अक्सर कहा जाता है कि- "हर आदमी अकेला जन्मता है और अकेला ही मरता है।" मैं नहीं मानती.....हकीकत में वो उन सभी लोगो के साथ मरता है...जो उसके भीतर थे...जिससे वो लड़ता था...प्यार करता था। मरने वाला अपने भीतर एक पूरी दुनिया लेकर जाता है।कहाँ मुक्त कर पाता है वो खुद को उन बंधनों से जिसमे वो आजीवन बंधा रहता है। वो अपने साथ-साथ अपने अपनों से जुडी वो सारी यादें...वो सारे रंजो-गम...वो सारी खुशियाँ और प्यार भी लेकर चला जाता है....उसका अपना तो कुछ होता ही नहीं है न...
तभी तो किसी के मरने के बाद हमें भी अपने भीतर एक खालीपन महसूस होता है क्योंकि हमें लगता है कि उसके साथ हमारा भी एक हिस्सा हमेशा के लिए खत्म हो गया। दुसरो के मरने पर हमें जो दुःख होता है वो भी थोड़ा बहुत स्वार्थी किस्म का दुःख ही होता है क्योंकि वो अकेला नहीं जाता हमारा एक हिस्सा भी साथ ले जाता है।
हाँ,सच में ले जाता है...अब देखे न माँ-बाप के गुजरने के बाद हमारे जीवन में जो बच्चें का किरदार होता है वो तो हमेशा के लिए खत्म हो जाता है न....खत्म हो जाता है उनके साथ हमारी मासूमियत....जो उनके सानिध्य में जाते ही महसूस होने लगता था। हम भी इसीलिए रोते है कि-अब इस जन्म में हम किसी को माँ-पापा कहकर नहीं बुला पाएंगे।
मुझे महसूस होता है कि-हमारे जीवन में हर एक के साथ हमारा एक खास किरदार होता है....उस व्यक्ति की अच्छाइयों या बुराईयों से कही ना कही हमारा भी एक अंश जुड़ा होता है....और उसके जाते ही हमारे भीतर का वो हिस्सा खाली हो जाता है।
हमारे भीतर हमारा तो कुछ होता ही नहीं...सब कुछ औरों का होता है।कभी एक पल के लिए हम कल्पना करें कि -आने वाला पल मेरा आखिरी पल है और एक बार पलट कर अतीत की और देखें......
जब हम अपने अतीत के तहों को प्याज के छिलके की तरह एक-एक करके उतारते जाएगें तो देखेंगे....सब अपना-अपना हिस्सा लेने आ गए है। माँ-बाप,भाई-बहन,दोस्त-रिश्तेदार,पति-बच्चें, सारे छिलके दूसरों के हिस्से का निकलेगा आखिर में बची एक सूखी डंठल ही हमारे हाथ रह जायेगी जो किसी काम की नहीं रहती जिसे ही मृत्यु के बाद जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है। हाँ....वो सुखी डंठल भी खाली कहाँ जा पाती....वो भी तो उन छिलकों की महक अपने भीतर लिए ही जाती है।
वैसे ही जब मनुष्य जन्म भी लेता है तब भी उसके अंदर कितने लोग....कितनी भावनाये छिपी होती है...जब बच्चा जन्म लेता है तो अपने आप हँसता है और खुद ब खुद रोने भी लगता है उस वक़्त कहते हैं कि-वो अपने पुराने रिश्तो से जुडी ख़ुशी और दर्द को जी रहा है.....तो अकेला कहाँ आता है वो ?
हम प्रेम और रिश्तो के बंधनो में इस कदर बँधे होते हैं कि -मरने के बाद भी नहीं छूट पाते। तभी तो हिन्दू धर्म में कहते हैं कि-"मरता शरीर है आत्मा तो अमर होती है और वो नया शरीर धारण कर बार-बार उसी परिवेश में जन्म लेती जिससे वो जुडी होती है।" हमने अक्सर अपने घरों में ये कहते सुना होगा "ये जो बच्चा जन्मा है न वो फलां की तरह दिखता है या आचरण करता है।" शायद,वो होता है तभी तो परिवार में भी किसी एक के साथ ऐसा जुड़ाव होता है जैसे जन्म-जन्म का साथ हो। अपनों के साथ ही क्यूँ....कभी-कभी तो किसी अनजाने के साथ भी जन्म-जन्म का साथ महसूस होता है।
क्यूँ होता है ऐसा ? हमारा अपना कुछ क्यूँ नहीं होता ?
वो एक गीत के बोल है न-
"दिल अपना और प्रीत पराई
किसने है ये रीत बनाई "
सब ठीक है...अच्छा लगता है इस पराई प्रीत में जलना मगर...अपने आस्तित्व का क्या ?
अक्सर प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से कहते हैं -"तू मुझमे मुझसे ज्यादा है "
क्यूँ ज्यादा है ?खुद में ही हम खुद क्यूँ नहीं होते ?
खुद में खुद की तलाश जारी है.....
