में हर ख़ुशी और गम बेझिझक हो कर बाँट लेते हैं। यहाँ  अधिकार और कर्तव्य  भी नहीं होते है सिर्फ प्यार होता है।  फिर भी ये रिश्ता भी टिकाऊ नहीं हो पाता. क्योंकि वक़्त के साथ कुछ मज़बूररियों  के कारण ये रिश्ता दम तोड़ देता है। जैसे लड़कपन के दोस्त, स्कूल के दोस्त, फिर कॉलेज के दोस्त,ये सारे दोस्त मज़बूरी बस ही सही वक़्त के साथ छूटते चले जाते हैं और धीरे धीरे धूमिल भी हो जाते हैं।  इसमें भी कुछ अपवाद है, कुछ दोस्ती उसी प्यार और खुलुस के साथ ताउम्र जिन्दा रहती है।  तभी तो दोस्ती मूवी भी बनी है। 
  
     पहला प्यार का रिश्ता जो हमें भगवान देता है वो है खून के रिश्ते, दूसरा प्यार का रिश्ता जो हम  खुद बनाते हैं वो है दोस्ती।अब आता है तीसरा प्यार का रिश्ता वो है पति-पत्नी का. ( वैसे तो कहते हैं कि " जोड़ियां ऊपरवाला बनता है."लेकिन मैं ये नहीं मानती.) इस रिश्ते को बनाने में तो बहुतों  का हाथ होता है परिवार, समाज, जाति -धर्म, परम्परा ये सारे मिल कर पति-पत्नी के रिश्ते को बनाते हैं। इसमें एक लड़का-लड़की का कोई हाथ नहीं होता। इस रिश्ते की तो बुनियाद ही स्वार्थ से शुरू होती है।लड़की के माँ-बाप को लड़की की शादी कर अपना बोझ हल्का करने का स्वार्थ, लड़के के माँ-बाप को एक सेवा करने वाली बहु और ढेर सारा दहेज़ पाने का स्वार्थ, लड़के को एक अच्छी पत्नी जो सिर्फ उसकी मर्ज़ी पर जिए उसका स्वार्थ,लड़की को धन-धन्य से परिपूर्ण ससुराल और बहुत प्यार करने वाले पति के चाहत का स्वार्थ। ये तो पूरा रिश्ता ही स्वार्थ में लिपटा  होता हैं।इस रिश्ते के बनने की वज़ह तो स्वार्थ होता है लेकिन ये निभता सिर्फ और सिर्फ समझौते के बलबूते ही है। क्योंकि  जब ये रिश्ता एक बार बन जाता है तो इसे निभाना भी एक पारिवारिक और सामाजिक मज़बूरी हो जाती है। शुरू-शुरू में जब जिस्मानी भूख मिटने की चाह होती है तो पति-पत्नी के बीच वक्ती  लगाव हो जाता है,एक साथ रहते- रहते थोड़ा बहुत प्यार भी हो जाता है,एक दूसरे का ख्याल भी रहता है।  लेकिन वक़्त के साथ पारिवारिक दायित्यो को पूरा करते-करते कब वो थोड़ा प्यार भी जीवन से चला जाता है पता ही नही चलता। उस प्यार को खोने का एहसास भी तब होता है जब दोनों में से एक दूसरे को छोड़ हमेशा के लिए इस दुनिया से चला जाता है। वरना जीते जी तो स्वार्थ और शिकायतों का ही जीवन में जगह होता है। 90 के दशक तक इस रिश्ते में औरतो को ही ज्यादा समझौते करने पड़ते थे अपने अरमानों  को ताक  पर रख कर उन्हें पति की ख्वाइशों  को पूरा करना होता था।  लेकिन अब ज्यादा समझौते पति कर रहे हैं क्योंकि लड़कियां  अब काफी उग्र हो चुकी है। शायद ये भी एक सामाजिक परिवर्तन है।  खैर, हमारा विषय -वस्तु  ये नहीं है हम तो प्यार की बात कर रहे हैं। इस पति-पत्नी के रिश्ते में भी कुछ अमर प्यार के उदाहरण है। कुछ पति-पत्नी ऐसे भी होते है जो पहली मिलन से ही एक दूसरे को समर्पित हो जाते हैं और कुछ वो जिन्हे प्रेमी-प्रेमिका से पति पत्नी बनने का सौभाग्य मिल गया हो , ऐसे पति-पत्नी की जोड़ी लाखों  में एक होती है। 
     
