" मेहँदी " इस शब्द के स्मरण मात्र से ही प्रत्येक नारी अपनी सांसों में इसकी खुशबु को महसूस करने लगती
हैं ,मेहँदी के रंग की रंगत उनकी हथेलियों पर ही नहीं उनके गालों पर भी बिखरने लगती हैं। मेहँदी अपने रंगों से सिर्फ नारी के हथेलियों को ही नहीं रंगती , ये तो बालयवस्था से ही नारी हृदय की भावनाओं को भी रंगना शुरू कर देती हैं हल्की गुलाबी मेहँदी रची तो दूल्हा मिलेगा हसींन
गहरी रची तो आएगा ऐसा होगा जो मन का रंगीला
ये हैं निशानी सुहाग की ,लाली इसमें अनुराग की।
दादी -नानी और माँ के मुख से कही ये चंद पंक्तियाँ ,बालपन से ही हर लड़की के मन में अठखेलियाँ करने लगता हैं। जब भी वो पथ्थर पर घिस- घिसकर महीन की हुई मेहँदी को अपनी हथेलियों पर रजाती हैं तो उसके साथ साथ ही मन में कई सपने भी सजाने लगती और उनकी आँखें अपनी हथेली के रंगों में छुपे अपनें सपनों के राजकुमार को देखने के लिए लालायित हो ,अपनी हथेलियों को उम्मीद भरी नजरों से निहारती रहती हैं। जब अपनी हथेली पर से सुखी मेहँदी को वो खुरच- खुरच कर निकलती हैं तो उनका दिल जोर जोर से धड़क रहा होता है " ना जाने ये मेहँदी मेरे सपनों का कैसा रूप रंग दिखाएगी " फिर ...सपनों का मनचाहा रंग मिलते ही हथेली के साथ साथ चेहरा भी खिल जाता हैं ... अगर मनचाहा रंग ना मिला तो सपना जैसे टूटता नजर आने लगता हैं। फिर मेहँदी के फीके रंगों के साथ साथ मन भी फीका हो जाता हैं। कुंवारेपन को सुंदर कल्पनालोक में विचरण कराती हैं ये मेहँदी.....
नारी के कुँवारेपन के सपनों को सजाने वाली मेहँदी ,दुल्हन बनते ही उस सुहागन के श्रृंगार में उसके सौभाग्य की प्रतीक बन हर पल उसके मन को हर्षित करती रहती हैं। दुल्हन बनती बेटी के हाथों पर मेहँदी रचाते हुई माँ बलिहारी जाती हैं और मेहँदी के साथ साथ बेटी की हथेलियों की रेखाओं में ढेरों दुआएँ भी लिखती जाती हैं -
मेहँदी रचे तेरी खुशियाँ बढे ,तुझे मेरी उम्र लग जाए
हर पल बुरी नजरों से बचाए ,भाग्य -सुहाग बढ़ाए
माँ के दुआओं से सजी मेहँदी के रंग को देख प्रतीत होने लगता हैं कि मेहँदी भी उस दुल्हन को दुआएं दे रही है -
मेहँदी ये बोली आ मेरी बहना ,तेरी हथेली सजा दूँ
आँखों में सपने भर दूँ मिलन के साजन की प्यारी बना दूँ
बालपन से ही हाथों में मेहँदी रचाये आँखों में ढेरों सपने सजोये एक लड़की बड़ी होती हैं ...फिर वो दिन भी आ जाता हैं जब बाबुल के घर से विदा हो वो साजन के घर जाती हैं। उसे तो अंदेशा ही नहीं होता कि -उसका स्वयं का जीवन भी तो मेहँदी सरीखा ही हैं। अपने बाबुल के आँगन को छोड़ना ,किसी और के घर- आँगन को अपना बनाना , फिर उस घर -परिवार और जीवन की चक्की में बारीक पीसना ,अपने सुख -दुःख और अरमानों को पीस -पीसकर सबके जीवन में खुशियों की ,मुस्कुराहटों की कशीदाकारी करना ,घर के हर एक सदस्य को स्नेह के रंग में रंग देना ही उसका कर्तव्य बन जाता हैं। फिर धीरे धीरे हथेली की हल्की पड़ती हिना के रंग की भांति ही अपने खुशियों को ,अपने अरमानों को ही नहीं अपने जीवन तक को धीरे धीरे माध्यम पड़ते देखते रहना ....अंततः अपने आस्तित्व तक को समाप्त कर देना ही उसकी नियति बन जाना । खुद को हिना की भांति ही दूसरों को समर्पित कर देना और किसी से एक शिकवा तक नहीं करना..