जिस दिन ये तलाश पूरी हो गयी तो हम बुद्ध बन जाएंगे । इस विषय पर मुझे ब्रायन ब्रीज़ की किताब मैनी मास्टर्स एंड मैनी लाइव्स याद आ रही है ।
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट 👌👌👌👌👌
बुद्ध तो बनना मुमकिन नहीं दी,बस कभी-कभी बेचैनी होती है कि-खुद की खबर नहीं और दूसरों को तलाशने में लगे रहते हैं क्यों नहीं ले पाते हम पहले खुद की सुध। "ब्रायन ब्रीज़ की किताब मैनी मास्टर्स एंड मैनी लाइव्स"तो मैंने नहीं पढ़ी लेकिन अब उत्सुकता हो रही है पढ़ने की। आपके शब्दों से मेरा लेखन सफल हुआ। सादर नमस्कार दी
हटाएंकल रथ यात्रा के दिन " पाँच लिंकों का आनंद " ब्लॉग का जन्मदिन है । आपसे अनुरोध है कि इस उत्सव में शामिल हो कृतार्थ करें ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 12 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
रथ यात्रा के दिन " पाँच लिंकों का आनंद " ब्लॉग का जन्मदिन....इस सुंदर संयोग पर किये गए उत्सव में मुझे भी सम्मलित करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद दी,ये मंच यूँ ही सफलता के नए कृतिमान स्थापित करें यही कामना है। सभी को हार्दिक शुभकामनायें
हटाएंबहुत सुन्दर सार्थक लेख |
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर,सादर नमन आपको
हटाएंदार्शनिकता का आभास हो रहा।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन।
दिल से शुक्रिया पम्मी जी,मन कभी-कभी हो ही जाता है दार्शनिक,सादर नमन आपको
हटाएंखुद में खुद की तलाश ही आत्मसात है हम तो पूरी जिन्दगी दूसरों की अपनों की परायों की या फिर तमाम कमियों की तलाश करते रह जाते हैं अपने को कभी न ढूँढ़ा न परखा....।
जवाब देंहटाएंबहुत ही चिन्तनपरक एवं सारगर्भित लेख।
दिल से शुक्रिया सुधा जी,सही कहा आपने मुझे तो लगता है कि-दूसरों के वजाय हमें खुद का चिंतन करना जरुरी ,सादर नमन आपको
हटाएंगहनता लिए सारगर्भित चिंतन कामिनी जी । बहुत सुन्दर पोस्ट । सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया मीना जी,स्नेहिल प्रतिक्रिया देने के लिए आभार एवं सादर नमन आपको
हटाएंपूर्णत: सहमत
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद उषा जी,मेरे विचारों पर अपनी सहमति देने के लिए दिल से आभार एवं सादर नमन आपको
हटाएंजीवन दर्शन का आभास कराता सार्थक लेखन।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद जिज्ञासा जी,सार्थक प्रतिक्रिया देने के लिए दिल से आभार एवं सादर नमन आपको
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मनोज जी, दिल से आभार एवं सादर नमन आपको
हटाएंमैम आपके इस लेख की तारीफ के लिए मेरे पासशब्द ही नहीं है!मैं निशब्द हूँ! सच में बहुत ही बेहतरीन लेखनी है!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रिय मनीषा,स्नेह
हटाएंसठिक लेखन - - आंतरिक परतों को उजागर करता हुआ, साधुवाद सह।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर,सादर नमस्कार
हटाएंआता तो अकेला है पर सच है जाता है तो कितनो के दिल से बहुत कुछ ले जाता है ... छोड़ जाता है अपना एहसास जो शायद उस खाली पन को भी नहीं भार पाता ... मन को छूता हुआ आलेख ....
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए हृदयतल से धन्यवाद दिगम्बर जी,सादर नमन
हटाएंबहुत खूब !
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद आपका,सादर नमन
हटाएंप्रभावी और सार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर,सादर नमस्कार
हटाएंअपूर्व, अद्भुत! गहन दर्शन कामिनी जी मैं मंत्रमुग्ध हूं आपके विचारों पर चिंतन कर के कितनी सटीक व्याख्या की है आपने , "तेरा क्या तुझमें रे बंदे" पर मैं नहीं बता पा रही कि इस पोस्ट से मैंने क्या पाया है।
जवाब देंहटाएंनिशब्द।
सस्नेह।
सराहना हेतु हृदयतल से धन्यवाद कुसुम जी,खुद का मंथन कर रही हूँ कुसुम जी....पाया तो अभी तक मैंने भी कुछ नहीं है बस,तलाश जारी है.... सादर नमस्कार
हटाएंबिल्कुल सटीक विश्लेषण आपका जब कोई जाता है उसके पीछे जो दुख के भाव होते हैं वह कहीं ना कहीं हमारे स्वार्थ के भाव होते हैं
जवाब देंहटाएंरचना का मर्म समझने के लिए तहे दिल से शुक्रिया सर,सादर नमन
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