शुक्रवार, 22 मई 2020

" श्रमवीर "



 " अपनी मेहनत " या यूँ कहे कि -" अपनी मानवीय शक्ति " को बेचकर धन अर्जित करने वालो को " मजदुर या श्रमिक"  कहते हैं। धनवान धन लगता हैं ,बुद्धिमान बुद्धि,  मगर यदि श्रमिक अपना श्रम  प्रदान ना करे तो संसार में कोई भी सृजन असम्भव हैं।ये श्रमिक हमारे समाज के वो अभिन्न अंग हैं जिनके बिना ये बुद्धिजीवी और लक्ष्मीपुत्र  एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। फिर भी, इन श्रमिकों का  सबसे ज्यादा निरादर ये वर्ग ही करता  रहा हैं। निरादर ही नहीं शोषण करता रहा हैं।
   अब तक समाजशास्त्र में ये सब पढ़ा था, छोटी -मोटी  घटनाएं भी देखी  थी मगर इन दो महीनों में जो कुछ देखा- सुना वो कल्पना से परे हैं। जिनके बलबूते आपने इतनी बड़ी- बड़ी इमारते खड़ी कर ली ,कितने कल -कारखानों के निर्माण में इनके श्रम को आपने चूस लिया ,   बिषम परिस्थितियों के आने पर इन मेहनतकशों को  क्या  आप  दो जून की  रोटी भी नहीं खिला सकते थे ?  अगर ये उद्योगपति अपना- अपना फ़र्ज़ निभाते और इन मजदूरों को अपने कारोबार का अभिन्न हिस्सा समझते , वो इस बात का एक बार भी मनन करते कि -"कल को फिर से  इनकी जरूरत हमें पड़ेगी ही , इसलिए हमें इनके हितो की रक्षा करनी ही चाहिए " तो शायद ये श्रमिक सरकार के द्वारा व्यवस्थित सेवा के द्वारा,  अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सुरक्षित अपने घर तक जा सकते थे और परिस्थिति बदलने पर ख़ुशी ख़ुशी अपने मालिक के पास वापस आ जाते।
 
    मगर जिनके सर पर  छत भी ना हो और पेट की अग्नि जिन्हे जला रही हो उन्हें  तपते रास्ते पर नगें पाँव चलना, रेल की पटरियों को अपना बिछावन बनाना, रास्ते पर दिए गए दान स्वरूप मिले चंद दानों से अपनी क्षुद्धा की अग्नि को शांत करना,  यकीनन  ज्यादा सहज लगा। हाँ,  ये अलग बात हैं कि -उनके इस हाल को देख मानवता कही मुँह दिखने लायक नहीं रही, अपने  सृजनकर्ताओ  के ऐसे अपमान पर प्रकृति और ज्यादा कुपित हुई पड़ी हैं ,तभी तो कही भूकंप ,कही शैलाव के रूप में अपना क्रोध बरपा रही हैं।

   वो तो  श्रमवीर हैं ,कर्मवीर हैं ,जिनकी हड्डियां धुप में तपी हैं, उन्हें कौन डरा सकता हैं ,जो झूठे आश्वासनों के  शब्दजालो के  बंधन को कई बार तोड़ चुके हैं, उन्हें कौन बाँध सकता हैं ,वो तो निकल पड़े हैं ,बे-खौफ अपनी मंज़िल की ओर ,रास्ते में किसी साथी की मौत की कीमत भी वो बड़ी हिम्मत से चुका देंगे और सीने में उसके बिछड़ने का ग़म  लिए बाकी बचे अपने प्यारों को ले, फिर आगे बढ़ जायेगे। क्योँकि प्रकृति ने उन्हें और कुछ दिया हो या ना दिया हो लेकिन सब्र करना ,मेहनत करने की क्षमता और हिम्मत बेहिसाब दे रखा हैं। अगर कही किसी रोज ऐसा हो गया कि -प्रकृति ने उन्हें ,ये दृढ़निश्चय  भी दे दिया कि - "भूख से मर जायेगे मगर अपनी जन्मभूमि का साथ ना छोड़ेगे और इन महानगरों की ओर जहां मानव भी  पथ्थर के होते हैं वहां पलायन नहीं करेंगे फिर क्या होगा ? " ये श्रमवीर  तो जैसे- तैसे अपना गुजरा कर लेंगे , जो कि उन्हें अच्छी तरह  आता है ,  मगर इन उद्योगपतियों का क्या होगा?
   इतना तो तय है  कि - ये भूख ,ये अपमान ,ये चोट ,ये दर्दनाक सफर हर एक मुसाफिर की  कई पुश्तें भुलाये नहीं भूल पायेगी। अगर किसी ईमानदार इतिहासकार की आत्मा जाग उठी और उसने इन " श्रमवीरों " के साथ हुए इस अमानवीयता को उनके इस दर्दनाक सफर की व्यथा -कथा को यथार्थ रूप में अंकित कर दिया तो इन   बुद्धिजीवियों  और लक्ष्मीपुत्रों  की  कई पुश्तों  के माथे पर कलंक का ऐसा कालिख लगेगा जो आसानी से नहीं धुलेगा।  हम  पूरी तरह से सरकार को दोषी करार नहीं दे सकते , जितना  सरकार दोषी हैं उनसे कही ज्यादा वो उद्योगपति  दोषी हैं जो अपने साथ काम कर रहे कामगारों पर थोड़ी सी दयाभाव भी नहीं दिखा सकें।  बड़े-   बड़े मालिकों की बात छोड़े , क्या मध्यमवर्गी और उच्च मध्यमवर्गी भी  अपने घरों  में काम करने वाली  बाई , चौकीदार ,सफाई कर्मचारी तक पर भी दयाभाव दिखा पा रहे हैं? अगर हाँ ,तो उनमे मानवीयता जिन्दा हैं और उन्हें शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं।
  आज  इन सब हालातों  को देखते हुए , मेरे भीतर भी बहुत ग्लानि होती हैं - " हम निम्न मध्यमवर्गी लोग आज के हालात में खुद को ही नहीं संभाल पा रहे हैं तो इनकी क्या मदद करेंगे और कैसे करेंगे ?बस उनके प्रति एक संवेदना भर दिखाकर चंद पंक्तियां  लिख देते हैं।  मजदुर तो हम निम्न मध्यमवर्गी भी हैं मगर फर्क ये हैं कि- हम कागज कलम लेकर बड़े हुए हैं और उसी से अपना गुजारा करते हैं। यदि हम एक मजदुर साथी को  एक वक़्त का भोजन भी करा सकें,  तो शायद हम खुद को क्षमा कर सकें।

