आज मैं आप सभी को एक कहानी सुनाती हूँ। आप भी अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से इसका "अर्थ" निकाल सकते हैं।
एक बाबा जी थे। लोगों का मानना था कि -बहुत पहुँचे हुए संत है जो कहते हैं सत्य हो जाता है,खासतौर पर संतानहीन माँ-बाप को बच्चों के बारे में जो बताते हैं वो तो बिल्कुल सत्य होता है। बाबा जी भक्तों को उत्तर एक पर्ची पर लिख कर देते थे। अब,जब भी कोई दम्पति आकर पूछता कि-"बाबा जी,मुझे बताये कि-लड़का होगा या लड़की" तो बाबा जी एक पर्ची पर लिख देते "बेटा ना बेटी" लोग अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से या यूँ कहे मनोकामना के हिसाब से अपना उत्तर स्वयं सोच लेते थे। अब,अक्सर तो लोग बेटे की ही कामना कर खुश होते हैं। तो जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती और वो बाबा जी को धन्यवाद देने आते तो बाबा जी भी बड़े शान से छाती चौड़ी करके बोलते -"मैंने कहा था न बेटा,ना बेटी"यानि तुम्हे तो बेटा ही होना था। लोग खुश हो जाते। अब जिन्हे बेटी हो गई और बेटी तो शायद ही किसी को चाहिए होता है तो वो दुखी होकर बाबा जी के पास आता तो बाबा जी बड़े प्यार से कहते-कोई बात नहीं बच्चें मैंने तो पहले ही कह दिया था कि-"बेटा ना,बेटी" तुम समझे ही नहीं। अब जिन्हे काफी इंतजार के बाद भी कुछ नहीं होता वो बाबा जी के पास शिकयत लेकर आता अपना दुखड़ा रोने लगता कि- बाबा जी मुझे तो ना बेटा हुआ ना बेटी मेरी झोली तो खाली ही रह गई तो बाबा जी सांत्वना भरे शब्दों में रूखे गले से बोलते-"मेरा तो कलेजा फट रहा था तुम्हें ये कहते हुए इसीलिए सांकेतिक रूप से कह दिया था "बेटा ना बेटी" अर्थात अभी तुम्हारे नसीब में कुछ भी नहीं था मेरे बच्चें,तुम्हें अभी प्रतीक्षा करनी होगी। और इस तरह बाबा जी का धंधा बड़े मजे से चलता था नाम,यश और धन किसी चीज की कमी नहीं थी ना आगे भविष्य में ही होनी थी क्योंकि लोगों को क्या चाहिए एक "सांत्वना" और वो उन्हें मिलता रहा उनकी झोली भरे ना भरे बाबा जी की भरती रही।
बाबा जी के पर्ची पर लिखे सांकेतिक भाषा को लोगो ने कितना समझा मैं नहीं जानती लेकिन धीरे-धीर इसका चलन जरूर बढ़ता जा रहा है । हमारे राजनेता तो पहले से ही इसमें माहिर है। वैसे ये कहना भी अतिशयोक्ति होगी कि-ये सिर्फ राजनेताओं ने ही सीखा है अब तो हम सभी ने भी बड़ी आसानी से बाबा जी की भाषा के साथ तालमेल बिठा लिया है। अब हम भी "ना सत्य बोलते है ना असत्य" समय और जगह के मुताबिक "सत्य ना असत्य" में एक अल्पविराम चिन्ह देकर उसका माने-मतलब बदल देते हैं और अपनी बातों को सिद्ध कर देते हैं।
वैसे देखा जाए तो ये भी एक कला है। आप क्या कहते हैं ???