बुधवार, 27 मार्च 2019

हमारी प्यारी बेटियाँ

                                       

    कहते हैं "बेटियाँ" लक्ष्मी का रूप होती है, घर की रौनक होती है। ये बात शत प्रतिशत सही है। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि बेटियाँ ही इस संसार का मूल स्तंभ है। वो एक सृजनकर्ता और पालनकर्ता है। प्यार और अपनत्व की गंगा बेटियों से ही शुरू होती है और बेटियों पर ही ख़त्म हो जाती है। लेकिन आज हमारा विषय हमारी प्यारी बेटियों पर नहीं है बल्कि बेटियों के " बेटी से बहू "बनने के सफर पर है।

     नब्बें के दशक तक जब एक माँ अपनी बेटी को गोद में लेती तो उससे मन ही मन ये वादा करती थी कि- "मेरी लाड़ली मुझ पर जो गुजरी वो मैं तुम्हारे साथ कतई नहीं होने दूँगी...खुद से बेहतर परवरिश और भविष्य तुम्हें जरूर दूँगी...जो मैंने नहीं पाया वो पाने का अवसर तुम्हें जरूर दूँगी....मेरे सपने तो पूरे नहीं हुए पर मैं तुम्हारा सपना टूटने नहीं दूँगी वादा है मेरा तुमसे"  यकीनन ये हर युग में हुआ होगा तभी तो दिन प्रति दिन औरतो के हालात में परिवर्तन होता चला गया। अपने ही घर का इतिहास उठाकर जब हम देखते हैं तो "अपनी नानी  से लेकर अपनी बेटी तक में जो परिवर्तन हुआ है वो यकीनन हर माँ के अपनी बेटी से किये हुए वादे का ही असर है जो हम औरतो को यहाँ तक लेके आया है।" हमारी सोच और प्रयास का ही परिणाम है कि आज लड़कियाँ पूर्णतः आज़ाद हो चुकी है। यकीनन कुछ ज्यादा ही आज़ाद हो चुकी है इतनी स्वछंदता की डर लगता है, ये अब कहाँ तक जायेगी ? मैं अक्सर सोचती हूँ - "आज की लड़कियाँ अपनी बेटियों से क्या वादा करेगी..उनके भविष्य के लिए क्या सपने देखेंगी ?"

     क्या आज हमारी बेटियाँ सचमुच उसी मुकाम पर खड़ी है जहाँ हम उन्हें देखना चाहते थे? क्या हमारे सपने यही थे कि हमारी बेटियाँ इतनी आज़ाद हो जाये, इतनी स्वछंद हो जाये, इतनी आत्मनिर्भर हो जाये कि वो अपनी मूलस्वरूप को ही खो दे ? क्या आपको नहीं लगता कि आज की पीढ़ी की हमारी बेटियांँ घर-परिवार, समाज यहांँ तक कि अपने आस्तित्व तक से इतनी ऊपर उठ चुकी है कि वो पतन की कगार पर खड़ी है ? हमनें अपनी बेटियोंं को आत्मनिर्भर बनाने की, उन्हें हर रूढ़िवादिता से आजाद करने की जो सपने देखे थे वो तो पूर्ण हुआ पर क्या आज हमारी बेटियाँ एक अच्छी पत्नी,एक अच्छी बहू या अच्छी माँ बन पा रही है?

