सोमवार, 6 दिसंबर 2021

"माँ रुप तेरा "



जब भी स्वप्न कोई टूटा 

पलकों को सहला दिया 

शूल चुभा कोई दामन में 

होठों से दर्द चुरा लिया 


जब छलका आँखों से आँसू

एक मीठी लोरी सुना दिया 

जब भी थका सामर्थ्य मेरा 

उम्मीद किरण दिखला दिया  


राह सूनी जब घुप्प अँधेरा

पथ में दीपक जला दिया 

जब-जब जग ने ताने मारे 

आँचल में तुमने छुपा लिया 


पल-पल मुझे सँवारा तुमने 

हो गई खुद की जर्जर काया 

मेरा व्यक्तित्व निखारा तुमने 

खुद का वज़ूद मिटा दिया 


तू ज्ञान है तू ही प्रेरणा 

तुमने ही जीवन दिया 

धरती पर "माँ" तेरे रुप ने

ईश्वर दर्शन करा दिया


बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

"दे दो ऐसा वरदान..."

कल से माता रानी का आगमन हो रहा है... 
बस, यही प्रार्थना है... 
"माँ" हम सब को सद्बुद्धि दें...  
हम सिर्फ नौ दिन नहीं...उन्हें हमेशा अपने साथ रख सकें 
***************




 हे! जगजननी करुणामयी माता

 द्वार तुम्हारे आई हूँ। 

अक्षत-रोली, धूप-दीप नहीं

बस,श्रद्धा सुमन संग लाई हूँ।। 


अपने अश्रु की धारा से

तेरे चरण पखारुँगी।

प्रेम-समर्पण की माला से

तेरी छवि सवारुँगी।।


 पूजा की मैं रीत ना जानूँ  

जप-तप का नहीं कोई ज्ञान।

अर्पण तुझको तन-मन माता

मैं ना जानूँ  विधि-विधान।।


धन-वैभव ना सुख अपार

ना माँगू मैं ये संसार।

पावन कर दो आत्मा मेरी

 होगा "माँ" तेरा उपकार।।


ये जग तो है रैन बसेरा 

 पल दो पल का डेरा है। 

 तेरी शरण तक आ पाऊँ 

खोल दो "माँ" हृदय के द्वार।। 


सुख-दुःख तज तेरी हो जाऊँ 

 दे दो, मुझको ऐसा ज्ञान।

अन्तर्मन में तेरी छवि निहारुँ  

दे दो बस, ऐसा वरदान।।।



मंगलवार, 28 सितंबर 2021

"अब तो भारतीय पारम्परिक जीवन शैली को अपना लें"

  




  
 भारतीय संस्कृति में प्रकृति और नारी को बहुत सम्मान दिया गया है। इसलिए धरती और नदियों को भी माँ कहकर ही बुलाते हैं। समय-समय पर पेड़ों की भी पूजा की जाती है पेड़ों में प्रमुख है:- पीपल,बरगद,आम,महुआ,बाँस, आवला,विल्व,केला नीम,अशोक,पलास,शमी, तुलसी आदि। इन पेड़ों का वैज्ञानिक महत्व क्या है इसे बताने की जरूरत तो है नहीं। (गूगल इस ज्ञान से भरा है)जानते सब है,मानते सब है बस, व्यवहारिकता में इसे अपनाते नहीं है। 

     ऐसा कहा गया है कि इन सभी पेड़ों में देवताओं का वास है। हम आदि-काल से पेड़ों के रूप में प्रकृति को पूजते हैं,नारी के रूप में देवियों को और धरती तो हमारी जननी है ही। सोचने वाली बात है कि -इन्हे पूजने की परम्परा क्यों बनाई गई ?  क्यों धरती,नदियाँ,वायु और पेड़ अर्थात प्रकृति को पूजनीय माना गया ?

     जिन्होंने ने भी वेद-पुराणों में इन्हे पूजनीय माना वो ना समझ तो थे नहीं। यूँ ही ये सारी मनगढ़ंत बातें तो है नहीं। लेकिन हमने इन्हे या तो नाकार दिया या मजाक बना दिया या सिर्फ कहने-सुनने के लिए प्रयोग कर लिया और आज इसी गलती की सजा भुगत रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने हमें इनकी महत्ता समझाने की कोशिश की थी उन्होंने ये संदेश दिया था कि -हे मानव ! ये सब है तभी जीवन है। उन्होंने तो यही सोचा होगा कि -इन्हे देवी-देवता और माँ का रूप कहा जायेगा तो मनुष्य इनका सम्मान करेंगे और इनके साथ दुर्व्यवहार करने से भी डरेगे।

     लेकिन हम मनुष्य इतने स्वार्थी,लालची और ना नासुकरे निकले कि-जीवन देने वाले को ही प्रदूषित करना और उनका आस्तित्व मिटाना ही शुरू कर दिए और आज हालात ऐसे हो गए कि -हम अपने दुश्मन आप बन गए। जीने के लिए जो प्रकृति ने हमें दिया था उसको नाकार सुख-सुविधा बढ़ाने में इतने तल्लीन हो गए कि -समझ ही नहीं पाए कब हम अपने जीवन में जहर घोलते चले गए। दर्भाग्य तो ये है कि -अब समझ चुके हैं फिर भी इन सुख-सुविधाओं के इतने आदि हो गए है कि -मौत का तांडव भी हमें सबक नहीं सीखा पा रहा है। 

     प्रकृतिक संसाधनों का अनियमित उपभोग और स्वहित में पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के कारण आज जलवायु का पूर्ण चक्र प्रभावित हो चूका है। बढ़े हुए प्रदूषण के कारण कई नई जानलेवा बिमारियों का जन्म हो चूका है जिसका ईलाज दुनिया के किसी डॉक्टर के पास नहीं है। नदियाँ बेकाबू हुई पड़ी है, पहाड़ दरक रहे हैं, ग्लेशियर पिघल रहे हैं और हम अपने सुख-साधनों में लिप्त सो रहे हैं। 

     आज जलवायु परिवर्तन एक विश्व स्तरीय समस्या बन चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि स्थिति चिंताजनक अवश्य है, लेकिन विकल्पहीन नहीं। उनका मानना है कि -सबसे पहले हमें खाद्य पदार्थों के उत्पादन और खाने-पीने के सारे तौर-तरीकों की गंभीरता से समीक्षा कर उसमे क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है। बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाने होंगे। ऊपर जितने भी पेड़ों का जिक्र किया गया है...सभी जानते है कि -पर्यावरण के लिए वो कितने महत्वपूर्ण है।ये पेड़-पौधे ही हवा से कार्बन-डाईऑक्साइड सोख कर उसे अपने भीतर बांधते हैं।  हवा में कार्बन-डाईऑक्साइड जितनी घटेगी, भूतल पर का तापमान बढ़ने की गति में उतनी ही कमी आयेगी। बाँस दुनिया भर में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है,यह एक दिन में एक मीटर तक बढ़ सकता है और  बाकी पेड़ों की तुलना  में उच्च मात्रा में जीवनदायी ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता है यह कीटरोधी है, मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में भी सहायक साबित होता है तथा यह मिट्टी के कटाव को रोकने में भी अहम भूमिका निभाता है। भारतीय संस्कृति में तो इसकी इतनी महत्ता कि -इसे "हरा सोना" कहा जाता है।

   वैज्ञानिकों का मानना है कि -काले कार्बन और मीथेन गैस ये दोनों प्रदूषक तत्व ही जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज करते हैं। इनका मानव और पेड़-पौधों के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है।इनके उत्सर्जन को कम करने के लिए वैज्ञानिकों ने जिन 14 उपायों पर विचार किया है, उनमें कोयले की खदानों, तेल और प्राकृतिक गैस संयंत्रों से निकलने वाली गैस को काबू में करना, लंबी दूरी वाली पाइपलाइनों से लीकेज कम करना, शहरों के लैंडफिल्स से उत्सर्जन रोकना, गंदे पानी के परिशोधन संयंत्रों को अपडेट करना, खेतों में खाद से उत्सर्जन कम करना और धान को हवा लगाना शामिल है। काले कार्बन के लिए जिन तकनीकों का विश्लेषण किया गया है, उनमें डीजल वाहनों के लिए फिल्टर लगाना, अधिक उत्सर्जन वाले वाहनों पर रोक, रसोई के चूल्हों को अपडेट करना, ईट बनाने के लिए पारंपरिक भट्ठों की जगह अधिक प्रभावी भट्ठों का प्रयोग और कृषि कचरे को जलाने पर रोक शामिल है। 

     वैज्ञानिकों ने अनाजों, फल-फूल और सब्जियों का उपयोग बढ़ाने का सुझाव देते हुए ज़ोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन पर यदि लगाम लगानी है, तो मांसाहार से भी दूरी बनानी पड़ेगी. मांसाहार घटने से उन गैसों का बनना भी घटेगा, जो पशुपालन से पैदा होती है। तेल और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों पर हमारी निर्भरता को कम करना, इन ईंधनों का इस्तेमाल बिजली बनाने के अलावा लगभग सभी तरह के उत्पादन और परिवहन में होता है। सारांश यह है कि मानव निर्मित हर वस्तु का प्रभाव पर्यावरण पर होता है।  

     वैज्ञानिकों ने जिन उपायों को सुझाया है वो इतने मुश्किल भी नहीं जिनका व्यक्तिगत रूप से हम पालन ना कर सकें। हम सभी जानते है कि हमारी गर्मी को दूर भगाने वाली A.C वातावरण को कितना गर्म करती है,हमारे भोजन को ठंढी रखने वाली रेफ्रीजरेटर कितना हानिकारक गैस उत्सर्जन करता है,हमारी यात्रा को सुविधाजनक बनाने वाली गाड़ियां वातावरण को कितना प्रदूषित करती है। एक तरह से जीवन की जिन सुविधाओं का उपयोग कर हम इतरा रहें है वही हमारे दुश्मन बन गए है। 

      तो अब सवाल ये है कि -क्या हम फिर से आदि-मानव वाली जीवन जिए,छोड़ दे सारी सुख-सुविधाएं ? 

