पुरे विश्व में रिश्तें,समाज,पर्यावरण,किसी व्यक्ति विशेष और यहाँ तक की बीमारियों को भी याद रखने के लिए एक खास दिन तय किया गया है। मगर,क्या सिर्फ एक दिन तय कर देने से उन रिश्तों,उन परम्पराओं, हमारी संस्कृति और प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है ? ये दिन यकीनन एक खास उदेश्य से तय किये गए थे,इन के माध्यम से हम अपनी अगली पीढ़ी को उस विषय से परिचित करा सकें,उन्हें जागरूक कर सकें और उन्हें ये जिम्मेदारी भी दे सकें कि इसे आगे तुम्हे निर्वाह करना है। मगर क्या ऐसा हो पा रहा है ?
आज से तीस साल पहले ऐसा ही एक दिन तय किया गया था "विश्व वानिकी दिवस" जो हर साल 21 मार्च को मनाया जाता है। यह दुनियाभर में लोगों को वनों की महत्ता तथा उनसे मिलने वाले अन्य लाभों की याद दिलाने के लिए पिछले 30 वर्षों से मनाया जा रहा है। विश्व वानिकी दिवस का उद्देश्य यही था कि विश्व के सभी देश अपनी वन−सम्पदा और वनों को संरक्षण प्रदान करें। मगर,सोचने वाली बात है -अगर इस विषय की गंभीरता को समझकर इस दिवस को हम दिल से मनाये होते और एक पौधा लगाकर भी अपना कर्तव्य निभाए होते तो क्या आज पर्यावरण की ये दुर्दशा हुई होती ? सबसे दुखद बात ये है कि "इसी महीने में सबसे ज्यादा वन जलते भी है।" जब हमें पहले से पता होता है कि-इन्ही दिनों जंगल जलते है तो वन विभाग पहले से सतर्क क्यों नहीं रहता या वो भी दिवस मनाने में व्यस्त रहते है ?
पहले ऐसा कोई दिन तय नहीं किया गया था मगर फिर भी,वनों के प्रति सब दिल से समर्पित थे। वनों की महत्ता कौन नहीं जानता कि पेड़ पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं और पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करते हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं सिमटते जंगलों की वजह से भूमि बंजर और रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है जिससे दुनियाभर में खाद्य संकट का खतरा मंडराने लगा है। वन न केवल पृथ्वी पर मिट्टी की पकड़ बनाए रखता है बल्कि बाढ़ को भी रोकता और मिट्टी को उपजाऊ भी बनाए रखता है।
मगर,आज पृथ्वी पर लगभग 11 प्रतिशत वन ही संरक्षित है जो विश्व पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही कम है। स्वस्थ्य पर्यावरण हेतु पृथ्वी पर लगभग एक तिहाई वनों का होना अति आवश्यक है। लेकिन विकास की अन्धी होड़, जनसंख्या विस्फोट, औद्योगिकरण एवं गलत वन नीतियों के कारण वनों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है जो एक विश्व स्तरीय समस्या बन चुकी है।नये पेड़-पौधे लगाना तो दूर, जो है हम उसे भी गवाते जा रहें हैं।
मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य का जंगल से गहरा रिश्ता रहा है।जंगल ही वो स्रोत है जहाँ से हमें ऑक्सीजन की सबसे ज्यादा आपूर्ति होती है साथ ही जलाने के लिए ईंधन की पूर्ति, खेती में प्रयुक्त होने वाले औजार, खाद हेतु पत्तियाँ, जानवरों के लिए चारा और घास, घर बनाने के लिए लकड़ी आदि और सबसे जरुरी औषधियों के लिए अनमोल जड़ी-बूटियों का सबसे बड़े स्रोत वन ही रहे हैं।पहाड़ों में रहने वाले लोगों के लिए जीवनयापन का मुख्य आधार अभी भी खेती और पशुपालन रहा है। इन दोनों का आधार स्थानीय वनों से प्राप्त होने वाली उपज है।जंगल हमारे पशु-पक्षियों,जानवरों का घर है। यहाँ आज भी अनेक दुर्लभ जीवों की प्रजातिया पाई जाती है,जंगल के साथ उनका भी आस्तित्व जल रहा है। हर साल पुरे विश्व में जंगल की आग तबाही मचा रहा है।
हमारे भारत में भी हर साल गर्मियों के मौसम में झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू−कश्मीर के जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती ही जा रही है। पिछले साल तो सर्दियों के मौसम में ही उत्तराखंड के जंगल जलने लगे थे इस बार भी मार्च आते ही तापमान में ऐसा परिवर्तन हुआ कि 8 मार्च से लेकर 14 मार्च तक जंगल में आगजनी की 20 घटनाएं दर्ज की जा चुकी थी जिनमे 24.5 हेक्टर जंगल का क्षेत्र प्रभावित हुआ था। यदि वन विभाग उसी वक़्त सचेत हो जाते तो ये तबाही नहीं होती।अब तक सिर्फ उत्तराखंड में 604 वनाग्नि की घटनाएं रिपोर्ट की जा चुकी हैं और कुल 822 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इसका पर्यावरण पर कितना बुरा असर हो रहा है वो अकल्पनीय है।
अब सवाल ये उठता है कि-ये आग कैसे लगती है और क्यों बेकाबू भी हो जाती है ?
