"ज़िन्दगी तो बेवफा है, एक दिन ठुकराएगी
मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी"
जी हाँ, मौत महबूबा ही तो है वो कभी आप का पीछा नहीं छोड़ती और महबूबा के साथ जाने में कैसा डर कैसी घबड़ाहट.... मगर,क्या इतना आसान होता है "मौत"को महबूबा समझना?
"मौत" एक शाश्वत सत्य..जो एक ना एक दिन सबको अपने गले से लगा ही लेती है। "मौत" शरीर की होती है आत्मा की नहीं...आत्मा तो अजर अमर अविनाशी है।"मौत"जो अंत नहीं एक नव जीवन का आरंभ है.....
ये आध्यात्म की बातें.... सब जानते हैं और मानते भी है। फिर भी..."मौत' इतनी डरावनी क्यूँ लगती है। क्यूँ नहीं हम इसका मुस्कुराते हुए बाहें फैला कर स्वागत कर पाते हैं? क्यूँ जब इस दुनिया के भगवान आप के किसी अपने को ये कह देते हैं कि-"ये चन्द दिनों के मेहमान है" तो हम उसी पल टुटकर बिखर जाते हैं? क्यूँ उस अपने का बिछड़ना असहनीय लगता है? उस व्यक्ति के दर्द और पीड़ा को देख कर एक पल को हम इस सत्य को स्वीकार भी कर ले कि इस जीर्ण-शीर्ण काया का नष्ट हो जाना ही उस व्यक्ति की मुक्ति है.... मौत उसके लिए वरदान है तब भी.... तिल-तिल कर नष्ट होती उस काया को देखना कितना दुष्कर होता है। ऐसा लगता है जैसे वो व्यक्ति ही नहीं हम भी उसके साथ पल-पल मौत के क़रीब जा रहें हैं..... "एक रिश्ते की मौत" ये दर्द तब और बढ़ जाता है जब वो रिश्तेदार " मां-बाप" हो। क्यूँकि सारे रिश्ते दुबारा मिल सकते है ये नहीं।
ये तो जिन्दों की पीड़ा है उस मरने वाले की पीड़ा को तो शायद, कोई समझ ही नहीं सकता...यकिनन उसे शब्दों में बयां कर पाना उसके लिए भी दुष्कर ही नहीं असम्भव है। जन्म और मरण ही तो एक ऐसी प्रक्रिया है जो अव्यक्तं है और हमेशा रहेगा।
कहते हैं कि- आत्मा को भी शरीर छोड़ने से पहले कितने ही सुक्ष्म प्रकियाओ से गुजरना होता है। प्राण शक्ति अपनी उर्जा को सभी नाड़ियों से खींच एकत्रित कर बाहर निकालने का प्रयास कर रही होती है और मोह वश आत्मा उसे निकलने देना नहीं चाहती और दोनों के बीच द्वंद्व होता रहता है, ये पीड़ा असहनीय होती है। ये भी कहते हैं कि आख़िरी घड़ी में जीवन के सारे कर्म चलचित्र की भांति आँखों के सामने से गुजरने लगते हैं और वो पल उस आत्मा के लिए बेहद पीड़ा दायक होती है। अर्थात कुल मिलाकर कर जीवन के इन आखिरी क्षणों की पीड़ा को इन्सान किसी से साझा भी नहीं कर सकता है।
ये तो आखिरी चन्द घंटों की प्रक्रिया होती है परंतु उससे पहले की उन यातनाओं का क्या....जब आप का शरीर धीरे-धीरे असहाय होता जा रहा हो... पहले तन के एक-एक अंग साथ छोड़ रहे हो और फिर आप की इन्द्रियों ने भी आप का कहना मानने से इंकार कर दिया हो।कितना मुश्किल होता होगा उस आत्मा के लिए जिसे महसूस हो रहा है कि वो पल-पल मौत की ओर बढ़ रहा है..... वो अपने प्रियजनों से कभी भी अन्तिम विदाई ले सकता है......उस पल मोह ग्रस्त आत्मा के लिए ये स्वीकार करना कि-
" ये अंत नहीं आरंभ है" सम्भव ही नहीं।
और वो प्रियजन जिनके लिए वो व्यक्ति उसकी पूरी दुनिया सदृश्य हो वो उसे तिल-तिल मरता देख रहा हो...पर कुछ नहीं कर सकता....उसके वश में सिर्फ इतना ही है कि वो कुरूर नियति के फैसले का इंतजार करता रहें....