     इसकी जरूरत नहीं है,जरूरत सिर्फ इतनी है कि -गांधी और बुद्ध की तरह बीच का रास्ता अपनाये ,खुद के और प्रकृति के बीच सामंजस्य बना कर चले।अपनी जीवन शैली में बदलाव लाकर भी हम वातावरण को स्वच्छ बनाने में अपनी भागीदारी निभा सकते हैं।पहले भी हम इन सुविधाओं के बगैर जीते थे और यकीनन आज से बेहतर हालत में थे। 

     लम्बी-चौड़ी योजनाएं तो विश्व स्तर पर बनेगी परन्तु क्या हमारा योग्यदान इनमे "राम की गिलहरी "जितना भी नहीं हो सकता। कम से कम गाड़ियों का नकली प्रदूषण-रहित सर्टिफिकेट तो ना निकलवायें,आकरण बिजली और पानी की बर्बादी तो ना करें ,धरती का आँचल कचरों से तो ना भरे,अपनी सुविधाओं को कम से कम कर लें,आस-पास जितनी भी जगह हो वृक्षारोपण अवश्य कर लें। संक्षेप में कहूँ तो हम अपनी भारतीय पारम्परिक जीवन शैली और संस्कृति को अपना लें तो आधी समस्याओं का समाधान तो यूँ ही हो जायेगा। गलती हमनें की है तो सुधार भी हमें ही करना होगा। समझना होगा कि -"विकास और पर्यावरण एक दुसरे के पूरक हैं, इनके साथ सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ना ही प्रगति है वरना विनाश-ही-विनाश है।"

शनिवार, 18 सितंबर 2021

"गणपति बप्पा मोरया"

  



गणपति बप्पा मोरया ,मंगलमूर्ति मोरया 


    इन दिनों पुरे देश में गजानन की धूम मची है। घर-घर में गणपति पधारे है। बड़ी श्रद्धा से उनका श्रृंगार कर भक्तिभाव से उनकी पूजा-अर्चना  की जा रही है। भक्तिभाव का रंग चहुँ ओर छाया हुआ है। सभी को पूर्ण  विश्वास है कि-गणपति हमारे घर पधारे है तो हमारे घर की सारी दुःख-दरिद्रता अपने साथ लेकर जायेगे,हम सबका कल्याण करेंगे,हमारे घर में खुशियों का आगमन होगा। 

     पहले तो ये त्यौहार सिर्फ महाराष्ट और गुजरात में ही मनाते थे लेकिन अब तो पुरे देश ये त्यौहार पुरे धूम-धाम और श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है। आखिर क्यूँ न मनाया जाये गणपति और कान्हा तो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के सबसे पसंदीदा देव है। सच,गणपति के बाल मनमोहक छवि को देख मन पुलकित हो उठता है,ऐसा लगता है कि-घर में एक नन्हा-मुन्ना पधारा है और पूरा परिवार उसके स्वागत सत्कार में जुटा है। गणपति ग्यारह दिनों के लिए आये है,लेकिन हर घर से उनके जाने का वक़्त अलग-अलग है। अपनी-अपनी  श्रद्धा और सहूलियत के मुताबिक ३-५-७-९ या ११ दिन रखकर उन्हें विदा करते हैं। 

विदाई कैसे होती है ?ढोल-नगाड़ो के साथ नाचते-गाते,जयकारा लगाते,पटाखें फोड़ते हुए उन्हें नदी,तालाब या समुन्द्र में विसर्जित करते हैं। श्रद्धा और भक्ति का ये अनूठारूप सिर्फ हमारे देश में ही देखने को मिलता है। 

परन्तु,मेरा मन हर पल मुझसे कई सवाल करता है-

क्या इस आदर-सत्कार से गणपति खुश होते होंगे ?

क्या इस धूम-धड़ाको  से ही गणपति हम पर प्रसन्न होंगे ?

क्या इन धूम-धड़कों से उनके भक्तों का एक वर्ग जो लाचार या बीमार है त्रस्त नहीं होगा ?

क्या पटाखें जलना ही भक्ति और ख़ुशी को व्यक्त करने का माध्यम है ?

क्या अपनी सुंदर प्रकृति को प्रदूषित होते देख गणपति का मन विचलित नहीं होता होगा ?

क्या विसर्जन के वक़्त समुन्द्र और नदियों में टनों कचरा फैला देख गणपति की पावन मूर्ति तड़पती नहीं होगी ?

क्या समय के साथ हम अपनी त्योहारों की पवित्रता और उदेश्य को बरकरार रख पा रहें हैं ?

क्या समय के अनुसार हमें अपनी धर्मिक त्योहारों में संसोधन नहीं करना चाहिए ?

क्या भक्ति सिर्फ और सिर्फ दिखावा भर है या धर्म के ठेकेदारो की झूठी शान ?

क्या कोरोना जैसी महामारी के बीच इन सामाजिक जलसों का आयोजन कर हम जो अपनी मौत को खुद न्यौता दे रहें है उसे देख गणपति हमें आशीर्वाद दे रहे होंगे ?

क्या अपने जाने के बाद अपने भक्तों के बीच मौत को तांडव करते देख गणपति का मन व्यथित नहीं होगा ?

क्या हमारे इस मूर्खों वाली मनस्थिति को देखकर गणपति हमारा दुःख दूर कर पाएंगे ?

मेरी आत्मा तो कहती है _"गणपति कदापि हमसे खुश नहीं होंगे और हमारा दुःख दूर करने में भी खुद को असमर्थ पाएंगे "

मेरी दुआ भी यही होगी कि-"हे !गणपति बप्पा इस बार आये है तो अपने भक्तों को थोड़ी बुद्धि का दान देकर जाए ताकि वो आपकी इस सुंदर सृष्टि का संरक्षण कर सकें और अगले वर्ष जब आप आये तो आप भी खुलकर साँस ले पाये । "

आप की आत्मा क्या कहती है आप जाने........



मंगलवार, 31 अगस्त 2021

"धरती की करुण पुकार"



हे! मानस के दीप कलश 

तुम आज धरा पर फिर आओ।

नवयुग की रामायण रचकर 

मानवता के प्राण बचाओ।।


आज कहाँ वो राम जगत में 

जिसने तप को गले लगाया ।

राजसुख से वंचित रह जिसने 

मात-पिता का वचन निभाया।। 

 

सुख कहाँ है वो रामराज्य  का  ?

वह सपना तो अब टूट गया ।

कहाँ है राम-लक्ष्मण से भाई ?

भाई से भाई अब रूठ गया।।


सुन लो अब अरज ये मेरी

मैं धरती जननी हूँ तेरी।

दे दो, ऐसे राम धरा को 

 भ्रष्टाचार जो दूर भगा दें ।

दे दो, ऐसे कृष्ण मुझे तुम 

जो द्रोपदी की लाज बचा लें।।


दे दो, भरत-लखन से भाई 

जो भाई का साथ निभा दें।

लौटा दो, वो अर्जुन तुम मुझको

जो धर्मयुद्ध का मर्म समझा दे‌ ।।


हे!मेरे मानस पुत्रो

मेरी करुण पुकार तुम सुन लो।

दहक रहा है  मेरा  आँचल

आओ, धरा की लाज बचा लो।।


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

"कल चमन था......"

     


 


  मत रो माँ -आँसू पोछते हुए कुमुद ने माँ को अपने सीने से लगा लिया। कैसे ना रोऊँ बेटा...मेरा बसा बसाया चमन उजड़ गया....तिनका-तिनका चुन कर...कितने प्यार से तुम्हारे पापा और मैंने ये घरौंदा बसाया था....आज वो उजड़ रहा है और मैं मूक बनी देख रही हूँ । ऐसा क्यूँ सोचती हो....ये सोचों ना एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बस रहा है...कुमुद ने माँ को ढाढ़स बंधाना चाहा। पर...वो मेरा घरौदा नहीं होगा न-कहते हुए माँ सिसक पड़ी। 

    किसी भी चीज़ से इतना मोह नहीं करते माँ....कल तुम्हारा था...आज इनका है...यही होता रहा है...यही होता रहेगा....फिर क्यों रोना - एक बार फिर कुमुद ने माँ को समझाने का प्रयास किया जब कि पिता के उजड़ते बगियाँ को देख उसका दिल भी रो रहा था...उससे भी दूर हो रही थी उसकी बचपन की यादें....भाई-बहनों के साथ गुजारे ठिठोली भरे दिन....उनका खुद का ही नहीं उनके  बच्चों की किलकारियाँ भी गुंजी थी इस घरौंदा में....पापा के जाते ही कैसे तहस-नहस हो गया। उसका दिल सैकड़ो सवाल कर रहा था-क्यों होता है ऐसा....क्यों बाहर से जिन सदस्यों को प्यार से अपना बनाकर हम घर लाते हैं....और ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें अपना घर ही नहीं जिगर के टुकड़े को भी सौप देते हैं....वही उस घर को लुट लेते हैं....क्या ज्यादा की ख्वाहिश होती है उन्हें.....जो वो एक माँ का दर्द नहीं समझते....मिट्टी-गारे के मकान को ही नहीं... चीर डालते हैं  माँ के दिल को। सवालों में उलझी...माँ को सीने से लगाये... खुद को संभालती हुई...कुमुद,  माँ को उलटे-सीधे तर्क से समझाने का प्रयास कर रही थी। 

माँ ये मिट्टी-गारे का घर है....क्यों रोना उसके लिए -कुमुद ने फिर माँ को समझाना चाहा। हाँ,बेटा मैं भी समझती हूँ.... तुम क्या समझ रही हो मुझे इस घर का  दुःख है.....मैंने कभी इन सुख-सुविधाओं के चीज़ों का मोल नहीं किया...मेरी सम्पति...मेरा गुरुर.....मेरे बगियाँ के फूल....तो बस मेरे बच्चें थे....जो जहाँ भी रहते थे महकते-चहकते रहते थे .....आज, मेरी सम्पति बिखर गई...मेरा गुरुर टूट गया....मेरे बगियाँ के फूल बिखर गए और...लोगों को तमाशा देखने का मौका मिल गया....कहाँ चूक हो गई मुझसे..... कहते हुए माँ फुट-फुटकर रोने लगी। 

तभी कही से एक गाने की आवाज़ सुनाई दी..... 

मुझको बर्बादी का कोई गम नहीं 

गम है बर्बादी का क्यूँ चर्चा हुआ 

कल चमन था, आज एक सहरा हुआ 

देखते ही देखते ये क्या हुआ ?

कुमुद ने महसूस किया- ये आवाज़ माँ के दिल से आ रही थी जिसे सुन कुमुद भी आँसू नहीं रोक पाई। 


रविवार, 11 जुलाई 2021

"खुद की तलाश जारी है..... "

 





     अक्सर कहा जाता है कि- "हर आदमी अकेला जन्मता है और अकेला ही मरता है।" मैं नहीं मानती.....हकीकत में वो उन सभी लोगो के साथ मरता है...जो उसके भीतर थे...जिससे वो लड़ता था...प्यार करता था। मरने वाला अपने भीतर एक पूरी दुनिया लेकर जाता है।कहाँ मुक्त कर पाता  है वो खुद को उन बंधनों से जिसमे वो आजीवन बंधा रहता है। वो अपने साथ-साथ अपने अपनों से जुडी वो सारी यादें...वो सारे रंजो-गम...वो सारी खुशियाँ और प्यार भी लेकर चला जाता है....उसका अपना तो कुछ होता ही नहीं है न... 

