शनिवार, 13 अप्रैल 2019

धर्म क्या हैं ??



       धर्म क्या हैं ? धर्म क्यों हैं ?धर्म कैसा होना चाहिए ? क्या सचमुच हमारे जीवन में धर्म की आवश्यकता  हैं ?धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व होना चाहिए ?मानव का सबसे बड़ा या पहला धर्म क्या होना चाहिए ? धर्म के बारे में ना जाने इस तरह के कितने सवाल हमारे मन मस्तिष्क में उठते रहते है।हर युग में,हर समाज में ,हर सम्प्रदाय में  यहां तक की हर व्यक्ति अपने अपने तरीके से इन सवाल के खोज में लगा रहता हैं। धर्म के संबंध में बड़ी विभिन्ताएं देखने को मिलती हैं। एक देश और एक ही जाति के लोगो के धार्मिक आचरण में भी बड़ी अंतर् दिखाई देता हैं। सामान्य जन दान -पुण्य ,पूजा -पाठ और बाहरी कर्मकांडों को ही धर्म का नाम देते हैं। यही धार्मिक कर्मकांड धीरे -धीरे सामाजिक रीति -रिवाज का रूप धारण कर लेता हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी बुद्धि से तर्क पूर्वक सोच समझ कर धर्म का आचरण करते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं। 

     सभी धर्मो की यही मान्यता हैं कि उनका धर्म अनादि हैं। लेकिन एक बात सभी धर्मो में समान रूप से दिखाई देती हैं,सभी धर्म एक ही सत्य पर आधारित हैं कि कोई ऐसी शक्ति हैं जो हम पर नियंत्रण रखती हैं और जिसने कुछ नियम कानून बनाये हैं और उसका पालन करना ही हमारा परम् धर्म हैं। इन नियम कानून में भी समय समय पर पैगंबरो और अवतारो ने आकर उनका पुनरुथान भी करते रहे हैं। सारे धर्मो के अपने अपने धर्मग्रंथ हैं लेकिन सभी धार्मिक गुरुओ ने अपने कथन के अपूर्णता को भी  स्वीकारा हैं। शायद यही कारण है कि अनादि काल से अब तक हर धर्म के स्वरूप में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। सभी धर्मो में नए सुधारक आते गए और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर समय ,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार उनमे परिवर्तन करते गये। अवतारी महापुरुषों ने अपने समय के परिस्थिति और स्थान को बहुत महत्व दिया था। 

       जब वैदिक युग में ब्रह्मोपासना आवश्यकता से अधिक बढ़ गई और लोग अपने कर्तव्य का पालन छोड़ पूजा पाठ में ही लगे रहते थे तब भौतिकवादी वाममार्ग की शुरुआत हुई ,जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया। इस तरह धर्म में समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार धर्मो में परिवर्तन हर धर्म के धार्मिक ग्रंथो  में देखने को मिलेगी। 

       मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है। अनादि काल से ही मनुष्यो को जिस काम में अपना हित नजर आया उसने वही काम आरम्भ कर दिया और उसे ही धर्म का नाम दे दिया गया। गौ पालन ,तुलसी स्थापना ,गंगा स्नान ,तीर्थ यात्रा ,एकादशी व्रत ,ब्रह्मचर्य आदि कार्य मनुष्य के लिए लाभदायक हैं ,इसकी परीक्षा करने के बाद इन कार्यो को धर्म माना गया हैं। गाय पालन से हमे दूध ,गोबर और बछड़े मिलते हैं ,तुलसी अनेक रोगो को दूर करने वाली एक अमोध औषधि हैं ,तीर्थाटन से वायु परिवर्तन और सत्पुरषो के सतसंग का लाभ मिलता हैं ,एकादशी व्रत से हमे अनेक  रोगो से लड़ने की क्षमता मिलती हैं ,ब्रह्मचर्य  से शरीर बलवान रहता हैं। इस तरह हम देखेंगे की हर धार्मिक परम्परा हमे एक नियम कानून से बांध कर हमारे तन, मन और धन को लाभ पहुंचने के लिए ही बने हैं। 