किसी के लिए भी जीवन का ये सबसे मुश्किल वक्त होता है। जाने वाले के लिए भी और....ठहरने वालों के लिए भी....
क्यूँ, मन ये स्वीकार नहीं कर लेता कि-
जीवन एक ऐसा जंग है जिसमें हार ही जाना है
एक दिन इस जहाँ को छोड़, उस जहाँ को ही जाना है....
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आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (05-01-2022) को चर्चा मंच "नसीहत कचोटती है" (चर्चा अंक-4300) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मंच पर स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद सर, सादर नमस्कार आपको
हटाएंकामिनी दी, मैं तो बस इतना ही कहूंगी कि हर क्यूं का जबाब नहीं होता। सब कुछ जानते हुए भी मौत इंसान को दुख ही देती है चाहे वह किसी की भी हो।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ज्योति जी,हर "क्यूं" का ज़बाब नहीं होता,पर मन हर वक़्त सवाल करता ही रहता है और जबाब तलाशने के लिए प्रयासरत रहता है, मेरे लेख पर अपनी विचार देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपको, सादर नमन
हटाएंक्यूँ, मन ये स्वीकार नहीं कर लेता कि-
जवाब देंहटाएंजीवन एक ऐसा जंग है जिसमें हार ही जाना है
एक दिन इस जहाँ को छोड़, उस जहाँ को ही जाना है...
यह मन कहाँ आसानी से कुछ मानता है...जीवन नश्वर है मगर मोह भी अकाट्य सत्य है ।और इन्हीं के बीच झूलता है इन्सान यही जीवन है ।
सही कहा आपने मीना जी,"यही जीवन है"
हटाएंमगर, मैं इस मुश्किल को आसान बनाने के लिए खुद का मंथन कर रही हूं, इतने सुन्दर विचार देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपको, सादर नमस्कार
प्रिय कामिनी , तुम्हारे दर्शन से सहमत हूँ पर सखी , किशोरवय में अपने परिवार में कई लोगों की असाध्य रोगों से मौतों ने मेरे भीतर एक बहुत बड़ा भय बना दिया है |मैं खुद इस भय से मुक्त होना चाहती हूँ |पर ये इंसानी कमजोरी मेरे भीतर भी है |सच है जानते भी हैं हमारा प्रिय आत्मीयजन रोगों का घर बना है और जर्जर काया के साथ बहुत पीड़ा के साथ जी रहा पर हम ना उसके मोह से आज़ाद होते हैं ना उसे ही होने देते हैं | संभवतः यही मानव स्वभाव है जिसे पूर्ण रूप से तो नहीं पर सतत अभ्यास से आंशिक तौर पर बदलना संभव है | आखिर हम क्यों नहीं मान लेते -- कि ये दुनिया छोड़कर एक दिन हम भी जायेंगे | पर हम जीते हैं सदा के लिए जीवन की चाहत लिए | पर ये भूल जाते हैं --
जवाब देंहटाएंवर्षों का सामान कर लिया - पल की खबर नहीं !!!!!!
"वर्षों का सामान कर लिया - पल की खबर नहीं"
हटाएंबहुत खुब कहा सखी,हम उन्हीं समानों को सहेजने में लगे रहते हैं जो हमें पीड़ा देते हैं जो पीड़ा मुक्त करें उसे तो अनदेखा कर देते हैं। मेरा मन भी इन दिनों उन्ही समानों को ढुंढने में लगा है जो इस पीड़ा को कम कर सकें
बहुत दिनों के बाद तुम्हें अपने ब्लॉग रुपी घर में देख बेहद खुशी हुई है सखी, मेरे लेख पर इतनी सुन्दर विचार देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद सखी
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर, सादर नमस्कार
हटाएंसारगर्भित आध्यात्मिक चिन्तन! अंतरतम तक कुरेद के रख दिया आपने! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति कामिनी जी!
