सोमवार, 2 दिसंबर 2019

ब्लॉग का एक साल -" एक यादगार सफर "





  वो कहते हैं न कि -" शामें कटती नहीं और साल गुजर जाते हैं ",देखें न ,कैसे एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला,हाँ आज मेरे ब्लॉग के सफर का एक साल पूरा हो गया। कभी सोचा भी नहीं था कि मैं अपना ब्लॉग बनाऊँगी ,ब्लॉग की छोड़ें कभी कुछ लिखूँगी ये भी नहीं जानती थी ,हाँ कुछ लिखने के लिए हर पल दिल मचलता जरूर था। तो ,जहाँ चाह होती हैं वहाँ राह खुद -ब -खुद मिल जाती हैं। हाँ ,कभी -कभी देर हो जाती हैं पर मिलती जरूर हैं और मुझे भी मिली। आज ही के दिन  सखी रेणु ने मेरे ब्लॉग को आप सभी से साझा किया था और  पहली टिप्पणी भी की थी और देखते ही देखते 4 -5 दिनों में ही आप सभी ने सहर्ष मुझे अपना लिया था। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था ,सब सपना सा लगता था।
सखी रेणु ,जो इस आभासी दुनिया में मेरी पहली प्रशंसक ,मार्गदर्शक और प्यारी सहेली बन कर आई। उन्होंने मेरे ब्लॉग का लिंक साझा कर मेरा परिचय ब्लॉग जगत के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों से कराया। मैं सखी रेणु की आजीवन आभारी रहूँगी  ,उन्होंने मुझे अपने स्नेह के काबिल समझा और साथ ही आप सभी दिग्गज साहित्य प्रेमियों से मुझे रूबरू भी कराया। अगर सखी रेणु ने मेरा साथ ना दिया होता तो मेरा ब्लॉग यूँ ही कही अंधकार में गुम होता। 
 ब्लॉग पर अपना पहला लेख तो मैंने 8 /10 /2018 को ही प्रकाशित किया था पर मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि इसे साझा कैसे करूँ। मुझे तो ब्लॉग का B भी नहीं पता था। ब्लॉग का नाम मैंने पहली बार अपनी एक दोस्त (जो मुझसे 12 -13 साल छोटी हैं और इंटरनेट की दुनिया में पूरी तरह रची बसी हैं )के मुख से सुना था। आज से डेढ़ साल पहले जब मैं अपनी बेटी के साथ दिल्ली से मुंबई शिफ्ट हो रही थी तो मैं थोड़ी चिंतित थी कि मुंबई में मैं अपना वक़्त कैसे गुजारूंगी ,बेटी तो अपने काम पर चली जाएगी तो मैं क्या करुँगी ? अनजाना जगह ,ना कोई दोस्त ,ना रिश्तेदार ,पुरे दिन का खालीपन ये सोच मैं थोड़ी परेशान थी। दिल्ली में फुर्सत ही नहीं मिलती हैं ,दिन के  4 -5 घंटे तो होमियोपैथिक प्रक्टिस में ही गुजर जाता हैं फिर घर -परिवार ,दोस्त -रिश्तेदार इन सब में दिन कैसे गुजर जाता हैं पता ही नहीं चलता लेकिन वहाँ क्या करुँगी ये सोच में चिंतित हो रही थी।  जब मेरी दोस्त मुझसे मिलने आई तो बातों बातों में मैंने अपनी परेशानी उससे कही तो उसने कहा -दीदी आप ब्लॉग लिखना शुरू कर दे ,आप किसी भी विषय पर अच्छा बोल लेती हैं ,आपके खालीपन को दूर करने का ये अच्छा तरीका होगा। मैंने कहा -मुझे तो इंटरनेट का अच्छा ज्ञान भी नहीं हैं ,कैसे बनाऊंगी मैं ब्लॉग। उसने कहा -कुछ मुश्किल नहीं बस गूगल पर जाकर blogger .com टाइप करो और फिर फेसबुक की तरह उसपर अपना अकाउंट बना लो। उस वक़्त उससे ज्यादा कुछ जानने का समय  नहीं था। लेकिन ब्लॉग बनाना इतना भी आसान नहीं था वो भी उसके लिए जिसने अपना फेसबुक अकाऊंट भी खुद से नहीं बनाया हो। 
मुंबई आने पर महीना दिन तो व्यवस्थित होने में और घूमने में गुजर गया। उसके बाद जब बेटी काम पर जाने लगी तो बस ,मेरा अकेलापन मुझे काटने लगा। फिर अपनी दोस्त की कही बात याद कर मैंने गूगल सर्च करना शुरू किया,youtube पर सर्च कर ब्लॉग की एक एक बात समझने की कोशिश करने लगी। दो महीने के अथक प्रयास के बाद आख़िरकार मैं अपना ब्लॉग बनाने में कामयाब हुई। लेकिन ब्लॉग पर पाठक कहा से लाऊँ ,इसी खोजबीन में  मुझे शब्दनगरी मंच के बारे मै ज्ञात हुआ। मैंने उसपर अपना अकाउंट बनाया ,इस मंच से अपना लेख प्रकाशित करना मुझे थोड़ा आसान लगा। मैंने डरते डरते इस पर अपना एक  लेख  "प्यार एक रूप अनेक "प्रकाशित कर दिया। अगले दिन शब्दनगरी के द्वारा भेजे गए मेल को देख मेरी ख़ुशी और आश्चर्य का ठिकाना ना रहा ,उन्होंने मेरे लेख को "आज का सर्वश्रेष्ठ लेख "से सम्मानित कर मुख्यपृष्ठ  पर डाला था ,एक दो टिप्पणियाँ भी आ गई। मेरे लिए इतनी काफी था ,मैं कोई बड़ी साहित्यकार तो हूँ नहीं और नाही मुझमे बहुत ज्यादा प्रसिद्धि के चाह थी।  