2012-13 में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमे दिखाया गया था कि-परिवार का हर एक सदस्य अपनी पीठ पर एक ऑक्सीजन सिलेंडर बांधे हुए है। डाईनिंग टेबल पर खाना खाते हुए पत्नी पति से कहती है -"आज शाम तक टोनी (उसका बेटा ) का ऑक्सीजन खत्म हो जायेगा ऑर्डर कर देना "पति हाँ में सिर हिलता है और सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं। शाम को घर आते ही बच्चा माँ से सिलेंडर मांगता है। माँ पापा से कहती है -तुमने सिलेंडर आर्डर नहीं किया था क्या,अभी तक नहीं आया ?पति कहता है -ऑफिस के कामों में मैं भूल गया तुम भी तो कर सकती थी। माँ कहती है मेरे पास पैसा नहीं था। फिर दोनों में बेलम-गेम शुरू हो जाता है, बच्चा कहता है अब तो आर्डर कर दो मेरा ऑक्सीजन बस एक घंटे का है। फिर माँ आर्डर करती है, मगर एक घंटे में सिलेंडर नहीं आ पता। ऑक्सीजन खत्म होने के बाद बच्चें की हालत खराब होती जाती है। वो एक-एक साँस मुश्किल से ले पा रहा,जैसे-जैसे वक़्त गुजरता है बच्चें की हालत नाजुक होती जा रही है ,माँ-बाप बच्चें को गोद में लिए खुद भी तड़प रहे,अपनी बेबसी और भूल पर रो रहे हैं ,छोटी बहन बार-बार दौड़ कर दरवाजे पर जाती है, पिता डिलीवरी वाले को बार-बार फोन कर रहा है। तभी दरवाजे पर घंटी बजती है माँ दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोलती है सिलेंडर वाले से लगभग झपटते हुए सिलेंडर लेती है और उसे बच्चें को लगाती है। लगभग दो मिनट बाद बच्चा थोड़ा नॉर्मल होता है सबकी जान में जान आती है।उस वीडियो के मुताबिक 2025-30 तक पुरे विश्व की हालत यही होगी यदि हम सचेत नहीं हुए तो।
इस वीडियो को देखने के बाद मैं बहुत सहम गई, कई दिनों तक नींद गायब हो गई। हर वक़्त मन में एक ही सवाल -क्या हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए ये दिन छोड़कर जायेगे ? वैज्ञानिक अपनी तरफ से जरूर हर संभव प्रयासरत होंगे लेकिन क्या हमारी खुद की कोई जिम्मेदारी नही है ? आखिर सब कुछ बिगाड़ने में हमारा भी तो हाथ है। मैंने अपनी तरफ से जो बन पाया करना शुरु कर दिया जैसे, टैरिस गार्डन लगाना,कूड़ा खुद भी नहीं जलाती और पड़ोसियों को भी रोकती,सेहत ठीक करने के बहाने पतिदेव को गाड़ी कम इस्तेमाल करने को कहती, आदि। कभी-कभी मन में ख्याल भी आता कि -एक मेरे करने से क्या होगा,मगर दूसरे ही पल खुद को समझाती "अपने हिस्से की जिम्मेदारी तो निभाओ " खैर 2014-15 से धीरे-धीरे दिल्ली में प्रदूषण का स्तर किस कदर बढ़ा ये तो जग जाहिर है। गाड़ियों के धुएं, घुल की आँधी,कारखानों की जहरीली गैस ने तो नाक में दम कर ही रखा था ऊपर से खेतो में पराली का जलना तो एक-एक सांस लेना दुर्लभ कर दिया।