       चलिये, मैं आपको आँखो देखी घटना बता कर इस विषय को समझने और समझाने का प्रयास कर रही हूँ। मेरे एक परिचित है उनको एक बेटा और एक बेटी है। बड़ा ही खुशहाल परिवार, माँ-बाप बेटी के पूरे नाज़-नखरे उठाकर बड़े लाढ़-प्यार से पाले थे। किसी भी चीज़ में बेटे से कुछ कम नहीं किया। दोनों भाई-बहन की शादी भी एक साल के अंतर पर कर दिया था। बेटी की शादी में तो उन्होंने अच्छा खासा खर्च भी किया था यहांँ तक की क़र्ज़ में भी डूब गए थे। एक दिन मैं उनके घर गई तो देखा उनकी बेटी आई हुई है। औपचारिकता के बाद मैंने उससे पूछा -"तो बेटा कितने दिनों के लिए आई हो?" उसने जबाब दिया - हमेशा के लिए आंटी। मैं थोड़ी सकपका के बोली - ये क्या कह रही हो ? उसने बड़ी ही वेतक्लुफी से कहा - सच कह रही हूँ आंटी, मैंने अपने पति को तलाक दे दिया...मेरा उससे नहीं निभा । जबाब सुन कर मैं सन्न रह गई,क्या बोलती। माहौल थोड़ा भरी सा लगने लगा तो बात बदलने के लिए मैंने पूछा - बहनजी आप की बहू कहाँ है..नज़र नहीं आ रही है। उन्होंने कहा - वो भी अपने मयके चली गई...हमेशा के लिए...उसने भी तलाक का नोटिस भेज दिया है। मैं आवक रह गई और तुरंत वहाँ से उठ कर चली आई।

     इस घटना के कुछ ही दिनों पहले एक और घटना हुई थी। मैं अपनी दोस्त के साथ उसके बेटे की शादी तय करने गई थी। लड़का और लड़की वालो की एक मीटिंग थी। मेरी दोस्त को सिर्फ एक बेटा है उसके पति गुजर चुके हैं तो वो मुझे अपने साथ ले गई  थी। सब कुछ तय था बस एक औचारिकता भर थी वो मीटिंग। जब हम सब बैठे बातें कर रहें थे, सगाई और शादी की तारीख तय की जा रही थी तभी अचानक से लड़की लड़के से बोल पड़ी - "शादी के बाद हम separate  कब होंगे ". लड़के ने आश्चर्य से पूछा - what do you mean ? लड़की ने बड़ी वेतक्लुफी से कहा - "इसमें ना समझने वाली कौन सी बात की है मैंने....शादी के बाद हमारा अपना अलग घर तो होगा ही।"  लड़के ने कहा - "अरे यार हमारे साथ माँ के अलावा और कौन है।" लड़की ने कहा - " माँ तो है न...हमारी प्राइवेसी कहाँ रहेगी"  ये सारी बातें सभी लोगों के सामने हो रही थी। लड़के की माँ बात को सँभालते हुए बोली - अरे बेटा,आपको प्राइवेसी चाहिए तो मिलेगी न...हमारा दो फ्लोर का मकान है..एक में मैं रह लुँगी एक में आप दोनों रह लेना। लड़की ने तपाक से जबाब दिया - अरे नहीं मम्मी जी इसमें प्राइवेसी कहाँ रही....आप की नज़र तो हर पल हम पे रहेगी न। बेचारी माँ के पास कोई जबाब नहीं था। लड़की के फैमिली वाले सब सुन रहे थे लेकिन चुप थे। लड़के ने माँ का हाथ पकड़ा और कहा -चलो, माँ मैं यह शादी नहीं करुगाँ...जो लड़की चंद साल जिन्दा रहने वाली मेरी माँ की देखभाल नहीं कर सकती वो सारी उम्र मेरी और मेरे बच्चों की देखभाल क्या करेगी ? मैंने अपनी दोस्त को सहारा देकर उठाया, बेटे की पीठ थपथपाई और उठ कर चलने का इशारा किया।