   

20 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान में यही समय की माँग है।
    --
    उपयोगी आलेख।

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  2. कोरोना के बाद का अर्थशास्त्र अब इन श्रमवीरों का समाज-शास्त्र होगा। यक़ीनन, अब पर्याप्त संख्या में इनके अपने पुराने कर्म्-स्थल पर नहीं लौटने के बाद (मेरा अपना मानना है क़ि क़रीब चालीस प्रतिशत श्रमिक वापस लौटने वाले नहीं हैं) पूँजीपतियों को समझ में आएगा कि यहीं श्रमिक उनकी उत्पादन व्यवस्था की रीढ़ हैं और सरकार भी समझेगी कि ये श्रमिक देश के अर्थतंत्र के 'ऐसेट' हैं।
    हिंदी बेल्ट में भूपतियों का मन तो पहले से ही टूटा था, अब आपदा ग्रस्त मज़दूरों का भी मन नगरों से टूटा है और उनके वापस लौटने से ज़मींदार और मज़दूर के संबब्धों में एक नए सामजीक समीकरण के उगने की संभावना है। यह एक अच्छा अवसर है जब दोनों मजबूरी में ही सही अपनी पुरानी रंजिशों को भूल अपने खेतों में हरियाली की एक नयी चादर बिछाएँ। सारी आशा इन दोनों पर ही केंद्रित है। इस क्षेत्र की बीमार नौकरशाही से कुछ भी आशा करना निरर्थक है। आपका लेख भी संवेदनशील बौद्धिक नागरिकों के लिए विमर्श की एक नयी संभावना तलाशता है। मुझे अच्छा लगता है जब कोई विचारशील गद्य की रचना करता है क्योंकि 'गद्य कविता का निकष है' और गंभीर गद्यकार और गद्य-पाठक बहुत थोड़े बचे हैं। आपको बहुत बधाई इस क्षेत्र में गंभीरता से विचरण करने के लिए।

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    1. मजूर जिसे सब मंजूर
      कुछ दिन में ही
      भूल जाएंगे ये सब दीन
      भूख के आगे बेबस धान्य हीन

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    2. सहृदय धन्यवाद विश्वमोहन जी ,आपके चिंतन ने मेरे लेख को विस्तार दे दिया ,मैं लिखना तो और भी बहुत कुछ चाहती थी मगर वर्तमान परिस्थिति में मैं खुद भी उलझी हूँ सो मन थोड़ा विचलित था ,इसलिए बहुत कुछ विस्तृत रूप से नहीं कह पाई ,लेकिन आपने वो कमी पूरी कर दी ,हमेशा की भविष्यवाणी तो नहीं मगर इतना तो तय हैं कि -इन मजदूरों के ये जख्म जल्दी नहीं भरेंगे ,अगर गाँव की पंचायत इन्हे सहारा देने में असमर्थ रही तो जैसा कि बिभा दी ने कहा -भूख के आगे ये फिर बेबस हो सकते हैं , मेरे लेख पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया ने मेरा लेखन सार्थक किया ,आभार एवं सादर नमस्कार

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 24 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार सर ,सादर नमन

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  4. समाज के सबसे अभिन्न, आवश्यक पर उपेक्षित अंग

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  5. उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद बिभा दी ,आपकी प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ ,सादर नमन

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  6. विषय सामायिक है ,और आपका चिंतन यथार्थ के आसपास है लगता है सब ऐसा ही हुआ है, होगा, दोषी कौन और कितना तो सही नहीं समझ सकते पर भुगत तो यही वर्ग रहा है।
    पर आने वाले समय के गर्भ में से क्या बाहर आएगा अभी आंकलन करना मुश्किल है ।
    ये भुख इन्हें ले गयी और ये भूख इन्हें फिर मजबूर करदे वापस आने को ,या कुछ अराजक तत्वों का निर्माण होने लगे ??
    बहुत सार्थक विमर्श लेख।

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    1. सहृदय धन्यवाद कुसुम जी ,आपने बिलकुल सही कहा -" आने वाले समय के गर्भ में से क्या बाहर आएगा अभी आंकलन करना मुश्किल है "लेकिन बहुत ज्यादा नहीं तो भी थोड़ा बहुत तो इसका असर जरूर होगा। आपकी प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ ,सादर नमन

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  7. मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार अनीता जी

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  8. समसामयिक विसंगतियों श्रमिकों की अनदेखी और महामारी के समय में उनके कष्टों पर हृदयस्पर्शी लेख ।

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