तभी तो किसी के मरने के बाद हमें भी अपने भीतर एक खालीपन महसूस होता है  क्योंकि हमें लगता है कि उसके साथ हमारा भी एक हिस्सा हमेशा के लिए खत्म हो गया। दुसरो के मरने पर हमें  जो दुःख होता है वो भी थोड़ा बहुत स्वार्थी किस्म का दुःख ही होता है क्योंकि वो अकेला नहीं जाता हमारा एक हिस्सा भी साथ ले जाता है। 

हाँ,सच में ले जाता है...अब देखे न माँ-बाप के गुजरने के बाद हमारे जीवन में जो बच्चें का किरदार होता है वो तो हमेशा के लिए खत्म हो जाता है न....खत्म हो जाता है उनके साथ हमारी मासूमियत....जो उनके सानिध्य में जाते ही महसूस होने लगता था। हम भी इसीलिए रोते है कि-अब इस जन्म में हम किसी को माँ-पापा कहकर नहीं बुला पाएंगे। 

मुझे महसूस होता है कि-हमारे जीवन में हर एक के साथ हमारा एक खास किरदार होता है....उस व्यक्ति की अच्छाइयों या बुराईयों से कही ना कही हमारा भी एक अंश जुड़ा होता है....और उसके जाते ही हमारे भीतर का वो हिस्सा खाली हो जाता है। 

 हमारे भीतर हमारा तो कुछ होता ही नहीं...सब कुछ औरों का होता है।कभी एक पल के लिए हम कल्पना करें कि -आने वाला पल मेरा आखिरी पल है और एक बार पलट कर अतीत की और देखें...... 

जब हम अपने अतीत के तहों को प्याज के छिलके की तरह एक-एक करके उतारते जाएगें तो देखेंगे....सब अपना-अपना हिस्सा लेने आ गए है। माँ-बाप,भाई-बहन,दोस्त-रिश्तेदार,पति-बच्चें, सारे छिलके दूसरों के हिस्से का निकलेगा  आखिर में बची  एक सूखी डंठल ही हमारे हाथ रह जायेगी जो किसी काम की नहीं रहती जिसे ही मृत्यु के बाद जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है। हाँ....वो सुखी डंठल भी खाली कहाँ जा पाती....वो भी तो उन छिलकों की महक अपने भीतर लिए ही जाती है। 

वैसे ही जब मनुष्य जन्म भी लेता है तब भी उसके अंदर कितने लोग....कितनी भावनाये छिपी होती है...जब बच्चा जन्म लेता है तो अपने आप हँसता है और खुद ब खुद रोने भी लगता है उस वक़्त कहते हैं कि-वो अपने पुराने रिश्तो से जुडी ख़ुशी और दर्द को जी रहा है.....तो अकेला कहाँ आता है वो ?

हम प्रेम और रिश्तो के बंधनो में इस कदर बँधे होते हैं कि -मरने के बाद भी नहीं छूट पाते। तभी तो हिन्दू धर्म में कहते हैं कि-"मरता शरीर है आत्मा तो अमर होती है और वो नया शरीर धारण कर बार-बार उसी परिवेश में जन्म लेती जिससे वो जुडी होती है।" हमने अक्सर अपने घरों में ये कहते सुना होगा "ये जो बच्चा जन्मा है न वो फलां की तरह दिखता है या आचरण करता है।" शायद,वो होता है तभी तो परिवार में भी किसी एक के साथ ऐसा जुड़ाव होता है जैसे जन्म-जन्म का साथ हो। अपनों के साथ ही क्यूँ....कभी-कभी तो किसी अनजाने के साथ भी जन्म-जन्म का साथ महसूस होता है। 

क्यूँ होता है ऐसा ? हमारा अपना कुछ क्यूँ नहीं होता ? 

वो एक गीत के बोल है न-

"दिल अपना और प्रीत पराई 

किसने है ये रीत बनाई "

सब ठीक है...अच्छा लगता है इस पराई प्रीत में जलना मगर...अपने आस्तित्व का क्या ?

अक्सर प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से कहते हैं -"तू मुझमे मुझसे ज्यादा है "

क्यूँ ज्यादा है ?खुद में ही हम खुद क्यूँ नहीं होते ?

खुद में खुद की तलाश जारी है..... 



गुरुवार, 8 जुलाई 2021

"तो क्या हुआ---- "

 


खो गई मंजिल

 भटक  गया पथिक 

 तो क्या हुआ ----?

पहुँचने की लगन तो है। 

ढल गई शाम

 घिर गया तम 

तो क्या हुआ ----?

प्रभात आगमन की आस तो है। 

उड़ गए पखेरू 

रह गया पिंजरा रिक्त 

तो क्या हुआ ----?

आत्म-अमरता का विश्वास तो है। 

बिछड़ गए तुम

 टूट गया दिल 

तो क्या हुआ ----?

तुम्हारे  जीवित स्पर्श का एहसास तो है।  

झड़ गए पत्ते 

छा  गया मातम 

तो क्या हुआ ----?

बासंतिक वयारों का शोर तो है। 

सूख गया सागर 

बढ़ गई प्यास 

तो क्या हुआ ----?

प्रेम अश्रु का प्रवाह तो है। 

*********************************


सोमवार, 21 जून 2021

"योग को अपनायेंगे रोग को हराएंगे"



" 21 जून "विश्व योगदिवस 

    "योग" हमारे भारत-वर्ष की सबसे अनमोल धरोहर है।  वैसे तो "योग की उत्पति" योगिराज कृष्ण ने किया था मगर जन-जन तक पहुंचने का श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है उन्हें ही योग का जनक कहा जाता है।  "योग" अर्थात जुड़ना या बंधना। ये बंधन शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाने का एक साधन है।आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बँध, षट्कर्म और ध्यान के माध्यम से ये योग की प्रक्रिया होती है। "योग क्या है" इसे समझाने की तो आवश्यकता ही नहीं है, माने ना माने मगर जानते सब है कि योग  हमारे भारत-वर्ष की सबसे प्राचीनतम पद्धति है जिस पर अब तक मार्डन साइंस रिसर्च ही कर रहा है और हमारे ऋषि -महर्षियों ने हजारों वर्ष पहले ही इसकी उपयोगिता सिद्ध कर हमें सीखा गए थे मगर हमने इसे ये कहते हुए कि-ये तो साधु-संतो का काम है, बिसरा दिया और कूड़े के ढेर में फेक दिया था।आजादी के बाद से ही "ब्रांडेड" छाप को ही महत्व देने की हमारी आदत जो हो गई है। तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयास से अब इसे "ब्रांडेड" कर दिया गया।शायद अब इसे अपनाने में हमें शर्म नहीं आएगी। 

     कुछ मान्यवरों  के अमूल्य योगदान से जिसमे सबसे प्रमुख योगगुरु रामदेव जी और श्री श्री रविशंकर जी है इसे आज के परिवेश में भी जीवित रखने का निरंतर प्रयास चलता रहा।  लेकिन विश्व स्तरीय प्रतिष्ठा इसे हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने दिलवाई जिनके अपील पर  27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को अमेरिका द्वारा मंजूरी मिली, सर्वप्रथम इसे 21 जून 2015 को पूरे विश्व में "विश्व योग दिवस" के नाम से मनाया गया।चुकि यह दिन वर्ष का सबसे लम्बा दिन होता है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है इसीलिए इस तारीख का चयन हुआ। 

   "योग या बंधन" सिर्फ तन-मन को नहीं जोड़ता ये आत्मा को परमात्मा से भी जोड़ता है। योग मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है, ये सिर्फ स्वस्थ शरीर के लिए ही नहीं वरन स्वस्थ मानसिकता या  मानसिक अनुशासन के लिए भी कारगर है ये सारी बातें अब वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित हो चुकी है । मगर आज के परिवेश में किसी को "बंधन" मंजूर नहीं, हर एक बंधन मुक्त रहना चाहता है।आज इंसान नहीं समझता कि-बंधन ही जोड़े रखता है और मुक्त होना बिखराव है तभी तो तन-मन बिखर गया है,रिश्ते-नाते  बिखर गए है देश-समाज बिखर गया है प्रकृति और जलवायु बिखर गए है। किसी का किसी से कोई बंधन ही नहीं रहा। ये बिखराव हमें यहां तक ले आई है कि - आज हम त्राहि-माम् कर रहे हैं। 

   पिछले वर्ष से ही "कोरोना काल " के जरिए प्रकृति हमें समझाने की कोशिश कर रही है कि -हमारे देश की सभी पद्धतियां,सभी नियम और संस्कार उच्च-कोटि की थी जो हमें सहजता से जीवन जीना भी सीखती थी और रश्तों को संभालना भी। "कोरोना काल"में ये काम तो बहुत अच्छा हुआ, सब को इस बात का अनुभव तो बहुत अच्छे से हो गया। अब भी हम समझकर भी  ना-समझी करे तो हमारा भला राम भी नहीं कर सकते।

    प्रकृति चेता गई है, थोड़े दिनों की मोहलत भी दे गई है "योग को अपनाओं रोग को भगावो" ये सीखा गई है।" प्रकृति को सँवारों और सांसों को सहेज लो" समझा गई है। यदि अब भी हम ना समझे तो अभागे है हम और हम जैसे अभागों को कोई हक नहीं बनता जो किसी पर भी दोषारोपण करें। ना समाज पर,ना सरकार पर,ना डॉक्टर-बैध पर और ना ही भगवान पर। 

   "बंधन" सांसों का जीवन से,तन का मन से,सृष्टि का प्रकृति से,मानव का मानवता से और आत्मा का परमात्मा से , जब तक है हमारा आस्तित्व है खुल गया सब बिखर जायेगा और फिर विनाश निश्चित है। 

    ये भी सत्य है कि -पिछले कुछ दिनों में बदलाव तो आया है लोगो ने योग को अपनाया है, कुछ प्रयासरत है ,कुछ ना समझे है जो समझकर भी नहीं समझते उन जैसो से तो कोई अपेक्षा रखनी ही नहीं चाहिए मगर जो भी प्रयासरत है उन्हें प्रोत्साहित जरूर करना चाहिए। 

आइये आज इस योग दिवस पर हम भी प्रण ले कि -"योग को अपनायेंगे रोग को हराएंगे"

फिर बाकी जीवन तो खुद-ब-खुद सँवर जायेगा.....



शुक्रवार, 18 जून 2021

"माँ बारिश क्या होती है ?"