मैंने सोचा  इसी बहाने अच्छी अच्छी रचनाएँ पढ़ने को भी मिल जाएगी और कुछ लिखने का भी प्रयास करती रहूँगी ,मुझे अच्छा लगने लगा। मेरा सौभाग्य मेरी लगभग सभी लेखो को शब्दनगरी नै सर्वश्रेष्ठ लेख से सम्मानित किया ,इसके लिए मैं हमेशा शब्दनगरी की आभारी रहूंगी। 
फिर एक दिन  शब्दनगरी पर लिखे मेरे एक लेख पर सखी रेणु की प्रतिक्रिया आई। उनके स्नेहिल पहली प्रतिक्रिया से ही मुझे अपनत्व का एहसास होने लगा। हम बहुत जल्द एक दूसरे से घुल -मिल गए। वैसे आभासी दुनिया में मैं जल्दी से किसी से मित्रता करने में थोड़ी झिझकती हूँ। लेकिन  रेणु से मिलकर मुझे अच्छा लगने लगा। रेणु  ने मुझे अपने ब्लॉग पर आने का निमंत्रण दिया और साथ ही ये भी कहा कि -कामिनी तुम अपना ब्लॉग बनाओं ।मैंने रेणु को अपने ब्लॉग का लिंक भेजा और उनसे ये भी कहा कि वो मेरा मार्गदर्शन करें। अगले ही दिन रेणु ने मेरे ब्लॉग का लिंक आप सब से साझाकर मेरे जीवन में नई ख़ुशी ,नई ऊर्जा और नया उत्साह भर दिया। रेणु ने मुझे आप सब साहित्य प्रेमियों से मिलवाया ,साथ ही साथ मेरी टंकण अशुद्धियों के लिए भी मुझे सचेत करती रही ,मैं हमेशा रेणु की आभारी रहूँगी। 
एक सखी का हाथ थामकर चली थी पता ही नहीं था आगे सफर में मुझे इतने सारे संगी -साथियों का सानिध्य और स्नेह मिल जाएगा। आदरणीया  बिभा दी ,यशोदा दी ,साधना दी जैसे सम्मानित रचनाकारों का आशीर्वाद मिला ,आदरणीया  कुसुम जी ,मीना भरद्वाज जी ,मीना शर्मा जी ,सुजाता जी ,शुभा जी ,सुधा देवरानी जी ,अनुराधा जी ,अभिलाषा जी ,ज्योति जी,कविता जी ,नीतू जी जैसी स्नेहिल सखियों का स्नेह ,सहयोग और प्रोत्साहन मिला ,मेरे ब्लॉग पर इनकी निरंतर उपस्थिति ने हर पल मेरा मनोबल बढ़ाया और मैं कुछ अच्छा लिखने का प्रयास करती रही हूँ। इतना ही नहीं श्वेता जी ,अनीता सैनी जी और अनु जी जैसी प्यारी बहनो का साथ मिला जिन्होंने मेरी रचनाओं को " पाँच लिंको का आनन्द "और चर्चामंच जैसे प्रतिष्ठित मंचो पर साझा कर मुझे अपने स्नेह डोर से बांध लिया। 
आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल जी ,रूपचन्द्र  शास्त्री जी ,रविंद्र सिंह यादव जी ,सुशील कुमार जोशी जी , विश्वमोहन जी ,ज्योति खेर जी ,पुरुषोत्तम जी ,दिगंबर जी जैसे ब्लॉग जगत के प्रतिष्ठित वरिष्ठ रचनाकार जिनकी रचनाओं को पढ़ने तक का सौभाग्य भी मुझे शायद कभी नहीं मिलता, उनके रचनाओं को पढ़ने का आनन्द भी मिला और उनका स्नेह ,आशीर्वाद और प्रोत्साहन पाकर मैं धन्य हुई। आदरणीय शशि जी ,लोकेश जी ,पंकज प्रियम जी रोहतास जी ,संजय भास्कर जी जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकरों ने मेरी  रचना पर अपनी अनमोल प्रतिक्रिया देकर मेरा उत्साहवर्धन करते रहे। मैं कहाँ इस काबिल थी कि आप सभी का सानिध्य पा सकती थी ,आप सभी से जुड़कर मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानती हूँ। इस एक साल में जीवन ने मुझे बहुत बड़ा सदमा भी दिया परन्तु आप सब के बीच रहकर मैं उससे भी जल्दी उभर पाई। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास हैं कि आप सभी का  स्नेह और सहयोग मुझे हमेशा मिलता रहेगा। अगर इस एक साल के सफर में मुझसे कभी भी कोई भूल हुई हो तो मैं आपसभी से क्षमाप्रार्थी हूँ।  आप सभी का तहे दिल से आभार और सादर नमस्कार 
मेरा पहला लेख जिसमे अनगिनत गलतियाँ थी
हर पल सिखाती जिंदगी