इतने प्रदूषण के वावजूद जब त्यौहार आते तो दशहरा में रावण जलाने से लेकर दिवाली के पटाखों के बाद घर-घर में दमा के मरीज भर जाते। बुजुर्गों की हालत इतनी दयनीय होती कि -आज के कोरोना-काल की तरह उन्हें घर में कैद हो जाना पड़ता, तब भी मौत की संख्या बढ़ ही जाती। उन्ही बदनसीबों में से एक मेरा भी परिवार था। 2016 के 23 नवम्बर को प्रदूषण के कारण ही मेरे पापा को साँस लेने में थोड़ी दिक्क्त शुरू हुई। इलाज शुरू हुआ, डॉक्टरों के सारे ड्रामे चलते रहे , 31 जनवरी को कहा गया कि -फेफड़े में एक छोटा धब्बा नज़र आ रहा है शायद कैंसर हो , 28 फरवरी को कैंसर चौथे स्टेज पर पहुंच गया और पापा लाईलाज हो गए और 4 मार्च को हमें छोड़ इस प्रदूषण के दुनिया से बहुत दूर चले गए ।
इस घटना के बाद मेरा परिवार टूट सा गया क्योंकि नवम्बर तक मेरे पापा हट्टे-कट्टे थे,74 साल के उम्र में भी हर रोग से दूर,उनका अचानक जाना हमारा परिवार सह नहीं पा रहा था और बच्चों के लिए तो यकीन करना मुश्किल ही था। उस वक़्त मेरा 5 साल का भतीजा मुझसे सवाल किया "बुआ आप दादा जी को क्यों नहीं बचा पाई आप तो डॉक्टर है न "(मैं होमियोपैथ की डॉक्टर हूँ,बच्चें को मुझ पर बहुत यकीन था) मैंने कहा-नहीं बचा पाई क्योंकि दादाजी को किसी बीमारी ने नहीं मारा बल्कि प्रदूषण ने मारा है। बच्चें ने प्रदूषण पर ढेरों सवाल खड़े कर दिए,मैंने यथासम्भव और उसके समझ के हिसाब से समझाने की कोशिश की। उस उम्र के बच्चें का सबसे गंभीर प्रश्न- क्या हम प्रदूषण को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकते ? मैंने समझाया क्यों नहीं कर सकते, जरूर कर सकते हैं सबसे पहले तो दिल्ली के प्रदूषण को रोकने के लिए हम पटाखें जलाना छोड़ सकते हैं, कूड़ा और गंदगी को जलाना छोड़कर हवा प्रदूषित होने से रोक सकते हैं और अपने छत पर छोटा सा गार्डन लगा सकते हैं।
उस छोटे से बच्चें ने उसी वक़्त संकल्प लिया हम भाई-बहन (कुल मिलाकर सात बच्चें है घर में )आज से पटाखें नहीं जलायेगे और अपने दोस्तों को भी समझायेंगे कि -"पटाखें नहीं जलाओ"साथ ही साथ हम जितना होगा पौधे लगयाएगे। हमारे घर के बच्चों ने झूठी कसम नहीं खाई थी वो दिन है और आज का दिन हमारे घर में पटाखें नहीं जलाये गए।
ये सारा वृतांत सुनाकर मैं सिर्फ ये कहना चाहती हूँ कि -बड़ी-बड़ी योजनाएं तो अपनी जगह है हम सभी अपने हिस्से की छोटी-छोटी जिम्मेदारी भी निभा ले तो ये बड़ी समस्या भी छोटी हो सकती है। आज अनेको उदाहरण भरे पड़े है जहाँ अपने बलबूते पर ही प्रकृति और पर्यावरण के लिए कई लोग बहुत कुछ कर रहें है। लेकिन हम उनसे प्रेरित ना होकर उन्हें देखते है जो लोग इसके विपरीत काम करते हैं अर्थात पर्यावरण को दूषित करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। उन्हें देख हम कहते हैं कि -सब तो कर रहे हैं एक मेरे ना करने से क्या होगा ?
