आदरणीया आशा भोसले जी के आवाज़ में वन्दनी फिल्म का एक हृदयस्पर्शी गीत.....
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन ने लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ
दिजो संदेशा भिजाय रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...
अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आए रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...
बैरन जवानी ने छीने खिलौने
और मेरी गुड़ियाँ चुराई
बाबुल मैं थी तेरे नाज़ों की पाली
फिर क्यों हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती
न कोई नैहर से आये, रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल .
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बचपन में जब भी मैं ये गीत सुनती मेरे भीतर कुछ टूटने सा लगता था ,हिय में एक हुक सी उठने लगती थी और आँखें स्वतः ही बरसने लगती थी। (आज भी ये गीत मुझे रुला देती हैं ) उस वक़्त मेरे लिए ये कल्पना से परे होता था कि -एक लड़की जो अपने बाबुल के आँगन में पली- बढ़ी....भाई -बहनों के साथ खेली -कूदी... उसे उसी आँगन में लौट के आने के लिए बाबुल से ही गुहार लगानी पड़ रही हैं......अपने घर -आँगन , माँ -बाबुल और सखियों के विरह में वो इस कदर तड़प रही हैं । इस गीत के एक- एक बोल मुझे तड़पा जाती थी ....और मैं माँ से पूछ बैठती थी - " आपकी शादी भी तो 13 वर्ष के उम्र में ही हो गई थी न और आप बताती हैं कि- दादाजी आपको एक साल तक मयेके नहीं जाने दिए थे ...फिर कैसे रही होगी आप नाना -नानी के बगैर। " मेरी बाते सुन माँ की आँखें भर जाती .....भीगें से स्वर में बोलती - " उस जमाने में हम सब मजबूर होते थे बेटा " ....लेकिन मैं नहीं जाऊँगी... अपने पापा को छोड़कर ...कभी नहीं जाऊँगी ...मैं तड़पकर बोल उठती। कैसी ये जग की रीत हैं जहा जन्म लिया वो घर-आँगन अपना नहीं होता......किसी पराये घर और घरवालों को अपना बनाकर उसे अपना सर्वस्व सोप देना .....और पिता का घर पराया कहलाना .....किसने बनाई ये रीत .. किसी और घर भेज दिया वो तो .सह ले ......मगर अपना घर पराया हो जाना ,क्यूँ ? ऐसे अनगिनत सवाल मेरा बालमन करता रहता और जबाब ना मिलने पर और भी बेचैन हो जाता।
मगर जैसे- जैसे बड़ी हुई ये एहसास होने लगा ..इस जग की रीत से मैं भी नहीं बच सकती .. बेटियों को एक ना एक दिन बाबुल का आँगन छोड़कर पी के घर जाना ही होता हैं... तब, ये बाते मुझे बेहद परेशान कर देती ....कैसे जाऊँगी मैं ये घर -आँगन छोड़कर ...जहाँ भाई -बहनों के साथ खेलते- कूदते ,हँसते- हँसाते बचपन और जवानी गुजरा हैं ....इस आँगन को छोड़ ....पापा को छोड़ नहीं जा पाऊँगी। लेकिन वो घडी भी आ ही गई और मुझे भी हर बेटी की तरह जाना ही पड़ा। पर शायद.... मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब बेटी रही हूँ... साजन के घर जाने के बाद भी मुझसे मेरे बाबुल का आँगन पूरी तरह नहीं छूटा। पापा के नजर में मैं उस आँगन की तुलसी ही रही।
लेकिन वक़्त गुजरा और एक दिन.... वो दिन भी आ गया जब पापा ही उस आँगन को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए चलें गए। आज तीन साल हो गए उनको गए हुए.....घर-आँगन तो वही हैं ....पर उस घर की रौनक चली गई .....उस आँगन की तुलसी उजड़ गई। अब नहीं अच्छा लगता वही आँगन जहा पापा की आवाज़ सुनाई नहीं देती। मगर..... आँगन छूटा पापा का साथ नहीं ...वो आज भी हर पल मेरे साथ हैं ....हर घडी अपने होने का एहसास करा ही जाते हैं ....जब उदास होती हूँ आँसू पोछते हुए ,घबराती हूँ तो हिम्मत बढ़ाते हुए ,जब परेशान होती हूँ तो ढाढ़स बांधते हुए और जब खुश होती हूँ तो मेरे साथ खड़े मुस्कुराते हुए......
फिर भी पता नहीं क्यूँ ....एक खालीपन सा लगता हैं... वो साया जो हरपल आस -पास होता हैं .....उन्हें छूने का दिल करता हैं ....उनके पसंद के खाने बनाकर उन्हें खिलाने को दिल करता हैं ....उनकी खूब सारी सेवा करने को दिल करता हैं..... उनके गले से लिपटकर जी भर के रोने को दिल करता ...पर इस जन्म में तो ये सब सम्भव नहीं......अब तो बस उनकी यादें ही रह गई हैं.... सिर्फ एक एहसास बाकी हैं .....
' पापा ,आप बहुत याद आते हैं ...."
आज 4 मार्च वो मनहूस दिन ...जिस दिन मेरे पापा हम सभी से साकार रूप में जुदा हो गए थे लेकिन.... निरंकार रूप में वो हरपल हम सभी के साथ ही होते हैं ....परमात्मा मेरे पापा के आत्मा को शांति प्रदान करें.....
एक खत पापा के नाम
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/03/ek-khat-papa-ke-naam.html
यादें पापा की
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/06/yaadein-papa-ki.html
आज 4 मार्च वो मनहूस दिन ...जिस दिन मेरे पापा हम सभी से साकार रूप में जुदा हो गए थे लेकिन.... निरंकार रूप में वो हरपल हम सभी के साथ ही होते हैं ....परमात्मा मेरे पापा के आत्मा को शांति प्रदान करें.....
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