कहते है, औरत को बेटी से ज्यादा बेटे की चाह होती है लेकिन मुझे ये धारणा थोड़ी गलत लगती है। पुत्र की कामना शायद वो सिर्फ परिवार और पति के इच्छा को पूरा करने और वंश को आगे बढ़ाने के मोह वश करती है। क्यूकि हमारे देश में औरते अपने ख़ुशी से ज्यादा दुसरो की ख़ुशी का ख्याल रखती है। वरना ,हर औरत अपने बच्चे में अपना अक्स देखना चाहती है। एक बेटी को पालने पोसने और सजाने -सवारने में उसे जो आत्मिक ख़ुशी मिलती है उसे शब्दों में बया करना मुश्किल है।
वैसे तो एक माँ के लिए बेटा -बेटी दोनों ही प्यारे है।हर बच्चा माँ के ही जिस्म का एक अंश होता है ,माँ के खून से उसका निर्माण होता है और माँ के दूध से ही उनका पोषण भी होता हैं। दोनों को जन्म देने से लेकर पालने पोसने तक उसे एक ही तकलीफ से गुजरना पड़ता है। दोनों के लिए उनका मोह भी एक समान रहता है। बस ,बेटा -बेटी को लेकर एक माँ के दिल में एक फर्क जरूर रहता है वो है बेटे के प्रति 1 %ज्यादा मोह,वो भी इसलिए क्योकि हम औरतो के दिमाग में आदिकाल से ही ये भर दिया गया है कि-" बेटे से ही हमारा वंश चलेगा ,बेटा ही हमारे बुढ़ापे की लाठी होगा और बेटे के हाथों मुखाग्नि देने पर ही हमे मोक्ष की प्राप्ति होगी।"
वैसे ही बेटी के प्रति ये भाव होता है कि -मेरी लाड़ली कल व्याह कर दूसरे घर चली जाएगी ,पता नहीं कैसा ससुराल मिले ,पति कैसे होगा ,वो मेरी बेटी के हर सुख दुःख का ख्याल रखेगा या नहीं इसीलिए जितना हो सके उसे इस घर में ख़ुशी देदे। माँ को ये फ़िक्र भी होती है कि मेरी बेटी को एक घर, एक परिवार संभालना है इसीलिए उसे हर गुण से परिपूर्ण कर दूँ ताकि वो मेरे कोख की लाज रख सके। इस तैयारी में कभी कभी वो बेटियों पर सख्ती भी कर देती हैं और बेटियों को लगता है कि माँ उन्हें बेटे से कमतर प्यार करती है।
एक बच्चे को पालने -पोसने में बाप सिर्फ आर्धिक रूप से सहयोग करता है। लेकिन माँ अपना तन मन सब अर्पण कर देती है। अपनी हंसी -ख़ुशी सब उस बच्चे को दे देती है। अपनी नींद- चैन,अपना सुख ,अपनी भूख प्यास सब बच्चे के नाम कर देती है उसका अपना कुछ नहीं होता ,जो होता है उस बच्चे का होता है और उस बच्चे से होता है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा दोनों बच्चो के पालने के नज़रिये में थोड़ा फर्क हो जाता है। एक बेटे को माँ भरपूर प्यार देती है उसे सजाते -सवारते वक़्त वो उस बच्चे में कृष्ण का रूप देखती है,उसका नटखटपन देख वो फूली नहीं समाती ,उसकी हर शैतानियों पर गुस्सा होने की जगह वो बलिहारी जाती है उसके दिल में ये यकीन रहता है कि -मेरा बेटा बड़ा हो कर बहुत बड़ा अफसर बनेगा ,मेरे लिए प्यारी सी बहु लाएगा ,मेरे बुढ़ापे की लाठी बनेगा ,मेरा वंश आगे बढ़ायेगा वगैरह -वगैरह।
