श -शतप्रतिषत
रा -राक्षसों जैसा
ब -बना देने वाला पेय
सच है, शराब पीने वाला या कोई भी नशा करने वाला धीरे-धीरे राक्षसी प्रवृति का ही हो जाता है। उन्हें ना खुद की परवाह होती है ना ही घर-परिवार की।
आखिर क्यूँ ,एक व्यक्ति किसी चीज़ का इतना आदी हो जाता है कि-अपनी ही मौत को आप आमंत्रित करता है?
आखिर कोई व्यक्ति नशा क्यों करता है?
चाहे वो शराब पीना हो, सिगरेट या बीड़ी पीना हो, गुटका या तम्बाकू खाना हो, बार-बार चाय-कॉफी पीने की लत हो या फिर और कोई गलत लत हो ।इसके पीछे क्या कारण होता है ?
वैसे तो इसके कई कारण है मगर मुख्य है -
1. शुरू-शुरू में सभी शौकिया तौर पर इन सभी चीज़ो को लेना शुरू करते हैं । वैसे भी आज कल तो शराब और ड्रग्स लेना फैशन और स्टेंट्स सिंबल बन गया है। युवावर्ग खुद को "कूल" यानि बिंदास, बेपरवाह चाहे जो नाम देदे वो दिखाने की कोशिश में इन गलत आदतों को अपनाते हैं। लड़कियाँ भी इसमें पीछे नही है। मगर धीरे-धीरे नशा जब इनके नशों में उतरता है तो वो इन्हें अपना गुलाम बना लेता है फिर इनका खुद पर ही बस नहीं होता।
2. अक्सर हम लोग कोई भी नशा तब भी करते हैं जब हम खुद को असहज महसूस करते हैं, या किसी भी कारणवश हमें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा होता है, दुखी होते हैं,परेशान होते हैं । ऐसी अवस्था में हमारा मन भटकता है और हम खुद को अच्छा या फ्रेश महसूस कराने के लिए मन को कही और मोड़ने की कोशिश करते हैं। उस वक़्त सही-गलत से मतलब नहीं होता,बस खुद को खो देना या भूल जाना ही चाहते हैं। ऐसी मनःस्थिति में अगर कही भटक गए तो वो भटकाव स्थाईरूप से अपना लेते हैं। क्योँकि थोड़ी देर के लिए ही सही वो "भटकाव" हमें ख़ुशी और शुकुन देता है।
सिर्फ शराब या ड्रग्स ही नहीं अक्सर लोग चाय-कॉफी तक के आदी हो जाते हैं। आमतौर पर घरों में भी देखा जाता है कि जब भी कोई शारीरिक या मानसिक तौर पर थकान महसूस करता है तो एक कप चाय या कॉफी की फरमाईस कर देता है। ये चाय-कॉफी थोड़ी देर के लिए उसे ताजगी महसूस करवाती है। चाय-कॉफी में मौजूद निकोटिन और कैफीन थोड़ी देर के लिए आपके मन और शरीर को आराम तो दे जाती है मगर ये भी तो एक तरह का नशा ही है धीरे-धीरे हम इसके आदी हो जाते हैं। अधिक मात्रा में इसका सेवन भी शरीर को नुकसान ही पहुँचता है। परन्तु, इस नशा से सिर्फ खुद का शरीर ही बर्बाद होता है जबकि शराब और ड्रग्स का नशा तो तन-मन, घर-परिवार, समाज और देश तक को क्षति पहुँचता है।इस "नशा" का कितना बड़ा दुष्परिणाम होता है, इसके कारण समाज में और कितनी सारी बुराई जन्म लेती है, कितने आकस्मिक मौत होते हैं ये सारी बातें तो बताने की जरूरत ही नहीं है। ये तो सभी जानते हैं कि -"ये आदत" गलत है फिर भी इसके गुलाम बनकर मौत तक की परवाह नहीं करते। आखिर कैसी मानसिकता है ये ?
