जब हम अपने प्रिय के साथ बिताये हुए उन मधुर पलों को याद करते हैं तो हमारी सांसे कुछ पल के लिए थम सी जाती है और इसका प्रभाव दिल की धड़कनों पर भी सहज और स्वभाविक रूप से पड़ता हैं। फिर जब हम दिल को संतावना देते हैं तो सांसे स्वतः चलित हो जाती हैं।हमारी साँसे भी हमारी संवेदनाओं से झंकृत होती रहती हैं।
पत्र लिखते वक़्त भी कुछ ऐसी ही अनुभूति होती हैं वो अपना जिसे हम पत्र लिख रहें होते है वो सामने बैठा सा महसूस होता है। पत्र का विषय अगर खुशियों से भरा हो तो कलम उन शब्दों को पन्नो पर उकेरता है और मन उस पल को उस अपने के साथ जीने लगता हैं। उस वक़्त वो कल्पनाओं की दुनिया इतनी हसीन हो जाती हैं कि -यथार्थ और कल्पना में फर्क ही नहीं रह जाता। वैसे ही उस अपने को अपनी विरह व्यथा लिखते वक़्त हम उसके कंधे को अपने करीब पाते हैं जिस पर सर रख कर हम रोना चाहते हैं,और कही अगर हमारे दुःख से भरे आँसू की एक बूँद भी कागज पर टपक पड़ी तो हम से हजारों मील दूर बैठे उस प्रिय का दामन हमारे आँसुओं से भींग जाता हैं।अगर हमें उस अपने को उलाहना देना हैं ,रंज जताना है ,नाराजगी या क्रोध जताना हैं तो एक एक शब्दों को लिखते वक़्त हमें ये एहसास और शुकुन भी हो जाता हैं कि -हमने अपना गुस्सा निकल लिया,हमने अपना दुःख जता दिया और हमारे प्रिय ने हमें समझ भी लिया।
पत्र लिखते वक़्त के एहसासों से इतर वो लम्हा होता है जब वो बंद लिफाफा किसी तक पहुँचता है।हृदय की बेचैनी के कारण धड़कने उस पल भी बढ़ी होती हैं। हाथ में वो लिफाफ पकड़ते ही मन सेकड़ो ख्याल बुनने लगते हैं " क्या लिखा होगा,कैसे लिखा होगा ,मेरे प्रिय ने अपने दिल के जज्बातों को ?पत्र पढ़ते वक़्त उन दो दिलों के एहसास एक अनदेखे तार से स्वतः ही जुड़ जाते हैं।
" चिठ्ठी " हमारे एहसासों का पुलिंदा होता था जिसमें हम हमारे दिल के छोटे- छोटे,सुख -दुःख ,विरह -वेदना का भाव समेट लेते थे।हम उसे सालो सहेज कर भी रखते थे। वो एहसास आज के जमाने के "वीडियो- कॉलिंग" में भी नहीं। उस " चिठ्ठी "के दौर में दूर होकर भी पास होने का एहसास करती थी "चिठ्ठी" और आज पास होकर भी यानि आवाज सुनकर और सूरत देखकर भी दिल में दुरी बढ़ती जा रही हैं।