जंगल में आग लगने के कई कारण होते हैं। गर्मियों के मौसम में गर्म हवा, ज्यादा तापमान के कारण सूखा पड़ना है। सूखा पड़ने पर तो ट्रेन के पहिए से निकली एक चिंगारी भी आग लगा सकती है, इसके अलावा कभी−कभी आग प्राकृतिक रूप से भी लग जाती है, ज्यादा गर्मी की वजह से पत्तों या टहनियों में घर्षण के कारण या फिर बिजली कड़कने या गिर जाने से भी आग लगती है।आग लगने के मुख्य कारण बारिश का कम होना भी है। जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण इंसानी लापरवाही है।
इनमे से सबसे महत्वपूर्ण है-मजदूरों द्वारा शहद, साल के बीज जैसे कुछ उत्पादों को इकट्ठा करने के लिए जानबूझकर आग का लगाया जाना और फिर उसे सावधानी से नहीं बुझाना।
दूसरा कारण-कैम्पफायर, बिना बुझी सिगरेट फेंकना, जलता हुआ कचरा छोड़ना आदि भी है।
तीसरा कारण-आस-पास के गाँव के स्थानीय लोगों द्वारा दुर्भावना से आग लगा देना या आग लगने पर तत्काल वन विभाग तक सुचना नहीं पहुँचाना।
अब लपरवाह तो इंसान है ही अगर नहीं होता तो पर्यावरण की ऐसी हालत नहीं होती मगर स्थानीय लोगों में दुर्भावना क्यों ?
वन कानून जंगलों को दो भागों में बांटता है आरक्षित वन और संरक्षित वन। आरक्षित वनों में शिकार, चराई,पेड़ों की कटाई आदि सहित अनेक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जब तक कि कोई विशिष्ट आदेश जारी नहीं किए जाते हैं और संरक्षित वनों में कभी-कभी जंगल के किनारे पर रहने वाले समुदायों के लिए ऐसी गतिविधियों की अनुमति दी जाती है, जो आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से वन संसाधनों या उत्पादों से अपनी आजीविका चलाते हैं।तो जब कुछ समुदाय के लोगों को रोक-टोक के कारण अपनी आजीविका पालन में परेशानियाँ आती है तो गुस्से में वो अपनी ही सम्पदा को आग लगाने का दुष्कर्म कर देते हैं। जबकि वनों को बचाने और पुनर्जीवित करने में सबसे बड़ा योगदान स्थानीय ग्रामीणों का ही रहा है लेकिन अक्सर वन विभाग उन्हें जंगलों से दूर रखना ही वनों की सेहत के लिये फायदेमंद मानता है।
पौधों का रोपण और देखभाल एक सामुदायिक एवं आध्यात्मिक गतिविधि है।जो कि जंगल के आस-पास के समुदाय स्वेच्छा से करते थे। वनों को वो देवता समझते थे। लेकिन ये अधिकार उनसे छीन लिया गया और समूचे जगलात को एक महकमे के हवाले कर दिया गया कि ये जंगल का ख्याल रखेंगे। वनों की तुलना में ये महकमा एक तिनके बराबर है वनों के इतने मुद्दे है कि वो एक विभाग के बस की बात नहीं। वैसे तो उत्तराखंड में वन पंचायत ने इस सन्दर्भ में अच्छा काम किया है। मगर यदि अब भी जंगल पर समुदाय का हक़ होता और उन्हें जंगल बचाव कार्य में भागीदार बनाया गया होता तो शायद जंगल की आग की इतनी भयावह स्थिति नहीं होती क्योंकि जंगल उनका घर है और अपने घर को जलता कोई नहीं देख सकता।
