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मंगलवार, 4 जनवरी 2022

"जीवन-मृत्यु"

"ज़िन्दगी तो बेवफा है, एक दिन ठुकराएगी

मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी"

 जी हाँ, मौत महबूबा ही तो है वो कभी आप का पीछा नहीं छोड़ती और महबूबा के साथ जाने में कैसा डर कैसी घबड़ाहट.... मगर,क्या इतना आसान होता है "मौत"को महबूबा समझना?

"मौत" एक शाश्वत सत्य..जो एक ना एक दिन  सबको अपने गले से लगा ही लेती है। "मौत" शरीर की होती है आत्मा की नहीं...आत्मा तो अजर अमर अविनाशी है।"मौत"जो अंत नहीं एक नव जीवन का आरंभ है.....

   ये आध्यात्म की बातें.... सब जानते हैं  और मानते भी है। फिर भी..."मौत' इतनी डरावनी क्यूँ लगती है। क्यूँ नहीं हम इसका मुस्कुराते हुए बाहें फैला कर स्वागत कर पाते हैं? क्यूँ जब इस दुनिया के भगवान आप के किसी अपने को ये कह देते हैं कि-"ये चन्द दिनों के मेहमान है"  तो हम उसी पल टुटकर बिखर जाते हैं? क्यूँ उस अपने का बिछड़ना असहनीय लगता है? उस व्यक्ति के दर्द और पीड़ा को देख कर एक पल को हम इस सत्य को स्वीकार भी कर ले कि इस जीर्ण-शीर्ण काया का नष्ट हो जाना ही उस व्यक्ति की मुक्ति है.... मौत उसके लिए वरदान है तब भी.... तिल-तिल कर नष्ट होती उस काया को देखना कितना दुष्कर होता है। ऐसा लगता है जैसे वो व्यक्ति ही नहीं हम भी उसके साथ पल-पल मौत के क़रीब जा रहें हैं..... "एक रिश्ते की मौत" ये  दर्द तब और बढ़ जाता है जब वो रिश्तेदार " मां-बाप"  हो। क्यूँकि सारे रिश्ते दुबारा मिल सकते है ये नहीं।

 ये तो जिन्दों की पीड़ा है उस मरने वाले की पीड़ा को तो शायद, कोई समझ ही नहीं सकता...यकिनन उसे शब्दों में बयां कर पाना उसके लिए भी दुष्कर ही नहीं असम्भव है। जन्म और मरण ही तो एक ऐसी प्रक्रिया है जो अव्यक्तं है और हमेशा रहेगा।

कहते हैं कि- आत्मा को भी शरीर छोड़ने से पहले कितने ही सुक्ष्म प्रकियाओ से गुजरना होता है। प्राण शक्ति अपनी उर्जा को सभी नाड़ियों से खींच  एकत्रित कर बाहर निकालने का प्रयास कर रही होती है और मोह वश आत्मा उसे निकलने देना नहीं चाहती और दोनों के बीच द्वंद्व होता रहता है, ये पीड़ा असहनीय होती है। ये भी कहते हैं कि आख़िरी घड़ी में जीवन के सारे कर्म चलचित्र की भांति आँखों के सामने से गुजरने लगते हैं और वो पल उस आत्मा के लिए बेहद पीड़ा दायक होती है। अर्थात कुल मिलाकर कर जीवन के इन आखिरी क्षणों की पीड़ा को इन्सान किसी से साझा भी नहीं कर सकता है।

ये तो आखिरी चन्द घंटों की प्रक्रिया होती है परंतु उससे पहले की उन यातनाओं का क्या....जब आप का शरीर धीरे-धीरे असहाय होता जा रहा हो... पहले तन के एक-एक अंग साथ छोड़ रहे हो और फिर आप की इन्द्रियों ने भी आप का कहना मानने से इंकार कर दिया हो।कितना मुश्किल होता होगा उस आत्मा के लिए जिसे महसूस हो रहा है कि वो पल-पल मौत की ओर बढ़ रहा है..... वो अपने प्रियजनों से कभी भी अन्तिम विदाई ले सकता है......उस पल मोह ग्रस्त आत्मा के लिए ये स्वीकार करना कि-

" ये अंत नहीं आरंभ है" सम्भव ही नहीं।

और वो प्रियजन जिनके लिए वो व्यक्ति उसकी पूरी दुनिया सदृश्य हो वो उसे तिल-तिल मरता देख रहा हो...पर कुछ नहीं कर सकता....उसके वश में सिर्फ इतना ही है कि वो कुरूर नियति के फैसले का इंतजार करता रहें....

किसी के लिए भी जीवन का ये सबसे मुश्किल वक्त होता है। जाने वाले के लिए भी और....ठहरने वालों के लिए भी.... 

क्यूँ, मन ये स्वीकार नहीं कर लेता कि-

जीवन एक ऐसा जंग है जिसमें हार ही जाना है

 एक दिन इस जहाँ को छोड़, उस जहाँ को ही जाना है....


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