सोमवार, 7 जनवरी 2019

" बृद्धाआश्रम "बनाम "सेकेण्ड इनिंग होम "







" बृद्धाआश्रम "ये शब्द सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कितना डरावना है ये शब्द और कितनी डरावनी है इस घर यानि "आश्रम" की कल्पना। अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में दो पल ठहरें और सोचे, आप भी 60 -65 साल के हो चुके हैं ,अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारियों से आज़ाद हो चुके हैं। आप के बच्चों के पास फुर्सत नही है कि वो आप के लिए थोड़ा समय निकले और आप की देखभाल करें।(कृपया ये लेख पूरा पढ़ेगे )

और पढ़िये 
 वो करेंगे भी कैसे ? उनकी लाइफ तो हम सब के लाइफ से भी ज्यादा बिजी होगी हम अपने जवानी के दिनों में अपने सारे काम-काज करते हुए भी अपने अपनों के लिए खासतौर पर अपने माँ-बाप के लिए थोड़ा वक़्त निकल ही लेते थे। लेकिन हमारे बच्चों  के शब्दों में उनकी लाइफ हमसे ज्यादा "टफ" यानि  मुश्किल है। अरे भाई ,उन्हें अपने जॉब के बाद जो वक़्त मिलता है वो वक़्त तो वो अपने बीवी-बच्चों और दोस्तों को देंगे या आप को देंगे। आप तो उनके लिए उनकी "थर्ड पयोरिटी" यानि त्रियतिये स्तर के ज़िम्मेदारी होंगे न। कहाँ से निकलेंगे आप के लिए वक़्त। ऐसी हालत में आप कल्पना कीजिये वो आप के साथ क्या करेंगे।

अगर वो मिडिल क्लास के है तो वो अपने घर में एक छोटा कमरा आप को दे देगें और समय-समय पर आप के खाने-पीने  की व्यवस्था कर देंगे बस, हो गई उनकी ज़िम्मेदारी पूरी। अगर पैसे वाले है तो एक फ्लैट में आपको रख नौकर-चाकर की व्यवस्था कर देगें यदि उनकी नौकरी विदेश में या किसी बड़े शहर में है तो उनके लिए आप को अपने साथ रखना थोड़ा मुश्किल होगा। वो कहेगे -"आप को साथ तो रख नहीं सकते और आप को अकेले भी नहीं छोड़ सकते तो अच्छा है हम आप को "बृद्धाआश्रम" भेज दे,वहाँ  आप की देखभाल होगी और हम  साल -छह महीने में आप से मिलने आते रहेंगे ,फ़ोन रोज करेंगे आप परेशान ना हो "

अरेरे दोस्तों , "आप तो डर गए, है न"   यकीनन इन सारी बातों की कल्पना भी बेहद डरावनी लगती है। लेकिन डरने से क्या होगा आज की युग की हक़ीक़त ही यही है। "घर" की संख्या  घटती जा रही है और "बृद्धाआश्रम" की संख्या बढ़ती जा रही है। मेरी समझ से इसके पीछे दो बड़ी वजह है एक तो वाकई आज की पीढ़ी की लाइफ स्टाइल बड़ी टफ हो गई है। उनकी अपनी नौकरी,बीवी -बच्चों की बेहिसाब फ़रमाइसे, दोस्त ,सोशल मिडिया पे उनकी एक्टिविटी  और उससे भी बड़ी बात उनके लिए उनकी खुशियां ही सर्वोपरि हो गई है  और दूसरी वजह वही है जिसका जिक्र हम ने अपने पहले के लेख में किया है कि "बेटियाँ बहू नहीं बन पा रही है " लोग तो यूँ  ही कहते हैं  की बेटे बुढ़ापे की लाठी होते हैं। मेरा मानना है की असली लाठी बहूऐ होती है। क्योंकि सारी ज़िम्मेदारी तो वही उठती है।(लेख-"हमारी प्यारी बेटियाँ") 

