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बुधवार, 9 सितंबर 2020

"नशा" एक मनोरोग



शीर्षक -"नशा" एक मनोरोग 

"शराब"किसी ने इसकी बड़ी सही व्याख्या की है
श -शतप्रतिषत
रा -राक्षसों जैसा
ब -बना देने वाला पेय
    सच है, शराब पीने वाला या कोई भी नशा करने वाला धीरे-धीरे राक्षसी प्रवृति का ही हो जाता है। उन्हें ना खुद की परवाह होती है ना ही घर-परिवार की।
आखिर क्यूँ ,एक व्यक्ति किसी चीज़ का इतना आदी हो जाता है कि-अपनी ही मौत को आप आमंत्रित करता है?
 आखिर कोई व्यक्ति नशा क्यों करता है?
चाहे वो शराब पीना हो, सिगरेट या बीड़ी पीना हो, गुटका या तम्बाकू खाना हो, बार-बार चाय-कॉफी पीने की लत हो या फिर और कोई गलत लत हो ।इसके पीछे क्या कारण होता  है ?
 वैसे तो इसके कई कारण है मगर मुख्य है -
     1. शुरू-शुरू में सभी शौकिया तौर पर इन सभी चीज़ो को लेना शुरू करते हैं । वैसे भी आज कल तो शराब और ड्रग्स लेना फैशन और स्टेंट्स सिंबल बन गया है। युवावर्ग खुद को "कूल" यानि बिंदास, बेपरवाह चाहे जो नाम देदे वो दिखाने की कोशिश में इन गलत आदतों को अपनाते हैं। लड़कियाँ भी इसमें पीछे नही है। मगर धीरे-धीरे नशा जब इनके नशों में उतरता है तो वो इन्हें अपना गुलाम बना लेता है फिर इनका खुद पर ही बस नहीं होता।

     2.  अक्सर हम लोग  कोई भी नशा तब भी करते हैं जब हम  खुद को असहज महसूस करते हैं, या किसी भी कारणवश हमें  कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा होता है, दुखी होते हैं,परेशान होते हैं । ऐसी अवस्था में  हमारा मन भटकता है और हम  खुद को अच्छा या फ्रेश महसूस कराने के लिए मन को कही और मोड़ने की कोशिश करते हैं। उस वक़्त सही-गलत से मतलब नहीं होता,बस खुद को खो देना या भूल जाना ही चाहते हैं। ऐसी  मनःस्थिति में अगर कही भटक गए तो वो भटकाव स्थाईरूप से अपना लेते हैं। क्योँकि थोड़ी देर के लिए ही सही वो "भटकाव" हमें ख़ुशी और शुकुन देता है। 
      सिर्फ शराब या ड्रग्स ही नहीं अक्सर लोग चाय-कॉफी तक के आदी हो जाते हैं। आमतौर पर घरों में भी देखा जाता है कि जब भी कोई शारीरिक या मानसिक तौर पर थकान महसूस करता है तो एक कप चाय या कॉफी की फरमाईस कर देता है। ये चाय-कॉफी थोड़ी देर के लिए उसे ताजगी महसूस करवाती है। चाय-कॉफी में मौजूद निकोटिन और कैफीन थोड़ी देर के लिए आपके मन और शरीर को आराम तो दे जाती है मगर ये भी तो एक तरह का नशा ही है धीरे-धीरे  हम इसके आदी हो जाते हैं। अधिक मात्रा में इसका  सेवन भी शरीर को नुकसान ही पहुँचता है। परन्तु, इस नशा से सिर्फ खुद का शरीर ही बर्बाद होता है जबकि शराब और ड्रग्स का नशा तो तन-मन, घर-परिवार, समाज और देश तक को क्षति पहुँचता है।इस "नशा" का कितना बड़ा दुष्परिणाम होता है, इसके कारण समाज में और कितनी सारी बुराई जन्म लेती है, कितने आकस्मिक मौत होते हैं ये सारी बातें तो बताने की जरूरत ही नहीं है। ये तो सभी जानते हैं कि -"ये आदत" गलत है फिर भी इसके गुलाम बनकर मौत तक की परवाह नहीं करते। 
आखिर कैसी मानसिकता है ये ?
 "नशा" भी एक मनोरोग ही है।इस बात को डॉक्टर भी मानते है।इसमें भी तो इंसान अपना मानसिक संतुलन खो ही देता है न।यदि उसका अपने दिलों-दिमाग पर कंट्रोल होता तो मुझे नहीं लगता कि-कोई भी अपने मौत को आमंत्रण भेजता। यदि कोई व्यक्ति "पागल" हो जाता है यानि किसी भी तरह से अपना मानसिक संतुलन खो देता है तो परिवार तुरंत उसको डॉक्टर के पास ले जाता है इलाज करवाता है जरूरत पड़ने पर हॉस्पिटल तक में रखा जाता है। 

मगर जब कोई व्यक्ति "नशे का आदी" होने लगता है तो हमें वो "गंभीर रोग"क्यों नहीं लगता है ?
इस "जानलेवा रोग" की गंभीरता को समझ हम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते हैं ?
हम क्यों सिर्फ उसे एक बुरी आदत समझ कर नज़रअंदाज़ करते चले जाते हैं ?
शुरुआत में नज़रअंदाज़ करना और फिर वही रोग जब कैंसर का रूप धारण कर लेती है तब ही हमें होश क्यों आता है ?
और आखिरी पल में ही हमें मान-सम्मान,धन-सम्पति यहाँ तक की जीवन तक दाँव पर क्यों लगाना पड़ता है ?
क्या समय रहते हम सचेत नहीं हो सकते ?

      हम सिर्फ सरकार को दोष देते हैं। हाँ,ये भी सत्य है कि -राजस्व बढ़ाने के नाम पर सरकार गली-गली, हर नुक्क्ड़ पर शराब के ठेके लगवा रही है,डॉक्टरों और दवाखानों के माध्यम से धड़ल्ले से ड्रग्स बेचा जा रहा है। ये तो सत्य है कि -शराब और ड्रग्स से किसी को फायदा है तो सिर्फ  राजनेताओं को,पुलिस को,शराब और ड्रग्स माफिया को,कुछ हद तक डॉक्टरों और दवाखाना वालों को भी। क्योंकि दवाओं के नाम से भी बहुत से ड्रग्स बेचे जाते हैं।ये नादान भी तो ये नहीं समझते कि-इस बुरी लत का शिकार होकर उनके अपने भी तो जान गवाँते हैं,मगर लालच तो अँधा होता है न ।हम घरों में भी देखते हैं कि-स्वार्थ और लालच से वशीभूत होकर अपनों का अहित अपने ही करते हैं, ये तो फिर बाहरी दुनिया के लोग है इन्हे सिर्फ अपने लाभ से मतलब है।

स्वहित के लिए,परिवार के हित के लिए सोचने का काम किसका है ?
 मेरी समझ से तो,ये सिर्फ और सिर्फ हमारा काम है, सरकार या समाज का नहीं। 
कोई भी हमारे हित के बारे में क्यों सोचेगा, क्यों परवाह करेगा??
   सबसे पहले तो हर इंसान  का पहला फ़र्ज़ है "स्वयं" की सुरक्षा करना।फिर भी,यदि कोई अपना  मानसिक संतुलन खोकर किसी भी कारणवश  इस "मनोरोग" से ग्रसित हो चुका है तो दूसरा फ़र्ज़ परिवार वालों का होता है। परिवार का फ़र्ज़ है प्यार से या सख्ती से,सही सूझ-बुझ से उस व्यक्ति का मार्गदर्शन करें या सही इलाज करें। रोग के शुरूआती दिनों में यदि उस व्यक्ति और परिवारवालों  के नज़रअंदाज़ करने के कारण, रोग ज्यादा भयानक हो चुका है तब भी "जब जागे तभी सवेरा" के सिद्धांत को अपनाते हुए तुरंत सजग हो जाना चाहिए अर्थात  जैसे ही परिवार को पता चले कि-मेरे घर का अमुक व्यक्ति अब इस व्यसन का आदी हो चुका है तो वो इसे गंभीर रोग मानकर तुरंत ही उसका  इलाज करवाये। छोटे से फोड़े की शुरुआत से ही चिकित्सा शुरू कर देनी चाहिए  कैंसर बनने तक का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।
मेरी समझ से "नशा मुक्ति" का सबसे सही और सरल उपाय है "परिवार की जागरूकता"
     कितनी ही बार "नशा मुक्त राज्य" बनाने के नाम पर कई राज्यों में शराब पर रोक लगाया गया है,कई बार कितने गैलन शराब को बहाकर बर्बाद किया गया है परन्तु फायदा कुछ नहीं हुआ। ना सरकार इस पर काबू कर सकती है ना ही समाजिक संस्था "नशा मुक्ति अभियान" का ढ़ोग कर हमारी नस्ल को नशा से मुक्त करा सकती है, सिर्फ और सिर्फ हमारा परिवार ही इस भयानक रोग से हमें बचा सकता है। 
     हाँ,अगर इसके लिए सामाजिक संस्थाओं को जागरूकता लानी है तो घर-घर जाकर परिवार को इस गंभीर रोग के बारे में सजग करना चाहिए,उन्हें समझाना चाहिए कि- यह एक आदत या व्यसन नहीं है बल्कि  हर मानसिक रोग की भांति यह भी एक मानसिक रोग ही है। अपने बच्चों में शुरू से अच्छे संस्कार रोपित कर उन्हें इस बुराई से बचने के लिए सजग करते रहना ही हमारा फर्ज होना चाहिए। 
   मगर समस्या तो सबसे बड़ी यही है कि- माँ-बाप या कोई बड़ा  क्या राह दिखाएंगे जबकि फैशन के नाम पर वो खुद को ही नशे में डुबो रखे है। "यहाँ तो कूप में ही भांग पड़ी है" 
    "कोरोना" महामारी बनकर आया था नवंबर 2021 की शुरुआत तक भारत में 4 लाख 44 हजार लोगों की और पूरी दुनिया में  50 लाख से ज्यादा लोगो की मौत हो चुकी है,हाहाकार मचा हुआ था ।  मगर गौर करने वाली बात ये है कि- हर साल अकेले  भारत में ढाई लाख से ज्यादा लोग सिर्फ शराब पीने के कारण मरते हैं। ।(ये आंकड़ा 2018 का है,नशामुक्ति अभियान चलाने वाले  डा0 सुनीलम के फरवरी 2020 में किये गए नए सर्वे के मुताबिक  भारत में ये आंकड़ा  प्रतिवर्ष 10 लाख है)
     सोचने वाली बात ये है कि-" कोरोना महामारी से डरकर अपने घर-परिवार को उससे बचाने के लिए हम कितने उपाय कर रहे थे और हैं भी,कितने सजग है हम। क्या कभी भी "नशा महामारी" की गंभीरता को समझ अपनी सजगता  बढ़ाने की कोशिश की है हमने?  हाँ,नशा भी तो एक छूत का रोग,एक महामारी ही तो बनता जा रहा है। हमारी युवापीढ़ी ही नहीं हम खुद भी यानि माँ-बाप तक भी देखा-देखी के चलन में, फैशन के नाम पर इस छूत रोग के चपेट में आते जा रहे हैं। 
"कोरोना महामारी" तो एक-न-एक दिन चला जाएगा, मगर नशा जैसी  भयानक महामारी जो हमारे युवाओं को, हमारे घरों को, हमारे समाज को खोखला किये जा रहा है क्या वो कभी रुकेगा? 








