कहते हैं- कलाकारों की दुनिया अक्सर काल्पनिक होती है।वो अपनी कल्पनाओं में ही खुबसूरती का लुभावना जाल बुन ले या बदसुरती का ताना-बाना और फिर उसी में खुद को खोकर सुन्दर सृजन करने की कोशिश करता है। अक्सर ये भी कहते हैं कि- कलाकार बड़े संवेदन शील होते हैं। प्यार- नफ़रत, मिलन-वियोग, दुःख-दर्द आदि संवेदनाओं को महसूस करने की क्षमता उनमें आम लोगों से कही ज्यादा होती है।अर्थात कभी वो कल्पनाओं में खोकर और कभी खुद की भावनाओं को ही वो अपनी लेखनी या कुंजी के द्वारा व्यक्त करते हैं।
"कल्पनाओं की दुनिया" तक तो ठीक है मगर जहाँ तक सच्ची संवेदनाओं की बात है, तो मेरा मन अक्सर ये सवाल करता है कि-
क्या, कोई भी चित्रकार या रचनाकार अपनी कृति में अपने मन के सच्चे भावों को ही उकेरता है? क्या, सचमुच उसकी लेखनी या कुंजी समाज का आईना होता है? क्या सचमुच, वो समाज के दर्द और पीड़ा को महसूस कर के ही अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है? क्या सचमुच, प्रेम की गहरी अनुभूति या बिछड़ने की टीस को महसूस करके ही अपनी कविता या कहानियों में प्रेम रस उड़ेल पाता है? क्या गरीबी, भुखमरी, मानवता, संवेदना उसके दिल पर गहरे असर कर जाती है और वो तड़प उठता है और उसका दर्द ही उसकी लेखनी या कुंजी के माध्यम से उजागर होता है?
शायद, नहीं। दुनिया में शायद दस प्रतिशत रचनाकार ही होंगे जिनके दिल की सच्ची भावनाएं ही उनकी चित्रकारी या लेखन में समाहित होगी।
हमारे ब्लॉग जगत की नन्ही रचनाकार मनीषा अग्रवाल ने अपनी एक कहानी "निशब्द" में लेखक के दोहरे चरित्र को बड़ी ही खूबसूरती से उजागर किया है।जो कि व्यवहारिकता के धरातल पर सत प्रतिशत सत्य है। अक्सर यही निष्कर्ष निकलता है कि-"ये कलाकार, चित्रकार या साहित्यकार सिर्फ और सिर्फ नाम यश के ही भुखे होते हैं। अपनी कृतियों में झुठी भावनाओं को व्यक्त करते-करते वो कब भावनाहीन हो जातें हैं उन्हें खुद भी पता नहीं चलता।
मनीषा अग्रवाल की कहानी को पढ़कर मुझे एक सच्ची कहानी याद आ गई जो हमारे हिन्दी के शिक्षक ने सुनाई थी। ये एक सुप्रसिद्ध विदेशी लेखक की कहानी थी समय के साथ मैं उनका नाम और स्थान भुल चुकी हूँ परन्तु विषय-वस्तु अच्छे से याद है।
आज ये कहानी मैं आप सभी से साझा करना चाहती हूँ- बात काफी पुरानी है एक विदेशी लेखक थे जो मानव मनोविज्ञान पर काफी शोध कर उसी विषय पर एक उपन्यास लिख रहें थे।उनका घर छोटा था और शोर-शराबा भी ज्यादा होता था इसलिए वो शहर से दूर एक टुटी-फुटी झोपड़ी में चलें जाते,एक तरह से वो निर्जन स्थान घने जंगल के बीच था, जहाँ कोई भी उनके कार्य में बांधा उत्पन्न नहीं कर सकता था।
उनके उपन्यास की चर्चा मिडिया में जोर-शोर से थी।उनका उपन्यास लगभग पुरा होने को था उन्होंने मिडिया में उसके प्रकाशन की एक निश्चित तारीख भी दे रखी थी मगर किताब का क्लाइमेक्स उनके मन मुताबिक नहीं हो पा रहा था जिसको लेकर वो काफी परेशान थे। कागज़ पर कागज़ भरते और फाड़ते जाते, प्रकाशन की तारीख नजदीक आती जा रही थी ।एक दिन वो अपने गंतव्य की ओर मन ही मन ये सोचते हुए जा रहें थे कि आज किताब की समाप्ति करके ही घर लौटूंगा। उस दिन बहुत तेज बारिश हो रही थी सो घरवालों ने उन्हें जाने से मना भी किया मगर वो अपना रेनकोट पहने और निकल पड़े। अपनी झोपड़ी के करीब पहुंचने ही वाले थे कि उन्हें एक बच्चे के रोने की आवाज आई, उनके कदम ठिठक गए वो सोचने लगे कि इस घने जंगल में बच्चा कहाँ से आ गया। परन्तु, अगले ही पल उन्हें अपने किताब को पुरा करने का ख्याल आ गया और उन्होंने बच्चे के रोने की आवाज को अनसुना किया और झोपड़ी की ओर बढ़ चले। बारिश बहुत तेज होने के कारण झोपड़ी में पानी भर चुका था और सब कुछ गीला हो चुका था। अपने किताब के पन्नो को तो उन्होंने बहुत सम्भाल कर एक बक्से में रखा था सो वह सुरक्षित था। उन्होंने बक्से से किताब को निकाला और उसी बक्से को पोंछ उस पर अपनें बैठने की जगह बनाई और क्लाइमेक्स लिखने के लिए खुद को एकाग्र करने लगे। तभी तेज़ बिजली कड़की जिसकी आवाज से वो कांप गए और अचानक उन्हें उस बच्चे का ख्याल आ गया।