डाली से नाता तोड़ के ,
ये हैं निशानी सुहाग की ,लाली इसमें अनुराग की।
दादी -नानी और माँ के मुख से कही ये चंद पंक्तियाँ ,बालपन से ही हर लड़की के मन में अठखेलियाँ करने लगता हैं। जब भी वो पथ्थर पर घिस- घिसकर महीन की हुई मेहँदी को अपनी हथेलियों पर रजाती हैं तो उसके साथ साथ ही मन में कई सपने भी सजाने लगती और उनकी आँखें अपनी हथेली के रंगों में छुपे अपनें सपनों के राजकुमार को देखने के लिए लालायित हो ,अपनी हथेलियों को उम्मीद भरी नजरों से निहारती रहती हैं। जब अपनी हथेली पर से सुखी मेहँदी को वो खुरच- खुरच कर निकलती हैं तो उनका दिल जोर जोर से धड़क रहा होता है " ना जाने ये मेहँदी मेरे सपनों का कैसा रूप रंग दिखाएगी " फिर ...सपनों का मनचाहा रंग मिलते ही हथेली के साथ साथ चेहरा भी खिल जाता हैं ... अगर मनचाहा रंग ना मिला तो सपना जैसे टूटता नजर आने लगता हैं। फिर मेहँदी के फीके रंगों के साथ साथ मन भी फीका हो जाता हैं। कुंवारेपन को सुंदर कल्पनालोक में विचरण कराती हैं ये मेहँदी.....
नारी के कुँवारेपन के सपनों को सजाने वाली मेहँदी ,दुल्हन बनते ही उस सुहागन के श्रृंगार में उसके सौभाग्य की प्रतीक बन हर पल उसके मन को हर्षित करती रहती हैं। दुल्हन बनती बेटी के हाथों पर मेहँदी रचाते हुई माँ बलिहारी जाती हैं और मेहँदी के साथ साथ बेटी की हथेलियों की रेखाओं में ढेरों दुआएँ भी लिखती जाती हैं -
मेहँदी रचे तेरी खुशियाँ बढे ,तुझे मेरी उम्र लग जाए
हर पल बुरी नजरों से बचाए ,भाग्य -सुहाग बढ़ाए
माँ के दुआओं से सजी मेहँदी के रंग को देख प्रतीत होने लगता हैं कि मेहँदी भी उस दुल्हन को दुआएं दे रही है -
मेहँदी ये बोली आ मेरी बहना ,तेरी हथेली सजा दूँ
आँखों में सपने भर दूँ मिलन के साजन की प्यारी बना दूँ
बालपन से ही हाथों में मेहँदी रचाये आँखों में ढेरों सपने सजोये एक लड़की बड़ी होती हैं ...फिर वो दिन भी आ जाता हैं जब बाबुल के घर से विदा हो वो साजन के घर जाती हैं। उसे तो अंदेशा ही नहीं होता कि -उसका स्वयं का जीवन भी तो मेहँदी सरीखा ही हैं। अपने बाबुल के आँगन को छोड़ना ,किसी और के घर- आँगन को अपना बनाना , फिर उस घर -परिवार और जीवन की चक्की में बारीक पीसना ,अपने सुख -दुःख और अरमानों को पीस -पीसकर सबके जीवन में खुशियों की ,मुस्कुराहटों की कशीदाकारी करना ,घर के हर एक सदस्य को स्नेह के रंग में रंग देना ही उसका कर्तव्य बन जाता हैं। फिर धीरे धीरे हथेली की हल्की पड़ती हिना के रंग की भांति ही अपने खुशियों को ,अपने अरमानों को ही नहीं अपने जीवन तक को धीरे धीरे माध्यम पड़ते देखते रहना ....अंततः अपने आस्तित्व तक को समाप्त कर देना ही उसकी नियति बन जाना । खुद को हिना की भांति ही दूसरों को समर्पित कर देना और किसी से एक शिकवा तक नहीं करना..