     अब बात करते हैं प्रेमी-प्रेमिका के रिश्ते की तो  ये रिश्ता ना भगवान बनाते हैं, ना परिवार और समाज,ना ही इंसान खुद।  ये रिश्ता बनाया नहीं जाता और अगर बन जाये तो तोडा भी नहीं जाता या यूँ कह सकते हैं कि ना इसको बनाने में किसी का जोर चलता है ना तोड़ने में। आप चाह कर भी किसी से प्यार नहीं कर सकते और ना ही अपने आप को किसी को प्यार करने से रोक पाते हैं  और अगर प्यार हो जाये तो फिर आप खुद कोशिश करे या पूरी दुनिया जोर लगा दे आप उस प्यार से दूर भी नहीं हो पाते। कहते है- " प्यार किया नहीं जाता हो जाता है " इस रिश्ते को बनाने में सिर्फ दिल और आत्मा का हाथ होता हैं  बाहरी  किसी भी तत्व का इससे कोई सरोकार नहीं।  हम हज़ारों  लोगो से मिलते है पर कोई एक जिस पर पहली नज़र पड़ते ही ऐसा महसूस होता है जैसे कि वो हमारी ही आत्मा का बिछुड़ा हुआ टुकड़ा है। उसे देखते ही उस पर अपना सब कुछ न्यौछावर  करने को जी चाहता है ,इससे ही हम प्यार कहते हैं। जब किसी से प्यार होता है तो रूप-रंग, जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, परिवार-समाज कुछ इसके बीच नहीं आता, यहां  ये सारी  बाते महत्वहीन हो जाती हैं।  इस प्यार में अधिकार और कर्तव्य की डोर भी नहीं होती इसलिए इसमें स्वार्थ की गांठ भी नहीं पड़ती , होता है तो सिर्फ " प्यार और परवाह " सिर्फ एक ख्वाहिश  होती है एक दूसरे में खो जाने की, एक दूसरे पर न्योछावर  हो जाने की बस।  इस प्यार में मिलना और बिछड़ना भी कोई मायने नहीं रखता  यानि उनका प्यार किसी भी परिस्थिति में कम नहीं होता हैं। कहते हैं  राधा कृष्ण 15-16 साल की उम्र में ही बिछड़ गए थे और फिर कभी नहीं मिले लेकिन उनका प्यार कभी कम नहीं हुआ , उन्हें हम " प्यार के देवता" के रूप में पूजते हैं। कहते हैं  लैला बिलकुल काली थी कोई खूबसूरती नहीं थी उसमे फिर मजनूँ  क्यों उसका दीवाना था  यानि इस प्यार में जिस्मानी वज़ूद भी महत्वहीन हैं।  ये सिर्फ और सिर्फ एक रूहानी रिश्ता है जिसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने कभी किसी से ऐसा प्यार किया हो।  ये अलग बात है कि ऐसे रिश्ते को इस समाज ने  कभी समझा ही नहीं और जाति- धर्म, अमीरी-गरीबी उच्च-नीच और कभी अपने पारिवारिक स्वार्थ के लिए प्यार करने वालो की कुर्बानी देता चला आया। अगर इस समाज ने इस रिश्ते की कुर्बानी ना दी होती और उन्हें फलने -फूलने का सौभाग्य दिया होता तो यकीनन आज दुनिया में स्वार्थ और नफरत की जगह सिर्फ और सिर्फ प्यार पनपता। 