इस ख्याल ने उनकी एकाग्रता छिन ली और उनका मन बच्चे के लिए बेचैन होने लगा। उनके कदम स्वतः ही आवाज की दिशा में बढ़ने लगे।पास जाकर देखा तो एक नवजात शिशु बारिश में भीग रहा है किसी बेरहम ने उस भयानक बरसात में बच्चे को मरने के लिए छोड़ दिया था। लेखक ने झटपट अपने रेनकोट को उतारा और उसमें बच्चे को लपेट कर झोपड़ी की तरफ भागा। बच्चा बुरी तरह भीग चुकी था और अब ठंड के कारण उसकी आवाज भी अब गले में रूध रही थी। झोपड़ी में भी सब कुछ भीगा था और अब तो लेखक भी पुरी तरह भीग चुका था। बच्चे की हालत धीरे-धीरे गंभीर होती जा रही थी । लेखक समझ ही नहीं पा रहा था कि बच्चे को कैसे गरमाहट देकर उसकी जान बचाएं। क्योंकि लकड़ी से लेकर खरपतवार तक पानी में तर-बतर थे। आखिर वो पल आया जब लेखक को महसूस हुआ कि यदि तत्क्षण बच्चे को गरमाहट नहीं मिली तो वो मर जाएगा। लेखक ने बिना सोच-विचार किए उस झोपडी में एक मात्र सूखी वस्तु अपने किताब के पन्नो को जला-जला कर बच्चे को गरमाहट देना शुरू किया। आखिरी पन्ने के जलते ही बच्चे ने आँखें खोल दीं।तब तक बारिश भी रूक चुकीं थीं और सुरज ने भी अपनी आँखें खोल दी थी। लेखक ने बच्चे को अपने सीने से लगा लिया और घर की ओर चल पड़ा। अगले दिन उसके उपन्यास के प्रकाशन का दिन था। मिडिया वाले उनसे मिलने आए । ये बात भी पहले से चर्चा में था कि लेखक को अपने किताब का क्लाइमेक्स लिखने में ही देरी हो रही है।सो मिडिया वालों का पहला प्रश्न ही यही था कि"क्या आप को अपने किताब का क्लाइमेक्स मिल गया।" लेखक ने बच्चे को अपनी गोद में उठाकर सबको दिखाते हुए कहा- ये है मेरी पुस्तक का क्लाइमेक्स, इसने मुझे मानवता का और मानव मनोविज्ञान का सबसे बड़ा पाठ पढ़ाया है, मेरे जीवन की सर्वोत्तम कृति है ये। फिर उन्होंने अपनी सारी आपबीती सुनाई। ये कहानी मेरे दिल में गहरे छप गई थी मैंने उसी दिन तय किया था जब भी लिखना हुआ तो सत्य ही लिखूँगी वो चाहे खुद की हो,समाज की हो या संस्कृति और प्रकृति की हो।
लेखन समाज से, परिवार से वास्तविकता से विमुख होकर कल्पना जगत में खोकर नहीं होता है वो तो व्यवसाय होता है। सच्चा लेखक वहीं है जो हृदय में उमड़ते सच्ची भावनाओं को कागज पर उकेरे और साथ ही साथ समाज में व्याप्त दुःख दर्द को महसूस कर उसे दूर करने के लिए, समाज में बदलाव लाने के लिए भी प्रयासरत रहें।
कहते हैं कि कलाकार कल्पनाओं की दुनिया में हक़ीक़त ढुंढने का प्रयास करते हैं और लोगो के हृदय में एक सुखद अनुभूति देना चाहते हैं मगर, कल्पना कल्पना होती है और हक़ीक़त हक़ीक़त । कल्पनाओं में आप दुनिया को ये सपना तो दे सकते हैं कि ये दुनिया इतनी खूबसूरत होती तो क्या कहने? मगर हक़ीक़त में जीकर आप सिर्फ लिखेंगे ही नहीं...बल्कि उसे महसूस करके आप दुनिया में बदलाव भी ला सकते हैं।
आपने बिलकुल सही कहा है, कल्पनाओं में खोए रहने से लेखन में धार नहीं आ सकती, खुद पर बीती हो तभी बात में गहराई आती है और लेखक या कवि की बात पाठकों के दिलों को छू जाती है
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया देने हेतु दिल से शुक्रिया अनीता जी,सादर नमन
हटाएं@Kamini Sinha ji ह्रदय स्पर्शी प्रस्तुति, परन्तु यह भी सत्य है कि आपबीती घटनाओं को जब तक आप उसमें अपनी भावनाओं के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करने के लिए किसी भी कला की रचना, काल्पनिक संसार में डुबकी लगाए बिना असंभव है।