डाली से नाता तोड़ के ,
अपना रस रंग निचोड़ के
सुनी हथेली पे सज जाएगी ,
मेहँदी तो मेहँदी हैं रंग लाएंगी।
फिर एक दिन ,नारी सोचने पर मजबूर हो गई,खुद से सवाल कर बैठी -" तुम क्युँ खुश होती हो मेहँदी के पत्तों को देखकर ,उनको पथ्थर पर पीसते देखकर ,जब वो अपने आस्तित्व को मिटाकर तुम्हारी हथेलियों को थोड़ी देर के लिए लाल सुर्ख रंगों से सजा देती हैं तो तुम्हे इतनी ख़ुशी क्युँ मिलती ? " तुमने तो अपने जीवन में हिना के रंग को ही नहीं उसके गुणों को भी धारण कर लिया ,मगर क्युँ ???? नारी के कोमल भावुक मन ने जबाब दिया.....
वो हो औरत के हिना ,फर्क किस्मत में नहीं
रंग लाने के लिए दोनों पिसती ही रही
मिटके खुश होने का दोनों का है एक ढंग हिना
मैं हूँ खुशरंग हिना
हर पल ,हर हाल में खुश रहना .......लेकिन कब तक........नारी मन व्यथित हो चीत्कार कर उठा - " अब बहुत हुआ... अब हमें हिना बनना मंजूर नहीं। अब तो प्रकृति का दोहन करते करते हिना का भी रूप -रंग बिगड़ गया हिना को भी कित्रिम रूप दे दिया गया तो फिर हम ही क्युँ पीसते रहें ?? जैसे हिना के असली सौंदर्य को किसी ने नहीं समझा वैसे ही मेरे किसी भी रूप को भी किसी ने ना समझा ,बस कोरी सराहना ही करते रहे ....ना माँ के ममता को मान दिया ना बहन की राखी को ...ना पत्नी के त्याग को समझा ना प्रेमिका के समर्पण को ....ना बहु के सेवा का महत्व दिया ना बेटी स्नेह को। फिर क्या था ...हिना के साथ साथ नारियों के स्नेह के रंग में भी कित्रिमता आनी शुरू हो गई। आखिर कब तक ??? कब तक... किसी के सहन शक्ति की आजमाईस होती रहेगी ,बर्दास्त की भी हद होती हैं ,एक दिन तो वो थककर विद्रोह करेगी ही न । आख़िरकार माँ प्रकृति की सहनशक्ति भी तो समाप्त हो ही गई न.... अब तो वो भी क्रोधित हो चुकी हैं और अपना सौंदर्य....अपना रंग...अपनी प्राणवायु देना से इंकार करने लगी हैं । नारी तो एक मनुष्य हैं कब तक अपने स्नेह ,त्याग और तपस्या की अवहेलना होते देखती रहती ,उन्हें भी तो एक ना एक दिन उग्र रूप धारण करना ही था आखिरकार ....अब वो हिना बनने से पूरी तरह इंकार कर चुकी हैं।
हिना और नारी जिसका चयन ही प्रकृति ने सौंदर्य ,प्यार और खुशियाँ बाँटने के लिए किया था। हिना भी तो हर पल प्यार से यही कहती रही हैं न .....
मैं हूँ खुशरंग हिना ,प्यारी खुशरंग हिना
जिंदगानी में कोई रंग नहीं मेरे बिना।
लेकिन हम नहीं समझे ....हम तो इतने निष्ठुर.... कि हमनें उसकी प्यारी कोमल भावनाओं को अनदेखा ही नहीं किया ,निरादर भी करते रहें। जैसे नारी का सम्पूर्ण श्रृंगार अधूरा हैं हिना के बिना वैसे ही प्रकृति अधूरी हैं नारी के अस्तित्व के बिना। यदि नारी ने अपना अस्तित्व पूर्णतः बदल दिया तो .....ना ही प्रकृति रहेगी और ना ही उसकी सुंदरता। धरा से प्रेम ,ममत्व और समर्पण का रंग भी हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा।
अब भी वक़्त हैं सम्भल सकें तो सम्भल ले ....बचा सकें तो बचा ले ....प्रकृति ,हिना और नारी के सुंदर रंगों को ,उनकी खुशबु को ,उनके सौंदर्य को ,बरना .......
