मैं तो सौभाग्यशैली रही हूँ कि -मैंने अपने परिवार का वो दौर भी देखा हैं..... जहां पर तीन दादा और उनके तेरह बच्चे [यानि हमारे चाचा और बुआ ] सब प्रेम और भाईचारे के ऐसे डोर से बंधे थे कि -मुझे दसवीं में जाने के बाद भी ये ज्ञात नहीं हुआ था कि - कौन मेरे सगे दादा -दादी ,बुआ -चाचा हैं और कौन चचेरे । हम सिर्फ उन्हें बड़े दादा ,छोटे दादा ,मंझिले दादा के नाम से ही जानते थे, इतना प्यार और अपनत्व था और आज.... सब कुछ बिखर चूका हैं। हमारे परिवार का सौभाग्य हैं या पुराने संस्कार जो आज कम से कम हमारे सगे भाई तो एक साथ हैं......और घरों में तो ये भी देखने को नहीं मिलता।
आँखें बंद करके एक पल को सोचती हूँ तो लगता हैं ये तो कल ही की बात हैं.... जहां परिवार तो छोड़े... आस -पड़ोस में भी जाति और धर्म से ऊपर का भाईचारा था। हमारे कलोनी में हिन्दू -मुस्लिम और ईसाई तीनो धर्म के लोग रहते थे और..... वहाँ भी हमें सबका घर अपना ही घर सा लगता था। हर त्यौहार मिल जुल कर मनाना ,कोई भी दुःख या बिपदा आए सब का एक जुट हो जाना..... ये सब अब एक सपना सा लगता हैं।
आपको अपनी एक आपबीती सुनती हूँ -हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम इंजीनियर का परिवार रहता था ,उन को एक बेटा और एक बेटी थी और हम दो भाई और दो बहन..... हमारे दोनों परिवार में बहुत ही ज्यादा स्नेह था ,हम छ हर वक़्त एक साथ रहते थे ......हमें कभी एहसास ही नहीं होता था कि -हम दो धर्म के लोग हैं। कुछ दिनों बाद उनका ट्रांस्फर दूसरे शहर में हो गया। लेकिन हमारी दोस्ती टूटी नहीं....हमारा मिलना जुलना होता रहा। [ये दोस्ती आज तक कायम हैं ,उनकी बेटी मेरी सबसे प्रिय सहेली आज भी हैं ]
92 की बात हैं जब बाबरी मस्जिद कांड हुआ था देश में चारो तरह दंगे हो रहे थे। मेरी सहेली का भाई [ जो मेरा भी प्रिय भाई हैं मैं उसे राखी भी बांधती हूँ ] जो उस वक़्त 17 -18 साल का था ,उसे किसी जरुरी काम से मेरे शहर आना पड़ा। दिन में वो अपने सारे काम निपटा कर दोस्तों से मिलजुल कर जब वो मेरे घर आने को हुआ तो.... उसका एक खास दोस्त जो मुस्लिम था ....और उसे बहुत मानता था उसने कहा -" शहीद तुम रात बिताने वहाँ जाओगे ...वो लोग तो हिन्दू हैं ...तुम्हे डर नहीं लग रहा हैं ...मेरी मानो तो तुम मेरे पास ही रूक जाओं " .शहीद ने जबाब दिया -" वो हिन्दू या मुस्लिम नहीं हैं वो मेरे चाचा -चाची का घर हैं जहां मेरे भाई -बहन मेरा इंतज़ार कर रहे हैं ....उनसे सुरक्षित जगह मेरे लिए कोई हो ही नहीं सकता " ये कह कर वो मेरे घर रुकने आ गया। घर आने पर वो मेरी माँ से लिपटकर बोला -"देखो ना चाची, सब कैसी बातें कर रहे थे... मुझे आपके पास आने से रोक रहे थे.... दंगे हुए हैं रश्ते तो नहीं बदले "
ये था उस दौर का भाईचारा और आज भाई ही भाई का दुश्मन बना हुआ हैं। ऐसा ना हो कि -प्यार ,बंधुत्व ,भाईचारा जैसे शब्द ही डिक्शनरी से लुप्त हो जाए। इस शब्द और इसके आस्तित्व को संभालना सहेजना और आने वाली अगली पीढ़ी तक इसे पहुंचना..... अब ये हमारी पीढ़ी का ही दायित्व हैं। हमारी लापरवाहियों के वजह से ये लुप्त हुआ हैं तो खामियाजा भी हम ही भुगत रहे हैं और इसका भुगतान भी हम ही करेंगे।
वैसे इस बार के दिल्ली के दंगे - फसादों ने ये तो साबित कर दिया कि -हमारे नववुवको में विवेक जागृत हो चूका हैं और वो अब धर्म और जाति के नाम पर अपना आपा नहीं खोने वाले। " वसुधैव कुटुंबकम "वाले संस्कार के बीज अब भी हमारे भीतर कही न कही बचा हैं.... जरुरत हैं तो सिर्फ अनुकूल आबो -हवा देकर उन्हें सींचने की....