    



   "माँ फिल्मों में सावन के रिमझिम पर इतने सारे गीत क्यों बने है.....क्या ख़ासियत थी इस महीने की....हमने तो कभी इसे इतना बरसते नही देखा.....हमारे लिए तो ये आग उगलता घुटन भरा मौसम ही होता है।" हाँ , बेटा तुम लोग कैसे देखोगे...हमने ऋतुओं का रंग-रूप जो बिगाड़ दिया....बारिश का होना बृक्षों के होने ना होने पर निर्भर करता है और हमने तो धरती को वृक्ष विहीन ही करने की ठान रखी है। पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर हमने ऋतुओं को भी अपना स्वभाव बदलने पर मजबूर कर दिया है।

    बेटा तुम्हें पता है- भारत-वर्ष की सबसे बड़ी  ख़ासियत कहो या खूबसूरती वो है "यहाँ के रंग बदलते चार मौसम "शीत,बसंत,ग्रीष्म और रिमझिम बरसता सावन यानि बरसात" ये ऋतुएँ ही हमारे भारतवर्ष को सम्प्रभुता भी प्रदान करती है। सबसे बड़ी विशेषता है इन ऋतुओं के शुरू होने से पहले इन से जुड़े तीज-त्यौहार....एक ऐसी प्रक्रिया जो हमें परिवर्तन का नियम सिखाती है और इस परिवर्तन के अनुसार तन-मन को ढालना भी सिखाती है। दो ऋतुओं के बीच आने वाले नवरात्रि के नौ दिन के नियम जो हमारे शरीर को आने वाले मौसम के अनुकूल सहजता से परिवर्तित करने के लिए बनाये गए थे। 

   हमने बचपन के दिनों में देखा है- कैसे एक नियत समय पर हर मौसम आ जाता था और उसकी पूर्व से ही तैयारी हर घर में शुरू हो जाती थी। जैसे अश्विन नवरात्रि जिसे शरदीय नवरात्रि भी कहते हैं,इसका आना यानि "अब बरसात के जाने और सर्दी के आने का समय हो गया है।" दशहरा से हल्की मीठी ठंढ तन-मन को गुदगुदाने लगती थी  और सर्दी के लिए गर्म कपड़ो की तैयारी के लिए  महिलाओं के हाथ में ऊन -सलाई दिखने लगती थी....घरो को गर्म रखने के लिए आग जलाने की व्यवस्था होने लगती थी...दीवाली पर घरों की अच्छे से सफाई होती थी ताकि बरसात में फैले कीड़े-मकोड़ो और गंदगी की सफाई हो जाए...क्योंकि चार महीने तो कड़कती ठंड के कारण घरों की विस्तृत सफाई तो हो नहीं पायेगी। वैसे ही बरसात ऋतु के स्वागत की तैयारी तो पुरजोर होती थी क्योंकि पता ही नहीं होता था कि -एक बार इंद्रदेव बरसना शुरू हुए तो फिर कब रुकेंगे। घरों की तैयारियां अलग और किसानों की तैयारी अलग...आखिर पुरे साल का अनाज जो देकर जाते थे इंद्रदेव। 

   हिंदी महीने का आषाढ़ माह यानि जुलाई महीना से बारिश  शुरू हो जाती थी,बिल्कुल अपने नियत समय पर,ज्यादा से ज्यादा एकाध -दो दिन ऊपर नीचे । बारिश शुरू होने से पहले घरों में राशन भर लिया जाता था,खासतौर पर जलावन यानि लकड़ियां। उन दिनों तो अधिकांश घरों में लकड़ी ही मुख्य  ईंधन था। जो शहर में रहते थे वो थोड़ा स्टेंडर होते उनके यहाँ कुन्नी के चूल्हे की व्यवस्था थी। ( लकड़ियों से निकले बुरादे को एक विशेष प्रकार के चूल्हे में भरकर एक-दो लकड़ियों की सहायता से जलाई जाती थी जिसमे मिट्टी के साधारण चूल्हे के अपेक्षा थोड़ी ज्यादा सहूलियत होती थी )बेटा, बृक्ष हमारे जीवन का मुख्य हिस्सा थे वो हमें शुद्ध हवा और बारिश ही नहीं वरन पर्याप्त ईंधन भी देते थे मगर, ईंधन के लिए लोग पूरा पेड़ नहीं काटते थे...देखकर हर पेड़ से सुखी डाली ही काटी जाती थी। 

     तुम्हें बचपन की एक घटना सुनती हूँ -बात 82 -83 की है। आषाढ़ शुरू होने के 10 दिन पहले से ही माँ, पापा को बोल रही थी कि -"बरसात शुरू हो जायेगा कुन्नी और लकड़ी आँगन में ही पड़ा है उसे ऊपर रखवाने की व्यवस्था करवा दीजिए...थोड़ा और कुन्नी और लकड़ी भी मंगवा दीजिए " (बरसात के दिनों में जलावन को मचान बनाकर एक शेड के नीचे रखा जाता था ) पापा आजकल  कर के टाल रहे थे। एक रात बारिश शुरू हो गई,कुन्नी और लकड़ी की चिंता में माँ की नींद गायब हो गई और वो पापा की भी नींद हराम करने लगी -"अब सारा जलावन भींग जाएगा सुबह बच्चों के लिए खाना कैसे बनाऊँगी " पापा बोले-अरे,आज पहली ही बारिश है....इतना थोड़े ही बरसेगा....कुछ नहीं होगा तुम्हारे जलावन को...सो जाओं और मुझे भी सोने दो " पापा ने समझा-बुझाकर माँ को सुला दिया। बारिश ने जेठ की तपती गर्मी  से तन-मन को ऐसी राहत दी कि -हम सब घोड़े बेचकर सो गए। सुबह छह बजे माँ की नींद खुली,कमरे में अँधेरा था, माँ ने जैसे ही जमीन पर पैर रखा वो चीख पड़ी। उसकी चीख से हम सब उठ बैठे, पापा ने झट से लाईट जलाया तो देखते हैं कि -घर में एक-डेढ़ फुट पानी भर गया है और सारे हल्के-फुल्के सामान पानी में तैर रहे है। पापा जब दरवाजा खोल आँगन में गए तो होश उड़ गए उनके...सारा कुन्नी और पानी एक हो गया था और लकड़ियां बेचारी पानी में डूबी पड़ी थी। बारिश अब भी बहुत तेज हो रहा था...माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर...अब बादल नहीं माँ कड़क रही थी। उसने जो पापा की क्लास ली कि पूछो मत, पापा जीवन भर वो सुबह भूल नहीं पाए और फिर माँ के ऐसे हुक्म की नाफ़रमानी कभी नही की। 

     मेरी माँ वैसे तो बहुत ही शांत स्वभाव की थी...हमनें माँ-पापा को लड़ते कभी नहीं देखा था लेकिन...वो कहते हैं न कि -माँ सब कुछ सह जाती है मगर, बच्चों को भूखा रखने के ख्याल से ही वो सबसे लड़-भीड़ लेती है। मेरी माँ का भी वही हाल था। अब कुछ उपाय नहीं सूझ रहा था...पड़ोस के ऑफिसर फैमली ने हमारे घर की हालत बिन बताएं समझ लिया था..क्योंकि माँ की उनसे बहुत अच्छी दोस्ती थी..उन्होंने अपने  घर से स्टोव (कैरोसिन ऑयल से जलने वाला चूल्हा )भेजा...फिर माँ ने एक चौकी के ऊपर सारी व्यवस्था की....तब कही जाकर खाना बना। हम बच्चों के लिए तो वो दिन उत्सव का था....हमें क्या मतलब कैसे खाना बन रहा है...हम तो बाढ़ और बारिश के मजे लेने में लग गए । बाढ़  के पानी के साथ रंग-बिरंगी मछलियां भी आ गयी थी....कॉलोनी के सारे बच्चें बारिश का मजे लेने मैदान में उतर गए...कोई मछली पकड़ रहा है ...कोई कागज की नाव पर सैर कर रहा है...कुछ लड़के एक दूसरे को उसी पानी में धो रहे है। उफ्फ!! क्या मस्ती का दिन था वो....आखिर मौसम की पहली बारिश जो थी। 

   क्या बताऊँ बेटा, बड़ी याद आती है उन दिनों की। उन दिनों हर मौसम का अपना एक खास महत्व और मजा था। हमें ये पता होता था कि -इस मौसम की ये जरूरतें है...ये पहनने को मिलेगा...ये खाने को मिलेगा...स्कूल आने-जाने का समय बदलेगा....एक उत्सुकता  रहती थी हर चीज के लिए। मगर अब, आम और तरबूज खाने का इंतजार नहीं करना होता..क्योंकि वो अब हर मौसम में मिलता है....बारिश के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती....क्योंकि पता ही नहीं है वो कब बरसेगा...बरसेगा भी या नहीं...कही इतना बरसेगा की बाढ़ ला देगा...कही बून्द को भी किसान तरसेंगे।बेटा ,ये सब पर्यावरण के साथ हमारे खिलवाड़ का नतीजा है...प्रकृति के साथ आवश्यकता से अधिक छेड़-छाड़ ने मौसमो का मिजाज़ बदल दिया। 80-90 के दशक तक भी पर्यावरण का दोहन बहुत सोच-समझकर किया जाता था। अगर कोई पेड़-पौधे या प्रकृति के साथ खेलवाड़ करता भी  था तो आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जैसे पर्यावरण के संरक्षक अपना तन-मन समर्पण कर प्रकृति की रक्षा करते थे। लेकिन धीरे-धीरे प्रकृति का अति दोहन हुआ और पर्यावरण बदला....फिर ऋतुओं ने भी अपना समय ही नहीं अपना रंग-ढंग भी बदल दिया। जिन सावन-भादों के रिमझिम फुहारों पर गीत और कविताएँ लिखी जाती थी....आज वो सावन आग उगल रहा है।अब तो बस कवियों के कल्पनाओं  में ही सावन गीत भी मुस्कुरा लेते है। 

  बच्चें, हमारी पीढ़ी ने बड़ी नासमझी की मगर...तुम सब तो जेट-नेट युग के बच्चें हो...तुम्हें तो हमसे कही ज्यादा ज्ञान है....कम से कम तुम सब तो ऐसी गलती नहीं करों....जितना तुम से बन पड़े उतना ही प्रकृति का संरक्षण खुद भी करों और अपने दोस्तों को भी प्रेरित करों.....जितना हो सकें पेड़ लगाओ....क्योंकि पेड़ नहीं होंगे तो बारिश भी नहीं होगी। पेड़ और बारिश का साथ ऐसा जैसे तन के साथ साँस जुड़ा होता है...जब तक साँस चल रही है....ये शरीर जिन्दा है, वैसे ही जब तक बृक्ष जिन्दा है...तब तक बारिश है, बृक्ष और बारिश है .....तो सृष्टि पर खाध-पदार्थ है....साँस लेने के लिए प्राण-वायु है और.....ये दोनों है तो ही हमारा अस्तित्व है। तुम आज मुझसे सावन के बारे में पूछ रही हो...कही तुम्हारी गलतियों की वजह से तुम्हारे बच्चें एक दिन तुम से ये ना पूछे कि -"माँ बारिश क्या होती है ?"


गुरुवार, 10 जून 2021

"मर्जी हमारी..आखिर तन है हमारा...."