2020 में जब लॉक डाउन हुआ था तो हम सबने प्रत्यक्ष देखा था कि -प्रकृति ने अपना शुद्धिकरण कैसे किया था। उस परिणाम स्वरूप चंद साँसे हमारी बढ़ गई थी लेकिन हमने इतने बड़े घटनाक्रम से भी कुछ नहीं सीखा और जैसे ही दुःख के दिन बीते हम फिर वही लापरवाही करने लगे। प्रकृति फिर कुपित हुई और इस बार उसने पर्यावरण में नहीं हमारे फेफड़ों में ही साँसे कम कर दी। ये कथन कि -"एक के किये से कुछ नहीं होता " इसे भी गलत साबित कर प्रकृति हमें समझा रही है कि -तुम्हारे घर का एक बंदा ही मौत को लेकर घर में प्रवेश कर रहा है और पूरा का पूरा परिवार "काल के गाल" में चला जा रहा है।
रामायण में वर्णित एक गिलहरी की कहानी सब जानते हैं कि -रामसेतु पुल बनाने में कैसे उसने अपना छोटा सा ही सही योगदान दिया था। यदि हम वो गिलहरी भी बन जाए और अपने हिस्से का फर्ज निभा ले तो स्थिति बहुत हदतक सुधर सकती है।जैसे कि -घर में पांच व्यक्तियों के लिए पांच गाड़ी रखने को हम अपना स्टेटस सिंबल ना समझ, ये समझे कि -हम जिम्मेदार है हवाओं में जहर घोलने के लिए।गाड़ियों को प्रदूषण रहित रखने की जिम्मेदारी ना निभाना और घुस देकर प्रदूषण फ्री का सर्टिफिकेट ले लेने को अपनी समझदारी ना समझे। हम ये मान ले कि -अपना घर साफकर कूड़ा सड़क के किनारे फेकना सफाई नहीं है। उस कूड़े को सही तरिके से विघटित ना कर कही भी इक्ठाकर जला देना हमारी बेवकूफी है। जहर घुल चुकी हवाओं में त्यौहार के नाम पर या शादी-उत्सव के नाम पर पटाखें जलाकर और जहरीला बनाने को ही खुशियां मनाने की संज्ञा ना दे,बल्कि ये समझे हम ख़ुशी नहीं अपनी मुसीबत आप बुला रहे हैं।
ये बातें बहुत छोटी है परन्तु बहुत महत्व रखती है। पहले खुद सुधर जायेगे तभी तो सिस्टम और सरकार पर उँगली उठाने के काबिल रह पाएंगे।दूसरों पर ऊगली उड़ाने से पहले एक ऊँगली अपनी तरफ भी होनी चाहिए। सिर्फ धरना-प्रदर्शन कर, बड़ी-बड़ी बहस में शामिल होकर हम किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। एक आपबीती और याद आ रही है -एक शिक्षिका थी जो समाज सेविका भी थी वो खुद की बहु को दहेज के लिए प्रताड़ित कर स्कुल के मंच पर ही नहीं बड़ी-बड़ी सभाओं में भी जाकर दहेज प्रथा के खिलाफ भाषणबाजी और नारेबाजी करती थी। हमें ये दोहरा व्यक्तित्व छोड़ना पड़ेगा। वरना कोरोना तो कुछ भी नहीं आगे इससे भी बड़ी विपदा हमारे आगे खड़ी है। ऑक्सीजन लेबल घटाया हमने है बढ़ाना भी हमारा काम है।
हर समस्या के समाधान का बहुत ही साधारण मंत्र है -"हम सुधरेंगे युग सुधरेगा
हम बदलेंगे युग बदलेगा "
बहुत गहन आलेख लिखा है आपने, ये सच है और इस सच से होकर हम सभी को गुजरना होगा...। अच्छे और गहरे विषय पर लेखन के लिए कामिनी जी साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए सहृदय धन्यवाद संदीप जी,सादर नमन
हटाएंये आलेख मैं यहीं से ले रहा हूं, आपका फोटोग्राफ और संक्षिप्त परिचय मेल पर या व्हाटसऐप पर मिल जाएगा तो बेहतर होगा...अंक का लिंक अथवा पीडीएफ आपको प्रेषित कर दी जाएगी। आभार आपका सहयोग बनाए रखियेगा।
जवाब देंहटाएंमेरे लेख को अपनी पत्रिका में स्थान देने के लिए भी हृदयतल धन्यवाद संदीप जी,सादर नमन
हटाएंप्रकृति समय-समय पर चेताती रहती है पर हम अपने गुमान में खोए किसी बात पर ध्यान न दे अपने कुकर्मों में लिप्त रहते हैं
जवाब देंहटाएं