खैर ,जो भी हो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि-आज की दौड की ये भयावह सच्चाई है। चलिये,अब इन सारी समस्याओं  को एक अलग नज़रिये से देखते हैं। मेरे नज़रिये से " बृद्धाआश्रम "शब्द को हमारी मानसिकता ने डरावना बना दिया है। अगर बृद्धाआश्रम को हम अपने जीवन के " दूसरी पारी का घर "समझे तो वो उतना डरावना नहीं लगेगा बल्कि शायद हमें आत्मिक सुकून भी देगा। शायद नहीं....यकीनन देगा। 

अब आदि काल में चलते हैं, हमने अपने दादी -नानी की कहानियो में "वानप्रस्थ" का जिक्र जरूर सुना होगा। राजा-महाराजा अपना उत्तराधिकारी घोसित कर, उसे राजगद्दी सौप कर और अपनी जिमेदारियों से मुक्त हो कर खुद के लिए ज़ीने, भगवत भजन कर अपना परलोक सुधारने,अपना आत्मज्ञान बढ़ाने और मोह माया से दूर होने के लिए वन में जा कर निवास करते थे जिसे " वानप्रस्थ " कहते थे। (राजा ही नहीं उस वक़्त के आम जन भी यही करते थे) याद कीजिये,उस वक़्त ये नहीं कहा जाता था कि -"राजगदी मिलने के बाद बेटे ने माँ-बाप को वन में भेज दिया"  नहीं ,ऐसा कोई नहीं कहता था क्योंकि उन्हें जबरदस्ती नहीं भेजा जाता था बल्कि माँ-बाप स्वेच्छा से जाते थे। बाद के समय में भी जब बुजुर्ग अपनी जिमेदारियों से मुक्त हो जाते थे (खास कर के पुरुष ) तो गांव के बाहर एक चौपाल बना लेते थे जहाँ वो अपने हमउम्र के साथ रहते ,अपना समय अपनी मर्ज़ी से बिताते थे। 


लेकिन, जैसे-जैसे समय बदला लोग नौकरी पेशा वाले होने लगे तो  60 के उम्र में रिटायर्ड होने के बाद खुद ही अपने आप को खाली और बेकार समझने लगे। फिर संतान से सेवाभाव की अपेक्षा और उससे भी ज्यादा पोते -पोतियो के संग का मोह ने उन्हें घर की चार दीवारी में जकड़ दिया। बच्चों से अपेक्षा के बदले जब उन्हें उपेक्षा मिली तो वो और कुंठित हो गए और जब उन्हे बृद्धाआश्रम की तरफ रवाना होने के लिए कहा  गया तो वो अपने आप को नाकारा, बोझ, घर से निकला हुआ, तिरस्कृत और उपेक्षित महसूस करने लगे। बृद्धाआश्रम उनके लिए एक जेल,एक सजा की जगह बन गई। अक्सर बुजुर्गो को ये कहते सुना गया है कि-"मेरे बेटे बहू के पास कुत्ते को रखने तक का एक दरबा तो होता है लेकिन हम तो कुत्ते से भी गये गुजरे है जिसके लिए घर ना बाहर कही भी जगह नहीं है"

"इंसान अपने दुखों का कारण स्वयं होता है" ये सत्य है, हम क्यों अपने आप को दयनीय बनाते हैं, सारी उम्र हम उनकी देखभाल करते आये  हैं वो हमारी क्या खाक करेंगे। हम ऐसी अवस्था ही क्यों आने दे कि-हमें उनकी रहमो -कर्म पर रहना पड़े। मेरे नज़रिये से वानप्रस्थ की जो प्रथा थी बिलकुल सही थी। अगर बुजुर्ग अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर, बाल -बच्चों  का मोह  त्याग खुद के लिए, खुद की मर्ज़ी से ज़ीने के लिए एक घर खुद तैयार कर लें  तो वो कभी बच्चों पर बोझ नहीं बनेगे। 