      सर्वविदित है,आजकल "आर्युवेद" और "एलोपैथ" में घमासान छिड़ा हुआ है। आज से पहले शायद, ऐसी बहस कभी देखने को नहीं मिली थी। क्योंकि आर्यवेद ने कभी सर उठाया ही नही ,कैसे उठता बेचारा वो अपनों से ही उपेक्षित जो था। उसे तो अछूत समझ सब अलग हो ही गए थे। अब निमित कोई भी बना हो मगर सत्य यही है कि -"आर्युवेद"सर उठा रहा है। अब स्वाभाविक है जो इतने दिनों से मुँह छुपाये फिर रहा था...काबिलियत होते हुए भी नाकाबिल करार दे दिया गया था....वो भी अपनों के द्वारा....वो यदि धीरे-धीरे अँधेरे से निकल घर के बाहर उजाले में आने लगा तो....अचरज तो होगा ही और जिस पडोसी ने घर के अपने ही संतान को घर से बाहर निकाल दिया था और समस्त परिवार पर अखलराज कर रहा था...वो तो तिलमिलायेगा ही। अब बेचारा "आर्युवेद" शिकायत भी किससे करता ?

   लेकिन आज के इस दौर के "कोरोना काल " में आर्युवेद और योग ने अपना महत्व समझा ही दिया है,इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।  "गिलोय" जिसे आर्युवेद की अमृता कहते हैं आज से दस साल पहले एका-दुक्का ही इसका नाम जानते थे आज बच्चा-बच्चा जानता है। यकीनन पचास प्रतिशत घरों में इसका पौधा भी मिल जायेगा। वैसे ही एलोविरा अर्थात "घृत कुमारी" जिसका नाम कभी-कभी दादी के मुख से सुना था मगर देखा नहीं था आज घर-घर में मिल जाएगा। ऐसे कितने ही औषधियों का नाम हम जान चुके हैं। योग से तो युग-युग की दुरी हो गई थी,प्राणायाम किस चिड़िया का नाम है जानते भी नहीं थे, आज अपना रहे हैं । 

    बड़ा दुखद है अपनों को भुलाकर हमने गैरों को अपना लिया। गैरों को अपनाने में कोई बुराई नही ये तो हमारी सहृदयता है, सबको मान-सम्मान देने की हमारी भावनाओं ने ही तो हमें अपनी अलग पहचान दी है। मगर, इसके लिए क्या अपनों को उपेक्षित करना जरूरी था ?बिलकुल नहीं।  200 सालों की गुलामी ने हमसे हमारा बहुत कुछ छीन लिया। ये बात सत्य है कि -अंग्रेज तो चले गए लेकिन उनकी गुलामी से हम कभी आजाद नहीं हुए। उन्होंने हमारी रग-रग में अपनी अपनी संस्कृति और सभ्यता भर दी और उसी में ये एक "एलोपैथ" भी है। 

    मेरा मानना है कि ना कोई सभ्यता-संस्कृति बुरी होती है ना कोई "पैथ" यानि ईलाज का तरीका। बुरे होते हैं  इसका गलत प्रसारण करने वाले या गलत शिक्षा देने वाले या स्वार्थ से बशीभूत हो इसका दुरोपयोग करने वाले और इनसे भी पहले हम खुद...खासतौर पर वे जो पढ़े-लिखे है, अनुभवी है या यूँ कहे  जो खुद को ज्ञानी मानते हैं। जिनके पास बुद्धि-विवेक तो है पर  परखने की शक्ति नहीं....सर्वसामर्थ होते हुए भी जो सही गलत को चुन नहीं पाते। 

    हाँ,बुरा ईलाज का तरीका नहीं है बुरे हो गए है ईलाज करने वाले। बुरे हो गए है हम जिन्हे सब कुछ "इंस्टेंट "चाहिए। ना हममें धीरज बचा है ना सहनशक्ति। जिसका नाजायज फायदा "एलोपैथ" उठता है। क्यों ना उठाये---उसने देखा कि ये लोग तो खुद ही अपनी पद्धति को ठुकरा चुके हैं सिर्फ उनके धीमें  रफ्तार के कारण तो यदि, मैंने भी वही तरीका अपनाया तो मेरी  दुकानदारी भी बंद हो जायेगी...जैसे भी हो तत्काल रोग को ठीक करो और तत्काल ठीक होने का कुछ तो बिपरीत प्रभाव जरूर होगा। साधारण सी सर्दी-जुकाम जिसकी उम्र सिर्फ ढाई दिन की होती है उसके बाद वो खुद ब खुद बिना दवा के ठीक हो जाता है आज वो लाईलाज "कोरोना " का रूप ले लिया है क्यों ? छोटे-छोटे रोगों में भी  एंटीबायोटिक खा-खाकर अनगिनत रोगों को न्यौता दे दिया हमने। 

   आज ये झगड़ा या बहस सिर्फ एलोपैथ या आर्युवेद का नहीं है। ये बहस हमें खुद से करनी होगी हमें क्या चाहिए "इंस्टेंट आराम या सम्पूर्ण रोग विराम " ये हमें तय करना है। 

    "पैथ "कोई भी हो सबकी अपनी एक खास महत्ता है सब अपने आप में परिपूर्ण है। मुश्किल से मुश्किल रोगों को भी नेचुरलपैथ, आर्युवेद और होमियोपैथ से भी ठीक होते देखा गया है। इन पैथो से मुख मोड़ने और एलोपैथ की तरफ आकर्षित होने की खास वजह थी "डॉक्टरों का रवईया " एलोपैथ के डॉक्टर जब तेज़ी से रोगो को दूर करने लगे तो सबका आकर्षित होना लाजमी था। उस वक़्त धीरे-धीरे होमियोपैथ और आर्युवेद के डॉक्टरों के पास मरीजों की संख्या घटने लगी। उस वक़्त ये डॉक्टर भी मरीजों को फंसाये रखने के लिए या यूँ कहे अपनी दुकानदारी चलाने के लिए ईलाज का तरीका कॉम्प्लिकेटेड करते गए। अब यहां इन डॉक्टरों की इस  मानसिकता के पीछे एक और वजह थी "हमारी गलत सोच" -जब हम एलोपैथ से ईलाज करवाते हैं तो डॉक्टर दवा देने के बाद कहता है -"फिर तीसरे दिन आकर दिखवा लेना" रोग ठीक हो या ना हो हम तीसरे दिन उस डॉक्टर के पास दुबारा जरूर जाते हैं  लेकिन जब दूसरे पैथ में ईलाज करवा रहे होते हैं  तो तीन दिन में रोग ना ठीक हो तो डॉक्टर को दोषी करार दे डॉक्टर बदल लेते हैं और यदि ठीक हो जाए तो दुबारा जाकर सलाह लेने की जहमत नहीं उठाते। क्योंकि हमारी नज़र में इन पैथो की महत्ता इतनी ही है। भले ही एलोपैथ ने "इंस्टेंट" एक रोग ठीक कर हमें दूसरे रोग का शिकार बना लिया हो फिर भी हम उस डॉक्टर की तारीफ करते हुए दुबारा उसके पास जायेगे मगर दूसरे पैथ उसी रोग को तीन दिन के वजाय छह दिन में पूर्ण  ठीक कर दे वो भी बिना किसी साईड इफेक्ट के तो भी हम उस डॉक्टर को नाकारा घोषित कर देंते हैं । 

    हमारी इसी मानसिकता ने सभी पैथों के डॉक्टरों को हमें लूटने की खुली छूट दे दी। अब हम जब खुद लूटने को तैयार है तो कोई लूटेगा क्यों नहीं ? हमारी ये भी मानसिकता हो गयी है कि -"अच्छा डॉक्टर वही है जिसकी मोटी फ़ीस है जिसके पास ताम-झाम ज्यादा है।" होमियोपैथ में भी जितने भी डॉक्टरों की मोटी फीस है उनके यहाँ मरीजों की लम्बी लाइन लगी होती है मगर  एक छोटा सा क्लिनिक खोलकर बैठा डॉक्टर कितना भी काबिल  हो उसकी कदर नहीं होती भले ही वो महंगे डॉक्टर से कम पैसों में आपका बेहतर ईलाज कर दे। यहाँ  हम ये बात सिद्ध कर देते हैं कि -"जो दिखता है वही बिकता है"इसिलए आजकल  दिखावे पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। 

  मेरा मानना ये है कि -हम खुद ही समस्याओं को जटिल करते हैं और जब वे हमें जकड़ लेती है तो दोषारोपण भी खुद ही करते हैं और यही करके हमने खुद डॉक्टरों को हमारे साथ गलत करने को मजबूर किया है। "एलोपैथ पद्धति" में शुरू से ये बात स्पष्ट था कि -इसके साइड इफेक्ट होते हैं, सिर्फ एक यही कारण था कि -डॉक्टर हैनीमेन जो खुद एक प्रख्यात एलोपैथ डॉक्टर थे इस पद्धति से संतुष्ट नहीं थे और उनकी इसी असंतुष्टि ने होमियोपैथ को  जन्म दिया था। ये बात जगजाहिर था कि इन दवाओं का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।

   आज कोई भी पैथ  के डॉक्टर हो सभी रोगी का ईलाज नहीं बिजनेस कर रहे हैं। मुझे "आनंद फिल्म"के दो डॉक्टर्स याद आ रहे हैं एक डॉ.भास्कर बनर्जी जो लोगो के दुःख दर्द से दुखी होते हैं  उसे पूरी तरह ठीक करने का रास्ता ढूढ़ते रहते हैं, जिन्हे रोग नहीं है उन्हें बेवजह दवाईयां नहीं देते, डांटकर भगा देते है, उनके इस व्यवहार के कारण एक काबिल डॉ.होने के बावजूद वो सफल डॉ. नहीं होते  और एक डॉ.प्रकाश जो काबिल भी है और सफल भी क्योंकि उन्होंने रोगियों की मानसिकता पकड़ ली है। उस फिल्म में अच्छी कहानी के साथ-साथ मेडिकल से जुड़ा सत्य भी उजागर हुआ था कि -डॉक्टरी भावुक  होकर नहीं की जा सकती रोगी की मानसिकता भी पहचाननी जरूरी है साथ-ही-साथ डॉक्टरों को मरीजों के जान के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझनी जरुरी है,डॉक्टरी सिर्फ पैसे कमाने के लिए भी नहीं है । आज डॉक्टर प्रकाश जैसे डॉक्टरों की ही आवश्यकता है। 

   चाहे ईलाज की पद्धति कोई भी हो डॉक्टरों का सहृदय होना बेहद जरूरी है वो अपना धर्म अगर भली-भाँति निभाए तो हर पैथ में सफल ईलाज संभव है। रोगो के जटिल होने पर एलोपैथ ने अनगिनत बार लोगों की जान बचाई है वही धीमे रफ्तार की कही जाने वाली होमियोपैथ  की दवाओं के इंस्टेंट चमत्कार  को भी मैंने खुद अनुभव किया है। जहाँ तक आर्युवेद की बात है वो तो भारत  की सबसे पुरानी पद्धति है,जिसकी औषधी हमारे घरों में किसी ना किसी रूप में हर वक़्त उपलब्ध रहता है और वो भी इंस्टेंट असर करता है। बस आवश्यकता है हमें अपनी मानसिकता बदलने की। "मर्जी हमारी है ,आखिर तन  हमारा है"