"नशा" भी एक मनोरोग ही है।इस बात को डॉक्टर भी मानते है।इसमें भी तो इंसान अपना मानसिक संतुलन खो ही देता है न।यदि उसका अपने दिलों-दिमाग पर कंट्रोल होता तो मुझे नहीं लगता कि-कोई भी अपने मौत को आमंत्रण भेजता। यदि कोई व्यक्ति "पागल" हो जाता है यानि किसी भी तरह से अपना मानसिक संतुलन खो देता है तो परिवार तुरंत उसको डॉक्टर के पास ले जाता है इलाज करवाता है जरूरत पड़ने पर हॉस्पिटल तक में रखा जाता है।
मगर जब कोई व्यक्ति "नशे का आदी" होने लगता है तो हमें वो "गंभीर रोग"क्यों नहीं लगता है ?
इस "जानलेवा रोग" की गंभीरता को समझ हम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते हैं ?
हम क्यों सिर्फ उसे एक बुरी आदत समझ कर नज़रअंदाज़ करते चले जाते हैं ?
शुरुआत में नज़रअंदाज़ करना और फिर वही रोग जब कैंसर का रूप धारण कर लेती है तब ही हमें होश क्यों आता है ?
और आखिरी पल में ही हमें मान-सम्मान,धन-सम्पति यहाँ तक की जीवन तक दाँव पर क्यों लगाना पड़ता है ?
क्या समय रहते हम सचेत नहीं हो सकते ?
इस "जानलेवा रोग" की गंभीरता को समझ हम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते हैं ?
हम क्यों सिर्फ उसे एक बुरी आदत समझ कर नज़रअंदाज़ करते चले जाते हैं ?
शुरुआत में नज़रअंदाज़ करना और फिर वही रोग जब कैंसर का रूप धारण कर लेती है तब ही हमें होश क्यों आता है ?
और आखिरी पल में ही हमें मान-सम्मान,धन-सम्पति यहाँ तक की जीवन तक दाँव पर क्यों लगाना पड़ता है ?
क्या समय रहते हम सचेत नहीं हो सकते ?
हम सिर्फ सरकार को दोष देते हैं। हाँ,ये भी सत्य है कि -राजस्व बढ़ाने के नाम पर सरकार गली-गली, हर नुक्क्ड़ पर शराब के ठेके लगवा रही है,डॉक्टरों और दवाखानों के माध्यम से धड़ल्ले से ड्रग्स बेचा जा रहा है। ये तो सत्य है कि -शराब और ड्रग्स से किसी को फायदा है तो सिर्फ राजनेताओं को,पुलिस को,शराब और ड्रग्स माफिया को,कुछ हद तक डॉक्टरों और दवाखाना वालों को भी। क्योंकि दवाओं के नाम से भी बहुत से ड्रग्स बेचे जाते हैं।ये नादान भी तो ये नहीं समझते कि-इस बुरी लत का शिकार होकर उनके अपने भी तो जान गवाँते हैं,मगर लालच तो अँधा होता है न ।हम घरों में भी देखते हैं कि-स्वार्थ और लालच से वशीभूत होकर अपनों का अहित अपने ही करते हैं, ये तो फिर बाहरी दुनिया के लोग है इन्हे सिर्फ अपने लाभ से मतलब है।
स्वहित के लिए,परिवार के हित के लिए सोचने का काम किसका है ?
मेरी समझ से तो,ये सिर्फ और सिर्फ हमारा काम है, सरकार या समाज का नहीं।
कोई भी हमारे हित के बारे में क्यों सोचेगा, क्यों परवाह करेगा??
मेरी समझ से तो,ये सिर्फ और सिर्फ हमारा काम है, सरकार या समाज का नहीं।
कोई भी हमारे हित के बारे में क्यों सोचेगा, क्यों परवाह करेगा??