     धर्म को पाप -पुण्य से जोड़ा गया ताकि लोग इससे डर कर इसके नियम को कठोरता से पालन करे। परन्तु जहाँ श्रेष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस  जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे और जो धर्म स्वेच्छा से अपनाई जाती थी उस पर डर का व्यवसाय चलाने लगे। कुछ ओछी मनोवृति के धर्मगुरुओ ने वक्तिगत लाभ के लिए नकली बातो को भी धर्म से जोड़ दिया। समय के साथ वो असली -नकली बाते एक दूसरे से जुड़ ऐसी शक्ल में आ गई कि आज ये पहचानने में भी कठिनाई होती हैं कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हैं उसमे कितनी सचाई हैं। 

       लेकिन अगर हम अपनी बुद्धि और विवेक से चिंतन करेंगे तो देखेंगे कि हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं। विद्या,स्वास्थ ,धन ,प्रतिष्ठा ,पवित्रता ,संगठन ,सच्चरित्रता ये सात महाबल माने गये हैं। अगर ये सातो बल आपके पास हैं और आप इन सातो गुणों के सहायता से समाज की उन्नति कर रहे हैं तो आप धार्मिक हैं। सारे धार्मिक ग्रंथो का एक ही सार है और वो यही कहते हैं कि - अपना कर्तव्य पालन ,दुसरो की सेवा ,परोपकार और संयम। अर्थात जिसके हृदय  करुणा हैं सच्चा धर्मचारी वही हैं। 

      संक्षेप में कह  हैं कि -अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी। जो तत्कालीन समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं। लेकिन धर्म का इतना हनन होने के वावजूद अभी भी  धरती कायम हैं तो ये भी स्पष्ट हैं कि अभी भी पृथ्वी पर धर्माचारियों की कमी नहीं। 

34 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर एवं पठनीय लेख, प्रणाम।

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  2. बहुत उम्दा और चिन्तनपरक लेख । आपने बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित लिखा है कामिनी जी ।

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 15 अप्रैल 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. मेरे लेख को स्थान देने के लिए सहृदय धन्यवाद यशोदा दी ,सादर नमस्कार

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  4. बहुत ही बेहतरीन लेख लिखा आपने 👌👌

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    1. दिल से शुक्रिया अनुराधा जी ,सादर स्नेह

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  5. धर्म पर सुंदर विश्लेषणात्मक लेख चिंतन परक सार्थक।

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  6. अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। बहुत सुंदर कथन कामिनी दी।

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  7. अत्यंत प्रभावशाली लेख। गहरी समझ के साथ लिखा हुआ। बधाई।

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  8. बहुत बढ़िया धर्म निभाया आपने धर्म को परिभाषित करने में. हालांकि कुछ बिन्दुओं पर हमारा मतैक्य नहीं है जैसे कि, "जब भौतिकवादिता के कारण वाममार्गियों की हिंसा हद से ज्यादा बढ़ गयी तो महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया ,जब अहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शकराचार्य ने उसका खंडन कर वेदांत का निर्माण किया।" अपेक्षित पात्रता पाने के पश्चात इस पर हम कभी विमर्श कर लेंगे.
    इतने सुन्दर प्रयास हेतु आपको बधाई और आभार!!!!

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    1. अपने मेरे लिख पर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दी इसके लिए दिल से धन्यवाद, सर। धर्म बड़ा ही संवेदनशील और व्यापक विषय हैं और इसपर मतो में विभिन्ताएं भी बहुत हैं ,फिर भी आप जैसे बुद्धिजीवी और प्रखर विद्वान से इस पर मुझे कुछ सिखने समझने को मिलेगा तो मुझे अति प्रसन्नता होगी ,सादर नमस्कार

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  9. हर वो कार्य जिससे हम अपने देश और समाज की शक्ति बढ़ाते हैं वो धर्म हैं।
    बहुत ही सुन्दर चिन्तनपरक लेख...।
    सारगर्भित लेख के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं...

