रविवार, 11 जुलाई 2021

"खुद की तलाश जारी है..... "

 





     अक्सर कहा जाता है कि- "हर आदमी अकेला जन्मता है और अकेला ही मरता है।" मैं नहीं मानती.....हकीकत में वो उन सभी लोगो के साथ मरता है...जो उसके भीतर थे...जिससे वो लड़ता था...प्यार करता था। मरने वाला अपने भीतर एक पूरी दुनिया लेकर जाता है।कहाँ मुक्त कर पाता  है वो खुद को उन बंधनों से जिसमे वो आजीवन बंधा रहता है। वो अपने साथ-साथ अपने अपनों से जुडी वो सारी यादें...वो सारे रंजो-गम...वो सारी खुशियाँ और प्यार भी लेकर चला जाता है....उसका अपना तो कुछ होता ही नहीं है न... 

तभी तो किसी के मरने के बाद हमें भी अपने भीतर एक खालीपन महसूस होता है  क्योंकि हमें लगता है कि उसके साथ हमारा भी एक हिस्सा हमेशा के लिए खत्म हो गया। दुसरो के मरने पर हमें  जो दुःख होता है वो भी थोड़ा बहुत स्वार्थी किस्म का दुःख ही होता है क्योंकि वो अकेला नहीं जाता हमारा एक हिस्सा भी साथ ले जाता है। 

हाँ,सच में ले जाता है...अब देखे न माँ-बाप के गुजरने के बाद हमारे जीवन में जो बच्चें का किरदार होता है वो तो हमेशा के लिए खत्म हो जाता है न....खत्म हो जाता है उनके साथ हमारी मासूमियत....जो उनके सानिध्य में जाते ही महसूस होने लगता था। हम भी इसीलिए रोते है कि-अब इस जन्म में हम किसी को माँ-पापा कहकर नहीं बुला पाएंगे। 

मुझे महसूस होता है कि-हमारे जीवन में हर एक के साथ हमारा एक खास किरदार होता है....उस व्यक्ति की अच्छाइयों या बुराईयों से कही ना कही हमारा भी एक अंश जुड़ा होता है....और उसके जाते ही हमारे भीतर का वो हिस्सा खाली हो जाता है। 

 हमारे भीतर हमारा तो कुछ होता ही नहीं...सब कुछ औरों का होता है।कभी एक पल के लिए हम कल्पना करें कि -आने वाला पल मेरा आखिरी पल है और एक बार पलट कर अतीत की और देखें...... 

जब हम अपने अतीत के तहों को प्याज के छिलके की तरह एक-एक करके उतारते जाएगें तो देखेंगे....सब अपना-अपना हिस्सा लेने आ गए है। माँ-बाप,भाई-बहन,दोस्त-रिश्तेदार,पति-बच्चें, सारे छिलके दूसरों के हिस्से का निकलेगा  आखिर में बची  एक सूखी डंठल ही हमारे हाथ रह जायेगी जो किसी काम की नहीं रहती जिसे ही मृत्यु के बाद जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है। हाँ....वो सुखी डंठल भी खाली कहाँ जा पाती....वो भी तो उन छिलकों की महक अपने भीतर लिए ही जाती है। 

वैसे ही जब मनुष्य जन्म भी लेता है तब भी उसके अंदर कितने लोग....कितनी भावनाये छिपी होती है...जब बच्चा जन्म लेता है तो अपने आप हँसता है और खुद ब खुद रोने भी लगता है उस वक़्त कहते हैं कि-वो अपने पुराने रिश्तो से जुडी ख़ुशी और दर्द को जी रहा है.....तो अकेला कहाँ आता है वो ?

हम प्रेम और रिश्तो के बंधनो में इस कदर बँधे होते हैं कि -मरने के बाद भी नहीं छूट पाते। तभी तो हिन्दू धर्म में कहते हैं कि-"मरता शरीर है आत्मा तो अमर होती है और वो नया शरीर धारण कर बार-बार उसी परिवेश में जन्म लेती जिससे वो जुडी होती है।" हमने अक्सर अपने घरों में ये कहते सुना होगा "ये जो बच्चा जन्मा है न वो फलां की तरह दिखता है या आचरण करता है।" शायद,वो होता है तभी तो परिवार में भी किसी एक के साथ ऐसा जुड़ाव होता है जैसे जन्म-जन्म का साथ हो। अपनों के साथ ही क्यूँ....कभी-कभी तो किसी अनजाने के साथ भी जन्म-जन्म का साथ महसूस होता है। 

क्यूँ होता है ऐसा ? हमारा अपना कुछ क्यूँ नहीं होता ? 

वो एक गीत के बोल है न-

"दिल अपना और प्रीत पराई 

किसने है ये रीत बनाई "

सब ठीक है...अच्छा लगता है इस पराई प्रीत में जलना मगर...अपने आस्तित्व का क्या ?

अक्सर प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से कहते हैं -"तू मुझमे मुझसे ज्यादा है "

क्यूँ ज्यादा है ?खुद में ही हम खुद क्यूँ नहीं होते ?

खुद में खुद की तलाश जारी है..... 



गुरुवार, 8 जुलाई 2021

"तो क्या हुआ---- "

 


खो गई मंजिल

 भटक  गया पथिक 

 तो क्या हुआ ----?

पहुँचने की लगन तो है। 

ढल गई शाम

 घिर गया तम 

तो क्या हुआ ----?

प्रभात आगमन की आस तो है। 

उड़ गए पखेरू 

रह गया पिंजरा रिक्त 

तो क्या हुआ ----?

आत्म-अमरता का विश्वास तो है। 

बिछड़ गए तुम

 टूट गया दिल 

तो क्या हुआ ----?

