शनिवार, 2 मई 2020

" शोहरत "


     शोहरत ,प्रसिद्धि ,प्रतिष्ठा एक व्यक्ति के जीवन में ये शब्द बड़े मायने रखते हैं और इस" शोहरत रुपी फल" को खाने के लिए सभी लालायित भी रहते हैं। लेकिन ये फल खाना तो दूर उसे पाना भी आसान नहीं और अगर पा लिया तो खा कर पचाना भी आसान नहीं। शोहरत बाजार में बिकती तो हैं नहीं इसे खुद कमाना पड़ता हैं। इसे पाने  के लिए पहले खुद में दृढ़ इच्छाशक्ति का बीजारोपण करना होता हैं फिर अथक मेहनत से कर्म कर उसे सींचना होता हैं ,जब ये बीज अंकुरित होने को होता  हैं तो उस पल प्रकृति आपकी परीक्षा लेती हैं और  वक़्त बे वक़्त के आंधी -तूफान जैसी बिपरीत परिस्थितियां  आती रहती हैं ,कभी कभी तो ओला वृष्टि भी हो जाती हैं। उस पल इन परस्थितियों से घबराये बिना ,अपनी हिम्मत और अपनी हौसलो की मजबूत कर्मठ बाहों में उस अंकुरित बीज को समेटकर सुरक्षित रखना होता हैं तब कही जाकर वो बीज पेड़ बनता हैं और फिर उस पर शोहरत के फल लगते हैं।
    अथक  प्रयास के बाद जब  शोहरत मिल भी जाती  हैं तो भी उस फल का स्वाद मीठा तभी होगा जब उसको पाने के बाद आपको आत्मसंतुष्टि मिले वरना वो फल भी कड़वा ही लगेगा।उस शोहरत को संभालना भी बेहद जरुरी होता हैं उसका " मद " यदि सर चढ़ गया तो वो नासूर बन जाता हैं। शोहरत के फल को पचाना भी तभी सम्भव होगा जब आप अपने पैर जमीन पर टिकाए रहेंगे ,साथ ही साथ सयम,विनम्रता  और सज्जनता बनाए रखेंगे।

    हमें तो सिर्फ व्यक्ति विशेष की प्रसिद्धि दिखाई देती हैं उसके सफर की कठिनाईयां  नहीं। शोहरत और प्रसिद्धि पाने वाले कई महान व्यक्ति की जीवन गाथा जानने के बाद उनके हौसले के प्रति नतमस्तक होना पड़ता हैं।
संगीत के सम्राट कहे जाने वाले नौशाद जी ,जिनके नाम पर मुंबई में एक मार्ग भी  हैं,  उन्होंने भी एक दिन में ये उपाधि अर्जित नहीं की थी। 16 साल के कठिन सफर से उन्हें गुजरना पड़ा था।  16 साल अपने लक्ष्य को पाने के लिए वो सघर्षरत रहें। कहते हैं- उनके द्वारा संगीतबद्ध की हुई  उनकी पहली फिल्म " बैजू बाबरा "ने  ब्रॉड -वे  सिनेमा हॉल में अपनी गोल्ड जुबली मनाई। उसी  ब्रॉड-वे सिनेमा हॉल में उस सफलता का  जश्न मनाया जा रहा था,  उस वक़्त सारे पत्रकार उन्हें ढूँढ रहे थे और  नौशाद जी उसी सिनेमा हॉल के  बालकनी में खड़े होकर रो रहे थे। तब फिल्म के डायरेक्टर विजय भट्ट जी ने उनसे पूछा - " क्या ये ख़ुशी के आँसू हैं ?"  तो नौशाद जी उस बालकनी के सामने से जाती चौड़ी सड़क के उस पार फुटपाथ की ओर इशारा करते हुए बोले -" विजय जी ,उस पार के फुटपाथ से इस पार आते -आते सोलह साल लग गए ,सोलह साल पहले कई सालो तक वही  फुटपाथ ही मेरा घर था जहाँ कई राते मैंने सिर्फ पानी पीकर काटी हैं,जहाँ पर जागती आँखों से यहाँ तक आने के सपने देखता था,मगर ना कभी हिम्मत हारी ना आँसू बहाए ,ये वही आँसू हैं जो उस वक़्त बहा नहीं पाया था। "

" शोहरत " जिसे पाने के लिए कई त्याग करने होते हैं और कितनी ही  कठिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता हैं तब कही जाकर हम इसका रसपान कर पाते हैं। 

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

साथ हो माझी तो किनारा भी करीब है....