 





































सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

हमारे त्यौहार और हमारी मानसिकता

ये है हमारी परम्परागत दिवाली 

गैस चैंबर बन चुकी दिल्ली को क्या कोई सरकार ,कानून या धर्म बताएगा कि  " हमें पटाखे जलाने चाहिए या नहीं?" क्या  हमारी बुद्धि- विवेक बिलकुल मर चुकी है ? क्या हममे सोचने- समझने की शक्ति ही नहीं बची जो हम समझ सकेंं  कि - क्या सही है और क्या गलत ? क्या अपने जीवन मूल्यों को समझने और उसे बचाने के लिए भी हमें किसी कानून की जरुरत है ? क्या हमें हमारे बच्चों के बीमार फेफड़े नहीं दिखाए देते जो एक- एक साँस मुश्किल से ले रहे है ? क्या तड़प तड़प कर दम तोड़ते हमें हमारे बुजुर्ग दिखाई नहीं देते ?तो लानत है हम पर,  हम इंसान क्या जानवर कहलाने के लायक भी नहीं है।  और पढ़िये 

रविवार, 2 जून 2019

विवाह -संस्कार


     हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मरण तक कई संस्कार होते हैं जैसे -पुंसवन संस्कार ,अन्नप्रासन संस्कार ,मुंडन संस्कार ,उपनयन संस्कार ,विवाह संस्कार एवं दाह -संस्कार आदि।वैसे तो संस्कार सोलह माने गए है (कही-कही तो 48 संस्कार भी बताये गए है ) लेकिन ये छह संस्कार तो महत्वपूर्ण है जो अभी तक अपने टूटे- बिखरे रूप में  निभाए ही जा रहे हैं।  " संस्कार "यानि वो गुण जो सिर्फ आपके शरीर से ही नहीं वरन आत्मा तक से जुड़ जाते हैं। मान्यता ये है कि -आत्मा से जुड़े गुण एक जन्म से दूसरे जन्म तक स्थाई रूप से बनी रहती है। यदि आत्मा पूर्व जन्म से कोई दुर्गुण लेकर आयी भी  है तो ये सारे संस्कार उस आत्मा की सुधि भी करते हैं और शायद इसीलिए विवाह संस्कार भी होते हैं और ये मानते हैं कि -विवाह एक जन्म नही वरन जन्म-जन्म का साथ होता है। 

सोमवार, 20 मई 2019

दम तोड़ती भावनायें

   


     "क्या ,आज भी तुम बाहर जा रहे हो ??तंग आ गई हूँ मैं तुम्हारे इस रोज रोज के टूर और मिटिंग से ,कभी हमारे लिए भी वक़्त निकल लिया करो। " जैसे ही उस आलिशान बँगले के दरवाज़े पर हम पहुंचे और नौकर ने दरवाज़ा खोला ,अंदर से एक तेज़ आवाज़ कानो में पड़ी ,हमारे कदम वही ठिठक गये। लेकिन तभी बड़ी शालीनता के साथ नौकर ने हमे अंदर आने का आग्रह किया। अंदर एक बड़ा सा गेस्ट रूम था जो सारे आधुनिक प्रसाधनो से सुसज्जित था। नौकर हमे बैठने का इशारा कर ये कह कर चला गया कि -मैडम को आप के आने की सुचना देता हूँ। अंदर जाते ही वो आवाज़ जो अब तक चीखने  सा हो चूका था और तेज़ आने लगी।स्पष्ट हो चूका था कि पति पत्नी एक दूसरे पर चीख चिल्ला  रहे हैं।  मैंने अपनी दोस्त स्वाति की तरफ प्रश्नसूचक निगाह से देखा ,उसने धीरे से कहा -कोई बात नहीं न बैठो ,बड़े  घरो में तो ये सब होता ही रहता है। मैंने कहा - क्या ,ये चीखना -चिलाना ? वो बोली - हां ,इग्नोर करो। 

शनिवार, 11 मई 2019

" माँ "

      


   " मदर्स डे " आने वाला है अभी से सोशल मिडिया पर " माँ " शब्द पूरी तरह छा चूका है। सोशल मिडिया का वातावरण माँ मयी हो गया है, एक धूम सी है " माँ " पर ,कितनी सारी प्यारी-प्यारी ,स्नेहिल कविताऐं   रची जाएगी , कहानियाँ लिखी जायेगी और स्लोगन और quotes तो पूछिये मत एक से बढ़कर एक लिखे जायेगे। कुछ देर के लिए मन भ्रमित सा हो जायेगा -"हम तो यूँ ही बोलते रहते हैं कि -आज कल भावनाएं  मर चुकी है ,बच्चें माँ बाप की कदर नहीं करते ,वगैरह-वगैरह।" अरे नहीं ,देखें  तो हर एक की भावनाएं कैसी उमड़ी रही है ,सब के दिलों  में माँ के लिए प्यार ही प्यार दिखाई दे रहा है ,सब माँ के प्यार -दुलार ,त्याग और संस्कार की कितनी अच्छी-अच्छी बातें कर रहे हैं। कैसे कह सकते हैं.हम ...ऐसा कि- बच्चें  माँ बाप से सरोकार नहीं रखते। देखो तो, इन दिनों सभी माँ के भक्त ही दिखाई दे रहे हैं।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

" भाग्य विधाता "- कौन ??

  


  " मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हैं " बचपन से ही ये सदवाक्य  सुनती आ रही हूँ। कभी किताबो के माध्यम से तो कभी अपने बुजुर्गो  और ज्ञानीजनों के मुख से ये संदेश हम सभी तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन ये पंक्ति मेरे लिए सिर्फ एक सदवाक्य ही हैं । क्योकि मैंने कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि "हमारा जीवन ,हमारा भाग्य जो हैं वो मेरी वजह से हैं " मैंने  तो सब को यही कहते सुना हैं कि "भगवान ने हमारे भाग्य में ये दुःख दिया हैं।" हाँ ,कभी कभी जब खुद के किये किसी काम से हमारे जीवन में खुशियाँ आती हैं तो हम उसका श्रेय खुद को जरूर दे देते हैं और बड़े शान से कहते हैं कि " देखिये हमने बड़ी सोच समझकर ,समझदारी से ,अपनी पूरी मेहनत लगाकर फला काम किया हैं और आज मेरे जीवन में खुशियाँ आ गयी। " लेकिन जैसे ही जीवन में दुखो का आगमन होता हैं हम झट उसका सारा दोष ईश्वर और भाग्य को दे देते हैं। क्यूँ ? जब सुख की वजह हम खुद को मान सकते हैं तो दुखो की जिम्मेदारी हम ईश्वर पर कैसे दे सकते हैं ? हमारी समझदारी तो देखे ,ऐसे वक़्त पर अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए हमने एक नया स्लोगन बना लिया " ईश्वर की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। "

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

धर्म क्या हैं ??



       धर्म क्या हैं ? धर्म क्यों हैं ?धर्म कैसा होना चाहिए ? क्या सचमुच हमारे जीवन में धर्म की आवश्यकता  हैं ?धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व होना चाहिए ?मानव का सबसे बड़ा या पहला धर्म क्या होना चाहिए ? धर्म के बारे में ना जाने इस तरह के कितने सवाल हमारे मन मस्तिष्क में उठते रहते है।हर युग में,हर समाज में ,हर सम्प्रदाय में  यहां तक की हर व्यक्ति अपने अपने तरीके से इन सवाल के खोज में लगा रहता हैं। धर्म के संबंध में बड़ी विभिन्ताएं देखने को मिलती हैं। एक देश और एक ही जाति के लोगो के धार्मिक आचरण में भी बड़ी अंतर् दिखाई देता हैं। सामान्य जन दान -पुण्य ,पूजा -पाठ और बाहरी कर्मकांडों को ही धर्म का नाम देते हैं। यही धार्मिक कर्मकांड धीरे -धीरे सामाजिक रीति -रिवाज का रूप धारण कर लेता हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि से तर्क पूर्वक सोच समझ कर धर्म का आचरण करते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं। 

     सभी धर्मो की यही मान्यता हैं कि उनका धर्म अनादि हैं। लेकिन एक बात सभी धर्मो में समान रूप से दिखाई देती हैं,सभी धर्म एक ही सत्य पर आधारित हैं कि कोई ऐसी शक्ति हैं जो हम पर नियंत्रण रखती हैं और जिसने कुछ नियम कानून बनाये हैं और उसका पालन करना ही हमारा परम् धर्म हैं। इन नियम कानून में भी समय समय पर पैगंबरो और अवतारो ने आकर उनका पुनरुथान भी करते रहे हैं। सारे धर्मो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं लेकिन सभी धार्मिक गुरुओ ने अपने कथन के अपूर्णता को भी  स्वीकारा हैं। शायद यही कारण है कि अनादि काल से अब तक हर धर्म के स्वरूप में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सभी धर्मो में नए सुधारक आते गए और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर समय ,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार उनमे परिवर्तन करते गये। अवतारी महापुरुषों ने अपने समय के परिस्थिति और स्थान को बहुत महत्व दिया था। 