     इस घटना के चंद दिनों बाद एक दिन लड़की की माँ से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने कहा -आपने अपनी लड़की को समझाया नहीं ? तो लड़की की माँ बड़ी बेरुखी से बोली - समझाना क्या था जी,क्या मेरी बेटी सारी उम्र उस बुढ़ियाँ की सेवा करती रहेगीं...उसकी अपनी ख़ुशी नहीं है क्या?  मैं दंग रह गई मैंने सोचा जब गोदाम ही ऐसा है तो माल कैसा  होगा। मैंने पूछा - आप का भी तो एक बेटा है न उसकी शादी कब कर रही है? वो चहकती हुई बोली - हांँ जी ,मैं तो उसके लिए बड़ी सुघड़ बहू लाऊँगी जो हमारी देखभाल करें और परिवार संभाले। मैंने कहा - वो तो संभव नहीं है जी। उसने पूछा - "क्यों नहीं है जी" मैंने कहा - अजी उस लड़की की माँ भी तो यही कहेंगी कि -मेरी बेटी सारी उम्र उस बुढ़ियाँ  की सेवा क्यों करेंगी...इसी दिन के लिए तो मैंने अपनी बेटी को इतने नाज़ो से नहीं पाला..आखिर वो भी तो अपने माँ-बाप की लाड़ली होगी न ? वो औरत मेरा मुँह देखती रह गई और मैं वहाँ से निकल ली।इस दोहरी मानसिकता से मुझे घिन आ रही थी। 
     
     ये दोनों घटनाये ऐसी थी जिसने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया। मैं ये सोचने पर मज़बूर हो गई कि -आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा है ? मेरे खुद के मुहल्ले में अगर दस लड़कियांँ ब्याही गई है तो उनमे से आठ मायके वापस आ गई  है और जो दो ससुराल में है उन्होंने ससुराल वालों और पति तक का जीना हराम कर रखा है।

       मैं जानती हूँ मेरा ये विषय  थोड़ा उलझा हुआ (complicated )है। जो शायद बहुतो को पसंद ना आये और वो मुझसे सहमत भी ना हो।लड़कियों को तो शायद मेरी ये बात बिलकुल ही पसंद न आये। क्योंकि आज कल नारी जागरण की बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो रही है। लेकिन मैं चिंतित हूँ। मैं खुद एक औरत हूँ और सिर्फ एक बेटी की माँ भी हूँ। (मेरी दूसरी कोई संतान नहीं है )फिर भी मैं ये मानती हूँ कि  लड़कियांँ जो कर रही है गलत कर रही है। मैं ये निष्पक्ष भाव से कह रही हूँ। सोचने वाली बात है कि  इस समस्या की शुरुआत कैसे हुई। बेटियाँ जो प्यार और ममता की मूर्ति होती थी,बेटियांँ जो सम्बन्धो को जोड़ने और संभालने वाली डोर होती थी वो खुद आज एक कटी पतंग कैसे बन गई ? जो आज बेपरवाही से हवा में उडी जा रही है..उन्हें नहीं पता और ना ही फ़िक्र है कि वो अपने डोर से टूटी है तो कहाँ  गिरेंगी कीचड़ में, खाई में या बाग-बगीचे में। मुझे लगता है कि बेटियों के इस बदले हुए स्वरूप के जिम्मेदार हम है। कही न कही हमसे ही चूक हुई है। इसमें बेटियों का कोई कसूर नहीं है।

      इंसानी प्रकृति है, हम जो करते हैं अति करते हैं। गौतम बुद्ध ने कहा है कि -"अति किसी भी चीज़ की बुरी है और निम्नता  भी इसीलिए हमें हमेशा माध्यम मार्ग अपनाना चाहिए तभी हमारा कल्याण हो सकता है। "जैसे वीणा के तार को यदि अधिक तनाव से बंधा जाये तो वीणा बजाते वक़्त तार टूट जाती है और अगर तार थोड़ी ढीली हुई तो सुर बिगड़ जाता है। इसलिए कुशल सगीतकार वीणा के तार को माध्यम तनाव में बांधता है और उससे मनमोहक संगीत उत्पन्न करता है। अब अगर शुरू से देखें तो औरतो पर अत्याचार हुआ वो अति हुआ,उन पर संस्कार के नाम पर पावंदियां लगाई गई वो भी अति लगी। समाज और दहेजप्रथा के डर से कन्या भ्रूण हत्या और दुल्हनों की हत्या शुरू हुई तो वो भी एक चलन बन, अति हुआ। समाज और औरतो में जागरूकता आई और औरतो को सम्मान और आज़ादी मिलने लगी तो वो भी भारतीय संस्कृति की सारी सीमाओं को पार कर रहा है। हमारी पीढ़ी ने बेटियों का महत्व समझा और उन्हें बेटो से अधिक लाढ-प्यार दे कर पाला, उनकी हर ख़ुशी,हर फ़रमाइस पूरी की तो उसमे भी हमने अति कर दी।