     मन थोड़ा विचलित सा हो रहा था.... शायद, अकेलेपन से घबड़ा रहा था.... सोची,  थोड़ी देर छत पर जा कर खुली हवा में  बैठती हूँ.... शायद,  थोड़ा अच्छा लगे। छत से समुन्द्र का नजारा भी सुंदर दिखता है... मैं कुर्सी पर बैठी-बैठी समुन्द्र की लहरों को देखती रही... पता नहीं,  क्या ढूँढ रही थी उसमे....शायद, एक झूठी उम्मींद सी थी कि - इसमें से कोई देवदूत बाहर आएगा और मुझे मेरी सारी समस्याओं से निजात मिल जायेगी । मेरी आँखें  पूरी समुन्द्र का मुआयना कर जैसे,  सचमुच कुछ ढूँढ रही थी। तभी लहरों पर हिचकोले लेती एक नाव दिखाई पड़ी... बिना नाविक के ...शायद,  किसी मछुआरे की नाव डोर से टूटकर समुन्द्र में बह आई थी। लहरों के साथ वो अल्हड़ सी नाव.... कभी इधर डोलती कभी उधर। लहरों और हवाओं का साथ पाकर कभी-कभी वो किनारे तक आने में सफल होती दिखाई पड़ रही थी....मगर,  जैसे लगता कि- अब तो वो किनारे पर आ ही जाएगी... तभी कोई बिपरीत लहर आकर उसे फिर से किनारे से दूर कर देती। उसे देख मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी ...क्या ये नाव किनारे तक आ पायेगी ? दिल ने उसके लिए दुआ भी करनी शुरू कर दी....काश,  ये नाव किनारे तक सुरक्षित पहुँच  जाती... तो एक मछुआरे का नुकसान होने से बच जाता। पता नहीं कैसे,उस नाव को देखते-देखते मुझे ये लगने लगा जैसे वो नाव नहीं "मैं" खुद हूँ। मेरी जीवन नईया भी तो ऐसे ही डगमग डोल रही है...जब भी अथक प्रयास कर,  मैं अपनी मंजिल तक पहुँचने को होती हूँ... तभी कोई ना कोई बिपरीत परिस्थितियों  की लहर मुझे  धकेलती हुई फिर से मझधार में ला खड़ी करती है और "मैं" फिर से किनारे तक पहुँचने के जुगत में लग जाती हूँ....फिर से हिम्मत जुटती हूँ और फिर से एक नई शुरुआत करने को विवश हो जाती हूँ। क्या , इस नाव की तरह मैं भी हिचकोले ही खाती रहूँगी..... मुझे, अपना किनारा  कभी मिलेगा भी या नहीं?  अब तो मेरी उत्सुकता और बढ़ गई... ऐसा लगने लगा जैसे, अगर ये नाव किनारे पर आ लगेगी तो,  एक- न -एक  दिन अवश्य मैं  भी अपनी मंजिल पा ही लूँगी।
घंटों मैं  बैठी,  नाव को देखती रही.... नाव किनारे पर आने में असमर्थ होती और मेरा दिल बैठने लगता ..तभी दूर से एक और नाव आती दिखाई दी.... उसकी चाल देखकर लग रहा था वो बिना माझी  की नाव नहीं है... उसकी पतवार किसी ने सम्भाल रखी है....वो नाव धीरे-धीरे करीब आती गई... माझी ने मझधार में डोलती नाव पर कुछ काँटे जैसा फेका जिससे वो नाव माझी के हाथ में थमी उस मजबूत डोर से बँध गई , माझी उस नाव को साथ लेकर किनारे की तरफ बढ़ने लगा। दोनों नाव सही सलामत किनारे आ लगी थी। मेरी जान में जान आई... ऐसा लगा जैसे मुझे किनारा मिल गया हो। समझ में आ गया था कि -यदि माझी साथ हो तो नाव को किनारा जरूर नसीब होता हैं । मेरा माझी  भी तो हर पल मेरे साथ हैं... भले ही वो मुझसे दूर सही... मगर, एक मजबूत डोर से उसने मुझे खुद से बाँध रखा हैं....फिर,  मैं क्युँ डर रही हूँ ... देर से ही सही.... मुझे भी एक-न -एक दिन किनारा जरूर मिलेगा ....जब,  साथ हो माझी तो  किनारा भी करीब है....