       जब वैदिक युग में ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ गई और लोग अपने कर्तव्य का पालन छोड़ पूजा पाठ में ही लगे रहते थे तब भौतिकवादी वाममार्ग की शुरुआत हुई ,जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया। इस तरह धर्म में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार धर्मो में परिवर्तन हर धर्म के धार्मिक ग्रंथो  में देखने को मिलेगी। 

       मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक  रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य  से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं। 

     धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस  जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं। 

       लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय  करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं। 

      संक्षेप में कह  हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी  धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं। 

बुधवार, 27 मार्च 2019

हमारी प्यारी बेटियाँ

                                       

    कहते हैं "बेटियाँ" लक्ष्मी का रूप होती है, घर की रौनक होती है। ये बात शत प्रतिशत सही है। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि बेटियाँ ही इस संसार का मूल स्तंभ है। वो एक सृजनकर्ता और पालनकर्ता है। प्यार और अपनत्व की गंगा बेटियों से ही शुरू होती है और बेटियों पर ही ख़त्म हो जाती है। लेकिन आज हमारा विषय हमारी प्यारी बेटियों पर नहीं है बल्कि बेटियों के " बेटी से बहू "बनने के सफर पर है।
    नब्बें के दशक तक जब एक माँ अपनी बेटी को गोद में लेती तो उससे मन ही मन ये वादा करती थी कि- "मेरी लाड़ली मुझ पर जो गुजरी वो मैं तुम्हारे साथ कतई नहीं होने दूँगी...खुद से बेहतर परवरिश और भविष्य तुम्हें जरूर दूँगी...जो मैंने नहीं पाया वो पाने का अवसर तुम्हें जरूर दूँगी....मेरे सपने तो पूरे नहीं हुए पर मैं तुम्हारा सपना टूटने नहीं दूँगी वादा है मेरा तुमसे"  यकीनन ये हर युग में हुआ होगा तभी तो दिन प्रति दिन औरतो के हालात में परिवर्तन होता चला गया। अपने ही घर का इतिहास उठाकर जब हम देखते हैं तो "अपनी नानी  से लेकर अपनी बेटी तक में जो परिवर्तन हुआ है वो यकीनन हर माँ के अपनी बेटी से किये हुए वादे का ही असर है जो हम औरतो को यहाँ तक लेके आया है।" हमारी सोच और प्रयास का ही परिणाम है कि आज लड़कियाँ पूर्णतः आज़ाद हो चुकी है। यकीनन कुछ ज्यादा ही आज़ाद हो चुकी है इतनी स्वछंदता की डर लगता है, ये अब कहाँ तक जायेगी ? मैं अक्सर सोचती हूँ - "आज की लड़कियाँ अपनी बेटियों से क्या वादा करेगी..उनके भविष्य के लिए क्या सपने देखेंगी ?"

     क्या आज हमारी बेटियाँ सचमुच उसी मुकाम पर खड़ी है जहाँ हम उन्हें देखना चाहते थे? क्या हमारे सपने यही थे कि हमारी बेटियाँ इतनी आज़ाद हो जाये, इतनी स्वछंद हो जाये, इतनी आत्मनिर्भर हो जाये कि वो अपनी मूलस्वरूप को ही खो दे ? क्या आपको नहीं लगता कि आज की पीढ़ी की हमारी बेटियांँ घर-परिवार, समाज यहांँ तक कि अपने आस्तित्व तक से इतनी ऊपर उठ चुकी है कि वो पतन की कगार पर खड़ी है ? हमनें अपनी बेटियोंं को आत्मनिर्भर बनाने की, उन्हें हर रूढ़िवादिता से आजाद करने की जो सपने देखे थे वो तो पूर्ण हुआ पर क्या आज हमारी बेटियाँ एक अच्छी पत्नी,एक अच्छी बहू या अच्छी माँ बन पा रही है?

       चलिये, मैं आपको आँखो देखी घटना बता कर इस विषय को समझने और समझाने का प्रयास कर रही हूँ। मेरे एक परिचित है उनको एक बेटा और एक बेटी है। बड़ा ही खुशहाल परिवार, माँ-बाप बेटी के पूरे नाज़-नखरे उठाकर बड़े लाढ़-प्यार से पाले थे। किसी भी चीज़ में बेटे से कुछ कम नहीं किया। दोनों भाई-बहन की शादी भी एक साल के अंतर पर कर दिया था। बेटी की शादी में तो उन्होंने अच्छा खासा खर्च भी किया था यहांँ तक की क़र्ज़ में भी डूब गए थे। एक दिन मैं उनके घर गई तो देखा उनकी बेटी आई हुई है। औपचारिकता के बाद मैंने उससे पूछा -"तो बेटा कितने दिनों के लिए आई हो?" उसने जबाब दिया - हमेशा के लिए आंटी। मैं थोड़ी सकपका के बोली - ये क्या कह रही हो ? उसने बड़ी ही वेतक्लुफी से कहा - सच कह रही हूँ आंटी, मैंने अपने पति को तलाक दे दिया...मेरा उससे नहीं निभा । जबाब सुन कर मैं सन्न रह गई,क्या बोलती। माहौल थोड़ा भरी सा लगने लगा तो बात बदलने के लिए मैंने पूछा - बहनजी आप की बहू कहाँ है..नज़र नहीं आ रही है। उन्होंने कहा - वो भी अपने मयके चली गई...हमेशा के लिए...उसने भी तलाक का नोटिस भेज दिया है। मैं आवक रह गई और तुरंत वहाँ से उठ कर चली आई।

     इस घटना के कुछ ही दिनों पहले एक और घटना हुई थी। मैं अपनी दोस्त के साथ उसके बेटे की शादी तय करने गई थी। लड़का और लड़की वालो की एक मीटिंग थी। मेरी दोस्त को सिर्फ एक बेटा है उसके पति गुजर चुके हैं तो वो मुझे अपने साथ ले गई  थी। सब कुछ तय था बस एक औचारिकता भर थी वो मीटिंग। जब हम सब बैठे बातें कर रहें थे, सगाई और शादी की तारीख तय की जा रही थी तभी अचानक से लड़की लड़के से बोल पड़ी - "शादी के बाद हम separate  कब होंगे ". लड़के ने आश्चर्य से पूछा - what do you mean ? लड़की ने बड़ी वेतक्लुफी से कहा - "इसमें ना समझने वाली कौन सी बात की है मैंने....शादी के बाद हमारा अपना अलग घर तो होगा ही।"  लड़के ने कहा - "अरे यार हमारे साथ माँ के अलावा और कौन है।" लड़की ने कहा - " माँ तो है न...हमारी प्राइवेसी कहाँ रहेगी"  ये सारी बातें सभी लोगों के सामने हो रही थी। लड़के की माँ बात को सँभालते हुए बोली - अरे बेटा,आपको प्राइवेसी चाहिए तो मिलेगी न...हमारा दो फ्लोर का मकान है..एक में मैं रह लुँगी एक में आप दोनों रह लेना। लड़की ने तपाक से जबाब दिया - अरे नहीं मम्मी जी इसमें प्राइवेसी कहाँ रही....आप की नज़र तो हर पल हम पे रहेगी न। बेचारी माँ के पास कोई जबाब नहीं था। लड़की के फैमिली वाले सब सुन रहे थे लेकिन चुप थे। लड़के ने माँ का हाथ पकड़ा और कहा -चलो, माँ मैं यह शादी नहीं करुगाँ...जो लड़की चंद साल जिन्दा रहने वाली मेरी माँ की देखभाल नहीं कर सकती वो सारी उम्र मेरी और मेरे बच्चों की देखभाल क्या करेगी ? मैंने अपनी दोस्त को सहारा देकर उठाया, बेटे की पीठ थपथपाई और उठ कर चलने का इशारा किया।

     इस घटना के चंद दिनों बाद एक दिन लड़की की माँ से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने कहा -आपने अपनी लड़की को समझाया नहीं ? तो लड़की की माँ बड़ी बेरुखी से बोली - समझाना क्या था जी,क्या मेरी बेटी सारी उम्र उस बुढ़ियाँ की सेवा करती रहेगीं...उसकी अपनी ख़ुशी नहीं है क्या?  मैं दंग रह गई मैंने सोचा जब गोदाम ही ऐसा है तो माल कैसा  होगा। मैंने पूछा - आप का भी तो एक बेटा है न उसकी शादी कब कर रही है? वो चहकती हुई बोली - हांँ जी ,मैं तो उसके लिए बड़ी सुघड़ बहू लाऊँगी जो हमारी देखभाल करें और परिवार संभाले। मैंने कहा - वो तो संभव नहीं है जी। उसने पूछा - "क्यों नहीं है जी" मैंने कहा - अजी उस लड़की की माँ भी तो यही कहेंगी कि -मेरी बेटी सारी उम्र उस बुढ़ियाँ  की सेवा क्यों करेंगी...इसी दिन के लिए तो मैंने अपनी बेटी को इतने नाज़ो से नहीं पाला..आखिर वो भी तो अपने माँ-बाप की लाड़ली होगी न ? वो औरत मेरा मुँह देखती रह गई और मैं वहाँ से निकल ली।इस दोहरी मानसिकता से मुझे घिन आ रही थी। 
     
     ये दोनों घटनाये ऐसी थी जिसने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया। मैं ये सोचने पर मज़बूर हो गई कि -आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा है ? मेरे खुद के मुहल्ले में अगर दस लड़कियांँ ब्याही गई है तो उनमे से आठ मायके वापस आ गई  है और जो दो ससुराल में है उन्होंने ससुराल वालों और पति तक का जीना हराम कर रखा है।

