शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

" मैं हूँ नईया तू है पतवार "




    "क्या हुआ...इतने परेशान से क्युँ हो... ये लो पहले पानी पीओ.....पसीने  से लथपथ हुए पड़े हो" -अपने आँचल से आकाश के चेहरे पर आए पसीने को पोछते हुए अवनी ने कहा। अवनी के हाथ से पानी का ग्लास लेकर आकाश एक साँस में ही पूरा पानी पी गया, ऐसा लग रहा था जैसे वो कितने दिनों का प्यास हो। पानी पीकर आकाश वही सोफे पर ही लेट गया। आकाश की हालत को देखकर  उस वक़्त उससे ज्यादा कुछ पूछना अवनी ने उचित नहीं समझा सो उसे आराम से सोता  छोड़ वो रात के खाने की तैयारी में लग गई। 
   एक घंटे बाद अवनी चाय लेकर आई और आकाश को जगाया...उठो चाय पी लो... चाय का कप पकडाते हुए उसने कहा। दोनों  चुपचाप बैठे चाय पीने लगे। अवनी एकटक आकाश के चेहरे को देखें जा  रही थी जैसे उसे समझना चाहती हो पर आकाश अवनी से नजरे चुरा रहा था। अब अवनी के सब्र का बाँध टूट रहा था,उसने बड़े ही संयम के साथ प्यार भरे लहजे में पूछा  - " क्या बात है आकाश ...आखिर तुम इतने परेशान क्युँ हो ?" अवनी के स्नेह भरे शब्दों को  सुनते ही आकाश के आँखों में आँसू आ गए- "अवनी ,कम्पनी में बहुत बड़ा घाटा हो गया है ..बहुत से वर्कर को उन्होंने निकाल दिया है.....मैं भी उनमे से एक हूँ......अब क्या होगा अवनी....कैसे चलेगा घर ...मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है" -आकाश रुंधे हुए आवाज़ में एक साँस में ही बोल गया । आकाश की बातें सुन अवनी को भी एक झटका सा लगा....थोड़ी देर के लिए वो खामोश हो गई लेकिन अगले ही पल वो खुद को संभालते हुए मुस्कुराती हुई बोली -"फ़िक्र क्युँ करते हो ...तुम्हारी जेब काट-काटकर मैंने अच्छी खासी रकम जमा कर ली हैं.. दो चार महीने तो आराम से गुजर जाएंगे...इस बीच  तुम नया काम ढूँढ़ ही लोगे... मैं भी घर पर सिलाई का काम शुरू कर देती हुई ....दोनों मिलकर कुछ बच्चों को ट्यूशन भी दे दिया करेंगे...हो जाएगा गुजारा... फिक्र नहीं करो ...चलो, अब मुस्कुरा भी दो...तुम्हारा ये लटका हुआ सा चेहरा मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा।" आकाश अवनी के दोनों हाथों को पकड़कर चूमते हुए बोला - "मेरे जीवन के नईया की तुम्ही पतवार हो....अगर तुम मेरे साथ हो तो मैं भँवर  में भी फंसा रहूँगा न,तो भी किनारा पा लूँगा।" अवनी मुस्कुराती हुई उलाहना देने के अंदाज़ में बोली - "अच्छा जी, जब इतना ही भरोसा था तो ये रुआँसा सा मुँह लटकाए क्युँ थे।"   मैं बहुत डर गया था अवनी - कहते हुए आकाश रो पड़ा।  आकाश के आँखों से बहते आँसू को पोछते हुए अवनी बोली - "आकाश , हम दोनों ही इस गृहस्थी रुपी नईया के पतवार है... अगर एक दूसरे का हाथ मजबूती से थामे रहेंगे न, तो कोई मझधार हमें डुबों नहीं सकती। " 
   "मैं हूँ नईया तू है पतवार,पार कर लेगें हर मझधार" अवनी फ़िल्मी अंदाज़ में गुनगुनाती हुई मुस्कुराने लगी ..आकाश भी मुस्कुराने लगा।  अचानक से अपने हाथों को आकाश के हाथों से झटके से छुड़ाती हुई अवनी उठ खड़ी हुई और गुस्से वाले अंदाज़ में बोली --" अच्छा जी,अब  बहुत हुआ ये फ़िल्मी ड्रामा...उठो खाना खाने चलो.... वरना मैं अकेले ही खा लुँगी,मुझे बहुत जोर की भूख लगी है और इसमें तो मैं आपका  इंतजार बिलकुल नहीं करने वाली  समझें ....अब इतनी भी पतिव्रता नहीं हूँ मैं । " उसकी बाते सुन आकाश जोर से हँस पड़ा। दोनों ठहाके लगाते हुए खाने की मेंज पर आ गए। दो घंटे पहले जिस घर का वातावरण गमगीन हुआ पड़ा था...अवनी की छोटी सी समझदारी से फिर से मुस्कुराने लगा। 

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

नागफनी सी मैं ......



