शनिवार, 14 मार्च 2020

" भाईचारा "



" भाईचारा " अर्थात जहां... भाइयों के जैसे आचार -विचार और व्यवहार हो। या ये भी कह सकते हैं कि -" अपने सुख दुःख को साझा करने वालों का समूह  " वैसे भाईचारे की व्याख्या तो पारिवारिक संबंधों के दायरे में ही की जाती हैं लेकिन हमारे देश में इसकी झलक  रक्त संबंधों से परे  जाति  और धर्म से भी ऊपर देखने को मिलती थी । तभी तो भारत देश की प्राचीन  अवधारणा ही हैं " वसुधैव कुटुंबकम "अर्थात सारा विश्व ही एक परिवार हैं। मगर इस देश का दुर्भाग्य कि -आज विश्व भाईचारा तो दूर की बात हैं परिवार से  भी भाईचारा  शब्द लुप्त होता जा रहा हैं।
   मैं  तो सौभाग्यशैली रही हूँ  कि -मैंने  अपने परिवार का वो दौर भी देखा हैं..... जहां पर तीन दादा और उनके तेरह बच्चे [यानि हमारे चाचा और बुआ ] सब प्रेम और भाईचारे के ऐसे डोर से बंधे थे कि -मुझे दसवीं में जाने के बाद भी ये ज्ञात नहीं हुआ था कि - कौन मेरे सगे  दादा -दादी ,बुआ -चाचा हैं और कौन चचेरे । हम सिर्फ उन्हें बड़े दादा ,छोटे दादा ,मंझिले दादा के नाम से ही जानते थे, इतना प्यार और अपनत्व था और आज.... सब कुछ बिखर चूका हैं। हमारे परिवार का सौभाग्य हैं या पुराने संस्कार जो आज कम से कम हमारे सगे भाई तो एक साथ हैं......और घरों में तो ये भी देखने को नहीं मिलता।
     आँखें बंद करके एक पल को सोचती हूँ तो लगता हैं ये तो कल ही की बात हैं.... जहां परिवार तो छोड़े... आस -पड़ोस में भी जाति और धर्म से ऊपर का  भाईचारा था। हमारे कलोनी में हिन्दू -मुस्लिम और ईसाई तीनो धर्म के लोग रहते थे और..... वहाँ भी हमें सबका घर अपना ही घर सा लगता था। हर त्यौहार मिल जुल कर मनाना ,कोई भी दुःख या बिपदा आए सब का एक जुट हो जाना..... ये सब अब एक सपना सा लगता हैं।
     आपको अपनी एक आपबीती सुनती हूँ -हमारे पड़ोस में एक मुस्लिम इंजीनियर का  परिवार रहता था ,उन को एक बेटा और एक बेटी थी और हम दो भाई और दो बहन..... हमारे दोनों परिवार में बहुत ही ज्यादा स्नेह था ,हम छ हर वक़्त एक साथ रहते थे ......हमें कभी एहसास ही नहीं होता था  कि -हम दो धर्म के लोग हैं। कुछ दिनों बाद उनका ट्रांस्फर दूसरे शहर में हो गया। लेकिन हमारी दोस्ती टूटी नहीं....हमारा मिलना जुलना होता रहा। [ये दोस्ती आज तक कायम हैं ,उनकी बेटी मेरी सबसे प्रिय सहेली आज भी हैं ]
    92  की बात हैं जब बाबरी मस्जिद कांड हुआ था देश में चारो तरह दंगे हो रहे थे। मेरी सहेली का भाई [ जो मेरा भी प्रिय भाई हैं मैं उसे राखी भी बांधती हूँ ]  जो उस वक़्त 17 -18 साल का था ,उसे किसी जरुरी काम से मेरे शहर आना पड़ा। दिन में वो अपने सारे काम निपटा कर दोस्तों से मिलजुल कर जब वो मेरे घर आने को हुआ तो.... उसका एक खास दोस्त जो मुस्लिम था ....और उसे बहुत मानता था उसने कहा -" शहीद तुम रात बिताने वहाँ  जाओगे ...वो लोग तो हिन्दू हैं ...तुम्हे डर नहीं लग रहा हैं ...मेरी मानो तो तुम मेरे पास ही रूक जाओं " .शहीद ने जबाब दिया -" वो हिन्दू या मुस्लिम नहीं हैं वो मेरे चाचा -चाची का घर हैं जहां मेरे भाई -बहन मेरा इंतज़ार कर रहे हैं ....उनसे सुरक्षित जगह मेरे लिए कोई हो ही नहीं सकता " ये कह कर वो मेरे घर रुकने आ गया। घर आने पर वो मेरी माँ से लिपटकर बोला -"देखो ना चाची, सब कैसी बातें कर रहे थे... मुझे आपके पास आने से रोक रहे थे.... दंगे हुए हैं रश्ते तो नहीं बदले "
    ये था उस दौर का भाईचारा और आज भाई ही भाई का दुश्मन बना हुआ हैं। ऐसा ना हो कि -प्यार ,बंधुत्व ,भाईचारा  जैसे शब्द ही डिक्शनरी से लुप्त हो जाए। इस शब्द और इसके आस्तित्व को संभालना सहेजना और आने वाली अगली पीढ़ी तक इसे पहुंचना..... अब ये हमारी  पीढ़ी का ही  दायित्व हैं। हमारी लापरवाहियों के वजह से ये लुप्त हुआ हैं तो खामियाजा भी हम ही भुगत रहे हैं और इसका भुगतान भी हम ही करेंगे।