       मैं जानती हूँ मेरा ये विषय  थोड़ा उलझा हुआ (complicated )है। जो शायद बहुतो को पसंद ना आये और वो मुझसे सहमत भी ना हो।लड़कियों को तो शायद मेरी ये बात बिलकुल ही पसंद न आये। क्योंकि आज कल नारी जागरण की बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो रही है। लेकिन मैं चिंतित हूँ। मैं खुद एक औरत हूँ और सिर्फ एक बेटी की माँ भी हूँ। (मेरी दूसरी कोई संतान नहीं है )फिर भी मैं ये मानती हूँ कि  लड़कियांँ जो कर रही है गलत कर रही है। मैं ये निष्पक्ष भाव से कह रही हूँ। सोचने वाली बात है कि  इस समस्या की शुरुआत कैसे हुई। बेटियाँ जो प्यार और ममता की मूर्ति होती थी,बेटियांँ जो सम्बन्धो को जोड़ने और संभालने वाली डोर होती थी वो खुद आज एक कटी पतंग कैसे बन गई ? जो आज बेपरवाही से हवा में उडी जा रही है..उन्हें नहीं पता और ना ही फ़िक्र है कि वो अपने डोर से टूटी है तो कहाँ  गिरेंगी कीचड़ में, खाई में या बाग-बगीचे में। मुझे लगता है कि बेटियों के इस बदले हुए स्वरूप के जिम्मेदार हम है। कही न कही हमसे ही चूक हुई है। इसमें बेटियों का कोई कसूर नहीं है।

      इंसानी प्रकृति है, हम जो करते हैं अति करते हैं। गौतम बुद्ध ने कहा है कि -"अति किसी भी चीज़ की बुरी है और निम्नता  भी इसीलिए हमें हमेशा माध्यम मार्ग अपनाना चाहिए तभी हमारा कल्याण हो सकता है। "जैसे वीणा के तार को यदि अधिक तनाव से बंधा जाये तो वीणा बजाते वक़्त तार टूट जाती है और अगर तार थोड़ी ढीली हुई तो सुर बिगड़ जाता है। इसलिए कुशल सगीतकार वीणा के तार को माध्यम तनाव में बांधता है और उससे मनमोहक संगीत उत्पन्न करता है। अब अगर शुरू से देखें तो औरतो पर अत्याचार हुआ वो अति हुआ,उन पर संस्कार के नाम पर पावंदियां लगाई गई वो भी अति लगी। समाज और दहेजप्रथा के डर से कन्या भ्रूण हत्या और दुल्हनों की हत्या शुरू हुई तो वो भी एक चलन बन, अति हुआ। समाज और औरतो में जागरूकता आई और औरतो को सम्मान और आज़ादी मिलने लगी तो वो भी भारतीय संस्कृति की सारी सीमाओं को पार कर रहा है। हमारी पीढ़ी ने बेटियों का महत्व समझा और उन्हें बेटो से अधिक लाढ-प्यार दे कर पाला, उनकी हर ख़ुशी,हर फ़रमाइस पूरी की तो उसमे भी हमने अति कर दी।

       उन्हें हर ख़ुशी देते वक़्त हम उन्हें ये समझाना भूल गए कि -बेटा जी ,जो ख़ुशी हम आप को दे रहे हैं  वो आगे आपको बाँटना भी होगा। बेटियों से हमारा घर रोशन  रहा लेकिन हमने उन्हें ये नहीं समझाया कि -बेटा, ये रोशनी तुम्हें अपने जीवन में हमेशा कायम रखनी है और वो तभी होगा जब तुम अपने दूसरे घर को भी अपनी रोशनी से रोशन करोंगी। हमने उन्हें ये नहीं सिखाया कि - बेटा हम आप की हर फ़रमाइस को पूरी कर रहे हैं, तुम्हें हर ख़ुशी दे रहें हैं  तो, अपने माँ के घर से जो तुम ले रही हो उसे आगे बांटना...तुम्हारी ख़ुशी बढ़ेगी..कभी कम नहीं होगी। लेकिन ऐसा हमने नहीं किया और हमारी बेटियों ने सिर्फ लेना सीखा देना नहीं, उन्हें सिर्फ अपनी ख़ुशी समझ आई दुसरों की तकलीफ नहीं। हमने अपनी बेटियों को पूर्णता दी साझेदारी नहीं सिखाई,अपनी खुशियांँ पूरी करने की आज़ादी दी लेकिन दुसरों की खुशियों का ख्याल भी रखना है ये नहीं बताया। उनके मुँह से कोई बात निकली नहीं कि हमने पूरी की और उन्हें सब्र करना भी नहीं सिखाया।
      
      ये सारी की सारी गलती हमारी है। यही कारण है कि आज जब बेटियाँ बहू बनके दूसरे घर जा रही है तो न वो एक अच्छी बहू बन पा रही है,ना पत्नी और यहाँ तक कि एक अच्छी माँ भी नहीं बन पाती। क्योंकि वो हर जगह अपनी ख़ुशी अपना स्वार्थ ही देखती है। पति से उन्हें ढेरों उम्मींदे रहती है लेकिन पति के ख़ुशी के लिए उन्हें क्या करना है इसका ज्ञान नहीं। हमने उन्हें हर जिम्मेदारी से दूर रखा इसलिए वो अपने बच्चे की जिम्मेदारी उठाने में भी परेशान हो जाती है। बहूओं पर सास के अत्याचार हुए तो वो भी अति हुए थे और आज सास-स्वसुर द्वारा बहू को ढेर सारा प्यार देने के वावजूद बहूऐं उन्हें माँ-बाप का दर्जा देना तो दूर उन्हें सबसे पहले घर से अलग करना चाहती है। यही कारण है कि बृद्धाआश्रम की सख्यायें बढ़ती जा रही है। जो बेटियाँ हमारे घर की सूरजमुखी रहती है वो बहू बनकर जब दूसरे घर जाती है तो ज्वालामुखी क्युँ बन जाती है और अपने ही हाथों अपने घर-संसार को आग लगा लेती है? इसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि-हमने उन्हें सहूलियत दिया मगर संस्कार छीन लिए।  आज के दौड़ में यदि आप ध्यान से अपने चारो तरफ के माहौल को देखेंगे तो पाएंगे कि दस में से नौ घर सुलग रहें हैं। पश्चिमी सभ्यता की तरह आये दिन तलाक की घटनायें बढ़ती जा रही है। क्योंकि जो लड़की घर की आधार,उसकी रोशनी होती है वही घर जला रही है। जो सृजनकर्ता है वही विनाश पर उतारूँ हो जाये तो धरती ज्वालामुखी बनेगी ही न। ऐसा नहीं है कि इसमें लड़को की गलती नहीं है लेकिन घर बनाना और उसे बसाना लड़कियांँ ही सम्भव करती आई है,लड़के घर नहीं बसाते।
    
     हो सकता है कि मैं आप सब के नज़र में गलत हूँ लेकिन आज कल के माहौल को देख मैं चिंतित हूँ मेरी भी एक बेटी है जिसे मैंने अच्छे संस्कार दिए है लेकिन नहीं जानती कि समाज में चलने वाली इस तेज़ आँधियो में मेरी बेटी भी अपना घर बसा पायेगी या देखा-देखीं के चलन में वो भी अपने घर को आग लगा लेगी। मैं चिंतित हूँ.................


रविवार, 24 मार्च 2019

माँ- बेटी " कल आज और कल "

    

        कहते है, औरत को बेटी से ज्यादा बेटे की चाह होती है लेकिन मुझे ये धारणा थोड़ी गलत लगती है। पुत्र की कामना शायद वो सिर्फ परिवार और पति के इच्छा को पूरा करने और वंश को आगे बढ़ाने के मोह वश करती है। क्यूकि हमारे देश में औरते अपने ख़ुशी से ज्यादा दुसरो की ख़ुशी का ख्याल रखती है। वरना ,हर औरत अपने बच्चे में अपना अक्स देखना चाहती है। एक बेटी को पालने पोसने और सजाने -सवारने में उसे जो आत्मिक ख़ुशी मिलती है उसे शब्दों में बया करना मुश्किल है।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

एक सवाल ???

   

      मम्मी एक बात बताऊँ  ,"साहिल के दिल में न मेरे लिए फीलिंग्स है। "क्या मतलब ?" मैंने ने आश्चर्य पूछा। मतलब ये कि -साहिल मुझे पसंद करता है। मनु ने बड़ी बेतकल्लुफी से ये बात कही। मैंने फिर पूछा -लेकिन वो तो तुम्हारा दोस्त है न। हाँ माँ ,यही तो परेशानी है लड़के सिर्फ दोस्त बन के क्यों नहीं रह सकते ,क्यों गर्लफ्रेंड बनना ही उनके लिए जरुरी होता है ? मैं तो परेशान हो गई हूँ मम्मी ,जब भी मुझे लगता है कि ये लड़का अब मेरा अच्छा दोस्त बन गया है तभी वो मुझे प्रपोज़ कर मुझे दुखी कर देता है,मैं इंकार कर देती हूँ  फिर वो मेरा दोस्त भी नहीं रहता और तुम तो जानती हो मुझे दोस्त चाहिए बॉयफ्रेंड नहीं। ये सारी बाते मनु बड़ी ही सहज भाव से कह रही थी और मैं  ख़ामोशी से सब सुन रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि -कितनी जल्दी बड़ी हो गई न मनु ।  कितनी सुलझी  सी बाते  करने लगी है।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

"प्रकृति और इन्सान"