फिर एक दिन ,नारी सोचने पर मजबूर हो गई,खुद से सवाल कर बैठी -" तुम क्युँ खुश होती हो मेहँदी के पत्तों को देखकर ,उनको पथ्थर पर पीसते देखकर ,जब वो अपने आस्तित्व को मिटाकर तुम्हारी हथेलियों को थोड़ी देर के लिए लाल सुर्ख रंगों से सजा देती हैं तो तुम्हे इतनी ख़ुशी क्युँ मिलती ? " तुमने तो अपने जीवन में हिना के रंग को ही नहीं उसके गुणों को भी धारण कर लिया ,मगर क्युँ ???? नारी के कोमल भावुक मन ने जबाब दिया.....
वो हो औरत के हिना ,फर्क किस्मत में नहीं
रंग लाने के लिए दोनों पिसती ही रही
मिटके खुश होने का दोनों का है एक ढंग हिना
मैं हूँ खुशरंग हिना
हर पल ,हर हाल में खुश रहना .......लेकिन कब तक........नारी मन व्यथित हो चीत्कार कर उठा - " अब बहुत हुआ... अब हमें हिना बनना मंजूर नहीं। अब तो प्रकृति का दोहन करते करते हिना का भी रूप -रंग बिगड़ गया हिना को भी कित्रिम रूप दे दिया गया तो फिर हम ही क्युँ पीसते रहें ?? जैसे हिना के असली सौंदर्य को किसी ने नहीं समझा वैसे ही मेरे किसी भी रूप को भी किसी ने ना समझा ,बस कोरी सराहना ही करते रहे ....ना माँ के ममता को मान दिया ना बहन की राखी को ...ना पत्नी के त्याग को समझा ना प्रेमिका के समर्पण को ....ना बहु के सेवा का महत्व दिया ना बेटी स्नेह को। फिर क्या था ...हिना के साथ साथ नारियों के स्नेह के रंग में भी कित्रिमता आनी शुरू हो गई। आखिर कब तक ??? कब तक... किसी के सहन शक्ति की आजमाईस होती रहेगी ,बर्दास्त की भी हद होती हैं ,एक दिन तो वो थककर विद्रोह करेगी ही न । आख़िरकार माँ प्रकृति की सहनशक्ति भी तो समाप्त हो ही गई न.... अब तो वो भी क्रोधित हो चुकी हैं और अपना सौंदर्य....अपना रंग...अपनी प्राणवायु देना से इंकार करने लगी हैं । नारी तो एक मनुष्य हैं कब तक अपने स्नेह ,त्याग और तपस्या की अवहेलना होते देखती रहती ,उन्हें भी तो एक ना एक दिन उग्र रूप धारण करना ही था आखिरकार ....अब वो हिना बनने से पूरी तरह इंकार कर चुकी हैं।
हिना और नारी जिसका चयन ही प्रकृति ने सौंदर्य ,प्यार और खुशियाँ बाँटने के लिए किया था। हिना भी तो हर पल प्यार से यही कहती रही हैं न .....
मैं हूँ खुशरंग हिना ,प्यारी खुशरंग हिना
जिंदगानी में कोई रंग नहीं मेरे बिना।
लेकिन हम नहीं समझे ....हम तो इतने निष्ठुर.... कि हमनें उसकी प्यारी कोमल भावनाओं को अनदेखा ही नहीं किया ,निरादर भी करते रहें। जैसे नारी का सम्पूर्ण श्रृंगार अधूरा हैं हिना के बिना वैसे ही प्रकृति अधूरी हैं नारी के अस्तित्व के बिना। यदि नारी ने अपना अस्तित्व पूर्णतः बदल दिया तो .....ना ही प्रकृति रहेगी और ना ही उसकी सुंदरता। धरा से प्रेम ,ममत्व और समर्पण का रंग भी हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा।
अब भी वक़्त हैं सम्भल सकें तो सम्भल ले ....बचा सकें तो बचा ले ....प्रकृति ,हिना और नारी के सुंदर रंगों को ,उनकी खुशबु को ,उनके सौंदर्य को ,बरना .......
