जीवन का सारा खेल एक नज़र और नज़रिये का ही तो होता है ,किसी को पथ्थर में भगवान नजर आते है किसी को भगवान भी पत्थर के नज़र आते है----
गुरुवार, 24 दिसंबर 2020
"एकांतवास"
गुरुवार, 17 दिसंबर 2020
"उलझन-सुलझन"
जिंदगी कभी-कभी उलझें हुए धागों सी हो जाती है,जितना सुलझाना चाहों उतना ही उलझती जाती है। जिम्मेदारी या कर्तव्यबोध,समस्याएं या मजबूरियों के धागों में उलझा हुआ बेबस मन। ऐसे में दो ही विकल्प होता है या तो सब्र खोकर तमाम धागों को खींच-खाचकर तोड़ दे....उलझन खुद-ब-खुद सुलझ जाएगी.....ना रहेगा कर्तव्यबोध तो जिम्मेदारियों का एहसास ख़त्म हो जायेगा और.....जब ये एहसास ख़त्म तो मजबूरियाँ और समस्याएं तो अपने आप ही ख़त्म हो जाएगी......तब ना कोई उलझन होगी ना सुलझन.....सारे बंधन खुल जायेगे और हम आजाद....बिना डोर के पतंग सी.....डोलते रहे जहाँ चाहे वहाँ। मगर इस विकल्प को तो पलायन करना कहेगे और परस्थितियों से पलयन करना उचित है क्या ? वैसे भी बिना डोर के पतंग को तो कटी पतंग कहते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता।
और दूसरा विकल्प है सब्र से,धैर्य से और प्यार से एक-एक धागों की गाँठ को खोलते जाये,जिम्मेदारियों का निबाह करते हुए उलझनों को सुलझाते जाएं । मगर...अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तन्मयता के साथ निभाते हुए भी हर एक उलझन को सुलझाना आसान तो नहीं होता ....ववरा मन इतना धर्य धारण कैसे करें......सब्र टूटने लगता है.....प्यार नीरस होने लगता है। अक्सर मन,सब्र और प्यार से उन धागों के उलझनों को तो सुलझा भी लेता है मगर खुद को कही खोता चला जाता है। दूसरों के वजूद को सँवारते-सँवारते खुद का वजूद कही गुम सा हो जाता है।सारे गाँठ तो खुल जाते हैं मगर मन खुद अनदेखे बंधनो में बांध जाता है। ये बंधन कभी तो सुख देता है और कभी अथाह दुःख।
माना, कटी पतंग का सुख क्षणिक होता है या यूँ कहें भ्रम होता है....असली सुख तो बंधन में ही होता। सब्र,धैर्य और प्यार से कर्तव्यबोध के बंधन में बांधकर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना हमारा प्रथम धर्म है। मगर, इन्हे निभाते- निभाते हम अपने प्रति अपना कर्तव्य भूल जाते हैं। खुद के वजूद का एहसास होना भी जरूरी होता है मगर, इस बात को हम नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में कभी-कभी हमारा कोई "प्रिय" आकर अधिकार और स्नेह से भरे उलाहनों के साथ, चंद प्यार भरे शब्द बोलकर हमारे अंतर्मन को जगा जाता है, हमें खुद के होने का एहसास करा जाता।"वो अपना" हमें बड़े प्यार से समझता है कि- "उठो ,दूसरों के प्रति जिम्मेदारियों को बहुत निभा लिया खुद के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी निभाओ,वो काम भी करों जो तुम्हारे अंतर्मन को शुकुन देता है,जिम्मेदारियाँ निभाओं मगर खुद को उसमे गुम ना करों"
उसके शब्दों का जादू जैसा असर होता है और हम जैसे गहरी नींद से जाग जाते हैं,और खुद के तलाश में लग जाते हैं वो अपना कोई दोस्त ही होता है "उस दोस्त का दिल से शुक्रिया"