 नदी,सागर ,झील या झरने ये सारे जल के स्त्रोत है, यही हमारे जीवन के आधार भी है। ये सब जानते और मानते भी है कि " जल ही जीवन है." जीवन से हमारा तात्त्पर्य सिर्फ मानव जीवन से नहीं है। जीवन अर्थात " प्रकृति " अगर प्रकृति है तो हम है। लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या हम है ? क्या हम जिन्दा है? क्या हमने अपनी नदियों को , तालाबों को ,झरनो को ,समंदर को ,हवाओ को, यहाँ  तक कि धरती माँ तक को जिन्दा छोड़ा है? इन्ही से तो हमारा आस्तित्व है न....अपनी भागती दोड़ती दिनचर्या को एक पल के लिए रोके और अपनी चारो तरफ एक नज़र डाले और दो घडी के लिए सोचे....हमने खुद अपने ही हाथो अपनी प्रकृति को यहाँ तक की अपने चरित्र तक को कितना दूषित कर लिया है। 
      इन दिनों मुझे मुंबई महानगर में वक़्त गुज़ारने का मौका मिला।  " मुंबई " जिसकी खूबसूरती सिर्फ और सिर्फ समुन्दर से है लेकिन उसकी दुर्दशा जो हमने देखी तो दिल ही नहीं आत्मा तक तड़प उठी....समुन्दर का पानी बिलकुल काला पड़ा है....उसके किसी-किसी तट पर तो जाते ही नाले की तरह बदबू आती है। बारिस के दिनों में ,एक दिन बहुत तेज़ बारिश की वजह से समुंदर में हाई टाइड उठा सड़क तक पर पानी आ गया। उन तेज लेहरो के साथ कई टन कचरा बाहर आ कर सड़को पर फैल गया जिसको साफ करने में मुंबई सफाई कर्मियों को काफी मसकत करनी पड़ी। उन कचरो को देख ऐसे लग रहा था जैसे अब समुन्द्र भी थक चूका है उसमे भी अब सहन शक्ति नहीं बची हमारी गंदगियों को उठाने की, वो हमारा फेका कचरा हमें ही वापस कर रहा है। उन कचरो के बीच समुंद्री जीवो की क्या दुर्दशा होगी शायद हम समझ भी नहीं सकते। 
      गंगा तो पहले ही हम से थक कर हार मान चुकी है। जब बड़ो का ये हाल है तो बेचारे छोटे-छोटे नदी-तालाब अपना आस्तित्व कहाँ बचा पाते वो तो कब के हमें छोड़ चुके हैं। अब बात करते हैं हवा की तो...दिल्ली वालो से पूछे हवाओं  का हाल - चाल....वहा तो वायु प्रदूषण अपने सारे सीमाओं को पार कर चूका है। बच्चें- बच्चें के फेफड़े में जहर भर चूका है साँस लेना भी दूभर है ,मास्क लगा के घूमने के वावजूद शायद ही कोई हो जिसे साँस की बीमारी न हो। बात करते हैं धरती माता की तो मैदानी इलाका तो छोड़े पहाड़ो तक पर भी जहां इंसान का पहुंचना तक मुश्किल था वहां भी पहुंच कर हम इंसानो ने इतनी गंदगी फैलाई कि धरती माँ कराह उठी और अपना गुस्सा ऐसे प्रलय के रूप में दिखाई कि शायद ही कोई केदारनाथ के जल प्रलय को भूल पाए। ऐसा नहीं है कि छोटे शहर इस प्रदूषण  से अछूते है लेकिन यह हम बड़े-बड़े कारनामो का जिक्र इसलिए कर रहे हैं कि जब बड़ो का ये हाल है तो छोटे शहरों को कौन पूछता है। 
     ये तो हवा-पानी का हाल हुआ अब जीवन की तीसरी सब से बड़ी आवश्य्कता " भोजन " उसका क्या हाल कर रखा है हमने। आये दिन खबर आती है कि आटा-चावल तक में प्लास्टिक का इस्तमाल किया जा रहा है ,फल और सब्जी तक जेहरीले खाद और इंजेक्शन के द्वारा उपजाए जा रहे हैं। पिछले दिनों एक विडिओ वायरल हुआ था जिस में दिख रहा था कि झींगा  तक का वजन बढ़ाने के लिए इंजेक्शन के द्वारा उसमे सीमेंट का पानी इंजेक्ट किया जा रहा है। दूध तक को कई केमिकल प्रॉसेस के द्वारा तैयार किया जा रहा है। क्या खा रहे हैं हम अन्न या जहर ?
      अब " चरित्र " की बात करें तो इंसानी चरित्र ही इंसान को जानवरो से अलग करता है। परन्तु इंसानी चरित्र के दूषित होने की तो इंतहा ही हो गई है। ऐसा शायद ही कोई दिन हो जब हमें इंसान के चरित्र के गिरने और ज्यादा गिरने की घटना सुनने को ना मिलती हो। हवस ने बाप-बेटी ,भाई-बहन तक के रिश्ते को अपवित्र कर रखा है तो लालच ने बाप-बेटे और भाई-भाई तक को एक दूसरे का क़त्ल करने पर उकसा रखा है।  हर सुबह जब आँख खुलती है तो भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि आज कोई इंसानियत के और ज्यादा गिरने की घटना सुनने को ना मिले। 
      इन सारे प्रदूषण के पीछे किसका हाथ है ? कौन है जो हमारे जल, हमारी हवा ,हमारे भोजन और यह तक कि - हमारे चरित्र तक को प्रदूषित कर रहा है ? अब हमें भी इस पर एक बार विचार करना चाहिए क्योंकि ये सारे प्रदूषण अपनी सारी हदे पार कर चूका है।  हम हर वक़्त सरकार को दोष देते है अपने दिल पर हाथ रख कर खुद से एक सवाल करें क्या इसके लिए सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है ? हां, सरकार भी है क्यूँकि सरकार कोई दूसरी दुनिया से आये लोग नहीं है वो भी हममे से एक इंसान ही है और उनका पूरा कसूर है। पर क्या हमारे चरित्र को भी दूषित करने के लिए भी कोई और ज़िम्मेदार है? हमारी आदत बन चुकी है दोषारोपण की ,हर काम का ज़िम्मेदार  किसी और को बनाने की,हम सिर्फ अपना अधिकार पाना चाहते हैं ,कर्तव्य निभाना भूलते जा रहे हैं। 
   हम इंसानो ने ही ये सारा प्रदूषण फैलाया है अपने-अपने स्वार्थ में लिप्त हो कर, अपनी अपनी जिमेदारियो से मुँह मोड़ कर ,अपना कर्त्तव्य सच्चे दिल से पूरा न करके।  हम इंसान से जानवर ही नहीं बल्कि वहशी दरिंदे बन गए हैं।  अब भी वक़्त है,प्रकृति हमें बार-बार चेतावनी दे रही है, अगर हम अभी भी नहीं सभलें तो अगली पीढ़ी का हाथ हमारे गेरबान पर होगा। वो हमसे सवाल करेंगे कि हमने क्या उनके लिए यही धरोहर छोड़ा है और हम मुँह दिखने के लायक नहीं रहेंगे। मेरा 5 साल का भतीजा जब अपनी माँ को ज्यादा पानी बिखेरते देखा तो बोल पड़ा " सारा पानी आप सब ही खत्मकर दो जब हम बड़े होंगे तो हमारे लिए पानी ही नहीं बचेगा " उस बच्चें के सवाल ने हमें लज्जित किया। अगर अब भी हम अपने दायित्यो का निर्वाह अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार भी कर लेगे तो अगली पीढ़ी को मुँह दिखने लायक रहेंगे। 

सोमवार, 7 जनवरी 2019

" बृद्धाआश्रम "बनाम "सेकेण्ड इनिंग होम "







" बृद्धाआश्रम "ये शब्द सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कितना डरावना है ये शब्द और कितनी डरावनी है इस घर यानि "आश्रम" की कल्पना। अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में दो पल ठहरें और सोचे, आप भी 60 -65 साल के हो चुके हैं ,अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारियों से आज़ाद हो चुके हैं। आप के बच्चों के पास फुर्सत नही है कि वो आप के लिए थोड़ा समय निकले और आप की देखभाल करें।(कृपया ये लेख पूरा पढ़ेगे )

बुधवार, 2 जनवरी 2019

जीवन का अनमोल "अवॉर्ड "

                                                                   " नववर्ष मंगलमय हो "
                                                       " हमारा देश और समज नशामुक्त हो "

                                           नशा जो सुरसा बन हमारी युवा पीढ़ी को निगले जा रहा है...
                                    अपने आस पास नजरे घुमाये देखे...आये दिन कई घर और ज़िंदगियाँ 
                                इस नशे रुपी सुरसा के मुख में समाती जा रही है। मेरे जीवन से जुड़ा मेरा ये 
                                                  संस्मरण नशामुक्ति के खिलाफ एक आवाज़ है........


        सुबह-सुबह अभी उठ के चाय ही पी रही थी कि फोन की घंटी बजी...मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से  चहकते हुए शालू की आवाज़ आई, हैलो माँ --" Merry Christmas" मैंने कहा -" Merry Christmas you too" बेटा , मैं अभी-अभी सो कर उठी हूँ और उठते ही मैंने सोचा सबसे पहले अपने सेंटा को  Wish करूँ--वो चहकते हुए  बोली।  मैंने कहा --बेटा, मैं तो आप से इतनी दूर हूँ और...पिछले साल से मैंने आप को कोई गिफ्ट भी नहीं दिया..फिर मैं आप की सेंटा कैसे हुई? उसने बड़े प्यारी आवाज़ में कहा -" माँ,आप जो हमें गिफ्ट दे चुकी है उससे बड़ा गिफ्ट ना किसी ने दिया है और ना दे सकता है...उससे बड़ा गिफ्ट तो कोई हो ही नहीं सकता "  मैं थोड़ी सोचती हई बोली --ऐसा कौन सा बड़ा  गिफ्ट मैंने दे दिया आप को बच्चे, जो मुझे याद भी नही। रुथे हुए गले से वो बोली -" पापा " आपने हमें हमारे पापा को वापस हमें दिया है माँ। ये सुन मैं निशब्द हो गई। 

      मुझे ऐसा लगा जैसे इस जीवन का सबसे बड़ा अवॉर्ड दे दिया हो मेरी बेटी ने मुझे। ईश्वर ने मुझे जो ये मनुज तन दिया है उससे मैंने कुछ तो ऐसा काम किया जो मेरी बेटी ने मुझे इतना बड़ा सम्मान दिया। सार्थक हो गया मेरा जीवन। मुझे वो सारी परेशानियां ,सारी कठिनाइयाँ ,लोगो की गालियाँ सब याद आने लगी लेकिन वे मुझे तकलीफ नहीं दे रही थी बल्कि एक सुखद एहसास करा रही थी। मैं ईश्वर को धन्यवाद देने लगी -हे प्रभु, अगर आप ने मुझे उस वक़्त वो शक्ति ना दी होती तो शायद मैं उस वक़्त एक दृढ निश्चय के साथ एक कठोर फैसला नहीं ले पाई  होती और आज मेरी शालू उस उपहार से वंचित रह जाती जो उसके जीवन की  सबसे बड़ी ख़ुशी है। 

