आज सुबह-सुबह कोयल की कुकू से जब आँखें खुली तो एक बार को लगा मैं स्वप्न देख रही हूँ...
मुंबई की "अँधेरी नगरी" और कोयल की आवाज़.....?
अरे नहीं, ये तो हकीकत था....मन मयूर बन झूम उठा...
और फिर कुछ ख़्यालात उमड़ने लगे....सोचा शब्दों में पिरो लू....
अब छंदबद्ध ठीक-ठाक है की नहीं वो तो आप जाने....
उसका ज्ञान तो मुझे है नहीं बस, अपनी भावनाएं व्यक्त कर दी मैने
त्रुटि हो तो क्षमा चाहती हूँ।
कू कू करती कोयलिया तुम,
आज कहाँ से आई हो ?
मेरे गांव के उस जहाँ से,
इस जहाँ में कैसे, आई हो ?
पत्थर के घर, पत्थर के जन,
पथरीली भावनाएं जहाँ है।
कंक्रीट के इस शहर में
कहो ! कैसे, तुम आई हो ?
बड़े दिनों बाद, सुन तेरी तान
नाच उठा मन मेरा है।
ऐसा लगता है यादों के,
नंदनवन संग लाईं हो।
मुधुर-मधुर ये तान तुम्हारी
आज हिय में हुक उठाती है।
गांव, घर-आंगन,बाग-बगीचे,
सखियों की याद दिलाती है।
तेरे सुर में सुर मिलाकर,
हम तुम संग ही तो गाते थे।
तुझसे भी ज्यादा हम तो,
खुद पर ही इतराते थे।
अच्छा,चलो बता दो अब तो
इस नगर कैसे आयी हो ?
राह भुली अपने उपवन का
या, हमें जगाने आईं हो।
जागो ! ऐ पुत्र धरा के
अपनी आँखें खोलो तुम,
प्रकृति है अनमोल रत्न धन
क्या,ये समझाने आई हो ?
या, सन्देशा लाई हो तुम
अपने संगी-साथी का।
वन-उपवन है घर हमारे,
मत काटो बेदर्दी से।
ना आग लगाओ इन जंगलों में,
जो जीवन आधार हमारे।
या, तड़पकर तुम भी,
ये बद्दुआ देने आई हो।
जैसे घर जलाया मेरा,
जलोगे उस आग में तुम भी।
हम ना रहेंगे तो,
तुम भी ना रहोगे
क्या,ये धमकाने आई हो ?
सच,कोयल हम गुनहगार है,
इस जल-थल और गगन के।
अब बारी है, कठिन सजा की
हाँ,तुम ये बतलाने आई हो।