मेरा मानना है-निष्पक्ष होकर रोगों के जटिलता के अनुसार ही हमें किसी भी पैथ का अनुसरण करना चाहिए। 

बुधवार, 2 जून 2021

"जीवन साथी साथ निभाना "



जीवन साथी साथ निभाना 

बीच राह में छोड़ ना जाना 

थामा है जब हाथ हमारा 

अंतिम सफर तक संग में आना 


दुल्हन बनी जिस दिन से  तेरी 

तुम्ही बसे हो नयनन में मेरी 

सुख मिला या दुःख जीवन में 

थामे रही तुम्हें बाँहों में 


रहना था संग हर पल तेरे 

पर कासे  कहूँ ये, किस्मत के फेरे 

समय के इस कठिन डगर पे,

चलना है, दोनों को अभी अकेले 


माना,वक़्त ने दूर किया है  

मिलने से भी  मजबूर किया  है

तन की दुरी सह जाऊँगी  

मन जो टुटा मर जाऊँगी 


दिन वो सुहाना फिर आएगा 

प्यारा हमारा रंग लाएगा 

मन को ना तुम करों मलिन

मिलन गीत गाएंगे फिर मन मीत 


प्यार की बदली फिर छायेगी 

घडी मिलन की फिर आयेगी 

आखियाँ बहुत है, बरसी अब तक 

अब सावन की बुँदे बरसेंगी  


***********************



मंगलवार, 18 मई 2021

"हम सुधरेंगे युग सुधरेगा"



2012-13 में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमे दिखाया गया था कि-परिवार का हर एक सदस्य अपनी  पीठ पर एक ऑक्सीजन सिलेंडर बांधे हुए है। डाईनिंग टेबल पर खाना खाते हुए  पत्नी पति से कहती है -"आज शाम तक टोनी (उसका बेटा ) का ऑक्सीजन खत्म हो जायेगा ऑर्डर कर देना "पति हाँ में सिर हिलता है और सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं। शाम को घर आते ही बच्चा माँ से सिलेंडर मांगता है। माँ पापा से कहती है -तुमने सिलेंडर आर्डर नहीं किया था क्या,अभी तक नहीं आया ?पति कहता है -ऑफिस के कामों में मैं भूल गया तुम भी तो कर सकती थी। माँ कहती है मेरे पास पैसा नहीं था। फिर दोनों में बेलम-गेम शुरू हो जाता है, बच्चा कहता है अब तो आर्डर कर दो मेरा ऑक्सीजन बस एक घंटे का है। फिर माँ आर्डर करती है, मगर एक घंटे में सिलेंडर नहीं आ पता। ऑक्सीजन खत्म होने के बाद बच्चें की हालत खराब होती जाती है। वो एक-एक साँस मुश्किल से ले पा रहा,जैसे-जैसे वक़्त गुजरता है बच्चें की हालत नाजुक होती जा रही है ,माँ-बाप बच्चें को गोद में लिए खुद भी तड़प रहे,अपनी बेबसी और भूल पर रो रहे हैं ,छोटी बहन बार-बार दौड़ कर  दरवाजे पर जाती है, पिता डिलीवरी वाले को बार-बार फोन कर रहा है। तभी दरवाजे पर घंटी बजती है माँ दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोलती है सिलेंडर वाले से लगभग झपटते हुए सिलेंडर लेती है और उसे बच्चें को लगाती है। लगभग दो मिनट बाद बच्चा थोड़ा नॉर्मल होता है सबकी जान में जान आती है।उस वीडियो के मुताबिक 2025-30 तक पुरे विश्व की हालत यही होगी यदि हम सचेत नहीं हुए तो। 

इस वीडियो को देखने के बाद मैं बहुत सहम गई, कई दिनों तक नींद गायब हो गई। हर वक़्त मन में एक ही सवाल -क्या हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए ये दिन छोड़कर जायेगे ? वैज्ञानिक अपनी तरफ से जरूर हर संभव प्रयासरत होंगे लेकिन क्या हमारी खुद की कोई जिम्मेदारी नही है ? आखिर सब कुछ बिगाड़ने में हमारा भी तो हाथ है। मैंने अपनी तरफ से जो बन पाया करना शुरु कर दिया जैसे, टैरिस गार्डन लगाना,कूड़ा खुद भी नहीं जलाती और पड़ोसियों को भी रोकती,सेहत ठीक करने के बहाने पतिदेव को गाड़ी कम इस्तेमाल करने को कहती,  आदि। कभी-कभी मन में ख्याल भी आता कि -एक मेरे करने से क्या होगा,मगर दूसरे ही पल खुद को समझाती "अपने हिस्से की जिम्मेदारी तो निभाओ " खैर 2014-15 से धीरे-धीरे दिल्ली में प्रदूषण का स्तर किस कदर बढ़ा ये तो जग जाहिर है। गाड़ियों के धुएं, घुल की आँधी,कारखानों की जहरीली गैस ने तो नाक में दम कर ही रखा था ऊपर से खेतो में पराली का जलना तो  एक-एक सांस लेना दुर्लभ कर दिया। 

इतने प्रदूषण के वावजूद जब त्यौहार आते तो दशहरा में रावण जलाने से लेकर दिवाली के पटाखों के बाद घर-घर में दमा के मरीज भर जाते। बुजुर्गों की हालत इतनी दयनीय होती कि -आज के कोरोना-काल की तरह उन्हें घर में कैद हो जाना पड़ता, तब भी मौत की संख्या बढ़ ही जाती। उन्ही बदनसीबों में से एक मेरा भी परिवार था। 2016 के 23 नवम्बर को  प्रदूषण के कारण ही मेरे पापा को साँस लेने में थोड़ी दिक्क्त शुरू हुई। इलाज शुरू हुआ, डॉक्टरों के सारे ड्रामे चलते रहे , 31 जनवरी को कहा गया कि -फेफड़े में एक छोटा धब्बा नज़र आ रहा है शायद कैंसर हो , 28 फरवरी को कैंसर चौथे स्टेज पर पहुंच गया और पापा लाईलाज हो गए और 4 मार्च को हमें छोड़ इस प्रदूषण के दुनिया से बहुत दूर चले गए । 

इस घटना के बाद मेरा परिवार टूट सा गया क्योंकि नवम्बर तक मेरे पापा हट्टे-कट्टे थे,74 साल के उम्र में भी हर रोग से दूर,उनका अचानक जाना हमारा परिवार सह नहीं पा रहा था और बच्चों के लिए तो यकीन करना मुश्किल ही था। उस वक़्त मेरा 5 साल का भतीजा मुझसे सवाल किया "बुआ आप दादा जी को क्यों नहीं बचा पाई आप तो डॉक्टर है न "(मैं होमियोपैथ की डॉक्टर हूँ,बच्चें को मुझ पर बहुत यकीन था) मैंने कहा-नहीं बचा पाई क्योंकि दादाजी को किसी बीमारी ने नहीं मारा बल्कि प्रदूषण ने मारा है। बच्चें ने प्रदूषण पर ढेरों सवाल खड़े कर दिए,मैंने यथासम्भव और उसके समझ के हिसाब से समझाने की कोशिश की। उस उम्र के बच्चें का सबसे गंभीर प्रश्न- क्या हम प्रदूषण को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकते ? मैंने समझाया क्यों नहीं कर सकते, जरूर कर सकते हैं  सबसे पहले तो दिल्ली के प्रदूषण को रोकने के लिए हम पटाखें जलाना छोड़ सकते हैं, कूड़ा और गंदगी को जलाना छोड़कर हवा प्रदूषित होने से रोक सकते हैं और अपने छत पर छोटा सा गार्डन लगा सकते हैं। 

उस छोटे से बच्चें ने उसी वक़्त संकल्प लिया हम भाई-बहन (कुल मिलाकर सात बच्चें है घर में )आज से पटाखें नहीं जलायेगे और अपने दोस्तों को भी समझायेंगे कि -"पटाखें नहीं जलाओ"साथ ही साथ हम जितना होगा पौधे लगयाएगे। हमारे घर के बच्चों ने झूठी कसम नहीं खाई थी वो दिन है और आज का दिन हमारे घर में पटाखें नहीं जलाये गए। 

ये सारा वृतांत सुनाकर मैं सिर्फ ये कहना चाहती हूँ कि -बड़ी-बड़ी योजनाएं तो अपनी जगह है हम सभी अपने हिस्से की छोटी-छोटी जिम्मेदारी भी निभा ले तो ये बड़ी समस्या भी छोटी हो सकती है। आज अनेको उदाहरण भरे पड़े है जहाँ अपने बलबूते पर ही प्रकृति और पर्यावरण के लिए कई लोग बहुत कुछ कर रहें है। लेकिन हम उनसे प्रेरित ना होकर उन्हें देखते है जो लोग इसके विपरीत काम करते हैं अर्थात पर्यावरण को दूषित करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। उन्हें देख हम कहते हैं कि -सब तो कर रहे हैं एक मेरे ना करने से क्या होगा ?

2020 में जब लॉक डाउन हुआ था तो हम सबने प्रत्यक्ष देखा था कि -प्रकृति ने अपना शुद्धिकरण कैसे किया था। उस परिणाम स्वरूप चंद साँसे हमारी बढ़ गई थी लेकिन हमने इतने बड़े घटनाक्रम से भी कुछ नहीं सीखा और जैसे ही दुःख के दिन बीते हम फिर वही लापरवाही करने लगे। प्रकृति फिर कुपित हुई और इस बार उसने पर्यावरण में नहीं हमारे फेफड़ों में ही साँसे कम कर दी। ये कथन कि -"एक के किये से कुछ नहीं होता " इसे भी गलत साबित कर प्रकृति हमें समझा रही है कि -तुम्हारे घर का एक बंदा ही मौत को लेकर घर में प्रवेश कर रहा है और पूरा का पूरा परिवार "काल के गाल" में चला जा रहा है। 

रामायण में वर्णित एक गिलहरी की कहानी सब जानते हैं कि -रामसेतु पुल बनाने में कैसे उसने अपना छोटा सा ही सही योगदान दिया था। यदि हम वो गिलहरी भी बन जाए और अपने हिस्से का फर्ज निभा ले तो स्थिति बहुत हदतक सुधर सकती है।जैसे कि -घर में पांच व्यक्तियों के लिए पांच गाड़ी रखने को हम अपना स्टेटस सिंबल ना समझ, ये समझे कि -हम जिम्मेदार है हवाओं में जहर घोलने के लिए।गाड़ियों को प्रदूषण रहित रखने की जिम्मेदारी ना निभाना और घुस देकर प्रदूषण फ्री का सर्टिफिकेट ले लेने को अपनी समझदारी ना समझे। हम ये मान ले कि -अपना घर साफकर कूड़ा सड़क के किनारे फेकना सफाई नहीं है। उस कूड़े को सही तरिके से विघटित ना कर कही भी इक्ठाकर जला देना हमारी बेवकूफी है। जहर घुल चुकी हवाओं में त्यौहार के नाम पर या शादी-उत्सव के नाम पर पटाखें जलाकर और जहरीला बनाने को ही खुशियां मनाने की संज्ञा ना दे,बल्कि ये  समझे हम ख़ुशी नहीं अपनी मुसीबत आप बुला रहे हैं। 