     सच ,उस दिन पता नहीं मुझमे कहाँ से इतनी हिम्मत आ गई थी जो मैंने सारे परिवार के सामने कह दिया -" गुड्डी वापस अपने घर नहीं जायेगी वो यही रहेगी हमारे साथ दिल्ली में " सुन के सब स्तब्ध रह गये ,माँ पापा घबड़ा गये और भैया गुस्से में उठ कर चले गए। मैंने अपनी बात पुरी की - उसे वहाँ उस नर्क में भेजने से अच्छा है हम तीनो बच्चें समेत गुड्डी को मार डाले...अपनी बहन का यूँ रोज-रोज घुट-घुट कर मरना...मुझसे नहीं देखा जाता। " पापा ने कहा -  लेकिन ये कोई समाधान नहीं है बेटा ,कोई और रास्ता होगा। कोई रास्ता नहीं है पापा...उस नशेड़ी आदमी को जब तक उस के वातावरण से बाहर नहीं निकला जायेगा और सही तरीके से  इलाज नहीं करवाया जायेगा वो ठीक नहीं होंगे...रातों- दिन वो नशे में डूबे रहते हैं...सड़को पर यहाँ -वहाँ गिरे पड़े मिलते हैं...घर आ के कितने तमाशे करते हैं...पापा, आप एक बार इन बच्चों के डरे सहमे चेहरे तो देखें...जब वो चीखते-चिल्लाते हैं तो बच्चें कैसे सहमे से दुबक जाते हैं....पापा, समझने की कोशिश कीजिये वो नेपाल का बॉडर इलाका है जहां ७-८ साल के बच्चें भी नशा करते हैं वहाँ अपने रॉनी का भविष्य क्या होगा....ये दोनों लड़कियाँ  जो अभी मात्र सात साल और दस साल की है उनके जेहन पर कैसा असर होगा...जब वो देखेगी कि रोज रात को उसके पापा इधर - उधर नाले में पड़े होते हैं और उनकी  माँ उन्हें  उठा कर लाती है तो कैसी मानसिकता  बनेगी उनकी...मैं एक सांस में अपनी बात बोले जा रही थी। आप देखें तो पापा, शालू अभी से कितनी डरी  सहमी रहती है....पापा इन बच्चों का भविष्य खराब होते और अपनी बहन को यूँ  तिल - तिल कर मरते मैं नहीं देख सकती....उसके ससुराल वाले तो हाथ पर हाथ धरे तमाशबीन बने है....ऐसे हालत में हमें कुछ न कुछ तो करना होगा न पापा  - ये कहते -कहते मैं रो पड़ी।

    पापा थोड़े फिक्रमंद हुए और बोले -बेटा दामाद जी को कैसे रोकेंगे वो तो यहाँ किसी कीमत पर रूकने को राज़ी नहीं होंगे। मैंने कहा - मेरे पास एक उपाय है...हम किसी बहाने से गुड्डी को यहाँ रोक लेते हैं और उन्हें जाने देते हैं....थोड़े-थोड़े दिन करके गुड्डी को एक महीने रोकेंगे फिर उन से कह देंगे की गुड्डी अब वहाँ नहीं जाएगी आप को ही यहां आना होगा....पापा, मैं जानती हूँ वो मना करेंगे...वो और उन के घरवाले गुस्सा भी होंगे लेकिन....मुझे पक्का यकीन है वो एक न एक  दिन यहाँ जरूर आएंगे क्योकि मैं उनकी सबसे बड़ी कमजोरी जानती हूँ....वो गुड्डी को बहुत प्यार करते उससे दूर वो नहीं रह पाएंगे....हमें उनके इसी कमजोरी का फायदा उठा कर उन्हें उस नर्क से वापस ले कर आना है। पापा बहुत डरे हुए थे बोले -बेटा, कही  दमाद जी और उनके घर वाले गुड्डी को हमेशा के लिए छोड़ दिए उसे तलाक दे दिये तो मेरी बच्ची का क्या होगा। मैंने पापा को समझाया -पापा, पहली बात तो ये कि वो लोग ऐसा कुछ नहीं करेंगे और अगर तलाक दे भी देते हैं तो क्या हमारी बहन इस काबिल है कि वो अपने बच्चों को पाल सकती है....एक ऐसा इंसान जिसे अपने परिवार से ज्यादा नशा प्यारा है और उसका परिवार जो तमाशबीन बना एक औरत और तीन बच्चों को तिल-तिल  कर मरते हुए देख रहा है....वैसे पति और वैसे ससुराल से अच्छा है वो अकेली जिये। मैंने अपनी बातों पर जोर देते हुए कहा -पापा, आप मुझ पर यकीन करें...भरोसा रखें  मैं अपनी बहन का घर तोड़ नहीं रही बल्कि उसके टूटे हुए घर को बसाने की बात कर रही हूँ...मेरे पास पुख्ता प्लान है बस....आप मेरा साथ दे।
     मेरे समझने पर पापा माँ मान गए।  मैंने गुड्डी को समझाया कि -मेरी बहन  एक बात याद रखना...एक बार जो हम कदम उठा लगे तो पीछे मूड कर नहीं देखना है फिर चाहे जीत हो या हार वापस नहीं लौटेंगे...ये कसम खाओ .....मैं तुम्हारा घर बसाऊंगी यकीन रखना बहन मुझ पे। मेरी बहन ने मुझ पर भरोसा किया और मैंने भगवान पर और हम चल पड़े एक इंसान को नशामुक्त करा उसके पत्नी और बच्चों के पास वापस लेकर आने के अभियान पर।

