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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

" मरुस्थल सा जीवन "


    शाम का अँधेरा घिरने लगा हैं... और मेरा सफर... अभी भी जारी हैं ....नगें पैरों में मरुस्थल के बारीक़ रेत.. कभी चुभ रहें हैं ..कभी गुदगुदा रहें हैं ...अँधेरा गहरा और गहरा होता जा रहा हैं ...कभी कभी अनजाने  भय से तन -बदन में एक डर की सिहरन सी दौड़ जा रही हैं पर... सफर को जारी रखना है और वो जारी हैं.... तभी चाँद की मद्धम -मद्धम  रौशनी फैलने लगी .....थोड़ा सुकून मिला कि- " अब सफर कुछ तो आसान होगा।"  मगर,  ये क्या ये तो शायद चौथी का चाँद था ...जो चार घड़ी रौशनी दिखाकर गायब ....मगर , मेरा सफर जारी रहा।  अकेले सुनसान रास्ते पर... जीवन  के मरुस्थल में.... जहाँ दूर दूर तक सिर्फ अँधेरा हैं और... रास्ते में रेत ही रेत...  तभी,   दूर कही से शहनाई की गूंज सुनाई दी ...ढोलक की धाप ...और लोक गीतों की मधुर स्वर लहरी बिखरने लगी .....थोड़ा ढाढ़स बंधा ..." खुशियाँ  " शायद मेरे आस -पास ही हैं ...ज्यादा दूर नहीं ...उस ख़ुशी की चाह में क़दमों की रफ्तार तेज हो गई ...मैं उन खुशियों को करीब से देखना चाहती थी.... महसूस करना चाहती थी ....उसमे खोकर अब तक के दर्द को भूल जाना चाहती थी....जैसे- जैसे उसके करीब पहुँच रही थी ... शहनाई की  धुन अंतर्मन को शीतल करने  लगी।  मगर, ...जब तक मैं ख़ुशी  के बीच  पहुँचकर उसे आत्मसात कर पाती..... तब तक .... शायद खुशियों का वक़्त ख़त्म हो चूका था ....वो मुझसे दूर, बहुत दूर जा चुकी थी। मैंने धैर्य नहीं छोड़ा ....रात के अँधेरे में चलती रही ...बस चलती रही....
    चलते- चलते,  आभास हुआ कि-  हल्की रौशनी फैलनी शुरू हो गई हैं.... यकीनन,  सूर्योदय हो रहा था ....हृदय में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई .....आख़िरकार,  ये अंतहीन सी रात ढल ही गई। सुबह की सुनहरी किरणें.... मरुस्थल की रेत पर...  सतरंगी सपने बिखेरने लगी ....मैं उन सतरंगी सपनों को समेटने लगी.... मैं उन  सपनों से अपनी खुशियों का दामन भर लेना चाहती थी ....उसे खुद से ऐसे मिला लेना चाहती थी कि -वो " खुशियाँ " अब कभी मुझसे जुदा ना हो। मगर ये क्या , मेरे पाँव तो जलने लगे हैं ...वो सपने जिन्हे... मैंने अपनी ख़ुशी समझ ..अपने दामन  में भर लिया था ....वो तो मेरा ही वजूद जलाने लगी .....मैं उन " खुशियों " को दामन से झटक... भागने लगी .....मैं भाग जाना चाहती थी ....दूर, बहुत दूर ....मगर,  मरुस्थल के रेत में...मैं  भागने में असमर्थ हो रही हूँ .....तपती रेत,  मेरे पैरों को झुलसा रही हैं .....हर अंग से अग्नि की ज्वाला सी फूटने लगी हैं ....दिन का सूरज चढ़ता जा रहा हैं .....और मेरी पीड़ा भी बढ़ती जा रही हैं। एक पल को दिल ने कहा- "  इससे  तो अँधेरी रात ही भली थी " माना कि - कोई सपने नहीं थे... कोई खुशियाँ नहीं थी ....मगर,  ये जलन और पीड़ा भी तो नहीं थी। थकान और पीड़ा से बेहाल.... मैं कोई छाँव ढूँढने लगी .....जहाँ थोड़ी देर सुकून पा सकूँ।  पर , इस मरुस्थल में छाँव कहाँ ?  मैं बेचैन होने लगी ...तो क्या ऐसे ही तड़प -तड़पकर मैं दम तोड़ दूँगी ? क्या यही जीवन हैं ? आखिर , किस चीज की चाह में मैं भटक रही हूँ ? ये कैसी प्यास हैं मेरी जो बुझती नहीं ?
   