       उन्हें हर ख़ुशी देते वक़्त हम उन्हें ये समझाना भूल गए कि -बेटा जी ,जो ख़ुशी हम आप को दे रहे हैं  वो आगे आपको बाँटना भी होगा। बेटियों से हमारा घर रोशन  रहा लेकिन हमने उन्हें ये नहीं समझाया कि -बेटा, ये रोशनी तुम्हें अपने जीवन में हमेशा कायम रखनी है और वो तभी होगा जब तुम अपने दूसरे घर को भी अपनी रोशनी से रोशन करोंगी। हमने उन्हें ये नहीं सिखाया कि - बेटा हम आप की हर फ़रमाइस को पूरी कर रहे हैं, तुम्हें हर ख़ुशी दे रहें हैं  तो, अपने माँ के घर से जो तुम ले रही हो उसे आगे बांटना...तुम्हारी ख़ुशी बढ़ेगी..कभी कम नहीं होगी। लेकिन ऐसा हमने नहीं किया और हमारी बेटियों ने सिर्फ लेना सीखा देना नहीं, उन्हें सिर्फ अपनी ख़ुशी समझ आई दुसरों की तकलीफ नहीं। हमने अपनी बेटियों को पूर्णता दी साझेदारी नहीं सिखाई,अपनी खुशियांँ पूरी करने की आज़ादी दी लेकिन दुसरों की खुशियों का ख्याल भी रखना है ये नहीं बताया। उनके मुँह से कोई बात निकली नहीं कि हमने पूरी की और उन्हें सब्र करना भी नहीं सिखाया।
      
      ये सारी की सारी गलती हमारी है। यही कारण है कि आज जब बेटियाँ बहू बनके दूसरे घर जा रही है तो न वो एक अच्छी बहू बन पा रही है,ना पत्नी और यहाँ तक कि एक अच्छी माँ भी नहीं बन पाती। क्योंकि वो हर जगह अपनी ख़ुशी अपना स्वार्थ ही देखती है। पति से उन्हें ढेरों उम्मींदे रहती है लेकिन पति के ख़ुशी के लिए उन्हें क्या करना है इसका ज्ञान नहीं। हमने उन्हें हर जिम्मेदारी से दूर रखा इसलिए वो अपने बच्चे की जिम्मेदारी उठाने में भी परेशान हो जाती है। बहूओं पर सास के अत्याचार हुए तो वो भी अति हुए थे और आज सास-स्वसुर द्वारा बहू को ढेर सारा प्यार देने के वावजूद बहूऐं उन्हें माँ-बाप का दर्जा देना तो दूर उन्हें सबसे पहले घर से अलग करना चाहती है। यही कारण है कि बृद्धाआश्रम की सख्यायें बढ़ती जा रही है। जो बेटियाँ हमारे घर की सूरजमुखी रहती है वो बहू बनकर जब दूसरे घर जाती है तो ज्वालामुखी क्युँ बन जाती है और अपने ही हाथों अपने घर-संसार को आग लगा लेती है? इसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि-हमने उन्हें सहूलियत दिया मगर संस्कार छीन लिए।  आज के दौड़ में यदि आप ध्यान से अपने चारो तरफ के माहौल को देखेंगे तो पाएंगे कि दस में से नौ घर सुलग रहें हैं। पश्चिमी सभ्यता की तरह आये दिन तलाक की घटनायें बढ़ती जा रही है। क्योंकि जो लड़की घर की आधार,उसकी रोशनी होती है वही घर जला रही है। जो सृजनकर्ता है वही विनाश पर उतारूँ हो जाये तो धरती ज्वालामुखी बनेगी ही न। ऐसा नहीं है कि इसमें लड़को की गलती नहीं है लेकिन घर बनाना और उसे बसाना लड़कियांँ ही सम्भव करती आई है,लड़के घर नहीं बसाते।
    