जहाँ बेटे के होने पर माँ उसके परवरिश और भविष्य को लेके पूर्णतः आस्वस्त रहती हैं ,बेटे को लेके परिवार और माँ दोनों को हर परिदृश्य बिलकुल साफ़ साफ़ नज़र आता है। उसे कुछ खास सोचने की जरूरत ही नहीं होती। बेटे के लिए उनके सपने बिलकुल स्पष्ट होते है। परन्तु बेटी के साथ ये नहीं होता।बेटी को लेके परिवार वाले ही नहीं माँ भी शंकाग्रस्त होती हैं,पता नहीं ये बड़ी होकर कैसी रहेगी ,अगर सुंदर नहीं हुई तो व्याह -शादी में दिक्क्त होगी ,इसका भविष्य कैसा होगा ,पता नहीं इसे अच्छा घर -वर मिले या न मिले ,कही इसे पालने में मुझसे कोई त्रुटि न हो जाये और ये गलत रास्ते पर ना चली जाये ,पता नहीं ये घर-परिवार का मान -सम्मान रखेगी या नहीं ,वगैरह- वगैरह। फिर उसके दहेज़ की भी फिक्र होती हैं। इन्ही शंकाओ के वजह से ही बेटी के जन्म लेते ही परिवार वाले समेत माँ भी चिंताग्रस्त हो जाती हैं।
इन सब के वावजूद जब बेटी होती हैं तो माँ के दिल के एक कोने में ख़ुशी की लहर जरूर दौड़ जाती है वो उसमे आपना ही अक्स देखने लगती हैं। [कुछ अपवाद भी है ] उसे सजाने- सवारने में उसे एक अलग ही आत्मिक ख़ुशी मिलती हैं। परिवार के दवाब में होने के वावजूद हर माँ अपनी बेटी को गोद में लेते वक़्त उससे और खुद से एक वादा जरूर करती हैं -" मेरी लाड़ली मुझ पर जो गुजरी वो मैं तुम्हारे साथ कतई नहीं होने दूँगी ,खुद से बेहतर परवरिस और भविष्य तुम्हे जरूर दूंगी,जो मैंने नहीं पाया वो पाने का अवसर तुम्हे जरूर दूंगी ,मेरे सपने तो पूरे नहीं हुए पर मैं तुम्हारा सपना टूटने नहीं दूंगी वादा है मेरा "यकीनन ये हर युग और हर दौड में हुआ होगा तभी तो दिन प्रति दिन औरतो के हालत में परिवर्तन होता चला गया।"
अपने ही घर का इतिहास उठाकर जब हम देखते हैं तो अपनी नानी से लेकर अपनी बेटी तक में जो परिवर्तन हुआ है वो यकीनन हर माँ के अपनी बेटी से किये हुए वादे का ही असर हैं। मेरी नानी सिर्फ अपना नाम लिखना जानती थी वो भी बहुत मुश्किल से। उनका जीवन चार दीवारी में अपने परिवार की देख रेख और जिमेदारियो को पूरा करते हुए गुजरा ,उन्हें हर हुक्म का पालन करना होता था कोई फैसला लेने का अधिकार नहीं था। फिर भी उन्होंने मेरी माँ को इतना काबिल तो बनाया कि वो घर परिवार की जिम्मेदारी उठाने के साथ साथ घर और बच्चो के लिए अहम फैसला लेने का अधिकार पा सकी। मेरी माँ ने मुझे इस काबिल बनाया कि मैं घर के साथ साथ बाहर की भी ज़िम्मेदारियाँ उठा सकूँ,घर के चार दीवारियों से बाहर निकल सकूं। लेकिन हमे खुद के लिए फैसले लेने का अधिकार तब भी नहीं मिला। आज हमने अपनी बेटियों को खुद के लिए फैसले लेने का अधिकार दे दिया। ये सारे परिवर्तन एक माँ का खुद से और अपनी बेटी से किये हुए वादे का ही असर था जो हम औरतो को यहां तक लेके आया।
परस्थितियां हर दौड़ में बदलती आयी है और बदलती रहेगी ,आज के इकीसवीं शदी में लड़कियाँ पूर्णतः आज़ाद हो चुकी है। यकीनन कुछ ज्यादा ही आज़ाद हो चुकी हैं इतनी स्वछंदता की डर लगता है, ये अब कहाँ तक जायेगी।बड़े शहरो की बात छोड़े ,छोटे छोटे शहरो के हालत भी बहुत ही भयावह है। ध्रूमपान और नशा तो छोड़े ,हर काम में वो लड़को से ज्यादा बेतकल्लुफ हो चुकी है। कभी- कभी तो ये भ्रम सा हो जाता हैं कि " ये अपना देश है भी या नहीं?" मैं अक्सर सोचती हूँ - " आज की लड़कियां अपनी बेटियों से क्या वादा करेगी ,उनके लिए क्या सपने देखेगी ?"