सबसे पहले तो हर इंसान का पहला फ़र्ज़ है "स्वयं" की सुरक्षा करना।फिर भी,यदि कोई अपना मानसिक संतुलन खोकर किसी भी कारणवश इस "मनोरोग" से ग्रसित हो चुका है तो दूसरा फ़र्ज़ परिवार वालों का होता है। परिवार का फ़र्ज़ है प्यार से या सख्ती से,सही सूझ-बुझ से उस व्यक्ति का मार्गदर्शन करें या सही इलाज करें। रोग के शुरूआती दिनों में यदि उस व्यक्ति और परिवारवालों के नज़रअंदाज़ करने के कारण, रोग ज्यादा भयानक हो चुका है तब भी "जब जागे तभी सवेरा" के सिद्धांत को अपनाते हुए तुरंत सजग हो जाना चाहिए अर्थात जैसे ही परिवार को पता चले कि-मेरे घर का अमुक व्यक्ति अब इस व्यसन का आदी हो चुका है तो वो इसे गंभीर रोग मानकर तुरंत ही उसका इलाज करवाये। छोटे से फोड़े की शुरुआत से ही चिकित्सा शुरू कर देनी चाहिए कैंसर बनने तक का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।
मेरी समझ से "नशा मुक्ति" का सबसे सही और सरल उपाय है "परिवार की जागरूकता"
कितनी ही बार "नशा मुक्त राज्य" बनाने के नाम पर कई राज्यों में शराब पर रोक लगाया गया है,कई बार कितने गैलन शराब को बहाकर बर्बाद किया गया है परन्तु फायदा कुछ नहीं हुआ। ना सरकार इस पर काबू कर सकती है ना ही समाजिक संस्था "नशा मुक्ति अभियान" का ढ़ोग कर हमारी नस्ल को नशा से मुक्त करा सकती है, सिर्फ और सिर्फ हमारा परिवार ही इस भयानक रोग से हमें बचा सकता है।
हाँ,अगर इसके लिए सामाजिक संस्थाओं को जागरूकता लानी है तो घर-घर जाकर परिवार को इस गंभीर रोग के बारे में सजग करना चाहिए,उन्हें समझाना चाहिए कि- यह एक आदत या व्यसन नहीं है बल्कि हर मानसिक रोग की भांति यह भी एक मानसिक रोग ही है। अपने बच्चों में शुरू से अच्छे संस्कार रोपित कर उन्हें इस बुराई से बचने के लिए सजग करते रहना ही हमारा फर्ज होना चाहिए।
मगर समस्या तो सबसे बड़ी यही है कि- माँ-बाप या कोई बड़ा क्या राह दिखाएंगे जबकि फैशन के नाम पर वो खुद को ही नशे में डुबो रखे है। "यहाँ तो कूप में ही भांग पड़ी है"
"कोरोना" महामारी बनकर आया था नवंबर 2021 की शुरुआत तक भारत में 4 लाख 44 हजार लोगों की और पूरी दुनिया में 50 लाख से ज्यादा लोगो की मौत हो चुकी है,हाहाकार मचा हुआ था । मगर गौर करने वाली बात ये है कि- हर साल अकेले भारत में ढाई लाख से ज्यादा लोग सिर्फ शराब पीने के कारण मरते हैं। ।(ये आंकड़ा 2018 का है,नशामुक्ति अभियान चलाने वाले डा0 सुनीलम के फरवरी 2020 में किये गए नए सर्वे के मुताबिक भारत में ये आंकड़ा प्रतिवर्ष 10 लाख है)
सोचने वाली बात ये है कि-" कोरोना महामारी से डरकर अपने घर-परिवार को उससे बचाने के लिए हम कितने उपाय कर रहे थे और हैं भी,कितने सजग है हम। क्या कभी भी "नशा महामारी" की गंभीरता को समझ अपनी सजगता बढ़ाने की कोशिश की है हमने? हाँ,नशा भी तो एक छूत का रोग,एक महामारी ही तो बनता जा रहा है। हमारी युवापीढ़ी ही नहीं हम खुद भी यानि माँ-बाप तक भी देखा-देखी के चलन में, फैशन के नाम पर इस छूत रोग के चपेट में आते जा रहे हैं।
"कोरोना महामारी" तो एक-न-एक दिन चला जाएगा, मगर नशा जैसी भयानक महामारी जो हमारे युवाओं को, हमारे घरों को, हमारे समाज को खोखला किये जा रहा है क्या वो कभी रुकेगा?
"कोरोना" महामारी बनकर आया है अब तक पुरे विश्व में करीब नौ लाख से ज्यादा लोग और सिर्फ भारत में लगभग 72-73000