      मेरे पति ने और छोटे भाई ने भरपूर साथ दिया। मैं अपनी बहन और बच्चों को अपने घर ले के आ गई। पापा ने कहा था कि मैं उन्हें मायके में ही रहने दूँ, पर मैंने पापा को समझाया कि-ये संघर्ष बहुत बड़ा है पता नहीं कितने दिन लगे...मैं अपनी बहन और बच्चों को भाभियों पर बोझ नहीं बनने दूंगी...आप सारा खर्च उठालेगे फिर भी अगर भाभियो ने बच्चों को किसी भी चीज़ के लिए रोका-टोका तो गुड्डी क्या मैं नहीं सह पाऊँगी....ये बच्चें मेरे भी है माँ कहते  हैं मुझे....उनका किसी चीज़ के लिए तरसना मैं नहीं सह पाऊँगी...मैं कोई धना सेठ नहीं लेकिन फिर भी मेरे पास जो कुछ होगा हम प्यार से मिल बाँट के खा लगे। फिर जैसा हमने सोचा था वही हुआ जैसे ही हमने दमाद जी से कहा -गुड्डी नहीं  जाएगी आपको दिल्ली आना  होगा ,उसी पल युद्ध का शंखनाद हो गया,सारी प्रतिक्रियाऐ वैसे ही हुए जैसे हमने सोच रखा था।
      पहले तो उसके ससुराल वालो  ने  पापा को उल्टा सीधा सुनाया फिर तलाक की धमकी भी देने लगे। मैंने पापा को समझाया था कि- आप उन लोगो से कोई बहस नहीं करेंगे बस, इतना ही कहेगे कि -आप सब को जो उचित लगे करे लेकिन मेरी बेटी वापस नहीं जाएगी....आप अपने भाई को यह भेजे हम उनका इलाज करवाएंगे....उनका उस माहौल से निकलना जरुरी है....वहाँ रहते हुए वो कभी नशामुक्त नहीं हो पायेगे ,पापा ने वैसा ही किया। मेरे बहनोई और उनके घरवालों को समझ आ गया था कि ये सब किया-धरा मेरा है और मेरी बहन मेरे घर में है। वो जब भी बहन को फोन करते तो मुझे गन्दी-गन्दी गालियाँ देते ,यहाँ  तक कि शालू जो मेरी बहन की बड़ी बेटी है और मात्र १० साल की थी उसे भी फोन कर मेरे लिए गन्दी गालियाँ  और बदुआएँ देते। फ़ोन रख शालू मुझे पकड़कर रोने लगती और बोलती - माँ वो लोग और पापा आप को बहुत कोसते हैं....गालियाँ देते हैं...मुझे बिल्कुल अच्छा  नहीं लगता। तो मैं उसे समझती कि -कोई बात नहीं बच्चें ,उनकी गालियाँ मेरे लिए फूल बन जाएगी जिस दिन आप  के पापा अच्छे हो जायेगे। 
      बहन को मेरे पास रहते हुए जब ३-४ महीने हो गए और उधर बहनोई ने पी पी कर अपना बुरा हाल कर लिया। मैंने बहन को समझाया था कि -  जब भी नशे के हालत में वो फोन करे तुम एक ही बात बोलना " आजाये मेरे पास "आख़िरकार मेरे बहनोई टूटने लगे और एक दिन उन्होंने मुझे गन्दी गाली देते हुए बोला  कि -" मैं आऊँगा लेकिन उसके घर में नहीं आऊँगा " मैं बस इसी पल के इंतज़ार में थी मैंने १० दिन के अंदर ही बहन को एक अलग घर लेके अपने घर से सारे सामन की व्यवस्था कर उसे बसा दिया ,साथ के साथ २५००० के एक छोटी सी रकम से उसके लिये एक छोटी सी स्टेशनरी की दुकान भी कर दी। जैसे ही  मेरी बहन ने  उन्हें बताया कि  अब वो अलग घर में है तो मेरे बहनोई अपने घर वालो की मर्ज़ी के खिलाफ अपने बच्चो के पास आ गए। लेकिन समस्या ये थी कि यहाँ आने के बाद भी वो दिन रात नशे में धुत ही रहते थे। हमने लाख समझाया लेकिन कोई असर ना होता। तब हमने उन्हें नशामुक्ति केंद्र में भेजवा दिया जहां वो एक साल रहे,फिर उनकी कांसलिग हुई तब जाकर धीरे धीरे उनका नशा छूटा 
      इन सारे घटनाक्रम में ३-४ साल लग गए क्योकि मेरे बहनोई दिल्ली आते तो जरूर मगर १ - २ महीने से ज्यादा नहीं रुकते थे। बच्चो की याद आती तो आजाते और फिर जब घर वालो का दबाव होता तो वापस चले जाते। तब तक बहन के घर का सारा खर्च बच्चो की पढाई- लिखाई का खर्च मैं और पापा उठाते। जब हमने बहनोई को नशामुक्ति केंद्र में डाला तो उनके घरवालों को थोड़ा बहुत समझ आने लगा कि हमलोग उनका घर नहीं तोड़ रहे है बल्कि उनके भाई की जान बचा रहे है ,वो ये समझे की उनके भाई को उस माहौल से दूर करना कितना जरुरी था फिर वो लोग नॉर्मल हो गए और आर्धिक रूप से मदद भी करने लगे। आज मेरे बहनोई पूर्णतः स्वस्थ हो चुके है।  वो इस व्यसन के शिकार शुरू से नहीं थे शादी के १० साल बाद गलत संगत की वजह से उन्हें नशे की लत लग गई थी। पैसे की कमी तो उनके पास थी नहीं बस कर्म ही खोटे थे सो मेरे समझने पर बच्चो के भविष्य के लिए वो अपना घर बना दिल्ली में ही बस गए। २५००० की छोटी रकम से खोली गई दुकान आज बड़ी हो गई है।
       मेरे बहनोई मुझे अपनी बड़ी बहन मानते थे और है भी लेकिन नशे का गुलाम व्यक्ति जब खुद का नहीं होता तो मेरा क्या होता इसीलिए वो जब बुरे हाल में थे तो मुझे अपना दुश्मन समझ भला बुरा कहते थे ये बात मैं अच्छे से समझती थी इसलिए उस वक़्त के उनके किसी भी बातो को मैंने महत्व नहीं दिया था। आज मेरे वही बहनोई मेरे एक आवाज़ पर आधी रात को भी आ जायेगे। शालू जिसका बालमन एक एक घटनाक्रम का साक्षी था और जो इन सारी बातो को दिल से लगाई हुई थी और कहती थी कि -" माँ ना होती तो हमारा क्या होता "(वो सारे बच्चे मुझे माँ ही कहते है ) और आज क्रिसमस के दिन वो मुझे " सेंटा " कह अपनी कृत्यज्ञता जताई है। जब मैं इन सारे जंग से गुजर रही थी तो मैं ये सबकुछ अपना फ़र्ज़ समझ कर कर रही थी क्योकि मैं अपनी बहन और  उसके बच्चो को यूँ घुट घुट कर मरते नहीं देख पा  रही थी  बस इसीलिए मैंने अपने जीवन के ५ साल उसके साथ संघर्ष मे गुजरे। मेरे अंदर ये डर भी था कि मैंने जैसा सोचा है ऐसा नहीं हुआ और गुड्डी को उनलोगो ने छोड़ दिया या बहनोई को कुछ  हो गया तो क्या होगा,सारा इलज़ाम मेरे सर होगा सब मुझे ही दोषी कहेगे।  लेकिन दिल में ये विश्वास था कि मैं इन बच्चो को खुशियां देने निकली हूँ तो मेरा भगवान मेरे साथ है और मैं जरूर कामयाब रहूँगी।गुड्डी को बसा कर मैं खुश थी लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा बच्चा मेरे किये का इतना बड़ा अवार्ड देगा मुझे ,सेंटा कह कर सम्मानित करेगा। आज मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानती हूँ कि-" मैं  शालू की माँ हूँ "
      मैं यहां अपनी और अपनी बहन की जीवनगाथा नहीं सुना रही बल्कि इस आपबीती के माध्यम से ये बताना चाहती हूँ कि -आज कई औरतो का घर इस नशे की आग में झुलस रहा है और उसका साथ उसके ही परिवार वाले नहीं देते  बल्कि दोष भी उस औरत को ही दिया जाता है कि -" तुम्ही में कोई कमी होगी जो वो इस नशे की राह पर चल निकला है "मेरी बहन के साथ भी ऐसा ही होता था। ( हां मैं मानती हूँ कि कभी कभी औरत भी कसूरवार होती है ) परिवार के सदस्य बस एक दूसरे पर इलज़ाम लगते हुए तमाशबीन बने रहते है और एक इंसान मौत के मुह में चला जाता है और एक परिवार बर्बाद।  ऐसे वक़्त में परिवार के हर सदस्य को मिल कर इस समस्या का समाधान ढूढ़ना चाहिए और भटके हुये राही को राह पर ले आना चाहिए। .इसके लिए साम -दाम -दंड -भेद  सारी तरकीबे लगा उसे नशामुक्त करवा एक परिवार को जीते जी मरने से बचाना चाहिए।इन  दिनों  मेरी एक दोस्त का भाई जो मात्र ३५ साल का है ,शराब पी - पीकर उसका  लिवर ख़त्म हो  चूका है औरआज वो  ज़िंदगी और मौत से जूझ रहा है, तीन छोटे छोटे बच्चे है ,क्या करेगी वो औरत ,कैसे पालेगी बच्चो को,तरस आता है ऐसे आदमियों पर।ऐसा एक घर का किस्सा नहीं है आज कल तो ये व्यसन मुँह फाड़े खड़ा है। 
     मैं अक्सर सोचती हूँ कि -नशे में  ऐसी क्या बात है जो लोग इसके मोहपाश में गिरफ्त होकर इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते है ,घर -परिवार ,सुख -चैन ,वर्तमान -भविष्य यहां तक कि अपने स्वस्थ और प्राणो तक की बाज़ी लगा देते है। कोई क्यों हो जाता है यकायक नशे का दीवाना , गुलाम ,कठपुतली बन रह जाता है वो नशे का। क्यों हो जाता है वो पराधीन ,विवश और सम्मोहित। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है आंतरिक ,मनोवैज्ञानिक या भौतिक। क्या वो यथार्थ से कन्नी काटने के लिए पीता है या यथार्थ से भागने के लिए ,पलायन के लिए या आत्मविश्वाश जगाने के लिए।  वास्तव में अलग अलग लोग अलग अलग कारणों  से पीते  है जबकि समान्य कारणों से इसके गुलामो जाते है। 
     जब हम सोचते हैकि -लोग पीते क्यों है ? तो समान्यतः इन बातो पर ध्यान जाता है कुछ लोग तो बेकारी में पीते है तो कुछ काम की अधिकता के कारण पीते है ,कुछ लोग सोहबत में पीते तो कुछ अपनी ऊब मिटने के लिए ,कभी गम बहाना बनता है पीने का तो कभी ख़ुशी ,कोई बंधन के आकर्षण में पीता है तो कोई बंधनमुक्त होने के लिए ,कोई  गरीबी से परेशान होकर  पीता है तो किसी के लिए सुख सम्पनता के अधिकता पीने का कारण  बनती है। पीने का कारण कुछ  भी हो पर अंजाम एक सा होता है " बर्बादी और सिर्फ बर्बादी "  ये सब जानते है ,सब समझते है फिर भी जो एक बार इस मदिरा  को अपना  लिया तो उससे छुटकारा पाना मुश्किल हो  जाता है। 
     लोग कहते है कि नशा महबूबा है साथ लेके जाती है लेकिन मैं मानती हूँ कि -वो महबूबा नहीं बल्कि एक रखैल है। क्योकि कोई महबूबा अपने महबूब को और उसके घरौदे को सलामत देखना चाहती है,उसका बुरा नहीं चाहती वो तो एक रखैल या बेश्या का काम है जो पहले अपना गुलाम बनती है फिर बर्बाद कर देती है। तो ऐसी परिस्थिति में अगर सारा परिवार एक होकर इस नशे रुपी राक्षसनी के खिलाफ खड़े हो जाये तो वो हार मानेगी ही जरूर। ये मुहीम सिर्फ एक वयक्ति बिशेष के लिए नहीं बल्कि  पुरे समाज के लिए जरुरी है। वैसे कई  जगहो पर औरतो ने इस नशे  खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है परन्तु इसमें परिवार का सहयोग मिलना बहुत जरुरी है। तभी हमे पूर्णतः सफलता मिलेगी। जैसे हमारे परिवार ने हमारी शालू को उसके पापा के रूप मैं उसकी खुशियां लौटाई। 


                                                                   
                                                               " मेरी बेटी शालू को समर्पित "

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

" परिवर्तन " या पीढ़ियों में अन्तर

    उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ मैं ,बचपन और जवानी के सारे खूबसूरत  लम्हों को गुजार कर प्रौढ़ता के सीढ़ी पर कदम रख चुकी हूँ। तीन पीढ़ियों को देख चुकी हूँ या यूँ कहें कि उनके साथ जी चुकी हूँ। परिवर्तन तो प्रक्रति का नियम है इसलिए घर-परिवार, संस्कार और समाज में भी निरंतर बदलाव होता रहा है और होता रहेंगा । शायद इसीलिए हर पीढ़ी ने दूसरे पीढ़ी को ये जुमला जरूर कहा हैं कि - " भाई हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था ".लेकिन हमारी पीढ़ी ने वक़्त को जितनी तेज़ी से बदलते देखा है उतना शायद ही किसी और पीढ़ी ने देखा हो। और पढ़िये