ये बातें बहुत छोटी है परन्तु बहुत महत्व रखती है। पहले खुद सुधर जायेगे तभी तो सिस्टम और सरकार पर उँगली उठाने के काबिल रह पाएंगे।दूसरों पर ऊगली उड़ाने से पहले एक ऊँगली अपनी तरफ भी होनी चाहिए। सिर्फ धरना-प्रदर्शन कर, बड़ी-बड़ी बहस में शामिल होकर हम किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। एक आपबीती और याद आ रही है -एक शिक्षिका थी जो समाज सेविका भी थी वो  खुद की बहु को दहेज के लिए प्रताड़ित कर स्कुल के मंच पर ही नहीं बड़ी-बड़ी सभाओं में भी जाकर दहेज प्रथा के खिलाफ भाषणबाजी और नारेबाजी करती थी। हमें ये दोहरा व्यक्तित्व छोड़ना पड़ेगा। वरना कोरोना तो कुछ भी नहीं आगे इससे भी बड़ी विपदा हमारे आगे खड़ी है। ऑक्सीजन लेबल घटाया हमने है बढ़ाना भी हमारा काम है। 

हर समस्या के समाधान का बहुत ही साधारण मंत्र है -"हम सुधरेंगे युग सुधरेगा

                                                                                        हम बदलेंगे युग बदलेगा " 

 



गुरुवार, 13 मई 2021

"शुक्रिया"


एक दिन,निकले थे 

अनजान सफर पे..

रास्ते पता ना थे 

मंजिल की परवाह ना थी 

बस अपनी धुन में.. 

कदम-दर-कदम बढाती गई 

उदेश्य,सिर्फ दिल की ख़ुशी 

कुछ टेढ़े,कुछ मेढ़े 

टूटे-फूटे शब्दों को जोड़ते 

मन की बात 

कलम कहती गई 

साथी मिलते गए 

हौसला अफजाई होती गई

दोस्तों का संग मिला 

महफ़िल सजती गई

गुणीजनों का सहयोग मिला 

ज्ञान-गंगा बढ़ती गई  

अब रुकना कहाँ है ?

परवाह नहीं... 

ख़ुश हूँ,मुतमइन हूँ  

और आज,

सौवे पायदान पर 

कदम रख चुकी हूँ... 

आपका संग,आपका आशीर्वाद 

 रास आ गया मुझे 

शुक्रिया....शुक्रिया 

तहे दिल से शुक्रिया दोस्तों !


--------------------------------------

आज की इस बिषम परिस्थिति में खुद को व्यस्त , संयमित

और सकारात्मक रखने का एक मात्र सहारा  "लेखन कार्य " 

किसी से कुछ सीखते हैं किसी को कुछ सिखाते हैं,

बिना किसी से शिकवा-शिकायत किये 

वक़्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का प्रयास करते हैं। 

खुश रहते है और दूसरों को खुश रखते है.....

एक बार फिर से आप सभी को 

हृदयतल से शुक्रिया....


 


बुधवार, 28 अप्रैल 2021

"ऑक्सीजन की कमी को दूर करें-होमियोपैथ की ये अचूक दवाएं"

 इन दिनों के "पैनिक" होते माहौल को देखते हुए और एक डॉक्टर होने के नाते आज आप सभी  से कुछ जरूरी दवाओं को साझा कर रही हूँ। शायद किसी एक की भी ये सहायता कर सकें तो सौभाग्य मेरा । 

"कोरोना" को झेलते हुए हमें लगभग एक साल से ज्यादा हो गया यदि हमने लापरवाहियां ना वरत कर थोड़ी भी समझदारी से काम लिया होता तो आज इस तरह से काल का ग्रास नहीं बने होते। हमने अपनी पारम्परिक जीवन शैली अपना ली होती,हर बात पर अंग्रेजी दवा लेते रहने की जगह सिर्फ अपने रहन-सहन का तरीका बदल दिया होता तो हालात कुछ और रहते। भारत की जनसख्या के हिसाब से हरएक को पूरी मेडिकल सुविधाएं देना असम्भव है और ये अब और मुश्किल हो चूका है जब मौत का भी सौदा होने लगा है। 

जिस तरह से यात्रा करते वक़्त वाहन पर ये लिखा होता है कि -"यात्रीगण अपने सामान की रक्षा स्वयं करें "

वैसे ही हमें खुद पर ये टैग लगा लेना होगा कि -"हमारी जीवन रक्षा की जिम्मेदारी हमारी स्वयं की है "डॉक्टर की नहीं,व्यवस्था की नहीं,सरकार की नहीं। रोग कहे या काल उसे हम खुद घर पर ला रहें है और दोष सरकार को दे रहे हैं। 

खैर,जो हो गया सो हो गया। अब भी सचेत जाये तो बहुत कुछ बचा सकते हैं -

सबसे पहले बात जो हजारो डॉक्टर चीख-चीखकर कह रहें है और आपने भी अपने आस-पास को देखकर ये महसूस किया होगा कि -

1 -हॉस्पिटल से ज्यादा आप घर पर सुरक्षित है। 

2 -आर्युवेद और योग  को अपनायें। 

मैं आपको कुछ होमियोपैथिक दवा बता रही हूँ जो कि -आजकल सोशल मिडिया पर भी बहुत आ रहा है लेकिन होमियोपैथ की दवाओं के बारे में सही जानकारी ना होने की वजह से लोग दुविधा में होते है कि लूँ या ना लूँ। 

मैं आपको पहले ये बता दूँ कि -होमियोपैथिक दवाएं बिलकुल सुरक्षित होती है ये यदि फायदा ना भी करें तो नुकसान नहीं करती (कुछ दवाओं को छोड़कर और वो दवा जल्दी से कोई भी डॉक्टर शेयर नहीं करता )

इन दिनों ऑक्सीजन के लिए हाय-तौबा मचा है,ऐसी बहुत सी दवाएं भी है और योगासन भी है जिससे आप अपनी ऑक्सीजन लेबल को समय रहते कन्ट्रोल कर सकते हैं। 

कुछ खास होमियोपैथिक दवा -

यदि आपके फेफड़े में बहुत ज्यादा कफ महसूस होता है और आपको सांस लेने में दिक्क्त हो रही है तो ---

Aspidosperma Q,20 बून्द आधे कप गुनगुने पानी में डाल कर चाय की तरह सिप लेकर पिए,हर एक घंटे पर,जब थोड़ा कण्ट्रोल हो जाए तो दिन में तीन से चार बार 5 -6 दिनों तक ले। असर आपको पहले डोज़ से ही होने लगेगा। 

दवा  तब तक लेना है जब तक आपके फेफड़े में जमा  कफ पूरी तरह ना निकल जाए। मगर दूसरे दिन से इसका डोज़ कम कर देना है अर्थात दिन में चार या पांच बार। 

कभी-कभी फेफड़े में कफ कन्जेक्शन कम है फिर भी साँस नहीं ली जा रही तो 

Vanadium 30 and carbo veg 30 ,4 drops सीधे जीभ पर आधे-आधे घंटे के अंतर् से बारी-बारी ले (अर्थात बदल-बदलकर ले )

 ठीक लगने पर आप दवा की डोज़ को कम कर देंगे,अर्थात दिन में दो-दो बार दोनों दवा alternate कर के लेना हैं दवा कम से कम 3 -4 दिन तक चलेगी। 

ये दवाएं आपको मौत के मुख से बाहर ला सकती है। 

हाँ,एक और बात और - अभी के हालत में ये देखा जा रहा है कि -आपको कुछ भी सिम्टम नहीं है बस आप पर कोरोना पॉजिटिव का ठप्पा लग गया है और आप पैनिक हो गए। ऐसे हालात में भी आपको साँस लेने में दिक्क्त का सामना करना पड़ रहा है और आप घबड़ा कर डॉक्टर के पास भाग रहे है। यदि ऐसे हालात हो तो,होमियोपैथ की चरपरिचित  दवा या यूँ कहे होमियोपेथी के शान है ये दवा -

Aconite 30,4 drop सीधे जीभ पर 15 -15 मिनट पर भी आप ले सकते हैं और इसके चमत्कार को देख आप दांतो तले उँगली ना दबा लिए तो कहना। 

दवा तब तक लेना है जब तक आपको आराम ना लगे,फिर बंद कर देना है ये दवा आपके डर को कम करता है। 

ये दवाएं बेहद असरदार है। ऊपर बताये तीनों दवा को आप साथ में भी ले सकते हैं आधे-आधे घंटे के अंतर पर। 

उम्मीद है, मैं आपकी कुछ मदद कर पाई हूँ। आज कल जानकारियां तो सभी के पास है आभाव है तो बस सतर्कता की। 

आदरणीय अयंगर जी को  सहृदय धन्यवाद ,मैं कुछ बातें नहीं बता पाई थी जिनकी ओर उन्होंने ध्यान दिलाया। 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

"जो तन बीते वो तन जाने, क्या जानेगे मुर्ख-सयाने"

 



चंद मनुष्यों की स्वार्थवादी निति जिसमे मनुष्यता के लिए कोई जगह नहीं....बस, एक लालसा विश्व पर राज करना। इतिहास गवाह है कि हर बार बस यही एक वजह होती है....एक पूरी मानव सभ्यता को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा करने की। एक बार फिर यही हो रहा है। पिछली गलतियों  से सीख नहीं लेना और गलतियों पर गलतियां करते जाना,  ये मनुष्य का आचरण बन गया है।हम मनुष्य जाति खुद को सुधारने की जगह दिन-ब-दिन खुद को नीचे और नीचे गिराते जा रहें है। 

माना, चीन की गलतियों की सजा  हम भुगत रहें है मगर क्या हमारी कोई गलती नहीं ? वो चंद मानवता के दुश्मनों को जो करना था उसने किया मगर क्या, हम चाहते तो इस काल से समय रहते चेत नहीं जाते ? माना,पिछली बार अनभिज्ञ थे नहीं समझ आ रहा था क्या करना है क्या नहीं। मगर,दूसरी बार भी हमने बैल को खुद न्यौता दिया "आ बैल मुझे मार। "