अब एक बार फिर, से आप खुद को 60 साल की उम्र में इमेजिन कर सोचिये...सारी उम्र तो आपने घर की जिम्मेदारी निभाने में  गुजर दी, कभी जिया  है खुद के लिए। अब एक ऐसा घर हो जहाँ कोई रोक-टोक नहीं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं, अपने हमउम्र दोस्त हो, उनके साथ एक मस्ती भरा दिन जैसे बचपन का होता है, कोई चिंता फ़िक्र नहीं। अरे, करें  भी क्यों चिंता, हमने अपने बच्चों  को अपने पैरो पर खड़ा कर दिया अब वो अपनी जिम्मेदारी संभाले और जहाँ तक बात है पोते-पोतियो की तो हाँ यार ,वो प्यारे तो है लेकिन आज कल के दौड में वे बच्चें बेचारे खुद ही ढाई साल की उम्र से स्कूल के बोझ तले दबे हैं उनके पास कहा समय है आप के लिए जो वो आप के साथ खेलेगे । तो उनसे रविवार या छुटियों में मिल लगे। जब छुट्टी के दिन वो अपने मम्मी-पापा के साथ आप से मिलने आएंगे तो उनके लिए भी आप स्पेशल होंगे और उनके मम्मी-पापा के लिए भी। 

तो आइये, हमारी पीढ़ी  "बृद्धाआश्रम" को एक उपेक्षित जेल का रूप न देकर एक ऐसा घर बनाये जहाँ हम अपनी लाइफ का second innings यानि दूसरी पारी खेले।अपने हमउम्र के साथ रहें, अपने सुख-दुःख बांटे ,हँसी- ठहाकों  की महफिल जमाये,वो सब करें  जो जवानी में वक़्त के अभाव के कारण नहीं कर पाए, जैसे मर्जी हो वैसे जिए रोकर नहीं हँस कर। 

ये सत्य है कि-आज कल के समय में घर में माँ-बाप की जरुरत किसी को नहीं है जो कि एक सामाजिक,वैचारिक 
और भावनात्मक पतन है। इस बदलते दौर को बदलना  हमारे वश में नहीं तो आये हम खुद को बदल ले,अपनी सोच को बदल ले। इस समाज में बहुत से माँ-बाप के बच्चें नहीं है और बहुतों को बच्चे होते हुए भी वो अकेले है। वैसे ही बहुत से बच्चों के माँ बाप नहीं "अनाथ" है। अगर  बृद्धाआश्रम और अनाथ आश्रम को जोड़ दें तो कितने बच्चों  को माँ-बाप,दादा-दादी का प्यार मिल जायेगा और बुजुर्गो को अपने पोते-पोतियो के रूप में बच्चें सँभालने का सुख मिल जाएगा। दोस्तों ,मैं तो अपनी तैयारी इसी सोच के आधार पर कर रही हूँ कि- एक दिन  बृद्धाआश्रम + अनाथआश्रम को जोड़ कर एक ऐसा खुशनुमा घर की रचना करूँ जहाँ  सब स्वार्थ से परे हो। खुशहाल वातावरण में गैरो के साथ अपनों से बढ़कर रिश्तों पे पिरोया मेरा " second innings home" ये मेरे जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत होगी। 













54 टिप्‍पणियां:

  1. आभार..... सह्रदय धन्यवाद......... सर

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रिय कामिनी -- आपके इस लेख को जब मैंने शब्द नगरी पर पढ़ा था तो हैरान सी हो गई थी क्योकि ये चिंतन मेरे लिए नितांत नया था | बदलते वक्त में जीवटता से भरे माता- पिता सीमित परिवार के चलते बहुत जल्द ही अकेले पड़ जाते हैं | तुमने सही याद दिलाया |वानप्रस्थ भारतीय संस्कृति की वो परम्परा थी जो किसी भी इन्सान को जीवन के व्यर्थ मोह और लिप्साओं से दूर करने में सहायक होती थी | सबसे बड़ी बात कि ये स्वैच्छिक होती थी | आज के वृद्धाश्रमों के जीवन और तब के वानप्रस्थ आश्रम में यद्यपि बहुत अंतर हैपर फिर भी मायूसी में डूबे बुजुर्गों के लिए सकारात्मक संबल भी है जो उन्हें पुरानी परम्पराओं से परिचित करवा जीवन में आशावादिता की और कदम बढ़ाने को प्रेरित करता है | मन को नकारात्मकता की ओर से सकारात्मकता की ओर ले जाते | इस मौलिक चिंतन के लिए तुम्हे बधाई और शुभकामनायें देती हूँ | अपने उर्जावान लेखन के साथ आगे बढती रहो | मेरा प्यार |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद सखी ,तुम्हारी प्रतिक्रिया सदा मेरा मनोबल बढाती है ,स्नेह सखी