   अब आखिरी रिश्ता है भक्त और भगवान का. तो हमारी समझ से भक्त-भगवान और प्रेमी-प्रेमिका के रिश्ते में बड़ा ही बारीक़ अंतर हैं।  एक प्रेमी अपने प्रियतम में भगवान का अंश  देखता है और एक भक्त अपने भगवान को ही अपना प्रियतम बना लेता हैं।  जैसे मीरा ने भगवान कृष्ण को ही अपना पति मान लिया था और उनके प्रेम में दीवानी होकर दुनिया से बेगानी हो गई  थी, भक्त रसखान वो भी कृष्ण के दीवाने थे। आज भी कृष्ण को चाहने वाले पुरुष भी अपने आप को राधा रानी की तरह सवारते है और खुद को उनकी प्रेमिका ही मानते हैं। 
    अब गलती से भी आप मेरे इस फ़साने को आज के ज़माने से नहीं जोड़ लेना। क्योकि इस युवा वर्ग ने प्यार को व्यवहारिकता  का रूप दे दिया है माँ-बाप को पता है कि हमारा काम बच्चों  को पाल-पोस कर बड़ा करना है इसके बाद हमारा  इन पर कोई हक़ नहीं , बच्चों  को पता है कि हम बड़े हो गये है तो हमे शादी कर अलग घर बसना है, माँ-बाप हमारी जिम्मेदारी नहीं हैं। इस नई  जेनरेशन  को अपनी पसंद से शादी करने के लिए किसी की इजाजत की भी जरुरत नहीं, शादी न निभाने पर इन्हे उस शादी को तोड़ने में भी कोई गुरेज नहीं। आज कल के युवा वर्ग उसे प्यार का नाम देते है जिसमे पहले हमबिस्तर होते है फिर साल दो साल साथ गुजारते है अगर इसके बाद भी उनमे लगाव बाकी  रहा तो सोचते है की हमे शादी करनी चाहिए या नहीं। अब ऐसे रिश्तो के माहौल में भगवान- भक्त, और हीर-राँझा को ढूढ़ना थोड़ा मुश्किल है ,ये रिश्ता तो विलुप्त सा हो रहा हैं। 
      इन सब के वावजुद अब भी ऐसा नहीं है कि पूरी दुनिया ही प्यार के इस नए रूप में डूब गई हैं। अभी भी इस धरती पर कहीं -न -कहीं  कुछ ऐसे घर है जहां  निस्वार्थ सा प्यार भरा परिवार रहता है, कहीं -न -कहीं वो दोस्तों का मस्ती भरा साथ बचा है जिन्हे कोई भी मज़बूरी दूर ना कर पाई  है, अभी भी कुछ प्रेमी बचे है जो इस आत्मा विहीन दुनिया  में भी आत्मा से जुड़े हैं, भले ही उनके प्यार के किस्से ना बने हो, चर्चे ना हुए हो लेकिन उनका प्यार भी राधा-कृष्ण और हीर-राँझा के प्यार से कम नहीं। आज भले ही भगवान में आस्था ना बची हो लेकिन कहीं -न -कहीं  कोई मीरा और रसखान है जिनके लिए भगवान ही सब कुछ हैं।  जिस दिन ये धरती प्यार विहीन हो जाएगी वही दिन कयामत का दिन होगा ऐसा मेरा मानना हैं। 
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    इन सारे प्यार के रिश्तो के अलावा एक रिश्ता और है जो सबसे सर्वोपरि है वो है " इंसानियत का रिश्ता " ये प्यार तो बिलकुल ही दुनिया से ख़त्म हो गया है. दोस्तों, हो सके तो हम इस प्यार के रिश्ते को बचाने की कोशिश करे ,अगर ये रिश्ता ख़त्म हो गया तो धरती रहेगी तो लेकिन नर्क से भी बुरे हालत में। 

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...