शनिवार, 2 नवंबर 2019

अतीत के झरोखें से



    शाम के चार बज गए हैं ,पापा और भईया दोनों शोर मचा रहे हैं  -"जल्दी करों सब ,जल्दी निकलो  वरना घाट पर जगह नहीं मिलेंगी "और बच्चे हैं कि उनका सजना सवरना ही ख़त्म नहीं हो रहा ,किसी को कान के बुँदे पहनने  हैं ,तो किसी का बाल सवारना बाकी हैं,किसी ने तो अब तक कपड़ें ही नहीं पहनें हैं। मैं जल्दी जल्दी जैसे तैसे साड़ी बाँधी ,बालों को लपेट जुड़ा बना ही रही थी कि भईया चिल्लाएं -"रानी में दउडा [ जिसमें छठपूजा का सामान जाता हैं ] लेकर निकल रहा हूँ जल्दी आओ" मैं अभी आई ,अरे बेटा आप सब  भी जल्दी आ जाओं मैं छठीमाता को लेकर निकल रही हूँ -बोलते हुए मैं एक हाथ में पूजा की  डलियाँ और दूसरे हाथ से माँ का हाथ पकड़कर तेजी से  निकल पड़ीं। [ दउडा को भी छठीमाता स्वरूप ही मानते हैं तो दउडा और व्रती दोनों साथ ही  घर से निकलेगें यही परम्परा हैं ]
    