सोमवार, 5 नवंबर 2018

टूटते - बिखरते रिश्ते

   
        आज कल के दौर में टूटते-बिखरते रिश्तों को देख दिल बहुत व्यथित हो जाता है और सोचने पर मज़बूर हो जाता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? आखिर क्या थी पहले के रिश्तो की खुबियां और क्या है आज के टूटते -बिखरते रिश्तों की वज़ह ? आज के इस व्यवसायिकता के दौड में रिश्ते- नातो को भी लाभ हानि के तराज़ू में ही तोला जाने लगा है। ज़िंदगी छोटी होती जा रही है और ख्वाहिशें बड़ी होती जा रही है। मैं ये नही कहूँगी कि मैं आप को रिश्तों को संभालना सिखाऊंगी,उसको निभाने की कोई टिप्स बताऊँगी। मैं ऐसा बिलकुल नहीं करुँगी क्यूँकि "रिश्ते" समझाने का बिषय बस्तु नहीं है। रिश्तों को निभाने के लिए समझ से ज्यादा  भावनाओं की जरुरत होती है। रिश्तों के प्रति आप का खूबसूरत एहसास, आप की भावनायें ही आप को रिश्ते निभाना सिखाता है और आज के दौर में इंसान भावनाहीन ही तो होता जा रहा है। मैं तो बस रिश्तों के बिखरने की वजह ढूंढना चाहती हूँ .और पढ़िये 



    एक शिशू जब माँ के गर्भ में पलता है तो वो सिर्फ माँ के शरीर के रक्तनलिकाओं और कोशिकाओं से ही नहीं जुड़ा होता, वो तो अपनी माँ की भावनाओ से, उसके एहसासों से भी जुड़ा होता है। जिस तरह माँ के शरीर के रोग-आरोग्य का शिशु के शरीर पर असर होता है उसी प्रकार माँ के भावनाओं का असर भी गर्भस्थ शिशु की मानसिकता पर भी होता है। यही नहीं माँ जिस वातावरण में रहती है उस वातावरण का भी पूरा असर बच्चे की मानसिकता पर होता है। ये एक वैज्ञानिक सत्य है जिसे लगभग सब जानते हैं, समझते हैं, मानते भी है पर अपनाते नहीं है। मेरी समझ से गलती की शुरुआत यही से होती है। 



     एक नन्हे से बीज को एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनाने के लिए एक अच्छी ज़मीन, अच्छी आबो-हवा और अच्छा खाद-पानी देना होता है तब वो एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनता है। तो जब एक पौधे के लिए हमें इतना सब कुछ करना होता है तो फिर क्या मानव के भ्रूण को एक स्वस्थ शिशु और एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमें एक स्वस्थ शरीर जहाँ वो भ्रूण पले, जब वो भ्रूण गर्भ में एक शिशु का आकर ले रहा हो तो उससे एक शुद्ध भावना के साथ बंधे रखने की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए ? जब वो शिशु जन्म लेता है तो क्या हमें उसे एक खुशियों से भरा हुआ घरेलू वातावरण नहीं देना चाहिए ? अगर हम ये सब उसे नहीं दे सकते तो फिर हम उस शिशु से कैसे उम्मीद रख सकते हैं कि वो एक अच्छा इंसान बनेगा ? जब वो एक अच्छा इंसान नहीं बनेगा तो भावनाओं  को क्या समझेगा और जब भावनायें ही नहीं समझेगा तो रिश्तों को क्या निभाएगा ?
     पुराने ज़माने में एक औरत जब गर्भवती होती थीं तो उसके खान-पान,रहन -सहन पर पूरा ध्यान दिया जाता था, उसे अधाय्तम से भी जोड़े रखा जाता था, बच्चा जब जन्म लेता था तो उसे प्यार और सहोद्र से भरा वातावरण मिलता था।बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-मामा, बुआ-मौसी जैसे रिश्तों से घिरा होता था। ये सारे रिश्ते उसे अलग-अलग भावनाओं से जोड़ते और अलग-अलग तरीको से उसे ज्ञान भी देते थे। 
    दादा-दादी से वे प्यार दुलार पाते थे, और अपनी फ़रमाइशे भी मनवाते थे और बड़ो का आदर-सम्मान करना भी सीखते थे।  माँ-बाप से एक सुरक्षित देख-भाल पाते थे और अनुशासन सीखते थे। चाचा-मामा,बुआ- मौसी  उन्हें खेल-खिलौने देते थे और साझेदारी सिखाते थे। इस तरह ये सारे रिश्ते मिलकर उन्हें पालते और एक अच्छा इंसान बनाते थे। इस तरह शिशु को बचपन से ही अपने सारे रिश्तों का भान हो जाता था। उन्हें दादा-दादी का आदर करना भी आता था और लाड लगा कर अपनी फ़रमाइसे भी पूरी करवाना आता था। उन्हें ये एहसास होता था कि माँ मेरे लिए कितना दर्द सह कर रात-रात भर जाग कर मेरी देखभाल करती है, बाप अपनी सारी  इच्छाओं को अधूरा छोड़ मेरी हर ख़ुशी को पूरा करता है। ये एहसास ही उनके दिल में इन रिश्तों के प्रति वो भावनायें देता था जिनसे उसे रिश्तों को निभाने की प्रेरणा मिलती थी। उसे इन रिश्तों के प्रति अधिकार और कर्तव्य का भी बोध हो जाता था। वो अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते हुए देखते थे तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की सेवा करना अपना कर्तव्य लगता था जिसे उस वक़्त पुण्य का काम समझा जाता था। 
      अब आते हैं आधुनिकता के युग में, आधुनिक युग में अगर सबसे ज्यादा परिवर्तन हुआ तो नारियो में हुआ।  "नारी" जो हमेशा से एक सुसंस्कृत परिवार और एक सभ्य समाज की नीव रही है। नारियो ने इस युग में अपने आप को सुशिक्षित और स्वालम्बी बनाया है जो उनकी सब से बड़ी उपलब्थी है और प्रशंसा के काबिल भी है। नारियो ने अपना सम्मान तो पा लिया लेकिन अपनी सबसे बड़ी और कीमती धरोहर " संस्कार" को खोती चली गई। नारियो ने घर की दहलीज़ पार कर बाहर की दुनिया में अपने आप को स्थापित तो कर लिया परन्तु घर खाली करती चली गई। घर बाहर दोनों की दोहरी भूमिका निभाते-निभाते वो एक भरे पुरे सयुक्त परिवार को खो बैठी। 



      उनकी अत्यधिक आज़ादी की चाह ने धीरे-धीरे प्यार और रिश्तों के हर बंधन को खोल दिया।  इसका असर आने वाली पीढ़ियों पर कैसे पड़ा अब इस पर विचार करते हैं। आज़ादी की चाह ने सबसे पहले सयुक्त परिवार को एकल परिवार का रूप दिया। क्योंकि जहाँ सास-ससुर रहेंगे वहाँ थोड़ा तो बंधन और अनुशासन में रहना ही पड़ेगा। देवर-जेठ जैसे रिश्ते होंगे तो थोड़ा कर्तव्य भी निभाना ही पड़ेगा।  नए युग की नारियों ने अपने इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनकी सिर्फ एक लालसा "और आज़ादी" की चाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी और रिश्तेदारी निभाने नहीं दिया और परिवार बिखरते चले गए।  



     एकल परिवार में माँ के शरीर की सही देख-भाल न होने के कारण भूण को एक स्वस्थ शिशु बन कर विकशित होने के लिए एक निरोगी काया न मिली और अध्यत्मिकता का वातावरण तो आज के समाज से बिलुपत ही हो गया है। इन कारणों से बच्चे को विकसित होने के लिएना स्वस्थ शरीर मिला ना अच्छी मानसिकता। दादा-दादी का सांनिध्य ना मिलने के कारण बच्चों ने आदर सम्मान करना नहीं सीखा, बच्चों की फ़रमाइशे बेहिसाब होती है जो पहले के रिश्ते मिलकर पूरी करते थे जो अकेले माँ-बाप का पूरा करना मुश्किल था तो बच्चें  जिद्दी हो गए, बच्चों के जिद्दी होने का एक कारण और भी था माँ-बाप अपने बच्चों के हर रिश्ते की कमी को स्वयं पूरा करना चाहते है और पूरा करते भी है जिसका बुरा प्रभाव ये हुआ की बच्चें "ना" सुनना ही नहीं चाहते हैं और जिद्दी होते चले जा रहे हैं। परिवार में चाचा-मामा आदि रिश्ते नहीं होने के कारण बच्चों ने साझेदारी भी नहीं सीखा।  एक बच्चे का चलन  बन जाने के कारण अपने से छोटो को प्यार करना भी उन्हें नहीं आया, बच्चों ने अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते भी नहीं देखा तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की परवाह नहीं रही।  हम रिश्तों के प्रति उनके दिल में कोई भावना ही नहीं दे पाए तो फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं  कि वो कोई रिश्ते निभायेगे ? उनके लिए हर रिश्ता " give and take " बन कर रह गया। 
     ये तो थी आधुनिक युग की बातें,अब तो इंटरनेट युग है और इस ज़माने की लड़कियाँ तो ये शर्त रखकर ही शादी करती है कि - "हमारे साथ आप के माता-पिता नहीं रहेंगे" मैंने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि - "एक औरत ही सुसंस्क़ृत परिवार और सभ्य समाज की नीव होती है". पुरुष की भागीदारी इसमें द्वितीय किरदार के रूप में होती है। औरत में ही कर्तव्यपराण्यता, प्यार, सेवा, संस्कार, और त्याग जैसी भावनाये होती है। भारत का इतिहास ऐसी नारियो की गाथाओ से भरा पड़ा है. 

     मैं ये नहीं कहती कि हम नारियाँ अपना उत्थान ना करें, सदियों से हमारे स्वाभिमान को जो कुचला गया है और आज भी कुचला जा रहा है, उस स्वाभिमान को पूर्णतः हासिल करना हमारा पहला कर्तव्य है परन्तु, हम नारियों को अपने उत्थान और सम्मान के साथ-साथ अपने संस्कार को भी संजोये रखना होगा।  वो संस्कार जिसके कारण भारतवर्ष में नदियों को पूजा जाता है, वो संस्कार जिसके वजह से भारत में ईंट और गारे से बने मकान को "घर" कहा जाता है, वो संस्कार जिसमे जन्म देने वाले माँ-बाप को ईश्वर तुल्य समझा जाता है, इन संस्कारों को संभालना भी हम नारियों का ही कर्तव्य है . वरना एक-एक करके हमारे जीवन से हर रिश्ता और उसके प्यार की मिठास खोती चली जाएगी और इसके कसुरवार सिर्फ हम होंगे आनेवाली पीढ़ी नहीं.

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...