      हटाएं
  3. विलक्षण सोच है आप की वाकई में सकारात्मकता के दृष्टिकोण से सोचें तो यह भी एक पहलू है जीवन की second inning को बोझ न समझ कर भरपूर जीने का । गहरी संवेदनशीलता के साथ एक गहन चिंतन है आपके विचारों मेंं । सस्नेह शुभकामनाएँ ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी ,आप की प्रतिक्रिया मेरा उत्साहवर्धन करती है सादर स्नेह

      हटाएं
  4. वृद्धावस्था पर आपकी सजग लेखनी अत्यंत ही प्रभावशाली है। वृद्ध व्यक्ति समाज का मार्गदर्शक तत्व के समान होते हैं । उनका व्यवहार आचरण व जीवन शैली व दर्शन कोटि का हो तो यह समाज को एक दिशा प्रदान कर सकती है।
    आज की पीढी ही कल के वृद्ध बनेंगे, और जो आज भी भटके है वो वृद्ध होकर भी क्या मार्गदर्शन देंगे। अतः, दोनो को सामंजस्य स्थापित करने और उच्च जीवन मानदंड स्थापित करने की आवश्यकता है।
    धन्यवाद ....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद........ आप की प्रतिक्रिया मेरा मार्गदर्शन करती है सादर नमन

      हटाएं
  5. प्रिय सखी कामिनी बहुत अच्छा लेख, शब्द नहीं आप के लेख की तारीफ़ में....| वृद्धआश्रम से अपने बच्चों के लिए तरसते माता -पिता, मोहब्बत लुटाने वाले मोहब्बत को मोहताज़ रहते है,
    वृद्धावस्था के , उत्थान के लिए सकारात्मक ऊर्जा से भरा सुन्दर लेख ,आप को बहुत सा स्नेह
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. परिस्थितियों.से समायोजन. का वेहतरीन विकल्प। संवेदनशील। यथार्थ ।

      हटाएं
  6. प्रिय सखी कामिनी बहुत अच्छा लेख, शब्द नहीं आप के लेख की तारीफ़ में....| वृद्धआश्रम से अपने बच्चों के लिए तरसते माता -पिता, मोहब्बत लुटाने वाले मोहब्बत को मोहताज़ रहते है,
    वृद्धावस्था के , उत्थान के लिए सकारात्मक ऊर्जा से भरा सुन्दर लेख ,आप को बहुत सा स्नेह
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार सखी, इतनी सुन्दर और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए ,आप का स्नेह और साथ यूँ ही बना रहे

      हटाएं
  7. जी बहुत सुंदर लेख और सोच है आपकी।

    वृद्धाश्रम जिनकों मिला वे भी किस्मत वाले हैं,यहाँ अपने शहर में ऐसे लो सड़कों पर दिन गुजर रहे है। उनमें हैप्पी मिठ्ठू जी भी हैं। जिनसे में प्रतिदिन सुबह मुलाकात करता हूं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद...... शशि जी ,आपने सही कहा कई बुजुर्गो को तो फुटपाथ ही नसीब होता ,काश हम मिठूठ जी जैसे लोगो के लिए कुछ कर पाते , सादर नमस्कार

      हटाएं
  8. जी बहुत सुंदर लेख और सोच है आपकी।

    वृद्धाश्रम जिनकों मिला वे भी किस्मत वाले हैं,यहाँ अपने शहर में ऐसे लो सड़कों पर दिन गुजर रहे है। उनमें हैप्पी मिठ्ठू जी भी हैं। जिनसे में प्रतिदिन सुबह मुलाकात करता हूं।

    जवाब देंहटाएं
  9. अत्यंत विचारणीय लेख, आज के समाज के सत्य को उकेरते हुए. इस अच्छे लेख की बधाई और आभार!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया ......आप का सादर नमस्कार आप को

      हटाएं
  10. सहृदय धन्यवाद...... रवीन्द्र जी ,मेरी लेख को अपनी संकलन में स्थान देने के लिए ,आभार सादर नमस्कार ...