  वैसे इस बार के दिल्ली के दंगे - फसादों ने ये तो साबित कर दिया कि -हमारे नववुवको में विवेक जागृत हो चूका हैं और वो अब धर्म और जाति के नाम पर अपना आपा नहीं खोने वाले।  " वसुधैव कुटुंबकम "वाले संस्कार के बीज अब  भी हमारे भीतर कही न कही बचा हैं.... जरुरत हैं तो  सिर्फ अनुकूल आबो -हवा देकर उन्हें सींचने की....



गुरुवार, 5 मार्च 2020

" कोरोना वायरस "की होम्योपैथिक दवा

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कोरोना वायरस "
आज कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया में हाहाकार मचा रखा हैं ,हर देश की सरकार इससे निपटने की पूरी कोशिश कर रही हैं। आए दिन कोई ना कोई एक नया वायरस आकर हमारे दिलों में दहशत फैला जाता। ये सारे वायरस के फैलने की वजह हमेशा से हमारा गलत खान पान और लापरवाही ही रही हैं और खास तौर पर एक व्यक्ति विशेष की लापरवाही की सजा सब भुगतते हैं। 

कोरोना वायरस क्या हैं ?कैसे फैलता हैं  ?इससे वचाव कैसे कर सकते हैं ?क्या क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए इसके बारे में सोशल मिडिया पर बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध हैं। लेकिन परेशानी ये हैं कि -ये जानकारी सब एक दूसरे से सिर्फ साझा भर कर रहे हैं खुद भी इसका पालन  कर रहे हैं या नहीं ,पता नहीं। 

इसका सफल इलाज होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवा में है। होम्योपैथिक के आर्सेनिक एल्बम 30 में इस वायरस से लड़ने की क्षमता है। यह जानकारी सेवानिवृत्त होम्योपैथिक चिकित्सा अधिकारी एवं आरोग्य भारती के विंध्याचल मंडल विभाग प्रमुख डॉ० गणेश प्रसाद अवस्थी ने दी।इस बात को शशि जी ने भी साझा किया हैं और उनकी बातों से ही मुझे ये प्रेरणा मिली की मैं आप सब से ये जानकारी साझा करूँ। 