                   " नागफनी सी कँटीली हो गई है ये तो , इसके बोल नागफनी के काँटे से ही चुभते हैं।" 
 हर कोई मुझे यही कहता है। क्या सभी को  मुझमे नागफनी के पौधे की भाँति ही सिर्फ और सिर्फ मेरी कठोरता और कँटीलापन ही नजर आता है ? क्या मेरे भीतर की कोमल भावनाएं किसी को बिलकुल ही नजर नहीं आती है ? " बस ,कह दिया नागफनी सी हो गई है " नागफनी के अस्तित्व को धारण करना आसान होता है क्या ? 

    " नागफनी " रेगिस्तान की तपती, रेतीली धरती पर उपजा एक कँटीला एवं सख्त पौधा जिसे शायद ही  कोई पसंद करता हो...प्यार करता हो....परवाह  करता हो, फिर भी वो अपना अस्तित्व कायम  रखने में सक्षम होता है। अंदर से कोमल और गुणकारी होने के वावजूद दुनिया के नजर में सिर्फ उसके काँटे ही दिखते हैं। वो काँटे जो चुभ भी जाए तो नुकसान नहीं पहुंचते ,वो काँटे  भी एंटीसेप्टिक होते हैं तभी तो पहले के ज़माने में उसी से कान छेदने का काम होता था।मगर फिर भी है तो काँटे ही न। नागफनी का समर्पण देखे एक बार, सिर्फ एक बार आप अपने घर में उसे जगह दे दे तो वो  हमेशा के लिए वही बस जाएगा  चाहे आप उसे प्यार की एक बून्द दे या ना दे , फिर भी  वो मुरझाकर अपनी नाराजगी तक  नहीं जताएगा , रेतीली मिट्टी में भी वो अपने आप को आपके लिए जिन्दा रखता है। तभी तो आप उसे अपने बाड़ें के किनारे- किनारे कोमल पौधो और फूलों के रखवाली के लिए लगाते हैं। इस काँटों से  भरे बदसूरत से पौधे के हजारों औषधीय गुण होते हैं लेकिन ये सब किसी को नजर नहीं आते ,नजर आते हैं तो सिर्फ और सिर्फ उसके काँटे । नागफनी में भी फूल खिलते हैं, वो जाताना चाहता  है कि मेरी बाहरी  कठोरता को देखने वालों देखों मुझमे कोमल और सुंदर फूल भी खिलाने की क्षमता है। लेकिन उन कोमल फूलों की किसी को परवाह नहीं जो  मरुस्थल में भी खिलकर अपनी खुश्बू ही बिखेरता रहता है। वो कभी किसी को नुक्सान पहुँचना नहीं चाहता है।
 फिर भी उसको नाम दे दिया गया "नाग का फन"।

" हाँ " हूँ मैं नागफनी " मानती हूं
, तुम सबने मेरा आंकलन बिलकुल सही किया है। मेरा अस्तित्व भी तो ऐसा ही है...अपने अंदर के कोमल भावनाओं को छुपाए....अपनी ख्वाहिशों.... अपनी
 तमन्नाओं का गला घोटे हर पल तुम लोगो की परवाह करती हूँ। तुमसे एक बून्द भी प्यार की आस नहीं है मुझे ,खुद को जिन्दा रखने के लिए मेरे अंदर का प्यार जो सिर्फ तुम्हारी परवाह करता है वो काफी है मेरे लिए। हाँ ,है मेरा व्यक्तित्व कठोर ,मेरी यही  कठोरता मेरे परिवार के लिए रक्षा कवच का काम करता है ,मेरे घर के कोमल फूलों को मेरे होते हुए कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता।मेरे बोल तुम्हें चुभते जरूर है लेकिन वो तुम्हें जख्मी करना बिलकुल नहीं चाहते। 

हाँ ,हर घर परिवार में होता ही है एक नागफनी सा व्यक्तित्व ,उसे बनना पड़ता है, जिसका बाहरी व्यक्तित्व कठोरता लिए होता है लेकिन वही होता है उस परिवार का पहरेदार,उसके पास हर एक के दुःख दर्द का इलाज होता है ,उसे प्यार मिले ना मिले पर वो मुरझाता नहीं ,नागफनी की तरह उसे भी मुरझाने का खौफ ही नहीं होता। वो सिर्फ प्यार देना जानता है भले ही उसका प्यार किसी को दिखाई दे ना दे ,इससे भी उसे फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि उसे दिखावा नहीं आता। अगर वो अपने कठोर बोल समान काँटे भी चुभता है तो वो भी सबकी भलाई के लिए ही होता है ना कि  किसी को जख्मी करने के लिए ,क्योंकि नागफनी के काँटे चुभने पर कभी जख्म नहीं होता है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो नागफनी के फूलों की तरह मरुस्थल में भी खिलकर अपनी खुश्बू ही बिखेरना चाहता है ,वो अपनी मधुरता और सरसता का वाष्पीकरण  नहीं करना चाहता इसलिए कँटीला हो जाता है।  ये उसकी सकारात्मकता है ,जिनको चुभता है उनके लिए नकारात्मकता ही सही....... 


















गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

नारी और हिना



" मेहँदी " इस शब्द के स्मरण मात्र से ही  प्रत्येक नारी अपनी सांसों में इसकी खुशबु को महसूस करने लगती 
हैं ,मेहँदी के रंग की रंगत उनकी हथेलियों पर ही नहीं उनके गालों पर भी बिखरने लगती हैं। मेहँदी अपने रंगों से सिर्फ  नारी के हथेलियों को ही नहीं रंगती , ये तो बालयवस्था से ही नारी हृदय की भावनाओं को भी रंगना शुरू कर देती हैं           हल्की गुलाबी मेहँदी रची तो दूल्हा  मिलेगा  हसींन 
गहरी रची तो आएगा ऐसा होगा जो मन का रंगीला 
ये हैं निशानी सुहाग  की ,लाली इसमें अनुराग की। 

दादी -नानी और माँ के मुख से कही ये चंद पंक्तियाँ ,बालपन से ही हर लड़की के मन में अठखेलियाँ करने लगता हैं। जब भी वो पथ्थर पर घिस- घिसकर महीन की हुई मेहँदी को अपनी हथेलियों पर रजाती हैं तो उसके साथ साथ ही मन में कई सपने भी सजाने लगती  और उनकी आँखें अपनी हथेली के रंगों में छुपे अपनें सपनों के राजकुमार को देखने के लिए लालायित हो ,अपनी हथेलियों को उम्मीद  भरी नजरों से निहारती रहती हैं। जब अपनी हथेली पर से सुखी मेहँदी को वो खुरच- खुरच कर निकलती हैं तो उनका दिल जोर जोर से धड़क रहा होता है " ना जाने ये मेहँदी मेरे सपनों का कैसा रूप रंग दिखाएगी  "  फिर ...सपनों का मनचाहा रंग मिलते ही  हथेली के साथ साथ चेहरा  भी खिल जाता  हैं ... अगर मनचाहा रंग ना मिला तो सपना जैसे टूटता नजर आने लगता हैं। फिर मेहँदी के फीके रंगों के साथ साथ मन भी फीका हो जाता हैं। कुंवारेपन को सुंदर कल्पनालोक में विचरण कराती हैं ये मेहँदी.....
नारी के कुँवारेपन के सपनों को सजाने वाली मेहँदी ,दुल्हन बनते ही उस सुहागन के श्रृंगार में उसके सौभाग्य की प्रतीक बन हर पल उसके मन को हर्षित करती रहती हैं। दुल्हन बनती बेटी के हाथों पर मेहँदी रचाते हुई माँ बलिहारी जाती हैं और मेहँदी के साथ साथ बेटी की हथेलियों की रेखाओं में  ढेरों दुआएँ भी लिखती जाती हैं - 

मेहँदी रचे तेरी खुशियाँ बढे ,तुझे मेरी उम्र लग जाए 
हर पल बुरी नजरों से बचाए ,भाग्य -सुहाग बढ़ाए

माँ के दुआओं से सजी मेहँदी के रंग को देख प्रतीत होने लगता हैं कि मेहँदी  भी उस दुल्हन को  दुआएं दे रही है -
मेहँदी ये बोली आ मेरी बहना ,तेरी हथेली सजा दूँ 
आँखों में सपने भर दूँ मिलन के साजन की प्यारी बना दूँ


बालपन से ही हाथों में मेहँदी रचाये आँखों में ढेरों सपने सजोये एक लड़की बड़ी होती हैं ...फिर वो दिन भी आ जाता हैं जब  बाबुल के घर से विदा हो वो साजन के घर जाती हैं। उसे तो अंदेशा ही नहीं होता कि -उसका स्वयं का जीवन भी तो मेहँदी सरीखा ही हैं। अपने बाबुल के आँगन को छोड़ना ,किसी और के घर- आँगन को अपना बनाना , फिर उस घर -परिवार और जीवन की चक्की में बारीक पीसना ,अपने  सुख -दुःख  और अरमानों  को पीस -पीसकर सबके जीवन में खुशियों की ,मुस्कुराहटों की कशीदाकारी करना ,घर के हर एक सदस्य को स्नेह के रंग में रंग देना ही उसका कर्तव्य बन जाता हैं। फिर धीरे धीरे हथेली की हल्की पड़ती हिना के  रंग की भांति  ही अपने  खुशियों को  ,अपने अरमानों को  ही नहीं अपने जीवन तक को धीरे धीरे माध्यम पड़ते  देखते रहना ....अंततः अपने आस्तित्व तक को समाप्त कर देना ही उसकी  नियति बन जाना । खुद को हिना की भांति ही दूसरों को समर्पित कर देना और  किसी से एक शिकवा तक नहीं करना.. 