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत ही प्रभावशाली लेख लिखा आपने कामिनी जी वृद्ध व्यक्ति समाज का मार्गदर्शक होते हैं जिनकी छत्र छाया में हमारे बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं।जिसकी कद्र आज की पीढ़ी कहां करती है।बहुत सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद....... अनुराधा जी ,सही कहा आपने, बृद्ध व्यक्ति समाज के मार्गदर्शक है लेकिन ये भी सत्य है कि जैसे जैसे हम बुढ़ापे की ओर अग्रसर होते है हम अपनी ही कदर करना भूलते जाते है ,हम खुद अपने आप को दयनीय अवस्था में लाते जाते है यही हमारे दुःख की वजह होती है। हमे खुद की कद्र करना सीखना होगा

      हटाएं
  12. बहुत ही सुन्दर एवं विचारणीय लेख....
    सही कहा वृद्धाश्रम को वानप्रस्थ सा लें या बृद्ध अनाथ बच्चों को सनाथ कर सकते हैं जिन्हें जरूरत है उनके काम भी आयें और अपना भी समय पास हो...वाह कामिनी जी आपकी सजग लेखनी से लिखित यह लेख बहुत ही सराहनीय है इतने सुन्दर लेख के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद.........आभार आप का ,सुधा जी हम जो कुछ लिखते है वो अपने जीवन के अनुभव से सीख कर ही लिखते है ,मैंने अनुभव किया है कि -बृद्धो की सबसे बड़ी समस्या एकाकीपन होता है अगर वो दूर कर दे तो वो भी खुश रह सकते है.

      हटाएं
  13. बहुत ही सुन्दर एवं विचारणीय लेख....
    सही कहा वृद्धाश्रम को वानप्रस्थ सा लें या बृद्ध अनाथ बच्चों को सनाथ कर सकते हैं जिन्हें जरूरत है उनके काम भी आयें और अपना भी समय पास हो...वाह कामिनी जी आपकी सजग लेखनी से लिखित यह लेख बहुत ही सराहनीय है इतने सुन्दर लेख के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं....

    जवाब देंहटाएं
  14. सुख और दुःख जीवन के दो पहलू होते हैं जो कभी भी साथ साथ नहीं रहते हैं। ये एक दूसरे के पूरक होते हैं और जब एक रहता हैं तो दूसरा नहीं रहता हैं। इन्हें धूप छाँव, सिक्के के दो पहलुओं की संज्ञा दी जाती हैं।
    हर इंसान के जीवन में सुख और दुःख दोनों का क्रम चलता रहता हैं। धरा पर ऐसा कोई इंसान नहीं हैं जिसने इन दोनों का अनुभव नहीं किया हो। सुखों और दुखों का इंसान से हमेशा से नाता रहा हैं तथा जीवन में इनका एक अलग ही महत्त्व हैं”। बदलते वक्त में जीवटता से भरे माता- पिता सीमित परिवार के चलते बहुत जल्द ही अकेले पड़ जाते हैं आपका ये लेख सकारात्मक ऊर्जा से भरा है सुख और दुःख जीवन के दो पहलू होते हैं बचे आजकल ये भूल जाते है जो वो आज कर रहे है वो कल उनके साथ भी होना है ...वृद्धावस्था पर आपकी सजग लेखनी अत्यंत ही प्रभावशाली है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय संजय जी ,मैं आप के विचारो से पूर्णतः सहमत हूँ ,आपने मेरे लेख को सराहा और उस पर अपनी अनमोल प्रतिक्रिया दी इसके लिए आप का तहे दिल से शुक्रिया उमींद करती हूँ कि आप का साथ और सहयोग यूँ ही बना रहेगा ,सादर नमन