मैं खुद एक होमियोपैथिक प्रैक्टिसनर हूँ इसलिए आज मैं आप सब से एक जरुरी जानकारी साझा करना चाहती हूँ। उस पर यकीन कर आप कितना अमल करेंगे वो तो मैं नहीं जानती मगर एक डॉक्टर होने के नाते मैं ये अपना फर्ज समझ रही हूँ कि आप सभी से ये बहुमूल्य जानकारी साझा करूँ। अगर इस पर विश्वास करके आप इसका प्रयोग करेंगे तो यकीन मानिए कोरोना वायरस ही नहीं ,किसी भी तरह के वायरस से आप खुद को और परिवार को सुरक्षित रख पाएंगे। 

आर्सेनिक एल्बम 30 
एकोनाइट नेप 30
 इन्फ्लून्जियम 30 
यूपिटोरियम पर्फ़ 30 
सारी दवाएं Dr.Reckeweg  की होनी चाहिए 

इन चारो दवाओं को बराबर मात्रा में मिलाकर एक अलग शीशी में रख ले। तीन दिन लगातार सुबह खाली पेट इस मिश्रित दवा का दो बून्द सीधे जुबान पर टपका ले। उसके बाद जब तक वायरस फैला हो तब तक सप्ताह में दो बार रविवार और बुधवार को एक बार सुबह में ही लेते रहे। किसी भी तरह का वायरल इन्फेक्शन हो ही नहीं सकता। अगर हो गया हैं तो यही दवा रोग की तेज़ी के अनुसार ,दो दो घंटे के अंतराल पर ले सकते हैं। 

दवा लेते वक़्त सावधानियाँ -
दवा लेने से  आधे घंटे पहले और दवा लेने के आधे घंटे बाद भी कुछ खाना पीना नहीं हैं यानि मुँह में किसी भी तरह का स्वाद नहीं रहना चाहिए। बस इतनी सावधानियाँ बरतनी हैं। 

उम्मीद करती हूँ आप इस जानकारी का लाभ जरूर उठाएंगे। ये दवा पाँच साल तक आप सुरक्षित रख सकते हैं। इस जानकारी को जितना हो सके साझा करें।

अगर आप आर्युवेद को मानने वाले हैं तो ,गिलोय ,तुलसी के पते ,काली मिर्च का सेवन करें। ये भी बहुत लाभदायक हैं। 

बुधवार, 4 मार्च 2020

" बाबुल का आँगन "

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आदरणीया आशा भोसले जी के आवाज़ में वन्दनी फिल्म का एक हृदयस्पर्शी गीत.....

अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन ने लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ 
दिजो संदेशा भिजाय रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...

अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आए रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल ...

बैरन जवानी ने छीने खिलौने
और मेरी गुड़ियाँ चुराई
बाबुल  मैं थी तेरे नाज़ों की पाली
फिर क्यों हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती
न कोई नैहर से आये, रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल .
*********
     बचपन में जब भी मैं ये गीत सुनती मेरे भीतर कुछ टूटने सा लगता था ,हिय में एक हुक सी उठने लगती थी और आँखें स्वतः ही बरसने लगती थी। (आज भी ये गीत मुझे रुला देती हैं ) उस वक़्त मेरे लिए ये कल्पना से परे होता था कि -एक लड़की जो अपने बाबुल के आँगन में पली- बढ़ी....भाई -बहनों के साथ खेली -कूदी... उसे उसी आँगन में लौट के आने के लिए बाबुल से ही गुहार लगानी पड़ रही हैं......अपने घर -आँगन , माँ -बाबुल और सखियों के विरह में वो इस कदर तड़प रही हैं । इस गीत के एक- एक बोल मुझे तड़पा जाती  थी  ....और मैं माँ से पूछ बैठती थी - " आपकी शादी भी तो 13 वर्ष के उम्र में ही हो गई थी न और आप बताती हैं कि- दादाजी आपको एक साल तक मयेके नहीं जाने दिए थे ...फिर कैसे रही होगी आप नाना -नानी के बगैर। " मेरी बाते सुन माँ की आँखें भर जाती .....भीगें से स्वर में  बोलती - " उस जमाने में हम सब मजबूर होते थे बेटा   " ....लेकिन मैं नहीं जाऊँगी... अपने पापा को छोड़कर ...कभी नहीं जाऊँगी ...मैं तड़पकर बोल उठती। कैसी ये जग की रीत हैं जहा जन्म लिया वो घर-आँगन  अपना नहीं होता......किसी पराये घर और घरवालों  को अपना बनाकर उसे अपना  सर्वस्व सोप देना .....और पिता का घर पराया कहलाना .....किसने बनाई ये रीत .. किसी और घर भेज दिया वो तो .सह ले ......मगर अपना घर पराया हो जाना ,क्यूँ  ? ऐसे अनगिनत सवाल मेरा बालमन करता रहता और जबाब ना मिलने पर और भी बेचैन हो जाता। 