डाली से नाता तोड़ के ,
अपना रस रंग निचोड़ के 
सुनी हथेली पे सज जाएगी ,
मेहँदी तो मेहँदी हैं रंग लाएंगी। 

फिर एक दिन ,नारी सोचने पर मजबूर हो गई,खुद से सवाल कर बैठी  -" तुम क्युँ खुश होती हो मेहँदी के पत्तों को देखकर ,उनको पथ्थर पर पीसते देखकर ,जब वो अपने आस्तित्व को मिटाकर तुम्हारी हथेलियों को थोड़ी देर के लिए लाल सुर्ख रंगों से सजा देती हैं तो तुम्हे इतनी ख़ुशी क्युँ मिलती ? " तुमने तो अपने जीवन में हिना के रंग को ही नहीं उसके गुणों को भी धारण कर लिया ,मगर क्युँ ???? नारी के कोमल भावुक मन ने जबाब दिया.....

वो हो औरत के हिना ,फर्क किस्मत में नहीं 
रंग लाने के लिए दोनों पिसती ही रही 
मिटके खुश होने का दोनों का है एक ढंग हिना 
मैं हूँ खुशरंग हिना 

हर पल ,हर हाल में खुश रहना .......लेकिन कब तक........नारी मन व्यथित हो चीत्कार कर उठा - " अब बहुत हुआ... अब हमें  हिना बनना मंजूर नहीं। अब तो प्रकृति का दोहन करते करते हिना का भी रूप -रंग बिगड़ गया  हिना को भी  कित्रिम रूप दे दिया गया तो फिर हम ही क्युँ पीसते रहें ?? जैसे हिना के असली सौंदर्य को किसी ने नहीं समझा वैसे ही मेरे किसी भी रूप को भी किसी ने ना समझा ,बस कोरी सराहना ही करते रहे ....ना माँ के ममता को मान दिया ना बहन की राखी को ...ना पत्नी के त्याग को समझा ना प्रेमिका के समर्पण को ....ना बहु के सेवा का महत्व दिया ना बेटी स्नेह को। फिर क्या था ...हिना के साथ साथ नारियों के स्नेह के रंग में भी कित्रिमता आनी शुरू हो गई। आखिर कब तक ???  कब तक... किसी के सहन शक्ति की आजमाईस होती रहेगी ,बर्दास्त की भी हद होती हैं ,एक दिन तो वो थककर विद्रोह करेगी  ही न । आख़िरकार  माँ प्रकृति की सहनशक्ति भी तो समाप्त हो ही गई न.... अब तो वो भी क्रोधित हो चुकी हैं और अपना सौंदर्य....अपना रंग...अपनी प्राणवायु देना से इंकार करने लगी हैं । नारी तो एक मनुष्य हैं कब तक अपने स्नेह ,त्याग और तपस्या की अवहेलना होते देखती रहती ,उन्हें भी तो एक ना एक दिन उग्र रूप धारण करना ही था आखिरकार ....अब वो हिना बनने से पूरी तरह इंकार कर चुकी हैं। 
हिना और नारी  जिसका चयन ही प्रकृति ने सौंदर्य ,प्यार और खुशियाँ बाँटने के लिए किया था। हिना भी तो हर पल प्यार से यही कहती रही हैं न ..... 
मैं हूँ खुशरंग हिना ,प्यारी खुशरंग हिना 
जिंदगानी में कोई रंग नहीं मेरे बिना। 
लेकिन हम नहीं समझे ....हम तो इतने निष्ठुर.... कि हमनें  उसकी प्यारी कोमल भावनाओं को अनदेखा ही नहीं किया ,निरादर भी करते रहें। जैसे नारी का सम्पूर्ण श्रृंगार अधूरा हैं हिना के बिना वैसे ही प्रकृति अधूरी हैं नारी के अस्तित्व के  बिना। यदि नारी ने अपना अस्तित्व पूर्णतः बदल दिया तो .....ना ही प्रकृति रहेगी और ना ही उसकी सुंदरता। धरा से प्रेम ,ममत्व और समर्पण का रंग भी हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। 
अब भी वक़्त हैं सम्भल सकें तो सम्भल ले ....बचा सकें तो बचा ले ....प्रकृति ,हिना और नारी के सुंदर रंगों को ,उनकी खुशबु को ,उनके सौंदर्य को ,बरना .......

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...