      हटाएं
  15. वृद्ध अवस्था को कैसे व्यवहारिक और सार्थक बनाया जा सकता है आपके आलेख ने बहुत सजग, उत्तम और सहज शब्दों में लिख दिया है ... दरअसल हम अपनी ओलाद को इतना कुछ दे देते हैं की आपेक्षायें स्वयं ही आ जाती हैं ... उनको देते हुए अपने आप के लिए कुछ सहेजना, पैसे की बात नहीं, जीवन की बात कर रहा हूँ जब तक नहीं समझेंगे दुःख में रहेंगे ...
    बहुत ही उम्दा लेखन ....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद .......दिगंबर जी, सादर नमस्कार

      हटाएं
  16. संवेदनशील प्रस्तुति जो हमारी सोई हुई संवेदना को झकझोरकर जगाती है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद सर ,आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से आपार हर्ष हुआ ,सादर नमस्कार आपको

      हटाएं
  17. कामिनी दी, आपकी बृद्धाआश्रम + अनाथआश्रम को जोड़ कर एक खुशनुमा घर की रचना करने की सोच बहुत अच्छी लगी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद ज्योति बहन ,बस ऐसे ही मुझ पर अपना स्नेह बनाए रखेगी

      हटाएं
  18. जी नमस्ते , आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 24 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ......
    सादर
    रेणु

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिल से शुक्रिया सखी इस पुरानी रचना को साझा करने के लिए दिल से आभार

      हटाएं
  19. वाह!प्रिय सखी कामिनी जी ,आपकी सोच को नमन 🙏एकदम सकारात्मकता से भरी ...। अगर ऐसा आशियाना आप बनाएगी तो हम जरूर वहाँ आएंगे ..कितना सुखद पल होगा और अनाथ बच्चों को ढेर सा प्यार मिलूगा ...वाह सखी !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिल से शुक्रिया शुभा जी ,मुझे बेहद ख़ुशी हुई कि आप मेरे विचारों से सहमत ही नहीं हैं बल्कि मेरे साथ भी चलने को रजामंद हैं ,आभार एवं सादर नमन आपको

      हटाएं
  20. प्रिय कामिनी, हमारे कॉलेज की लड़कियों के साथ हम साल में कम से कम एक बार अनाथाश्रम और वृद्धाश्रम जरूर विजिट करते हैं। यह सामाजिक शिक्षा का एक हिस्सा ही है। वहाँ जब वृद्धों के लिए कुछ ले जाते हैं तो वे हमारी खुशी के लिए ले लेते हैं पर उसके बाद अपने पिटारे से निकालते हैं बिस्किट्स, फल, नमकीन और हमारी कॉलेज की बच्चियों से लेने का आग्रह करते हैं। उनके पास बहुत कुछ है सुनाने के लिए....किसी के बेटे ने तो किसी की बेटी ने संपत्ति हड़प ली।बहुत से वृद्ध अच्छे घरों से होते हैं। बार बार हमें यही कहते हैं कि हमसे सिर्फ मिलने आया करो, और कुछ नहीं चाहिए।
    आपका यह लेख समाज की एक बड़ी समस्या का समाधान देता है, बशर्ते उस पर अमल करने संस्थाएँ आगे आएँ।
    बहुत बधाई प्रभावशाली लेखन हेतु।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी ,आप तो बहुत ही अच्छा काम करती हैं ,हमारे छोटे छोटे प्रयासों से उन्हें हम बड़ी बड़ी ख़ुशी दे सकते हैं। मैं भी हर साल होली -दिवाली में चली जाती हूँ ,आपकी इतनी सुंदर समीक्षा के लिए दिल से शुक्रिया ,सादर नमन