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

" भाग्य और कर्म "



" अरे दी ,तुम करती रहो अपने कर्मो पर भरोसा... मैं तो प्रवल भाग्यशाली हूँ ..अब देखो ना तुम मेरा नोट्स बनाती हो और मैं रटा मारकर परीक्षा में लिख आती हूँ और पास हो जाती हूँ ..क्या करना हैं मेहनत करके पास ही होना था न सो हो गई...तुम इतने मेहनत करके तरह तरह के डिजाइन वाले ड्रेसेस बनाती हो और मैं बिना मेहनत किए ही तुम्हारे बनाए कपड़े पहन कर मज़े करती हूँ।   " कर्म में बहुत शक्ति हैं हमें हमेशा  कर्मशील ही होना चाहिए "-  रीतू  हमेशा रिया को  समझाने की कोशिश करती। रिया  और रीतू  दो बहनें मगर , उनके विचारों में ये भेद हमेशा  रहा। बचपन गुजारा  दोनों जवान हुए ,शादी -व्याह हुआ अपने अपने घर को गए। रिया  को उसके भाग्य ने हर वो चीज़ दिया जिसकी उसे चाह थी ,सुख संम्पन ससुराल और बहुत प्यार करने वाला पति भी। रीतू को मिला सिर्फ अकेला पति जिसके ना आगे कोई ना पीछे और प्यार तो शायद उसके नशीब में था ही नहीं।  दोनों की शादी पिता ने बहुत खोज -बिन कर ही किया था ....मगर,  शायद रिया के शब्दों में " अपना अपना भाग्य।"
    रीतू का जीवन बचपन से ही सघर्षरत रहा और आगे भी संघर्ष जारी ही रहा। कर्मठ थी ..अपने कर्मो पर कुछ ज्यादा ही विश्वास था उसे ... सो हर संघर्ष में जीतती भी गई। ये अलग बात थी कि -हर सघर्ष में उसे असीम मानसिक और शारीरिक पीड़ा से गुजरना पड़ा ...मगर वो थकी नहीं कभी। जहाँ एक तरफ रीतू अपने जीवन में एक एक कदम चलकर स्थायित्व लाने की कोशिश में जुटी रही, वही रिया  सुख सम्पनता में रत रही , यहाँ तक कि -अक्सर रीतू के  हिस्से की ख़ुशी पर भी उसी का अधिकार हो जाता। अक्सर, वो अपने पति के प्यार को भी रिया के  हिस्से में जाती देखती रही ,लेकिन रीतू  कभी भी इसका शिकवा तक  किसी से नहीं करती।

   कई बार रीतू के जीवन के दुखों को देख रिया व्यंगात्मक लहजे में कह देती ' दी,तुमने  तो इतनी पढाई -लिखाई की ..तुम इतनी गुणी हो ,कर्मठ हो मगर... क्या फायदा ...दी,  ये सत्य हैं - " जीवन में सुख भाग्य से मिलता हैं " रिया की बाते सुन रीतू थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ जाती ...लेकिन,  अगले ही पल खुद को संभाल लेती और खुद को ही समझाने लगती " क्या हुआ जो मेरे हथेली में भाग्य रेखा नहीं ...मैं अपने कर्मो से अपना भाग्य बनाऊँगी " वक़्त गुजरता रहा अपनी सोच ,अपनी समझदारी से रीतू ने  अपना एक छोटा सा आशियाना बनाया ,पति की आमदनी कम थी इसलिए सिर्फ एक बच्चे की माँ बनी ताकि,  उसे अच्छी परवरिश दे सकें, अपने धैर्य ,सहनशीलता और स्नेह से पति के दिल को भी जीतने की कोशिश करती रही।


   एक तरफ जहाँ रीतू अपने कर्मों से अपने भाग्य में खुशियाँ लिखने के  प्रयास में लगी रही वही रिया अपने भाग्य के नशे में चूर अकर्मण्य होकर एक- एक करके हर सुख खोती जा रही थी। सास -स्वसुर ,ननद -देवर से भरेपूरे परिवार में भी वो उनका स्नेह जीतने में असफल रही ....पति  जो बेहद प्यार करता था मगर कब तक,  उसकी आवश्यकताओं का आप ख्याल नहीं रखोगे तो उसका प्यार स्थाई नहीं रह पाएगा। धीरे धीरे रिया के जीवन में  दुखों ने दस्तक देनी शुरू कर दी ...पति गलत रास्ते पर चलता चला गया और नशे का आदि हो गया ....आमदनी खत्म हो गई तो अय्याशी भी जाती रही और उसके जीवन को दुखों ने घेर लिया। उन  दुखों से लड़ने की क्षमता रिया में तो थी नहीं सो,  अपने दुखों का रोना रो रोकर वो मायके वालो को परेशान करने लगी और  शायद उसके  भाग्य ने भी उसका साथ दिया।  ससुराल ने साथ छोड़ा.... तो माँ -बाप भाई बहनों ने उसका हाथ थाम लिया .....खुद रीतू ने ही उसे सम्भाल लिया और उसे आर्धिक सहायता भी दी और मानसिक सुकून भी खुले दिल से दिया ... जबकि , रीतू जब मुसीबतों से दिन रात जूझ रही थी तो वही परिवार वालों ने  उसे कभी भी सहारा नहीं दिया... यहाँ  तक कि-  रिया ने तो कभी एक संतावना के बोल तक नहीं बोले। ऐसा नहीं था कि -परिवार वाले रीतू को  प्यार नहीं करते थे... लाड़ली थी वो सबकी,  क्योँ कि -रीतू दुःख में होते हुए भी परिवार के हर सदस्य का बहुत ख्याल रखती थी।  मगर,  रीतू के दुःख कभी किसी को नजर ही नहीं आए या शायद,  उसने  कभी अपने दुखों का रोना किसी के आगे नहीं रोया और कोई मदद के लिए आगे नहीं आया या रिया के शब्दों में शायद... रीतू के भाग्य में ही किसी का सहयोग नहीं लिखा था।