    तभी मेरी नजर मरुस्थल में उगे छोटे- छोटे नागफनी के पौधों पर पड़ी.....मैं उसके हरे भरे रूप और उसके दामन में खिले सुंदर से फूल को अपलक निहारती रही। नागफनी ने पूछा -" क्या देख रही हो बहन ? "  तुम कैसे जीवित हो इस मरुस्थल में ....क्या तुम्हे सूरज जलाता नहीं ...तुम्हे कोई  प्यास तड़पाती नहीं.....क्या तुम्हारे हृदय में हुक नहीं उठती कि -तुम्हे कोई प्यार नहीं करता....वैसे भी तुम्हे कोई क्यों चाहे ....कोई तुम्हारे पास आकर दो घड़ी बैठ भी तो नहीं सकता ....छाँव तो तुमसे मिलेगा नहीं... मगर कांटे तुम जरूर चुभा दोगी .....जब दुनिया को तुम्हारी जरूरत ही नहीं फिर.... तुम क्यों जिन्दा हो... इस मरुस्थल में ? मैंने सवालों की झड़ी लगा दी। 
    नागफनी तो चुप रही... मगर,  उसके नन्हे से फूल ने मुस्कुराते हुए कहा - " बहन ,परमात्मा ने हमें जन्म दिया हैं तो ...कुछ तो हमारा महत्व होगा ही न "  मुझमे और तुममें फर्क यही हैं कि - मुझे परमात्मा ने जो दिया ....जैसा भी दिया.... हम खुश हैं ...मुस्कुरा रहें हैं.... संतुष्ट हैं... अपनी जड़ों से जुड़ें खुद को जिन्दा रखने में सक्षम हैं.... हमें उस नियंता से कोई शिकायत नहीं.... खुद के लिए हम उनके आगे कोई सवाल लेकर नहीं खड़े होते ....मगर तुम, जो मिला उससे संतुष्ट नहीं... और ज्यादा की चाह में भटक रही हो।"  अपने नन्हे पुष्प की बातें सुन नागफनी मुस्कुराती हुई बोली -  बहन,  ख़ुशी अंतरात्मा में होती हैं उसे ढूँढने बाहर भटकोगी तो -" ख़ुशी की चाह में ढेरों गम साथ हो लगे " तुम्हारा जीवन मरुस्थल हैं ....और हमारा मरुस्थल में जीवन .....

     मैं , हतप्रस्थ सी उसकी बाते सुनती रही..... हृदय में कई सवाल उमड़ने लगे...." आखिर क्युँ भटकते हैं लोग " .... क्युँ भटक रही हूँ मैं ....  थक गई हूँ ....मरुस्थल से जीवन में ख़ुशी ,अपनत्व, प्यार की तलाश करते- करते..... मगर,  हाथ रीते ही रहें....  मेरे हृदय में नागफनी के लिए स्नेह उपजा ...उसके कोमल फूल को मैं सहलाने लगी ,उफ्फ ... ये क्या किया तुमने-  मैं झल्लाई ,उसके काँटे मेरी उँगलियों को चुभ गए थे  ,तभी एक तेज़ आवाज़ कानों में पड़ी मैं घबड़ाकर उठ बैठी...घडी के अलार्म ने मुझे जगा दिया था।  ओह... मेरे प्रभु,  ये ख्वाब  था .....क्या सचमुच ये ख्वाब था या मेरे ही जीवन का दर्पण ?
    ये ख्वाब नहीं... ये सच हैं मेरे ही जीवन का " कटु सत्य " जो मुझे कुछ संकेत दे रहा हैं.... उसी पल मैंने खुद को समझाया - " ढहर जा ऐ मन "  ये प्यार, अपनत्व,  ख़ुशी की तलाश छोड़... अब खुद की तलाश कर.... यकीनन , नागफनी की तरह तेरे भीतर भी एक सुमन स्वतः ही मुस्कुराने लगेगा..... फिर , सारा संसार अपना ......सारी सृष्टि प्यारी ......और हर तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ दिखेंगी ... चाहे भयावह अँधेरी रात हो.... या रेगिस्तान की तपती दोपहरी......  








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