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    1. दिल से शुक्रिया सुधा जी ,प्रोत्साहन के लिए आभार ,सादर नमस्कार

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  10. अगर संसार एक शरीर हैं तो धर्म उसका मेरुदंड। धर्म ही संसार का आधार हैं जिस पर समस्त विश्व का भार हैं। अगर व्यक्ति के जीवन से धर्म निकल जाये तो सब को अपना प्राण बचाने और दुसरो को कुचलना ही नियति बन जायेगी।

    बिल्कुल सत्य
    बहुत ही सुंदर व प्रेरणादायक लेख

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  11. बहुत ही बढ़िया। धर्म को समझने का गहरा नज़रिया।

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  12. सहृदय धन्यवाद अंकुर जी ,सादर

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  13. धर्म को हर कोई समय और अपने अपने अनुसार प्रभाषित करता रहा है पर हर परिभाषा, हर समय, हर धर्म में सच, इमानदारी और मनुष्यता को श्रेष्ठ माना गया है ... और होना भी चाहिए ... पर क्या सच में ऐसा है ... दुनिया के बड़े से बड़े युद्ध इस धर्म की खातिर ही हुए हैं ... सबसे ज्यादा जानें इसी के लिए गई हैं ... फिर भी धर्म है ...

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  14. यही तो बात हैं दिगंबर जी " फिर भी धर्म है और रहेगा अपने शास्वत स्वरूप में " हम लाख परिभाषाये बदले अनेको युद्ध लड़े फिर भी धर्म अटल रहा प्यार करुणा और सेवा के रूप में और मेरा मानना है कि वो अब भी हैं इस धरा पर। सादर आभार आपका मेरे लेख पर इतनी बहुमुल्य प्रतिक्रिया देने के लिए ,नमस्कार

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  15. उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद , उत्साहवर्धन हेतु आभार ,पुरुषोत्तम जी

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  16. धर्म के समय के साथ रूप बदलते रहें, लेकिन धर्म का मूल रूप शाश्वत है और सभी धर्मों में मूलतः समान है. लेकिन आज धर्म को संकीर्णता की सीमाओं में बांधने की कोशिश हो रही है. बहुत गहन और सारगर्भित प्रस्तुति...

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    1. ,सहृदय धन्यवाद सर ,मेरे लेख पर आप की प्रतिक्रिया मेरा उत्साहवर्धन करती हैं आभार ,सादर नमस्कार

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  17. ष्ठता होती हैं वहां कुछ बुराइयाँ भी घुस जाती हैं। जब धर्म पालन को लोग महत्वपूर्ण समझ इसके लिए हर त्याग करने लगे तो कुछ लोग स्वार्थवश इसका लाभ उठाने के लिए आडंबर रचने लगे धर्म में सच, इमानदारी और मनुष्यता को श्रेष्ठ माना गया है अक्सर समय समय पर धर्म के समय के साथ रूप बदलते रहें !

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    1. सहृदय धन्यवाद संजय जी, आपने हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाया हैं आभार ,सादर नमस्कार

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  18. प्रिय कामिनी -- तुमने धर्म को खूब परिभाषित किया है | सब बातों में ये बात जोड़ना चाहूंगी कि तुलसीदास जी ने कहा है कि -- परहित सरस धर्म नहीं भाई -- | आज आडम्बर वाले धर्म की नहीं मानवीयता भरे धर्म की जरूरत है | यदि हम भगवान् के निमित्त भी किसी मदद करते हैं तो वह भी धर्म निभाने से कम नहीं |आज धर्म के नाम पार आलिशान मन्दिर और पूजा स्थल हैं | लोग खुले मन से भगवान् के नाम पर दान देकर इन मंदिरों , मस्जिदों , गुरुद्वारों को मालामाल कर रहे हैं जबकि गरीब आदमी अपने बच्चो को अच्छी सिक्षा नहीं दिला पा रहा | आज देश को पूजास्थलों की जरूरत नहीं बल्कि शिक्षालयों की जरूरत है | धर्म की परिभाषा समय के अनुसार बदलती रहती हैं पर हर युग में धर्म का संदेश जनकल्याण के हित में ही रहा |अच्छाई की बुराई पर विजय हर धर्म का सार है | बहुत ही चिंतनपरक लेख के लिए तुम्हे मेरी शुभकामनायें और आभार | हर बार अछूता विषय लाती हो | यूँ ही लिखती रहो मेरा प्यार और दुआएं तुम्हारे साथ हैं |

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    1. सहृदय धन्यवाद सखी, मेरे लेख पर अपनी विस्तृत और विचारणीय प्रतिक्रिया देने के लिए आभार एवं स्नेह सखी

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