     मगर जैसे- जैसे बड़ी हुई ये एहसास होने लगा ..इस जग की रीत से मैं भी नहीं बच सकती .. बेटियों को एक ना एक दिन बाबुल का आँगन छोड़कर पी के घर जाना ही होता हैं... तब, ये बाते मुझे बेहद परेशान कर देती ....कैसे जाऊँगी मैं ये घर -आँगन छोड़कर ...जहाँ भाई -बहनों के साथ खेलते- कूदते ,हँसते- हँसाते बचपन और जवानी गुजरा हैं ....इस आँगन को छोड़ ....पापा को छोड़ नहीं जा पाऊँगी। लेकिन वो घडी भी आ ही गई और मुझे भी हर बेटी की तरह जाना ही पड़ा। पर शायद.... मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब बेटी रही हूँ...  साजन के घर जाने के बाद भी मुझसे मेरे बाबुल का आँगन पूरी तरह नहीं छूटा। पापा के नजर में मैं उस आँगन की तुलसी ही रही। 
  
    लेकिन वक़्त गुजरा और एक दिन.... वो दिन भी आ गया जब पापा ही उस आँगन को छोड़कर  हमेशा हमेशा के लिए चलें गए। आज तीन साल हो गए उनको गए हुए.....घर-आँगन  तो वही हैं ....पर उस घर की रौनक चली गई .....उस आँगन की तुलसी उजड़ गई। अब नहीं अच्छा लगता वही आँगन जहा पापा की आवाज़  सुनाई  नहीं  देती। मगर..... आँगन छूटा पापा का साथ नहीं ...वो आज भी हर पल मेरे साथ हैं ....हर घडी अपने होने का एहसास करा ही जाते हैं ....जब उदास होती हूँ आँसू पोछते हुए ,घबराती हूँ तो हिम्मत बढ़ाते हुए ,जब परेशान होती हूँ तो ढाढ़स बांधते हुए और जब खुश होती हूँ तो मेरे साथ खड़े मुस्कुराते हुए......

    फिर भी पता नहीं क्यूँ ....एक खालीपन सा लगता हैं... वो साया जो हरपल आस -पास होता हैं .....उन्हें  छूने का दिल करता हैं ....उनके पसंद के खाने बनाकर उन्हें खिलाने को दिल करता हैं ....उनकी खूब सारी सेवा करने को दिल करता हैं..... उनके  गले से लिपटकर जी भर के रोने को दिल करता ...पर इस जन्म में तो ये सब सम्भव नहीं......अब तो बस उनकी यादें ही रह गई हैं.... सिर्फ एक एहसास बाकी हैं .....
 ' पापा ,आप बहुत याद आते हैं ...."
आज 4 मार्च वो मनहूस दिन ...जिस दिन मेरे पापा हम सभी से साकार रूप में जुदा हो गए थे लेकिन.... निरंकार रूप में वो हरपल हम सभी के साथ ही होते हैं ....परमात्मा मेरे पापा के आत्मा को शांति प्रदान करें..... 

एक खत पापा के नाम 
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/03/ek-khat-papa-ke-naam.html

यादें पापा की
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/06/yaadein-papa-ki.html


"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...