मानव मन में मानवता की भावना का आभाव, विवकहीनता और लापरवाहियों ने इस काल को फिर से आमंत्रण दे दिया है।  अब परमात्मा को नहीं हमें ही इसका अंत करना होगा,भगवान कुछ नहीं कर पायेगा अब। वो तो महाभारत के कृष्ण की तरह हमें चेतावनियाँ दे-देकर थक चूका है और हममें से कुछ  दुर्योधन,दुःशासन की तरह जिद्द पर अड़े है, कुछ  धृतराष्ट्र की तरह आँखों  पे पट्टी बाँधे हुए है, कुछ स्वार्थवश तथा सत्ता की लालसा में द्रोण और कृपाचार्य बने है और बहुत सारे लोग  पितामह की तरह बेबस है, चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनकी कोई सुनता ही नहीं है और द्रोपदी के  चीर की तरह मानवता तार-तार हो रही है।  युद्ध छिड़ चूका है जीवन और मृत्यु के बीच....अस्पताल युद्ध का  मैदान बन चूका है....लाशों की ढ़ेर लग रही है और श्री कृष्ण खामोश है...कुछ नहीं कर सकते...शर्मसार है मनुष्य जाति से। 

ये काल खुद-ब-खुद आपकी चौखट तक नहीं आ रहा है (ये काल क्या, कोई भी काल खुद-ब-खुद आपकी चौखट तक नहीं आता ) इसे दुर्योधन की तरह आपके ही घर का एक सदस्य घर तक लेकर आ रहा है और घर के बाकी सदस्य उस दुर्योधन को समझाने और रोकने का प्रयास नहीं कर रहें और उसकी सजा वो खुद भी भुगत रहें और समाज भी भुगत रहा है। गांधारी अपने एक लाल को समझा लेती तो उसे अपने सौ पुत्रों की बलि नहीं चढ़ानी होती। हम भी अगर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँधे रहे और घर के सदस्यों पर कड़ी नज़र नहीं रखें तो हमारा घर भी जीवन और मृत्यु के लड़ाई में शामिल हो जाएगा। 

(मेरे पहचान के एक दुर्योधन ने ये गलती की और सारा परिवार सजा काट रहा है)

शर्म आती है जब ऐसी स्थिति में भी राजनीति होती है,शर्म आती है जब ऐसी स्थित में भी अस्पतालों में लुटरे बैठे है ,( लूट लिया उस परिवार को लुटेरों ने )शर्म आती है जब ऐसी भयावह स्थिति को देखकर,अनगिनत जलती चिताओं को देखकर भी लोग दोषारोपण करते हैं,शर्म आती जब एक पढ़ा-लिखा समझदार दिखने वाला बंदा  लापरवाही से ये कहता है "ये कोरोना-वेरोना कुछ नहीं है सब नेताओं की चाल है। अरे !मानवरूपी पशु जाकर देखों उन घरों में जिन्होंने अपने प्रिय को तड़प -तड़पकर मरते देखा है और कुछ नहीं कर पाए  है यहाँ तक कि-उनकी अंत्येष्टि में  भी सम्मिलित नहीं हो पाए। 

"जो तन बीते वो तन जाने, क्या जानेगे मुर्ख-सयाने।"

हम मनुष्य जाति की सबसे बड़ी बिडंबना ही यही है कि -जब विपत्ति आती है तो हम बैठकर भगवान को कोसते है या उनसे मुनहार करते,मन्नते भी माँगकर प्रभु को रिश्वत देते हैं हाँ,कभी-कभी ये वादा भी करते हैं कि -"इस बार बचा लो प्रभु, अगली बार पूरी तरह सतर्क रहूँगा ,कोई गलती नहीं करूँगा,कान पकड़कर क्षमा मँगता हूँ "पर जैसे ही विपदा दूर हुई  "ढाक के वही तीन पात" फिर तो तुर्रमखां बन गए और वही गलती बार-बार नहीं हजार बार करते रहे हैं। 

आखिर क्यूँ करते हैं हम ऐसा ?क्या,हम अपनी गलतियों से सीखकर उसे सुधार नहीं सकते ?

अब भी देर नहीं हुई,अब भी सतर्कता और सावधानियां बरतेंगे, नियमो का पालन करेंगे,अपनी और सिर्फ अपनी गलतियों पर ध्यान देंगे तो इस काल से हमें मुक्ति मिल सकती है। जब तक ये कहते रहेंगे कि-"अरे दुनिया तो लापरवाही कर रही है हम ही क्यों सावधानी बरते" तो हो सकता है कि आप खुद काल का ग्रास ना बने मगर आपके अपने या आप से जुड़ा आपका कोई प्रिय या अनजान भी आपकी गलती की सजा भुगत सकता है। क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि -जब कोई रोड एक्सीडेंट होता है तो जिसकी गलती होती है वो तो बच जाता है मगर बेगुनाह मारा जाता है। सड़क पर चलते हुए हमें नहीं पता कौन अपनी लापरवाही  से मृत्यु को साथ लिए फीर रहा है तो ऐसे में सावधानियां हमें ही बरतनी है, हमें ही अपनी गाड़ी का कण्ट्रोल अपनी हाथों में रखना है । 

आर्युवेद और योग पर भरोसा करें...वक़्त आ गया है अपने पर भरोसा करने का..... अब भी नहीं किया तो फिर कभी नहीं..... 

(मैंने स्वयं कई घरों में आर्युवेद का चमत्कार होते देखा है, मौत के मुख से निकल आये है वो )

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

"एक और ज़िन्दगी"

 


कहते हैं "शरीर मरता है मगर आत्मा अमर होती है"

और वो बार-बार नई-नई पोषक पहनकर पृथ्वी पर आना-जाना करती ही रहती है। इसे ही जन्म-मरण कहते हैं। अगर इस आने-जाने की प्रक्रिया से मुक्ति पाना चाहते हैं तो आपको मोक्ष की प्राप्ति करनी होगी और मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर से लौ लगानी होगी। बहुत से लोग इस जन्म-मरण से छूटने के लिए ईश्वर की पूजा,तपस्या,साधना और भी पता नहीं क्या-क्या करते हैं। मगर मैं..."मोक्ष" नहीं चाहती...... 


 मैं जीना चाहती हूँ 

 एक और ज़िन्दगी 


पाना चाहती हूँ 

मां का ढ़ेर सारा प्यार, 

पापा का दुलार,

खोना चाहती हूँ 

बचपन की गलियों में

 फिर से, एक बार

जहाँ ना गम, ना खुशी

मस्ती और सिर्फ मस्ती

फिर से.... 

एक घरौंदा बनाकर,

 सखियों संग गुड़ियों का,

 ब्याह रचाकर,

 नाचना-गाना चाहती हूँ। 

यौवन के प्रवेश द्वार पर,

फिर से..... 

किसी से नजरें मिला कर, 

पलकें झुकाना चाहती हूँ। 

किसी के दिल को चुरा कर, 

उसे अपने दिल में छुपा कर,

फिर से... 

एक बार इश्क में फ़ना 

हो जाना चाहती हूँ। 

छुप-छुप कर रोना,

बिना बात मुस्कुराना,

आँखें बिछाए पथ पर,

फिर से....

 उसकी राह तकना चाहती हूँ। 

दुआओं में उसे मांगकर, 

 उसको अपना बनाकर,

उसकी सांसों में समाकर,

उसकी ही आगोश में

  मरना चाहती हूँ। 

उसकी झील सी गहरी आँखों में,

जहाँ बसते हैं प्राण मेरे,

 डुब जाना चाहती हूँ।

उसकी बाहों का 

सराहना बनाकर

चैनो-सुकून से 

सोना चाहती हूँ। 

आँखें जब खोलूं 

 मनमोहन की छवि निहारु 

माथे को चूम कर

उसे जगाना चाहती हूँ। 

 होली में उसके हाथों के  

लाल-गुलाबी-पीले रंगों से 

 तन-मन अपना 

 रंगना चाहती हूँ। 

 दिवाली के दीप जलाकर,

 उसके घर को रोशन कर,

 उसके प्रेम अगन में,

 जल जाना चाहती हूँ। 

संग-संग उसके 

  हवाओं में 

उड़ना चाहती हूँ। 

बारिशों में 

भीगना चाहती हूँ। 

कोरा जो पन्ना रह गया

उस पर

ख़्वाब अधूरे

लिखना चाहती हूँ।

एक और ज़िन्दगी 

 मैं जीना चाहती हूँ......

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

"पार्क"


"पार्क" अर्थात खुला मैदान 

लेकिन बिडंबना ये है कि-इतने खुले में भी आकर सब अपने आप में ही बंद रहते हैं। पुरे मैदान में हर तरह के हर उम्र के लोग दिखते है पूरा मैदान भरा होता है मगर कोई किसी का नहीं होता। आप दुसरे को देखते है दूसरा आपको। एक दूसरे के चेहरे को देखकर बस मन ही मन ये अनुमान लगाते रहते हैं कि -क्या वो खुश है या दुखी ?क्या वो अपने जीवन से संतुष्ट है या मेरी तरह वो भी असंतुष्ट। किसी को उदास देखकर भी कोई उसके पास जाकर संतावना के दो बोल भी नहीं बोलता। हाँ,कभी-कभी उसकी उदासी आपको और भी गहरी उदासी दे जाती है तो कभी किसी की मुस्कुराहट देख आप भी मन ही मन मुस्कुरा लेते है, पास में हँसते-खेलते,खिलखिलाते बच्चों को देखकर आप भी थोड़ी देर के लिए अपने बचपन में लौट जाते हैं बस। बिना किसी के दर्द बाँटे भी शायद थोड़ी तसल्ली तो यह जरूर मिलती होगी। शायद यही वजह है कि जब अकेले कमरे में तकलीफ बढ़ने लगती है तो अक्सर लोग बाहर निकल जाते हैं सड़कों पर,पब्लिक पार्क में या किसी पब में ही। यहाँ कोई आपको तसल्ली ना भी दे तो भी आपका दुःख या आपका मूड दूसरी तरफ करवट ले लेता है,इससे दुखों का बोझ कम तो नहीं होता बस  एक कंधे से दूसरे कंधे पर चला जाता है और थोड़ा रिलैक्स हो जाते है। 

 "पार्क" हमें ही सुकून नहीं देता होगा यकीनन हमारी मौजूदगी से उसे भी सुकून मिलता ही होगा,बच्चों की किलकारियों से वो भी गुलजार रहता था बड़ों के सुख-दुःख का साक्षी होना उसे भी भाता होगा।  मगर इन दिनों तो सबका ये सहारा भी छूट गया है।आप कामकाजी है तो एक दहशत के साथ दफ्तर जा रहे हैं और  डरते-डरते घर वापस आ रहे हैं। अगर घरेलु है तो बस एक बंद कमरा और साथ में आपकी नींद उड़ाने वाली खबरें। हमारे जीवन के साथ-साथ पार्क  में भी वीरानियाँ पसरी हुई है और बच्चें चारदीवारियों में कैद है....साँझ की बेला कटे नहीं कटती।  

जीवन का ये रूप पहले कभी नहीं देखा गया था और परमात्मा ना करें आगे किसी पीढ़ी को देखना पड़ें। 

"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...