शनिवार, 18 सितंबर 2021

"गणपति बप्पा मोरया"

  



गणपति बप्पा मोरया ,मंगलमूर्ति मोरया 


    इन दिनों पुरे देश में गजानन की धूम मची है। घर-घर में गणपति पधारे है। बड़ी श्रद्धा से उनका श्रृंगार कर भक्तिभाव से उनकी पूजा-अर्चना  की जा रही है। भक्तिभाव का रंग चहुँ ओर छाया हुआ है। सभी को पूर्ण  विश्वास है कि-गणपति हमारे घर पधारे है तो हमारे घर की सारी दुःख-दरिद्रता अपने साथ लेकर जायेगे,हम सबका कल्याण करेंगे,हमारे घर में खुशियों का आगमन होगा। 

     पहले तो ये त्यौहार सिर्फ महाराष्ट और गुजरात में ही मनाते थे लेकिन अब तो पुरे देश ये त्यौहार पुरे धूम-धाम और श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है। आखिर क्यूँ न मनाया जाये गणपति और कान्हा तो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के सबसे पसंदीदा देव है। सच,गणपति के बाल मनमोहक छवि को देख मन पुलकित हो उठता है,ऐसा लगता है कि-घर में एक नन्हा-मुन्ना पधारा है और पूरा परिवार उसके स्वागत सत्कार में जुटा है। गणपति ग्यारह दिनों के लिए आये है,लेकिन हर घर से उनके जाने का वक़्त अलग-अलग है। अपनी-अपनी  श्रद्धा और सहूलियत के मुताबिक ३-५-७-९ या ११ दिन रखकर उन्हें विदा करते हैं। 

विदाई कैसे होती है ?ढोल-नगाड़ो के साथ नाचते-गाते,जयकारा लगाते,पटाखें फोड़ते हुए उन्हें नदी,तालाब या समुन्द्र में विसर्जित करते हैं। श्रद्धा और भक्ति का ये अनूठारूप सिर्फ हमारे देश में ही देखने को मिलता है। 

परन्तु,मेरा मन हर पल मुझसे कई सवाल करता है-

क्या इस आदर-सत्कार से गणपति खुश होते होंगे ?

क्या इस धूम-धड़ाको  से ही गणपति हम पर प्रसन्न होंगे ?

क्या इन धूम-धड़कों से उनके भक्तों का एक वर्ग जो लाचार या बीमार है त्रस्त नहीं होगा ?

क्या पटाखें जलना ही भक्ति और ख़ुशी को व्यक्त करने का माध्यम है ?

क्या अपनी सुंदर प्रकृति को प्रदूषित होते देख गणपति का मन विचलित नहीं होता होगा ?

क्या विसर्जन के वक़्त समुन्द्र और नदियों में टनों कचरा फैला देख गणपति की पावन मूर्ति तड़पती नहीं होगी ?

क्या समय के साथ हम अपनी त्योहारों की पवित्रता और उदेश्य को बरकरार रख पा रहें हैं ?

क्या समय के अनुसार हमें अपनी धर्मिक त्योहारों में संसोधन नहीं करना चाहिए ?

क्या भक्ति सिर्फ और सिर्फ दिखावा भर है या धर्म के ठेकेदारो की झूठी शान ?

क्या कोरोना जैसी महामारी के बीच इन सामाजिक जलसों का आयोजन कर हम जो अपनी मौत को खुद न्यौता दे रहें है उसे देख गणपति हमें आशीर्वाद दे रहे होंगे ?

क्या अपने जाने के बाद अपने भक्तों के बीच मौत को तांडव करते देख गणपति का मन व्यथित नहीं होगा ?

क्या हमारे इस मूर्खों वाली मनस्थिति को देखकर गणपति हमारा दुःख दूर कर पाएंगे ?

मेरी आत्मा तो कहती है _"गणपति कदापि हमसे खुश नहीं होंगे और हमारा दुःख दूर करने में भी खुद को असमर्थ पाएंगे "

मेरी दुआ भी यही होगी कि-"हे !गणपति बप्पा इस बार आये है तो अपने भक्तों को थोड़ी बुद्धि का दान देकर जाए ताकि वो आपकी इस सुंदर सृष्टि का संरक्षण कर सकें और अगले वर्ष जब आप आये तो आप भी खुलकर साँस ले पाये । "

आप की आत्मा क्या कहती है आप जाने........



मंगलवार, 31 अगस्त 2021

"धरती की करुण पुकार"



हे! मानस के दीप कलश 

तुम आज धरा पर फिर आओ।

नवयुग की रामायण रचकर 

मानवता के प्राण बचाओ।।


आज कहाँ वो राम जगत में 

जिसने तप को गले लगाया ।

राजसुख से वंचित रह जिसने 

मात-पिता का वचन निभाया।। 

 

सुख कहाँ है वो रामराज्य  का  ?