    रिया को सबने सहयोग देने की भरपूर कोशिश की मगर..  शायद , भाग्य अपना रंग बदल रहा था या उसके कर्म उसका भाग्य लिख रहा था।  रिया के पति  आसाध्य रोग से पीड़ित हो उसे तीन बच्चो के साथ बेसहारा छोड़ हमेशा हमेशा के लिए चले गए। रिया के भाग्य में एक अधूरापन आ गया ..एक पल को सबको लगा कि -रिया अब क्या करेगी ...बच्चो का जीवनयापन कैसे करेगी मगर ...यकीनन, वो  भाग्यशाली तो थी,  जिस ससुराल वालों ने उसे छोड़ दिया था उन्होंने ही उसे हाथों हाथ उठा लिया ,रिया के जीवन में कोई आर्धिक तंगी नहीं आई जहाँ तक मानसिक ख़ुशी ....तो शायद , उसके भाग्य में दूसरों के हिस्से की भी ख़ुशी मिलना लिखा रहा और वो उसे किसी ना किसी बहाने मिलता रहा।


     और कर्मों पर अटल रहने वाली रीतू अपने अथक प्रयास से अपने जीवन में ही नहीं दूसरों के जीवन में भी स्थायित्व लाती रही।  मगर, शायद उसके भाग्य में सुख और ख़ुशी  लिखा ही नहीं था। दुनिया के नजर में रिया दुःख की मारी थी.. लेकिन,  भाग्य उसे वो सब कुछ दे रहा था जो एक इंसान को खुश होने के लिए चाहिए। दूसरी तरफ रीतू,  दुनिया के नजरों में उसके पास सबकुछ था और वो सफल भी  दिख रही थी ,मगर सबकुछ होते हुए भी रीतू के हाथ रीते थे।" ख़ुशी और सुख " यानि प्यार और आर्धिक सम्पनता रीतू को जीवन में कभी नहीं मिला और अकेलेपन से तो रीतू का  चोली दामन का साथ था जो ताउम्र नहीं छूटा।

 तुलसीदास जी ने तो  कहा हैं -
"सकल पदारथ एहि जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाही "

     और रीतू सारी उम्र इसी का पालन करती रही फिर - " रीतू के हाथ रीते क्योँ रहें ?"

     मेरे समझ से तो रीतू के हाथ खाली नहीं थे ....माना,  रीतू के भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया और ...भले ही उसके जीवन में प्यार का अभाव रहा.... भले ही वो हमेशा किसी के साथ और सहयोग को तरसती रही ....भले ही सबको सम्पन्नता देते  हुए भी वो  खुद अपना सारा जीवन  आर्थिक तंगी में  ही गुजार दी  । मगर , जीवन  में उसने पाया भी बहुत कुछ....उसने आत्मनिर्भरता पाई ...संयमित  जीवन पाया ....सुख और दुःख पर विजय पाई ....खुद से ज्यादा दूसरों के लिए जीना सीखा ...रीतू उस परम सत्य को जान पाई जिसका मर्म समझना ज्ञानियों के लिए भी मुश्किल रहा " फल की चिंता किये बिना  निस्वार्थ कर्म करना " शायद ये उपलब्धि हर किसी के भाग्य में नहीं होता। 
आपके क्या विचार हैं -" क्या  रीतू के हाथ खाली रहें  .....?

"नारी दिवस"

 नारी दिवस " नारी दिवस " अच्छा लगता है न जब इस विषय पर कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। खुद के विषय में इतनी बड़ी-बड़ी और सम्मानजनक...