" यदि जीवन में आपको कोई सच्चा दोस्त मिल जाएं तो जीवन की आधी समस्याएं तो यूँ ही समाप्त हो जाती है,कई उलझन खुद-ब-खुद सुलझ जाती है।"
बुधवार, 30 सितंबर 2020
"अब "
"अब" अर्थात वर्तमान यानि जो पल जी रहें है...ये पल अनमोल है...इसमे संभावनाओं का अनूठापन है...अनंत उपलब्धियों की धरोहर छिपी है इस पल में.... फिर भी ना जाने क्यूँ हम इस पल को ही बिसराएँ रहते हैं....इसी की अवहेलना करते रहते हैं.....इसी से मुख मोड़े रहते हैं। अब के स्वर्णिम पलों को छोड़कर एक भ्रम में जिये जाते हैं हम... अतीत के यादों का भ्रम.....बीती बातों का भ्रम...आने वाले कल के आस और सपनो का भ्रम....भविष्य की चिंता का भ्रम.....अपने आपको ना जाने कितने ही भ्रम जाल में उलझाए रहते हैं हम। ये अतीत की यादों और वादों का भॅवर हमें डुबोते चले जाते हैं.....ये भविष्य के आशाओं और चिंताओं का मकड़जाल हमें ऐसे हुए उलझाते हैं कि हम अपने सही कर्मो से ही बिमुख हो जाते हैं।
कल को सँवारने के लिए हमें "अब " में जीना होता है। जीवन जैसा भी हो उसे स्वीकारना और उसकी उलझनों से जूझना पड़ता है। जीवन की जटिलताओं और यथार्थ को सहर्ष स्वीकार कर सघर्षरत रहना पड़ता है। "अब "की अवहेलना कर हम कल को नहीं सँवार सकते हैं। पर पता नहीं क्यूँ हम इस सत्य को समझते ही नहीं और यदि समझ भी गए तो उसे स्वीकार नहीं कर पाते। हमारी आदत बन चुकी है अतीत की यादों और भविष्य की कल्पनाओं के झूले में झूलते रहने की। इन झूलों में झूलते हुए हमें रात्रि के सपने तो मिल सकते हैं परन्तु जागरण का सूर्योदय नहीं मिल सकता। ऐसा नहीं है कि हम सपने सिर्फ सोते हुए ही देखते हैं....जागते हुए भी हमारा मन इन्ही सपनों के सागर में तैरता रहता है। दरअसल, अतीत की यादें और भविष्य के सपने भी मन के लिए एक नशा जैसा ही होता है जो जीवन की सच्चाईयों से भागने का बहाना मात्र है।
हम रोज सुबह जागते तो जरूर है परन्तु असली जागरण तो तब होता है जब "अब "के सूर्योदय में आँखें खुलती है। वर्तमान के क्षणों में जागने से ही मन नशामुक्त होता है। तब ऐसा था अब ऐसा कब होगा, बस ये सोचते भर रहने से जीवन या समाज में परिवर्तन नहीं आता। "अब "के महत्व को समझ, इस क्षण के वास्तविकता को स्वीकार कर हमें कर्म करने होते हैं तभी हम कल के भविष्य को बदल सकते हैं....अपनी दशा-मनोदशा को बदल सकते हैं....अपने सपनों को सच कर सकते हैं...समाज को बदल सकते हैं। जीवन तभी सार्थक होगा, जब हम गुजरे कल को भूलकर उसकी गलतियों से सीखकर, आने वाले कल की चिंता से मुक्त होकर आज को, अभी को, अब को संवारने लगगे।
"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "
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" नवरात्रि " हमारे मयके के परिवार में ये त्यौहार सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता था। जब हम बहुत छोटे थे तब से पापा जीवित थ...
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आदरणीय पापा जी , सादर प्रणाम , ये नहीं पूछूंगी कि- कैसे है आप ? कहाँ है आप ? क्योकि मैं जानती ह...