     हो सकता है कि मैं आप सब के नज़र में गलत हूँ लेकिन आज कल के माहौल को देख मैं चिंतित हूँ मेरी भी एक बेटी है जिसे मैंने अच्छे संस्कार दिए है लेकिन नहीं जानती कि समाज में चलने वाली इस तेज़ आँधियो में मेरी बेटी भी अपना घर बसा पायेगी या देखा-देखीं के चलन में वो भी अपने घर को आग लगा लेगी। मैं चिंतित हूँ.................


21 टिप्‍पणियां:

  1. मैं आपसे सहमत हूँ। समाज की एक ज्वलंत समस्या पर आपने करारी चोट की है। हमारी पीढ़ी की लड़कियों ने भी नौकरी की है, घर बाहर दोनों सँभाला है,हमारे दम पर रिश्तों को जोड़े रखा है पर कभी ऐसी प्राइवेसी की माँग नहीं की जिसमें पालनहार ही आँख की किरकिरी बन जाए। कुछ तो लड़की के माता पिता के दिए हुए संस्कार और कुछ आजकल का स्वच्छंद माहौल, दोनों ही जिम्मेदार हैं। माना कि हमने नारी को अबला से सबला बनाने की माँग की थी पर नारी तो सबला से 'बला' बनने की ओर अग्रसर है। अपने अधिकार पाना, अपना कैरियर बनाना जरूरी है पर परिवार के बुजुर्गों की देखभाल भी उतनी ही जरूरी है।

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    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी ,सही कहा आपने ,चिंता का विषय तो यही हैं ,हम अपनी जड़ों को ही खो रहे हैं ,आपके इतने अच्छे विचार और प्रोत्साहन के लिए दिल से आभार

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  2. सब से पहले आपके साहस और स्पष्टवादिता को प्रणाम कामिनी जी ! बहुत बेबाकी से आपने परवरिश में संस्कारों की उपेक्षा पर प्रकाश डाला है । बाल्यवस्था से लेकर किशोरावस्था तक संस्कारों की नींव मजबूत अभिभावक ही करते हैं । मुझे आपका लेख संग्रहणीय लगा ।

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    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी ,आपके इस सकारात्मक सोच और प्रोत्साहन के लिए दिलसे आभार ,इस जवलंत विषय पर सोचने को मैं तो मजबूर हो गई थी क्योकि आये दिन यही सब मंजर आखों के आगे से गुजर रहा हैं।

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    1. सहृदय धन्यवाद सखी ,क्षमा चाहती हूँ अस्वस्थता के कारण प्रतिउत्तर देने में विलम्ब हुआ ,स्नेह

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  4. आपकी चिंता स्वाभाविक है ... हर माता पिता को होती है पर आजकर बदलते वातावरण में सब कुछ सहज लेना होता है ... कल का कुछ नहीं पता बच्चे आत्मनिर्भर हों ये कर देना बहुत जरूरी है ... समाज के बदलाव को कोई नहीं सकता ...

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    1. सहृदय धन्यवाद दिगंबर जी ,सही कहा आपने ,सादर नमस्कार

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  5. बेहद विचारणीय प्रस्तुति दी सखी आपने हर माँ-बाप को यही चिंता है कहीं हमारे बच्चे अपनी आजादी का असली अर्थ यानी अपने संस्कारों को न भूल जाएं जिससे उनकी आने वाली ज़िंदगियों पर ग्रहण लग जाए हमने तो हर किरदार निभा लिए अब इनकी बारी है बेहतरीन लेख लिखा आपने 👌👌👌👌