हटाएंबहुत अच्छी बात कही है आपने गगन जी। हर दम वह हमें समझाती है, सबक देती है लेकिन समझना किसे है और क्यां...।
हमारा दोष बस यही है हम गलतियों से कभी नहीं सीखते बस गलती पर गलती करते जाते हैं और भगवान से क्षमा मांगते रहते हैं,तो खामियाज़ा भी भुगतना ही पड़ेगा,सादर नमन गगन जी
हटाएंअपनी जिम्मेदारी को समझना ही होगा, बिना इसके किसी भी बदलाव की उम्मीद करना व्यर्थ है।
जवाब देंहटाएंऔर कोई रास्ता ही नहीं है सर,दोषारोपण से निवारण नहीं होता बस अपना पला झाड़ा जाता है,ब्लॉग पर उपस्थित होने के लिए हृदयतल से आभार एवं नमन
हटाएंबहुत सराहनीय लेख ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं नमन सर
हटाएंकामिनी दी, मेरे यहाँ पीछले लगभग दस सालों से एक रुपए का फटाका भी नही आया है। मेरा मानना यही है कि हम लोगो को नही सुधार सकते लेकिन खुद तो सुधर सकते है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर विचारणीय आलेख।
बस यही सोच बदलाव ला सकती है ज्योति जी,खुद सुधर गए सब सुधर जायेगा,सादर नमन आपको
हटाएंप्रिय कामिनी , बहुत ही सटीक और सार्थक लेख लिखा है तुमने | सच कहूं तो सरकार को ऐसे नियम कायदे बनाने चाहिए और न्यायपालिका को इन्हें सख्ती से लागू करने में पीछे नहीं हटना चाहिए | अब कब तक रावण दहन का तमाशा और होलिका दहन का नाटक होगा | ये नाटक दिखाने से पहले , प्रदूषण को झेलते और मरते लोगों का खयाल जरुर करना चाहिए | आज धरती को सिर्फ पेड़ों की जरूरत हैं | इसी में हर समस्या का समाधान है | बरसों पुराने पेड़ ,कंक्रीट के जंगल बनाने में धराशायी हो गये | आज पेड़ लगाएं भी तो सालों लग जायेंगे उन्हें बड़ा होने में | फिर भी भविष्य के लिए एक उम्मीद तो बची रहेगी | आखिर क्या देखेंगी आने वाली पीढियां | कितना अच्छा हो हम उन्हें हरियाला भविष्य सौंप इस दुनिया से जाएँ | आक्सीजन के सिलेंडर के प्रसंग ने तो डरा दिया | विचारणीय विषय पर लिखे इस लेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं सखी |
जवाब देंहटाएंसखी सरकार और न्यायपालिका को नियम बनाकर सख्ती से लागु करने की तो बेहद जरूरत है,जैसा की दूसरे देशो में है मगर अपनी जिम्मेदारी पहले निभानी सीखनी होगी,तुम्हारे विस्तृत प्रतिक्रिया से लेखन को बल मिला ,ढेर सारा स्नेह तुम्हे
हटाएंप्रिय सखी ,कामिनी जी ,बहुत गहरी और सीख लेने वाली बात कही है आपने ।यदि अब भी नहीं चेता मानव तो वाकई ये दिन देखने पड सकते हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत देर तो पहले ही हो चुकी है सखी ,मगर जब इस प्रकृति ने हमें सजा दे दी तब भी नहीं जागे तो अभागे ही होंगे न,सादर नमन शुभा जी
हटाएंब्लॉग पर स्वागत है आपका आदरणीय,सराहना के लिए हृदयतल से आभार
जवाब देंहटाएंकामिनी जी मैने ये वीडियो तो नहीं देखा पर इस भयावहता की कल्पना कर सकती हूं,बड़ा ही दहशत भरा दृश्य, हम सभी को सचेत होने की जरूरत है,सार्थक आलेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं एवम नमन ।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन प्रतिक्रिया के लिए दिल से धन्यवाद आपका, जिज्ञासा जी दृश्य तो अभी भी डरावना ही था जब ऑक्सीजन के लिए लोग तड़प-तड़पकर मर रहे थे और कुछ स्वार्थियों ने उसका कालाबाजार कर रखा था,कल्पना कीजिये,ये तो कित्रिम गैस है जिसकी आवश्यकता सिर्फ बीमार को पड़ रही है यदि हर एक को इसकी जरूरत पड़ने लगे तो क्या उस वक़्त ऐसे निर्दयी स्वार्थी लोग नहीं होंगे। ऐसी कल्पना से ही रूह काँप जाती है। हमारे पास अब विकल्प है ही नहीं "सुधरों या तड़प-तड़पकर मरों "
हटाएंसुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर,आभार एवं सादर नमन आपको
हटाएंहर कोई अपनी जिम्मेदारी समझेगा, तभी सकारात्मक परिवर्तन आएगा। मैंने भी अपने लिए कुछ नियम बनाए हैं जैसे गीला अौर सूखा कचरा अलग रखना, पटाखे ना जलाना, प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग, पौधे लगाना और पानी बर्बाद ना करना।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि हम सब इतना भी कर लें तो बहुत फर्क पड़ेगा। हम भारतीय लोग जब भारत से बाहर अमेरिका, कनाडा जाते हैं तो वहाँ के सारे नियमों का पालन करते हैं परंतु जब हम भारत में रहते हैं तो नियमों का उल्लंघन करने में ही अपनी शान समझते हैं।
"गीला और सूखा कचरा अलग रखना, पटाखे ना जलाना, प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग, पौधे लगाना और पानी बर्बाद ना करना।"
हटाएंये नियम हर एक को बनाने ही पड़ेगे। आपने सही कहा मीना जी "हम सब इतना भी कर लें तो बहुत फर्क पड़ेगा"
काश हम अब भी समझ जाते खैर,हमें अपना कर्तव्य करना चाहिए और दूसरों को प्रेरित भी
तहे दिल से शुक्रिया आपका मीना जी,अपनी बात साझा करने के लिए
सराहनीय लेख सखी👌👌
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हटाएंतहे दिल से शुक्रिया सखी,सादर नमन
बहुत महत्वपूर्ण आलेख. ऑक्सीजन की जिस तरह अभी किल्लत हुई और इतने सारे लोग मारे गए; वह विडियो सच साबित हो ही गया. पर्यावरण के बचाव के लिए जितना हो सके हमें प्रयास करते रहना चाहिए.
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हटाएंतहे दिल से शुक्रिया शबनम जी,आपने सही कहा हमें तो प्रयासरत रहना ही चाहिए ,सादर नमन
सही कहा कामिनी जी!मैने भी देखा था वह वीडियो और लम्बे समय तक मन मस्तिष्क में वही ऐसे ही विचार आते रहे...सच में आने वाला कल अगर इतना भयावह होगा तो क्या होगा...।आज ये कोरोना काल और ऑक्सीजन की किल्लत हमारे भयावह कल का ही ट्रेलर है...हम अभी भी नहीं चेते तो हमें भगवान भी नहीं बचा सकते..।
जवाब देंहटाएंगहन चिन्तनपरक एवं विचारणीय लेख।
हटाएंतहे दिल से शुक्रिया सुधा जी,मेरा मानना भी यही है कि -ये तो एक ट्रेलर है,प्रकृति हमें सचेत कर रही है,अब भी ना सुधरे तो ये भी कहने के काबिल नहीं रहेंगे कि -"अब राम ही मालिक है "आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से लेखन को बल मिला आभार एवं सादर नमन
बिल्कुल सही कहा आद.कामिनी जी जब तक हम खुद नहीं सुधरेंगे तो दूसरों उंगली उठाने का कोई फायदा नहीं है हमेशा प्रयास खुद से करना चाहिए आपके लेख में लिखी सभी बातें बहुत ही सटीक है
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार सार्थक आलेख
सहृदय धन्यवाद सर,आप तो बहुत ही नेक काम करते हैं,समाज को आप जैसे और लोगो की जरूरत है,मेरी समर्थता तो उतनी नहीं है,मगर अपने स्तर पर मैं जितना बन पड़ता है करती हूँ ,जैसे मैं होमेओपेथिक डॉक्टर हूँ तो सिर्फ सलाह ही नहीं जहाँ तक हो पता है लोगो को फ्री में दवा भी दे देती हूँ।
हटाएंआभार एवं सादर नमन आपको
बहुत ही सार्थक लेख!