बेटियों के इस बदलते स्वरूप के पीछे क्या वजह है ,इनके लिए सपने देखने में कहाँ चूक हो गई हमसे ,इसके बारे में चर्चा करेंगे अगले लेख में. .....
सच कहा आपने सच में एक बेटी की चाहत हर माँ को होती है जिसे वो परी की तरह सजाए संवारें अपने सपनों को बेटी के माध्यम से जिए उसे खूब पढ़ाए इस काबिल बनाए कि उससे बेहतर जिंदगी जिए बेटी जब बड़ी हो जाए तो अपने दु:ख मन की बातें कह सके जो वो अपनी माँ के अलावा किसी और से नहीं कह पाती बहुत ही बेहतरीन लेख लिखा सखी 👌👌
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद.... सखी, स्नेह
हटाएंमाँ के अन्तर्मन का विश्लेषण बहुत प्रभावशाली रूप में किया है ।सचमुच हर माँ अपनी बेटी में अपना अक्स देखती है और उसके माध्यम से अपने स्वप्न पूरे होते भी देखना चाहती है । आपकी लेखनी कमाल की है ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मीना जी ,मुझे प्रोत्साहित करने हेतु आभार एवं स्नेह
हटाएंसुंदर, सटीक,सहज और सार्थक लेखनी है आपकी। लिखते रहिए। बेहतरीन लेखन हेतु बधाई।
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया आप का ,उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आभार एवं स्नेह
हटाएंजो नहीं होता उसी को पाने का मन करता है ... मुझे तो बस ये मानव मन की सहज चाह लगती है ...
जवाब देंहटाएंबाकी बेटे बेटियों के फर्क से बहुत से लोग अब ऊपर उठ चुके हैं ... समय, शिक्षा, समाज ये बदलाव ला रहा है ... आएगा भी ... हाँ बेटियों का होना घर को घर बनाता है, दिलों को करीब लाता है ... ये सत्य है ...
आदरणीय दिगंबर जी ,सहृदय धन्यवाद,आपने सही कहा -आज का शिक्षित समाज बेटे बेटियों के फर्क से ऊपर उठ चुका है ,पर क्षमा चाहती हूँ मेरे लेख का विषय " बेटे बेटी की चाह या उनके भेद" पर नहीं हैं बल्कि एक बेटी के उथान में माँ का कैसे और कितना योगदान था उस पर हैं। अभी के परिवेश में वही नारी अपनी मूल स्वरूप को खोकर कहाँ खड़ी हैं और उन्हें यहां तक पहुंचने में उनकी पिछली पीढ़ी की क्या भूमिका रही है उस पर मैं अपनी अगली लेख में चर्चा करुँगी। यदि आप उसे पढ़ अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देकर मेरा मार्गदर्शन करेंगे तो मुझे हार्दिक ख़ुशी होगी। सादर नमस्कार
हटाएंजी क्या फर्क पड़ता है बेटा हो कि बेटी ऐसा सब कहते है पर भीतर से सबकी चाह होती है बेटी तो ठीक है पर काश कि एक बेटा भी हो जाता...दरअसल बरसों मन की जडों में बात जमायी गयी बेटोंं के संदर्भ में तभी तो अनगिनत बार कटाई छंटाई के बाद भी तनों पत्तों डालियों फल फूलों में असर कम तो होता है पर पूरी तरह से खत्म नहीं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने 👌
दिल से धन्यवाद स्वेता जी ,सही कहा आपने जड़ें, इतनी गहरी है कि पूरी तरह ख़त्म करना मुश्किल हैं ,सादर स्नेह
हटाएंसमय, शिक्षा, समाज ये बदलाव ला रहा है अन्तर्मन का विश्लेषण किया है !
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया संजय जी ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंसुचना देने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, पूरी तरह सहमत !
जवाब देंहटाएंयह संयोग ही है कि कल ही इन्हीं विचारों को मैंने भी उकेरा है
आपने मेरी रचना पर अपने अनमोल विचार देकर मेरा लिखना सार्थक किया। सहृदय धन्यवाद सर ,सादर नमस्कार आपको
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