जवाब देंहटाएंप्रशंसा हेतु हृदयतल से धन्यवाद सर,मन कभी कभी इन सवालों में उलझ जाता है बस उन्ही के जबाव तलाशने में उलझी हूं, सादर नमस्कार आपको
हटाएंयही जीवन का सत्य है सखी।जिसे सब जानते है पर फिर भी जीवन से जुड़े रिश्ते और उनसे मोह के बंधन इतना मजबूत होता है कि उससे दूर होना जाने वाले और परिजनों के लिए बेहद मुश्किल होता है।बहुत सुंदर और सारगर्भित लेखन।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने अनुराधा जी, बेहद मुश्किल है.. सारगर्भित प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद सखी,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंसत्य की बोध कराती हुई अभिव्यक्ति, बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया भारती जी,सादर नमन
हटाएंबढ़िया अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया सरिता जी, 🙏
हटाएंजीवन और मृत्यु का चिंतन ।
जवाब देंहटाएंआपके इस गूढ़ आलेख में मानव जीवन का संदर्भ बखूबी दिख रहा है,समझने को तो बहुत सी बातें हैं,पर जब किसी अपने को दर्द और मौत के करीब देखो तो दुनिया की हर संभव असंभव बात करने के लिए इंसान तैयार हो जाता है क्यों, क्योंकि हम अपनों के मोहजाल को छोड़ना नहीं चाहते...
एक सार्थक जीवन संदर्भ उठाता चिंतनपूर्ण आलेख ।
आप ने बिल्कुल सत्य कहा जिज्ञासा जी, सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से धन्यवाद सखी
हटाएंजीवन के अंतिम सत्य को व्याख्यायित करता जबरदस्त लेख.....इस प्रवंचना से कौन पार पा सका है कामिनी जी...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद अलकनंदा जी, सादर नमन आपको
हटाएंजीवन के अंतिम सत्य को दर्शाती है आपकी यह रचना बहुत ही सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर, सादर नमस्कार आपको
हटाएंजीते जी मरने की कला यदि कोई सीख ले तो उसे इस पीड़ा से गुजरने में तकलीफ़ नहीं होगी शायद
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने अनीता जी,मेरा अनुभव तो यही कहता है कि मौत से भी ज्यादा भयानक अनुभव है मौत का इंतजार करना, प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं नमन
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर, सादर नमस्कार
हटाएंये भी सच है की मन है ... फिर ये कहना की स्वीकार कर ले हर बात को ...
जवाब देंहटाएंशयय्द सभव ही नहीं .. ये द्वन्द है जो चलता रह्र्गा हर किसी का ... जीवन जीना एक विजय है ... मौत को हराना भी एक विजय है, नित्य की विजय ... एक दिन मौत का जितना तय है तो जीवन के प्रतिदिन के विजय को क्यों भूलें ...
इतनी सारगर्भित प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं नमन दिगम्बर जी
हटाएंमृत्यु जैसे शाश्वत सत्य को जानकर भी मान नहीं पाते अपनों के प्रति ऐसी कल्पना भी भयभीत करती है क्योंकि ये जीवन के प्रति आसक्ति और मोह का जाल स्वयं उस निराकार ने रचा है...ये उसी की चाहना है कि जीवन से मोह बना रहे और सृष्टि चलती रहे...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित एवं चिंतनपरक लाजवाब लेख।
मेरे लेख पर अपनी अनमोल प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद सुधा जी,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंजीवन का सत्य है जिसे हम सब जानते है पर फिर भी हम सब के जीवन से जुड़े रिश्ते और उनसे मोह के बंधन इतना मजबूत होता है कि उससे दूर होना जाने वाले और परिजनों के लिए बेहद मुश्किल होता है सत्य का बोध कराता सारगर्भित लेखन।
जवाब देंहटाएंआपको तहे दिल से शुक्रिया संजय जी,बहुत दिनों बाद आपको ब्लॉग पर देख बेहद ख़ुशी हुई,सादर
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