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  6. कामिनी जी आपका यह लेख आज के तथाकथित विकसित और आधुनिक समाज का यथार्थ है।
    बेटियों को आज़ादी के नामपर संस्कारहीन बनाना आधुनिकता नहीं,विचारों की आज़ादी का गलत मतलब आज की पीढ़ी घर के काम काज़,बड़े-बुज़ुर्गों का मान एवं सेवा,घर और बच्चों की सही देखभाल जैसे कामों को झंझट की तरह देखने लगी है उन्हें लगता है ये सभी काम आधुनिकता और आज़ादी के बंधन हैं। दिशाहीन भ्रमित बेटियों को सही राह समझाना आज के अभिवावक के लिए भी चुनौतीपूर्ण है क्योंकि बच्चे मोम की भाँति तुरंत आहत होकर कुछ भी अनाप-शनाप क़दम उठाने से नहीं हिचकचाते।
    नारीवाद की सही व्याख़्या बेटियों को समझाना अति आवश्यक है।
    आपके इस लेख के लिए साधुवाद।
    सादर।

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    1. सहृदय धन्यवाद श्वेता जी ,आप की सकारात्मक प्रतिक्रिया से ये राहत हुई कि मेरी सोच सही दिशा में हैं ,स्थिति दिन -ब -दिन भयावह ही होता जा रहा हैं।

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  7. कामिनी जी आपका लेख यथार्थ के धरातल पर एक सच्ची तस्वीर दिखा रहा है ।
    कुछ समानांतर विचार मैं भी रख रही हूं।

    आज की बेटियां जिन्हें हमने बचपन से ही सबल ,सक्षम स्वावलंबी बनने की प्रेरणा से पाला बड़ा किया ,और न जाने कहां चूक गये उन्हें संस्कार देने में ,उनके नैसर्गिक गुणों पर कब एक अभेद्य लोह आवरण चढ़ता गया,हम फिर भी उनका साथ देते रहे उन्हें कभी नहीं जताया कि वे गलत की तरफ बढ़ रही हैं
    उन्हें निर्णय लेने के काबिल बनाते-बनाते निरंकुश बना दिया।
    घर संभालना बच्चों को संभालना ये उनकी प्रवृत्ति में है ही नहीं ,
    "औरतें सिर्फ़ घर संभालने को नहीं होती" ऐसा उनके दिमाग में अच्छे से बैठा है और आर्थिक स्थिति अच्छी है तो ..
    रसोई और दूसरे कामों के लिए नौकर चाकर बच्चों के लिए ट्युटर ,गवर्नेंस या डे केयर।
    धन उपार्जन भी उनके लिए जरूरत नहीं हैं ,बस दिन भर कुछ भी करने के नाम पर घर से दूर , बिजनेस,किट्टी- पार्टी,,एंजियो ,समाज सेवा ,नाम अखबारों में फोटो ,स्वयं को तुष्टि ।
    या तो घर से अलग घर बसाना या फिर घर में बैठे बड़े बुजुर्ग पुरी जिम्मेदारी से जुटे रहो कि सभी काम ठीक से हो रहे हैं या नहीं, बच्चों की केयर हो रही या नहीं , और वे अपनी मन मर्जी से जो भी करें स्वतंत्र रहना फितरत बन गई है
    असाधारण कमाने वाली जीवन को तफरीह समझ खेल रही है ,उन्हें नौकरी की जरूरत नहीं, पर एक जरूरत मंद की जगह रोके बैठी हैं, और अपनी कमाई के गर्व में हाई फैशन पर अंधा धूंध खर्च रही हैं, बच्चे घर आओ तो मां घर नहीं पति आते तो मिल जाए जरूरी नहीं, बड़े लोग दो बात करने को तरस जाए, कमी कुछ नहीं !
    इधर इसका सबसे ज्यादा असर होता है ,साधारण कहलाने वाली स्त्रियों के दिमाग पर ,वे वैसे ही उन्म्मुक्त होने के फिराक में कुंठित होती हैं और कई बार आनन-फानन में ऐसा फैसला ले लेती है जो पुरे परिवार पर भारी पड़ता है, बच्चे नजर अंदाज होते हैं ,पति ,सास -ससुर से चख-चख बनी रहती है । स्वावलंबन के नाम पर कई दफा ऐसे फेर में पड़ती हैं कि संकट में फस जाती है ।आजादी और दिखावे के नाम पर अपना रहन- सहन सुधारने के चक्कर में अपना सारा बजट बिगाड़ देती हैं ,बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है, परिवार टूटते हैं ,बुजुर्गों का जीवन असाध्य हो जाता है ।
    और ऐसा जगह-जगह हो रहा है क्योंकि कोई अपने आप को साधारण समझना नहीं चाहता ।
    नारी स्वावलंबन के नाम पर अजीबोगरीब अफरातफरी मची है , मिडिया, अखबार,सामाज सेवी संस्थाएं,नारी उत्थान संस्थाएं, सब को इस ढकोसले में शामिल होना है ,प्रगतिवादी और नारी हितचिंतकों में नाम दर्ज करवाना है ।
    ये सिर्फ शगल है ,झुठी हमदर्दी या चारा है स्त्री को स्त्रित्व से दूर रखने का।