तुम्हारे  जीवित स्पर्श का एहसास तो है।  

झड़ गए पत्ते 

छा  गया मातम 

तो क्या हुआ ----?

बासंतिक वयारों का शोर तो है। 

सूख गया सागर 

बढ़ गई प्यास 

तो क्या हुआ ----?

प्रेम अश्रु का प्रवाह तो है। 

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सोमवार, 21 जून 2021

"योग को अपनायेंगे रोग को हराएंगे"



" 21 जून "विश्व योगदिवस 

    "योग" हमारे भारत-वर्ष की सबसे अनमोल धरोहर है।  वैसे तो "योग की उत्पति" योगिराज कृष्ण ने किया था मगर जन-जन तक पहुंचने का श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है उन्हें ही योग का जनक कहा जाता है।  "योग" अर्थात जुड़ना या बंधना। ये बंधन शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाने का एक साधन है।आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बँध, षट्कर्म और ध्यान के माध्यम से ये योग की प्रक्रिया होती है। "योग क्या है" इसे समझाने की तो आवश्यकता ही नहीं है, माने ना माने मगर जानते सब है कि योग  हमारे भारत-वर्ष की सबसे प्राचीनतम पद्धति है जिस पर अब तक मार्डन साइंस रिसर्च ही कर रहा है और हमारे ऋषि -महर्षियों ने हजारों वर्ष पहले ही इसकी उपयोगिता सिद्ध कर हमें सीखा गए थे मगर हमने इसे ये कहते हुए कि-ये तो साधु-संतो का काम है, बिसरा दिया और कूड़े के ढेर में फेक दिया था।आजादी के बाद से ही "ब्रांडेड" छाप को ही महत्व देने की हमारी आदत जो हो गई है। तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयास से अब इसे "ब्रांडेड" कर दिया गया।शायद अब इसे अपनाने में हमें शर्म नहीं आएगी। 

     कुछ मान्यवरों  के अमूल्य योगदान से जिसमे सबसे प्रमुख योगगुरु रामदेव जी और श्री श्री रविशंकर जी है इसे आज के परिवेश में भी जीवित रखने का निरंतर प्रयास चलता रहा।  लेकिन विश्व स्तरीय प्रतिष्ठा इसे हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने दिलवाई जिनके अपील पर  27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को अमेरिका द्वारा मंजूरी मिली, सर्वप्रथम इसे 21 जून 2015 को पूरे विश्व में "विश्व योग दिवस" के नाम से मनाया गया।चुकि यह दिन वर्ष का सबसे लम्बा दिन होता है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है इसीलिए इस तारीख का चयन हुआ। 

   "योग या बंधन" सिर्फ तन-मन को नहीं जोड़ता ये आत्मा को परमात्मा से भी जोड़ता है। योग मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है, ये सिर्फ स्वस्थ शरीर के लिए ही नहीं वरन स्वस्थ मानसिकता या  मानसिक अनुशासन के लिए भी कारगर है ये सारी बातें अब वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित हो चुकी है । मगर आज के परिवेश में किसी को "बंधन" मंजूर नहीं, हर एक बंधन मुक्त रहना चाहता है।आज इंसान नहीं समझता कि-बंधन ही जोड़े रखता है और मुक्त होना बिखराव है तभी तो तन-मन बिखर गया है,रिश्ते-नाते  बिखर गए है देश-समाज बिखर गया है प्रकृति और जलवायु बिखर गए है। किसी का किसी से कोई बंधन ही नहीं रहा। ये बिखराव हमें यहां तक ले आई है कि - आज हम त्राहि-माम् कर रहे हैं। 

   पिछले वर्ष से ही "कोरोना काल " के जरिए प्रकृति हमें समझाने की कोशिश कर रही है कि -हमारे देश की सभी पद्धतियां,सभी नियम और संस्कार उच्च-कोटि की थी जो हमें सहजता से जीवन जीना भी सीखती थी और रश्तों को संभालना भी। "कोरोना काल"में ये काम तो बहुत अच्छा हुआ, सब को इस बात का अनुभव तो बहुत अच्छे से हो गया। अब भी हम समझकर भी  ना-समझी करे तो हमारा भला राम भी नहीं कर सकते।

    प्रकृति चेता गई है, थोड़े दिनों की मोहलत भी दे गई है "योग को अपनाओं रोग को भगावो" ये सीखा गई है।" प्रकृति को सँवारों और सांसों को सहेज लो" समझा गई है। यदि अब भी हम ना समझे तो अभागे है हम और हम जैसे अभागों को कोई हक नहीं बनता जो किसी पर भी दोषारोपण करें। ना समाज पर,ना सरकार पर,ना डॉक्टर-बैध पर और ना ही भगवान पर। 

   "बंधन" सांसों का जीवन से,तन का मन से,सृष्टि का प्रकृति से,मानव का मानवता से और आत्मा का परमात्मा से , जब तक है हमारा आस्तित्व है खुल गया सब बिखर जायेगा और फिर विनाश निश्चित है। 

    ये भी सत्य है कि -पिछले कुछ दिनों में बदलाव तो आया है लोगो ने योग को अपनाया है, कुछ प्रयासरत है ,कुछ ना समझे है जो समझकर भी नहीं समझते उन जैसो से तो कोई अपेक्षा रखनी ही नहीं चाहिए मगर जो भी प्रयासरत है उन्हें प्रोत्साहित जरूर करना चाहिए। 

आइये आज इस योग दिवस पर हम भी प्रण ले कि -"योग को अपनायेंगे रोग को हराएंगे"

फिर बाकी जीवन तो खुद-ब-खुद सँवर जायेगा.....



"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...