   मेरी नजर जैसे ही घड़ी पर गई ये सारे दृश्य चलचित्र की भाँति मेरी आँखों के आगे से गुजरने लगे,चार बजते ही घाट पर जाने के लिए  बिलकुल यही शोर होता था। चार दिन तक घर का माहौल कितना खुशनुमा होता था ,सब अपने अपने जिम्मेदारियों को निभाने में रत रहते साथ साथ एक दूसरे से हँसी ठिठोली भी करते रहते,शाम घाट के दिन भी सुबह ढाई तीन बजे तक उठकर पकवान बनाने में लग जाना ,बनाते तो दो तीन ही लोग थे पर सारा परिवार जग जाता था ,सुबह से ही छठीमाता के गाने होने लगते ,शाम के घाट जाने के लिए सब अपने अपने तैयारियों में जुट जाते ,शाम घाट से वापस आकर कोशी भरने का काम होता ,सारा परिवार हवन करता ,फिर फिर मैं माँ के पैरो में तेल मालिस करती ,फिर खाना खा कर जल्दी जल्दी सोने की तैयारी क्योंकि सुबह ढाई बजे तक उठकर घाट जो जाना है देर हुई तो जगह नहीं मिलेंगी न,घाट पर झिलमिलाती लाड़यों से सजी पंडाल में ,सर्दी में ठिठुरे हुए बैठकर सूर्यदेव के उदय होने का इंतज़ार करना। जैसे ही सूर्य देव उदित हुए अर्घ्य देना शुरू करना ,अर्घ्य देने के बाद माँ सबको टीका लगाती,औरतो के मांग में सिंदूर लगती और सबको अपने हाथो से प्रसाद देती ,हम माँ का पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते ,फिर घर आकर माँ के पैर पखारने के लिए परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्य  लाइन में लग जाते। सबके करने के बाद मैं माँ का पैर गर्म पानी से धोती और तेल मालिस करती फिर तुलसी, अदरक के साथ नींबु का शर्बत बनाकर देती,उनके लिए सूजी का पतला सा हलवा बनाकर उन्हें पारण कराती ,एक एक दृश्य याद आने लगी और मेरी आँखे स्वतः ही बरसने लगी ,अंतर्मन में दर्द भरने लगा, यूँ लगा जैसे आँसुओं  का सैलाब उमड़ पड़ेंगा,मैंने खुद को संभाला और झट से डायरी और कलम ले आई ,तत्काल यही तो मेरे सच्चे साथी बनें हैं और बैठ गई यादों के झरोखें के आगे और देखने लगी अतीत के वो खुशियों  भरे पल जो हम सपरिवार साथ में बिताए हैं। सच, जितना दर्द देती हैं न उतना ही सुकून भी देती हैं ये यादें और आज इस दर्द भरे अकेलेपन में मुझे सुकून की बड़ी दरकार हैं।
   वैसे छठीमाता के सेवा में भी एक परम् सुख की अनुभूति होती हैं। व्रत कोई भी करें चाहे माँ या बहन सेवा की जिम्मेदारी मेरी ही होती हैं [पहले माँ के घर ही बहन और माँ दोनों करती थी माँ ने जब उद्यापन कर दिया तो सारा परिवार बहन के घर एकत्रित होते हैं ] खरना [व्रत का दूसरा दिन]के दिन शाम के चार बजे से ही मेरी डियूटी छठपूजा वाले कमरे में हो जाती। प्रसाद बनाने की ,व्रती का हर काम करने की जिम्मेदारी मेरी होती ,हां,सुबह  पकवान [ठेकुआ ] बनाने में बहन और भाभी मदद करती थी।जब तक सूपली और दउडा  सज नहीं जाता  ,पूजा की सारी सामग्री  एकत्रित नहीं हो जाती  मैं भी सिर्फ जल पीकर ही रहती हूँ। जब तक व्रती को पारण नहीं करा देती घर से लेकर घाट तक पूजा की सारी जिम्मेदारी मेरी ही तो होती हैं और आज कैसा दिन हैं ,घाट जाने का वक़्त हो चूका हैं और मैं सारे परिवार से बहुत दूर अकेली बैठी आँसू बहा रही हूँ। नियति के आगे किस की चली हैं, यहाँ तो सबको  झुकना ही पड़ता हैं। मैं अपने आप से ये वादा करती हूँ -अगले साल फिर से धूम धाम से छठीमाता का स्वागत करेंगे ,मेरे बच्चें  जो आज गमगीन बैठे हैं कल उन्हें मैं फिर से वही मुस्कुराहट और खुशियाँ दूंगी। 