जवाब देंहटाएंप्रकृति के बिना जीवन असम्भव है पर मैं अक्सर देखती हूँ लोगों ये बात पता होने के बावजूद इसकी गम्भीरता को नहीं समझते! त्यौहारों के वक्त तो भूल ही जाते हैं और अगर किसी से को पटाखे फोड़ने से मना करो तो बोलते मेरे एक के ना जलाने से प्रदूषण खत्म नहीं हो जाएगा वो समझने के लिए तैयार ही नहीं होते कि एक एक से ही अनेक होते हैं पता नहीं कब सुधरेंगे? और पौधें तो लोग अब पौधारोपण दिवस पर ही लगाते उनमें से जमीन से ज्यादा सोशलमीडिया पर लगाते हैं! 🌱🌱🌱🌱 सांसें हो रही कम ,आओ पेड़ लगाएं हम ! बस इतना ही करते हैं जमीन पर नहीं सिर्फ सोशलमीडिया पर वृक्षारोपण करते हैं
दिल से शुक्रिया मनीषा,"जमीन पर नहीं सिर्फ सोशलमीडिया पर वृक्षारोपण करते हैं"बिलकुल सत्य कहा तुमने।
हटाएंहमें अपना काम करना है दुनिया को सुधारने की सोचेंगे तो अपना भी भूल जायेगे। तुम बच्चें देश का भविष्य हो तुम सुधर जाओं,सब सुधर जाएगा।
बहुत ही रोचक लेख
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया मनोज जी,सादर
हटाएंबढ़िया लेख
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया,स्वागत है आपका
हटाएंसहमत आपसे ...
जवाब देंहटाएंये सब हमारे ही कर्म हैं जिनको समय रहते हमें ठीक करना होगा ...
काश इस टिकटिकी को सुनें सब लोग ...
बिल्कुल सही कहा आपने,सरहाना हेतु हृदयतल से आभार दिगंबर जी,सादर नमन आपको
हटाएंबहुत सार्थक लेख ।
जवाब देंहटाएंहम सुधरेंगे युग सुधरेगा ।। जिस वीडियो का ज़िक्र किया है सच ही उसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत थी । हर एक को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए । जब तक नागरिकों का साथ नहीं मिलेगा तब तक कोई योजना सफल नहीं हो सकती । विचारणीय लेख ।
सही कहा दी आपने,हमारी लापरवाहियों ही तो हमें भुगतनी पड़ रही है,लेख पर अपने विचार देने के लिए हृदयतल से आभार आपका,सादर नमन
हटाएंबहुत सार्थक लेख कामिनी जी । प्रकृति की अनदेखी और अनावश्यक दोहन का खामियाजा भुगत रहे हैं हम ।
जवाब देंहटाएंसराहना हेतु हृदयतल से आभार मीना जी ,सादर नमन
हटाएंसार्थक आलेख, आपने बिल्कुल सही कहा है, हमें ही शुरुआत करनी होगी
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया अनीता जी , सादर नमन आपको
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