वह सपना तो अब टूट गया ।

कहाँ है राम-लक्ष्मण से भाई ?

भाई से भाई अब रूठ गया।।


सुन लो अब अरज ये मेरी

मैं धरती जननी हूँ तेरी।

दे दो, ऐसे राम धरा को 

 भ्रष्टाचार जो दूर भगा दें ।

दे दो, ऐसे कृष्ण मुझे तुम 

जो द्रोपदी की लाज बचा लें।।


दे दो, भरत-लखन से भाई 

जो भाई का साथ निभा दें।

लौटा दो, वो अर्जुन तुम मुझको

जो धर्मयुद्ध का मर्म समझा दे‌ ।।


हे!मेरे मानस पुत्रो

मेरी करुण पुकार तुम सुन लो।

दहक रहा है  मेरा  आँचल

आओ, धरा की लाज बचा लो।।


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

"कल चमन था......"

     


 


  मत रो माँ -आँसू पोछते हुए कुमुद ने माँ को अपने सीने से लगा लिया। कैसे ना रोऊँ बेटा...मेरा बसा बसाया चमन उजड़ गया....तिनका-तिनका चुन कर...कितने प्यार से तुम्हारे पापा और मैंने ये घरौंदा बसाया था....आज वो उजड़ रहा है और मैं मूक बनी देख रही हूँ । ऐसा क्यूँ सोचती हो....ये सोचों ना एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बस रहा है...कुमुद ने माँ को ढाढ़स बंधाना चाहा। पर...वो मेरा घरौदा नहीं होगा न-कहते हुए माँ सिसक पड़ी। 

    किसी भी चीज़ से इतना मोह नहीं करते माँ....कल तुम्हारा था...आज इनका है...यही होता रहा है...यही होता रहेगा....फिर क्यों रोना - एक बार फिर कुमुद ने माँ को समझाने का प्रयास किया जब कि पिता के उजड़ते बगियाँ को देख उसका दिल भी रो रहा था...उससे भी दूर हो रही थी उसकी बचपन की यादें....भाई-बहनों के साथ गुजारे ठिठोली भरे दिन....उनका खुद का ही नहीं उनके  बच्चों की किलकारियाँ भी गुंजी थी इस घरौंदा में....पापा के जाते ही कैसे तहस-नहस हो गया। उसका दिल सैकड़ो सवाल कर रहा था-क्यों होता है ऐसा....क्यों बाहर से जिन सदस्यों को प्यार से अपना बनाकर हम घर लाते हैं....और ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें अपना घर ही नहीं जिगर के टुकड़े को भी सौप देते हैं....वही उस घर को लुट लेते हैं....क्या ज्यादा की ख्वाहिश होती है उन्हें.....जो वो एक माँ का दर्द नहीं समझते....मिट्टी-गारे के मकान को ही नहीं... चीर डालते हैं  माँ के दिल को। सवालों में उलझी...माँ को सीने से लगाये... खुद को संभालती हुई...कुमुद,  माँ को उलटे-सीधे तर्क से समझाने का प्रयास कर रही थी। 

माँ ये मिट्टी-गारे का घर है....क्यों रोना उसके लिए -कुमुद ने फिर माँ को समझाना चाहा। हाँ,बेटा मैं भी समझती हूँ.... तुम क्या समझ रही हो मुझे इस घर का  दुःख है.....मैंने कभी इन सुख-सुविधाओं के चीज़ों का मोल नहीं किया...मेरी सम्पति...मेरा गुरुर.....मेरे बगियाँ के फूल....तो बस मेरे बच्चें थे....जो जहाँ भी रहते थे महकते-चहकते रहते थे .....आज, मेरी सम्पति बिखर गई...मेरा गुरुर टूट गया....मेरे बगियाँ के फूल बिखर गए और...लोगों को तमाशा देखने का मौका मिल गया....कहाँ चूक हो गई मुझसे..... कहते हुए माँ फुट-फुटकर रोने लगी। 

तभी कही से एक गाने की आवाज़ सुनाई दी..... 

मुझको बर्बादी का कोई गम नहीं 

गम है बर्बादी का क्यूँ चर्चा हुआ 

कल चमन था, आज एक सहरा हुआ 

देखते ही देखते ये क्या हुआ ?

कुमुद ने महसूस किया- ये आवाज़ माँ के दिल से आ रही थी जिसे सुन कुमुद भी आँसू नहीं रोक पाई। 


"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...