जंगलों की आग से न केवल प्रकृति झुलस रही है, बल्कि प्रकृति के प्रति हमारे व्यवहार पर भी सवाल खड़ा होता है कि-हम कितने लापरवाह और स्वार्थी हो चुके हैं ? जंगलों में विभिन्न पेड़−पौधे और जीव−जन्तु मिलकर समृद्ध जैवविविधता की रचना करते हैं। पहाड़ों की यह समृद्ध जैवविविधता ही मैदानों के मौसम पर अपना प्रभाव डालती है फिर भी हम नहीं चेत रहें है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी घटनाओं के इतिहास को देखते हुए भी कोई ठोस योजना नहीं बनाई जाती है। सबसे दुःखद घटना है कि-एक व्यक्ति जिन्हे "वृक्ष-मानव" के नाम से जाना जाता था जिन्होंने अपना सारा जीवन इन जंगलों के नाम कर दिया था,जिनके शब्दों में- "तीन किलो की कुदाल मेरी कलम है,धरती मेरी किताब है,पेड़-पौधे मेरे शब्द है,मैंने इस धरती पर हरित इतिहास लिखा है" ऐसे स्वर्गीय विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के उगाए जंगल का हरित इतिहास भी तेज हवा के साथ उठ रहे दावानल में राख हो गया है।ये हमारे और सरकार दोनों के लिए बड़ी शर्म की बात है।
पेड़ संस्कृति के वाहक है, प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है।पेड़−पौधे रहेंगे तो हमारा वजूद रहेगा। उनके नष्ट होते ही मानव सभ्यता का भी पतन हो जायेगा।इसलिए हर नागरिक का धर्म है कि वह वनों की रक्षा और वानिकी का विकास में अपना योग्यदान करें।वन संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और संवर्धन से ही हम भावी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रख सकेंगे। हमें अगर जिन्दा रहना है तो प्रकृति से प्रेम करना ही होगा वरना सर्वनाश निश्चित है। सरकार को भी वनों की अवैध कटाई और इस आगजनी की समस्या को गंभीरता से लेना होगा और पिछली गलतियों से सबक लेकर आगे की योजना बनानी होगी। वन विभाग या वन पंचायत को जंगलो के आस-पास के ग्रामीण समुदाय को जागरूक करना होगा उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, साथ ही साथ उन्हें ये यकीन भी दिलाना होगा कि -"ये अब भी तुम्हारा ही घर है इसे सहेजना तुम्हरा कर्तव्य है इससे उतना ही लो जितने से तुम्हारी भी जीविका चले और इसका भी आस्तित्व बना रहें।" हम अपनी सम्पदा में बढ़ोतरी यदि नहीं कर पा रहें है तो कम से कम जो धरोहर मिली है उसे ही सहेज ले।
मई महीने के "प्रकृति दर्शन" में मेरा ये लेख प्रकाशित हुआ है। जिस वक़्त लेख लिखा था स्थिति बहुत भयावह थी उम्मींद थी कि जल्द ही संभल जायेगी मगर, अब तक हालत में कुछ विशेष सुधार नहीं हुआ है ,गर्मी का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। भगवान सबको सद्बुद्धि दे।
आपसे एक विनम्र निवेदन है -"संदीप जी प्रकृति संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के लिए प्रयासरत है,एक जागरूक नागरिक के रूप में हमें भी उनका सहयोग करना चाहिए और कुछ नहीं तो लेखन के माध्यम से ही हम इस शुभ कार्य के भागीदार बन जाए "