    वर्जनाओं में बंधी नारी के पास जो था उसे गंवाकर अपनी क्षरित दशा से उधर्वमुखी हो उठने की स्पर्द्धा में वर्जनाओं को तोड़, पुरुष वर्ग की भांति नैसर्गिक कोमल भावों का त्याग कर। अपने को असंवेदनशील, पाषाण बनाती नारी, प्रकृति से विकृति ओर जाती नारी, जो प्राप्य है उसे, जो नहीं है उसे पाने के लिए गंवाती नारी।
    पुरूष की छाया से निकल उसकी सहचरी नही प्रतिस्पर्धी बनती नारी।
    अपनी दशा की काफी हद तक खुद जिम्मेदार हैं।
    इसमें मध्यमवर्ग बहुत कुछ दांव पर लगाए बैठा है ।
    ये सिर्फ एक भूल-भुलैया है मानसिक गुलामी की ।

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    1. कुसुम बहन आपको साधुवाद , इतने सुंदर विमर्श और चिंतन के लिए | हम बेटियों की माओं के लिए ये बहुत जरूरी है कि इन सब तथ्यों पर गौर करें | आपकी सधी दृष्टि ने आजके चलन को बखूबी परखा है | सस्नेह

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    2. सहृदय धन्यवाद कुसुम जी ,इस लेख को तो मैंने बहुत पहले प्रकाशित किया था ,लेकिन सार्थक अब हुआ ,आप सभी ने इसे चर्चा का विषय बनाया आपार हर्ष हुआ। आपने तो मेरे मन की बातों को विस्तृत रूप दिया।आपने सही कहा -हमें पुरूष की छाया से निकल उनकी सहचरी बनना था ,अपना स्थान ,अपना स्वभिमान पाना था पर ये अब पुरुष से प्रतिस्पर्धा करने लगी। मैं इस चर्चा में देर से शामिल हुई क्षमा चाहती हूँ ,मेरा लैपटॉप खराब हैं इसी वजह से आना संभव नहीं हुआ। जैसे प्रदूषण एक भयावह समस्या बनी हैं उससे कम ये समस्या भयावह नहीं हैं ,लड़कियों का मानसिक प्रदूषण ही तो हो गया हैं। आभार एवं सादर नमस्कार