जवाब देंहटाएंकाफी दिनों बाद आपको ब्लॉग पर देख बेहद ख़ुशी हुई,मानती हूँ फिर भी कल्पना हक़ीक़त के करीब होनी चाहिए,सराहना हेतु धन्यवाद सर, सादर नमन आपको
हटाएंबधाई कामिनी जी। बहुत धारदार लिखती हैं आप। ब्लॉगिंग के माध्यम से कमाल के लेखकों से मुलाकात हो रही है। इसे सौभाग्य मानती हूँ अपना।
जवाब देंहटाएंसराहना हेतु दिल से शुक्रिया विभा जी,सही कहा आपने ये ब्लॉग जगत अब तो अपना एक परिवार बन चूका है,सादर नमन
हटाएंमंच पर मेरी रचना को साझा करने के लिए दिल से धन्यवाद अनीता
जवाब देंहटाएंयह सच है कि सबकुछ सच-सच ही कोई भी रचनाकार लिखता हो, लेकिन यदि कोई भी सच को अपने शब्दों में बयां करता है तो निश्चित ही वह उसके एक अच्छे इंसान और इंसानियत जीवित होने का प्रमाण भी होता है। कल्पनाओं की उड़ान भले ही पाठकों को बांधकर रखने में सक्षम जान पड़े लेकिन जब
जवाब देंहटाएंवास्तविकता उडान भरती है तो फिर कल्पना कहाँ गायब हुई कोई नहीं जान पाता है। इसी सच की बुनियाद पर मेरी पहली प्रकाशित कहानी संग्रह 'गरीबी में डॉक्टरी' की मुख्य कहानी गरीबी में डॉक्टरी में एक बच्चे की संघर्ष गाथा जिसके साथ चलकर हम उसका सपना साकार करने में सहायक बने, जरूर पढ़ें।
आप ने बिल्कुल सही कहा कविता जी, सिर्फ हक़ीक़त लिखना ही नहीं उसे महसूस करना भी जरूरी है। आप की किताब मैं जरूर मंगवाऊगी। किताब की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं आपको। सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार 🙏
हटाएंयह सच है कि कहानियाँ सच के साथ कल्पना को मिलाकर ही लिखी जाती हैं। यह कहानियों की प्रामाणिकता को कम नहीं करता है। सबसे महत्वपूर्ण है आप क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या उस संदेश को आपकी कहानी तीव्रता और संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करती है? यही कहानी की पूर्णता है। लेखक यहां सफल माना जाता है। कोरा सच अगर कोई संदेश देने में सफल नहीं है, तो वह एक रिपोर्ट है, या एक वृतांत भर! बस!--ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंमानव मनोविज्ञान और मानवता पर बहुत ही सुन्दर कहानी साझा की आपने कामिनी जी ! मानव मनोविज्ञान के तहत मानवीय संवेदना और कर्तव्य की प्रमुखता न हो तो मानव के मानव होने पर भी शक है ...संवेदना के तहत लेखक का बच्चे के प्रति संवेदनशीलता उसे अपनी परवाह किये ये बगैर बच्चे तक ले गयी और कर्तव्य की प्रमुखता मे बच्चे की जान के खातिर अपनी धरोहर भी दाव पर लगा बैठा । यही उस वक्त उसका कर्म और धर्म था ...सही कहा आपने आजकल लेखन व्यवसाय बन गया है सच से परे जरूरत के मुताबिक भी लिखा जा रहा है या बेवजह महिमामंडन भी किया जा रहा है किसी का...सच को कल्पनाओं की खूबसूरती देकर समाज को दिशा देता लेखन समाज कल्याण में सहायक बन सकता है अन्यथा कोरी कल्पनाओं का कोई आधार नहीं होता।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित एवं चिंतनपरक लेख।
"सच को कल्पनाओं की खूबसूरती देकर समाज को दिशा देता लेखन समाज कल्याण में सहायक बन सकता है अन्यथा कोरी कल्पनाओं का कोई आधार नहीं होता।"
हटाएंये बात शत प्रतिशत सही कहा आपने। मेरे लेखन को विस्तार देती इतनी सुन्दर प्रतिक्रया के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपको 🙏
मानवता के उदात् पहलू को दर्शाती कहानी बहुत अच्छी लगी । सारगर्भित और चिन्तन परक लेख ।
जवाब देंहटाएंसराहना हेतु हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार मीना जी 🙏
हटाएंलेखन सच की बुनियाद पर ही गढ़ा जाता है लेकिन इसके नैपथ्य में विचार,भावनाएं और प्रस्तुति की जो प्रक्रिया होती है उससे लेखन काल्पनिक लगने लगता है.