      हटाएं
  21. हमारे घर के निकट ही एक वृद्धाश्रम है, जहाँ कई बुजुर्ग महिलायें व पुरुष रहते हैं। कुछ तो अपनी मर्जी से आए हैं कुछ विवश होकर, किन्तु उनकी नियमित दिनचर्या और एक-दूसरे के साथ ने उन्हें जीवन में एक बार फिर खुश होकर जीने का अवसर दिया है। आपका लेख समाज में एक बड़े परिवर्तन की ओर इशारा कर रहा है, यदि बुजुर्गों और बच्चों को एकदूसरे का साथ मिल जाए तो दोनों ही लाभ में रहेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  22. बहुत ही सुंदर, प्रभावशाली और विचारणीय लेख ! साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  23. बहुत मार्मिक भी और समवेदनशील भी |

    जवाब देंहटाएं
  24. मर्मस्पर्शी व बहुत ही सामयिक व प्रगतिशील सोच से लिखा गया आलेख - - second inning को सार्थक व ख़ूबसूरत बनाने की प्रेरणा प्रदान करता है साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सरहनासम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए सहृदय धन्यवाद सर ,सादर नमन

      हटाएं
  25. हृदयस्पर्शी लेख
    साधुवाद 🙏🌹🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सरहनासम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए सहृदय धन्यवाद वर्षा जी ,सादर नमन

      हटाएं
  26. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (०९-०३-२०२१) को 'मील का पत्थर ' (चर्चा अंक- ४,००० ) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी इस पुरानी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय धन्यवाद अनीता जी

      हटाएं
  27. बहुत ही खूबसूरत लेख मैम!
    सबसे ज्यादा दुःख इस बात का है कि जो इस दुनियाँ में हैं हमें लाते उन्हें ही दुनियाँ के सामने लाने में कुछ महान लोग शर्म और खुद की बेज्जती महसूस करते हैं!
    हम सुकून से इस लिए जिसने अपनी सुकूँ की नींद त्याग दी उसकी ही नींद हम वृद्धावस्था में छीन लेते हैं! जिसने वे झिझक,खुशी और गर्व के साथ अपने बच्चे 9 महीने तक गर्भ में रखा उसी माँ के लिए आज उसके घर में जगह नहीं है! होतें है कुछ लोग जिन्हें लगता है प्यार को पैसे से खरीदा जा सकता है! एक वो लोग होते हैं जो सभी वृद्ध लोगों के लिए वृद्धाश्रम खोलते जिसमें अनेकों वृद्ध लोगों को जगह मिल जाती है एक खुद का खून (बच्चे) जिनके पास जगह ही नहीं! घर में जगह देने के लिए दिल में जगह होनी चाहिए! जब दिल में जगह नहीं रहती तो घर में भी नहीं रह जाती! बहुत ही मार्मिक लेख मैम 😭😭😭😭

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिल से शुक्रिया मनीषा,तुम सब तो आज के नौनिहाल हो यकीनन तुम इस दशा को बदल सको

      हटाएं
  28. सार्थक रूप उजागर करता सुंदर लेख।
    कैसे किसी भी नकारात्मक समझी जाने वाली एक विचार धारा से सकारात्मक उर्जा का स्रोत बहाता जा सकता है ।
    कैसे हर उम्र को सजीव और जीने योग्य बनाया जा सकता है ।
    हर पहलू पर आपने गहन सार्थक चिंतन दिये हैं कामिनी जी।
    आपका लेख एक सुंदर आधार दे सकता है समाज में एक पुरे वर्ग को जो बेकार समझा जाता है।
    बहुत बहुत बधाई इस आलेख को लिखने के लिए।
    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय धन्यवाद कुसुम जी ,मेरे विचारों को आपका समर्थन मिला हार्दिक प्रसन्नता हुई,दो साल से इसी तैयारी में लगी हुई कि -अपने विचारों को जमीनी जमा पहना सकूं,देखे कब तक कर पाती हूँ,आपका दिल से आभार एवं सादर नमन

      हटाएं
  29. मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय धन्यवाद सर,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  30. सहृदय धन्यवाद सर,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं

kaminisinha1971@gmail.com

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...