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  8. प्रिय कामिनी , बेटियों को समर्पित तुम्हारा ये लेख मैंने शब्द नगरी पर भी पढ़ा था | आज इस लेख को पढ़कर एक बार फिर इसके मर्मको जाना | लेख तो बेहतरीन है ही , इसके समानांतर बहन मीना शर्मा . बहन मीना , बहन अनुराधा . बहन श्वेता और बहन कुसुम जी के विचार लेख के विषय को विस्तार दे रहे हैं | आज शिक्षा के नाम पर जो बेटियों को आजादी मिल रही है वह उनका जन्मजात अधिकार है , पर उसकी आड़ में उसका भरपूर दुरूपयोग भी हो रहा है | नारी ने हमेशा यदि घर की चारदीवारी में जीवन जिया तो सम्पूर्ण सुरक्षा भी पायी है | यदि हम दादी नानी के जमाने को देखें तो घर पर सम्पूर्ण आधिपत्य था उनका | भले वे आर्थिक रूप से स्वाबलंबी नहीं थी पर घर की सत्ता में उनकी बराबर की हिस्सेदारी थी, घर को जोड़कर रखना उनके संस्कार थे | | आज आर्थिक रूप से आत्म निर्भर लड़कियां कहाँ घर को जोड़ रही हैं ये नजर नहीं आता | मध्यमवर्गीय परिवारों में स्थिति बहुत दयनीय है | मैं एक छोटे से शहर में रहती हूँ , मैंने अभी हाल ही में अपनी कालोनी में तीन केस तलाक के सुने . तीनों लड़कियां आर्थिक रूप से स्वाबलंबी थी और परिवार से अलग रहने की इच्छुक थी | उनकी बात मानी नहीं गयी तो अलगाव की नौबत आ गयी | पढने वाली बेटियों ने लड़कों का अनुशरण कर परम्परागत पहनावे को तो त्याग ही दिया है साथ में व्यसनों को भी अपनाने में हिचक नहीं दिखाई है |माँ बाप की जिम्मेवारी बढ़ गयी है आज | कुछ पहल वे इमानदारी से करें तो जरुर कुछ ना कुछ अच्छे परिणाम आने की आशा होगी |यदि हम बेटे के लिए संस्कारी बहु चाहते हैं तो हमारी बेटी भी किसी की बहु बनेगी ये सोच उसे भी अच्छे संस्कार देना हमारा परम कर्तव्य है | मेरी बेटी भी बीस साल की हो गयी है , मुझे भी ये चिंता बराबर सताती है कहीं मेरी परवरिश में चूक ना हो जाए | उसे अच्छी सीख देने की कोशिश जारी है | पर जैसा की तुमने लिखा चिंता भी है कहीं बेटी आधुनिकता की दौड़ में दिग्भ्रमित ना हो जाए | कुसुम बहन के विचार आँखें खोलने वाले हैं | एक नारी में जब नारी के सहज गुण दिखाई नहीं पड़ते तो परिवार में पतन की स्थिति दस्तक देने लगती है | लेख और लेख के बहाने चिंतन और विमर्श के लिए तुम्हें बहुत बहुत बधाई | सस्नेह --

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    1. सहृदय धन्यवाद सखी ,इस विषय पर आप सभी के एक समान विचार जान ये तो स्पष्ट हो गया कि सभी मायें चिंतित हैं तो अब इस समस्या समाधन भी जरूर मिलेगा। हम से जहाँ तक हो सकें अपनी बेटियों को सही राह दिखाने की कोशिश तो हम कर ही सकते हैं। हमने जिस घटना का जिक्र किया हैं उनकी तरह तो दोहरी सोच तो नहीं रखेगें कि -" बहु तो चाहिए सेवा करने वाली पर मेरी बेटी किसी बुढ़िया की सेवा नहीं करेगी। इस विषय को विस्तार देने के लिए आभार सखी

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  9. प्रिय कामिनी , तुम्हारा लैपटॉप ठीक हुआ या नही?

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    1. नहीं ठीक हुआ सखी ,अब लगता हैं कि नया ही लेना होगा। बेटी की एक दोस्त आज एक सप्ताह के लिए अपने घर गई तो वो अपना लेपटॉप मुझे देकर गई हैं तो मैं झट से ब्लॉग खोलकर बैठ गई आप सब से बाते करने।

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  10. आजादी का आज की पीढ़ी गलत मतलब निकाल रही हैं, वहीं से समस्याएं पैदा हो रही है। बहुत सुंदर प्रस्तूति।

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    1. सहृदय धन्यवाद ,सही कहा आपने ज्योति जी ,जैसा कि कुसुम जी ने कहा -"पुरूष की छाया से निकल उसकी सहचरी नही प्रतिस्पर्धी बनती नारी का चरित्र बनता जा रहा हैं। "सादर आभार आपका

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kaminisinha1971@gmail.com

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 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...