जवाब देंहटाएंकुछ बातें हमारी होती है,कुछ हम आस पड़ोस और कुछ वातावरण से लेते हैं तभी बेहतर लिखा जाता है.
लेखन की महत्वपूर्ण परतों को खोलता अर्थपूर्ण आलेख
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया देने के लिए सहृदय धन्यवाद सर, 🙏
हटाएंअच्छी सारगर्भित कहानी और आपका चिंतनपूर्ण आलेख दोनों का सुंदर सार्थक संदेश ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद जिज्ञासा जी,सादर नमस्कार 🙏
हटाएंप्रिय कामिनी,सच्चाई और कल्पना मिश्रित रचना से इतर भी एक रचनाकार का अपना नैतिक चरित्र होता है। और यदि उसके चरित्र में उसके नैतिक मूल्य दिखाई नहीं देते तो वह पाठकों की दृष्टि में ( जो उसके आसपास होते हैं)कभी सम्मान अर्जित नहीं कर पाताना कौ सुधार का दावा कर पाता है ।एक विदेशी लेखक के उदाहरण के माध्यम से तुमने बहुत अच्छे से इस बात को दर्शाया है।तुम्हारा लेख पढ़कर मुझे भी अपने छात्र जीवन की एक घटना का स्मरण हो आया।अपने स्कूली जीवन से हम एक लेखक की कहानियाँ दैनिक ट्रिब्यून और पंजाब केसरी में खूब पढते थे।वे उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष थे ।कई साल बाद किसी सिलसिले में उनके विभाग जाना हुआ तो उसका संवेदनहीन व्यवहार देखकर भान हुआ कि कहानियों में उकेरी गई करुणा और संवेदना उनके व्यवहार में कहीं भी नज़र नहीं आती ।एक बार नहीं कई बार हमने उन्हें देखा और दम्भी ही पाया।सच तो यह है कि अपने प्रिय कहानीकार का यह दम्भी रूप हमारे लिए असहनीय था।इस प्रकार के लोग यदि समाज को बदलने का प्रयास भी करें तो प्रभावी होंगे, कह नहीं सकते।बहुत मौलिक विषय पर तुम्हारा लेख पढ़कर अच्छा लगा और समानांतर विमर्श ने ंमोह लिया।यूं ही लिखती रहो,मेरी शुभकामनाएं ❤❤🌹🌹
जवाब देंहटाएं"उनका संवेदनहीन व्यवहार देखकर भान हुआ कि कहानियों में उकेरी गई करुणा और संवेदना उनके व्यवहार में कहीं भी नज़र नहीं आती ।एक बार नहीं कई बार हमने उन्हें देखा और दम्भी ही पाया।सच तो यह है कि अपने प्रिय कहानीकार का यह दम्भी रूप हमारे लिए असहनीय था।"
जवाब देंहटाएंमैंने भी इसी विषय को समेटने के लिए ये कहानी साझा की है। अधिकांशतः यही देखने में आता है कि-संवेदनाएं लिखने वाले रचनाकार या कलाकार बेहद संवेदनहीन होते हैं। हमारे सामने उदाहरण तो ऐसे ही आते हैं।
तुम्हारी विस्तृत प्रतिक्रिया से लेख को विस्तार मिला,शुक्रिया सखी
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जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कहानी साझा की आपने कामिनी जी परिवारिक व्यस्ताओं के कारण बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ पढ़कर अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद संजय जी,इतने दिनों बाद आपको ब्लॉग पर देख बेहद ख़ुशी हुई ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंचिंतनपूर्ण आलेख
जवाब देंहटाएंblog par swagat hai
https://kuchmuskurahte.blogspot.com
बहुत बहुत शुक्रिया, जी जरुर 🙏
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