प्रिय कामिनी, हिना यानि मेंहदी के रंगों को नारीमन की भावनाओं से जोड़कर आपने कोमलता और नजाकत से अपने लेख को सजाया है। बीच बीच में गीतों की पंक्तियों का सटीक प्रयोग लेख को चार चाँद लगाता है। अंत में मेंहदी और नारी की एक सी नियति को सुस्पष्ट करते हुए आपने समाज को कटु यथार्थ का आईना भी दिखाया है। लेख बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंमेरे लेख की इतनी सुंदर समीक्षा करने के लिए दिल से शुक्रिया मीना जी
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया अनमोल होती हैं ,सादर नमस्कार आपको
सहृदय धन्यवाद दी ,मेरी रचना को मान देने के लिए हृदयतल से आभार ,सादर नमस्कार आपको
जवाब देंहटाएंहिना ज़िन्दगी के रंगों में उल्हास और उमंग का प्रतीक है, हिना का ज़िक्र आते ही जीवन में एक महक उत्तपन हो जाती है। बहुत ही उम्दा लेख है। बधाई ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर ,सर्वप्रथम मेरे ब्लॉग पर स्वागत हैं आपका ,सुंदर समीक्षा के लिए तहे दिल से आभारी हूँ ,सादर नमन आपको
हटाएंमोहक अंदाज में गीतों के साथ सजी मेंहदी,या फिर हेना से रची रंगी सुंदर प्रस्तुति कामिनी जी ,कितने अहसास हैं जुड़े मेंहदी के साथ ।
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव रचना।
सहृदय धन्यवाद कुसुम जी ,आपकी सुंदर समीक्षा के लिए ह्रदयतल से आभारी हूँ ,बचपन से ही ये गीत मुझे बेहद पसंद थे अवसर मिलते ही इनको सजा लिया अपनी लेख में ,आपने सराहा लेखन सार्थक हुआ। सादर नमन आपको
हटाएंमेहन्दी की महक और खूबसूरती समेटे लाजवाब सृजन । लेख के समापन तक आते आते मेहन्दी और नारी जीवन की समानता मंत्रमुग्ध करने के साथ चिन्तन का छोर थमा गई हाथों में । बेहतरीन सृजन कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मीना जी ,बचपन से मुझे मेहँदी रचना बेहद पसंद था लेकिन पता नहीं क्यों लगाने के बाद उदास सी हो जाती थी ,बस इन्ही भावो को उकेर दिया अपनी लेख में ,आपने इसके मर्म को समझा तो लेखन सार्थक हुआ। सादर नमन आपको
हटाएंप्रिय कामिनी , हर नारी की बहुत ही प्यारी और दुलारी मेहंदी पर बहुत सुंदर लेख है तुम्हारा |हर औरत चाहती है हिना का रंग उसके अंग संग रहे और सुहाग का ये अभिन्न प्रतीक उसके जीवन से कभी जुदा ना हो |सखी नारी की तरह प्रकृति और मेहँदी भी कृत्रिमता और चकाचौंध की भेट चढ़ गयी |मुझे याद आता है जब हम लोग बहुत छोटे हुआ करते थे तो हमारी दादी दिन में कटोरा भर मेहंदी भिगोती और देखा जाता जब मेंहदी रंग छोड़ रही है तो रात में सोने से पहले , सब बच्चों के हाथों पर मुट्ठी भर मेहंदी मुट्ठी में ही दबाई जाती | जो बच्चे बहुत छोटे होते उनके हाथों पर साफ सूती कपड़ा बंधा जाता जिससे बिस्तर खराब ना हों | सुबह सोकर उठते तो मेहँदी से महकते लाल हाथ मिलते | सच मानों वह मेहँदी आज की डिजायनर मेंहदी से कहीं अधिक अच्छी लगती और मन को एक अनूठे आह्लाद से भर देती | आज पैट्रोल मिली बाजारी कोनों में बिकती मेहँदी में ना वो महक है मन को आह्लादित करने का हुनर | हाँ ये मेहँदी की महिमा बरकरार रखती है यही काफी है | हाँ प्रकृति पर हमें जरुर ध्यान देना चाहिए | यही जीवन की आत्मा है |सुंदर , सार्थक लेख के लिए शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,तुमने सही कहा कित्रिमता तो हर एक चीज में व्याप्त हो गई हैं जो चिंतित करती हैं। तुम्हारी इस सुंदर और विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल से शुक्रिया ,सादर स्नेह
हटाएंसहृदय धन्यवाद अनीता जी ,मेरी रचना को स्थान देने के लिए दिल से शुक्रिया ,सादर स्नेह
जवाब देंहटाएंमेंहदी पर लिखा बहुत सुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंबधाई
सहृदय धन्यवाद सर ,आपकी प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ ,सादर नमस्कार
हटाएंसही कहा सखी! मेहंदी के बिना नारी का श्रृंगार अधूरा हैं,नारी के बिना सृष्टि। बेहद खूबसूरत आलेख लिखा आपने 👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर नमस्कार
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