    जिंदगी रूकती तो हैं नहीं ,जाने वाले की कमी कभी कोई और पूरा नहीं कर सकता। हाँ ,मेरी बहनोई नहीं होंगे ,हल्ला मचाने वाले मेरे पापा भी नहीं होंगे पर उन्हें याद कर हम आँसू नहीं बहाएंगे। बच्चों के उज्वल भविष्य के कामना से हम फिर से छठपूजा करेंगे ,फिर घाट पर जाते वक़्त वही सजना सवरना होगा।सच, छठपूजा में बच्चों का उत्साह उनकी तैयारियां देखते ही बनती हैं ,घाट पर कौन सबसे ज्यादा सुंदर लगेगा ,जैसे व्याह -शादी में होता हैं। मैं बच्चों को कभी उनकी खुशियाँ  मनाने से नहीं रोकती ,मैं भी वैसी ही थी। अक्सर उन्हें सजते सवरते देख मैं भी अपने दिन याद करने लगती। हमने तो अपने बच्चों को घर की हर जिम्मेदारी से दूर कर दिया हैं पर हमारे वक़्त में ऐसा नहीं होता था। बचपन से लेकर युवा अवस्था तक उम्र के हिसाब से हमें  हमारी जिम्मेदारियाँ सौप दी जाती थी। पूजा के दिनों में भी यही नियम थे। 
    बचपन में तो छठ घाट जाने के समय तक पापा से मेरी फरमाइसे ही ख़त्म नहीं होती ,सर से पैर तक सजना होता था मुझे,सब कुछ नया होता था। उतना शृंगार तो मैंने शादी के बाद भी कभी नहीं किया। अब सोच कर खुद पर बड़ी हँसी आती हैं।युवावस्था होने पर तो घर के कामों  की मेरी जिम्मेदारियाँ और बढ़ गई थी फिर भी सारा काम ख़त्म कर मैं,मेरी सारी बहनें और मेरी बुआ तैयार होने के लिए दादी से दो घण्टे का समय मांग ही लेते थे । हम पहले ही कह देते जितना काम करवाना हो अभी करवा लो तैयार होने के बाद और घाट पर हम कुछ नहीं करने वाले। घाट पर की सारी जिम्मेदारी  माँ -पापा भैया और चाचा लोगो की होती। हम तो बस घाट का नजारा देखते ,अरे देखे भी कैसे नहीं ,वही से तो हमें लेटेस्ट कपडे और मेकअप  का पता चलता था। 
   हमारे समय में इंटरनेट तो था नहीं ,हमें तो ये सब जानने के लिए पुरे साल इंतज़ार करना  पड़ता था । सुबह के घाट पर तो कुछ ज्यादा ही उत्सुक रहते थे ,ये देखने के लिए कि स्वेटर की नई डिजाइन कौन कौन सी आई हैं।उस समय तो इस माह तक सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी और सबके लिए एक नया स्वेटर तो बनाना ही चाहिए था।मैं तो नए स्वेटर के बिना घाट पर जा ही नहीं सकती थी और वो भी बिलकुल नए डिजाइन में,रात रात भर जागकर हम स्वेटर बनाते थे। जो भी लोग मुझे जानते थे वो मेरे स्वेटर को देखने के इंतजार में रहते थे। स्वेटर बुनाई को लेकर अजीब पागलपन था मुझ में ,जूनून कह सकते हैं। घाट पर तो मेरी नजर सबके स्वेटर पर ही होती ,किसी के स्वेटर को बस एक झलक देख लूँ सारे पैटर्न मेरे आँखों में फोटो की तरह खींच जाते थे और घाट से लौटते हो ऊन और सलाई ले कर बैठ जाती और सारे पैटर्न को बना कर जब तक रख नहीं लेती मुझे चैन नहीं मिलता था।
   अब तो वैसी कोई उत्सुकता लड़कियों में दिखती ही नहीं ,[ ना किसी पूजा के प्रति ,ना किसी काम के प्रति ,ना बड़ों के सेवा और सम्मान के प्रति ]अब तो वो खुद की ही सूरत पर इतराती सेल्फी लेने में बिजी रहती है उन्हें किसी और चीज़ से मतलब ही नहीं होता। क्योकि इन्हे तो हर चीज़ आसानी से मिल जाता हैं। हमें तो बहुत परिश्रम के बाद कुछ मिलता था। क्या दिन थे वो -" छठपूजा आस्था ,विश्वास ,श्रद्धा और प्रेम से भरा एक उत्सव था "अब भी हमारा परिवार तो  एक जुट हो सुख दुःख साथ बाँटते हैं,वही उत्सव मानते हैं।  हमारा परिवार यूँ ही एकजुट रहे ,मुझे पूर्ण आस्था और विश्वास भी हैं कि -" छठीमाता की कृपा से हम सपरिवार अगले साल फिर से धूम धाम के साथ उनका स्वागत करेगें। "
  "  हे छठीमाता ,सबको सद्ज्ञान और सद्बुद्धि दे ताकि ये पृथ्वी फिर से साँस लेने योग्य हो सकें ,आपका स्वागत हम फिर से सच्ची आस्था ,विश्वास और प्रेम से कर सकें। "

बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

आस्था और विश्वास का पर्व -" छठ पूजा "


  " छठ पूजा " हिन्दूओं का एक मात्र ऐसा पौराणिक पर्व है जो ऊर्जा के देवता सूर्य और प्रकृति की देवी षष्ठी माता को समर्पित है। मान्यता है कि -षष्ठी माता ब्रह्माजी की मानस पुत्री है,
प्रकृति का छठा अंश होने के कारण उन्हें षष्ठी माता कहा गया जो लोकभाषा में छठी माता के नाम से प्रचलित हुई। पृथ्वी पर हमेशा के लिए जीवन का वरदान पाने के लिए ,सूर्यदेव और षष्ठीमाता को धन्यवाद स्वरूप ये व्रत किया जाता है। सूर्यदेव की पूजा अन्न -धन पाने के लिए और षष्ठीमाता की पूजा संतान प्राप्ति के लिए ,यानि सम्पूर्ण सुख और आरोग्यता की कामना पूर्ति हेतु इस व्रत की परम्परा बनी। 

    यह त्यौहार बिहार का सबसे लोकप्रिय त्यौहार है जो झारखंड ,पूर्वी उत्तरप्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र में भी मनाया जाता है। वर्तमान समय में तो यह त्यौहार इतना ज्यादा प्रचलित हो चुका है कि विदेशो में भी स्थान पा चुका है। छठपूजा की बहुत सी पौराणिक कथाएं प्रचलित है ,पुराणों के अनुसार प्रथम मनुपुत्र प्रियव्रत और उनकी पत्नी मालिनी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ये व्रत पहली बार किया था। ये भी कहते हैं कि भगवान राम और सीता जी भी वनवास से अयोध्या लौटने के बाद राज्याभिषेक के दौरान उपवास कर सूर्य आराधना की थी। द्रोपदी और पांडवों ने भी अपने राज्य की वापसी की कामनापूर्ति के लिए यह व्रत किया था। ये भी  कहते हैं कि सूर्यपुत्र कर्ण ने इस व्रत को प्रचलित किया था जो अङ्गदेश [ जो वर्तमान में मुंगेर और भागलपुर जिला हैं ] के राजा थे। राजा कर्ण सूर्य के उपासक थे वो प्रतिदिन नदी के पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे और बाहर आकर प्रत्येक आगंतुक को दान देते थे। 
   
    छठीमाता कौन थी ? सूर्यदेव से उनका क्या संबंध था ?छठपर्व की उत्पति के पीछे पौराणिक कथाएं क्या थी ?इस व्रत को पहले किसने किया ?इस व्रत के पीछे मान्यताएं क्या थी ? ढेरों सवाल है परन्तु मेरे विचार से सबसे महत्वपूर्ण  सवाल ये हैं कि -  इस व्रत के पीछे कोई सामाजिक संदेश और वैज्ञानिक उदेश्य भी था क्या ? 
जैसा कि मैंने  इससे पहले वाले लेख [ हमारे त्यौहार और हमारी मानसिकता ] में भी इस बात पर प्रकाश डाला है  कि -हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचलित प्रत्येक त्यौहार के पीछे एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक और सामाजिक उदेश्य छिपा होता था। 
तो चलें, चर्चा करते हैं कि - छठपूजा के पीछे क्या -क्या उदेश्य हो सकते थे ?छठपर्व को चार दिनों तक मनाएं जाने की परम्परा है।नियम कुछ इस प्रकार है - 
     पहला दिन -  सुबह जल्दी उठकर गंगा के पवित्र जल से स्नान करना और उसी शुद्ध जल से भोजन भी बनना ,घर ही नहीं आस -पास की भी सफाई करना ,नदियों की भी सफाई विस्तृत रूप से करना ,भोजन मिट्टी के चूल्हे में  आम की लकड़ी जलाकर ताँबे या मिट्टी के बर्तन में ही बनाना ,भोजन पूर्णरूप से सात्विक होना चाहिए [लौकी की सब्जी ही बनती है क्योंकि ये स्वस्थ के लिए फायदेमंद होती है ] पहले आस -पास के वातावरण को शुद्ध करना फिर खुद को बाहरी और अंदुरुनी दोनों शुद्धता प्रदान करना ,खुद को बिषैले तत्वों से दूर करके लौकिक सूर्य के ऊर्जा को ग्रहण करने योग्य बनाना  अर्थात पहला दिन -" तीन दिन के कठिन तपस्या के लिए खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने का दिन।" 

     दूसरा दिन - पुरे दिन निर्जला उपवास रखना , शाम को शुद्धता के साथ रोटी , गुड़ की खीर और फल मूल को केले के पत्ते पर रखकर पृथ्वी माँ की पूजन करना और वही प्रसाद व्रती को भी खाना और जितना हो सके लोगों को बाँटना।  इस तरह ,पृथ्वी जो हमारा भरण -पोषण करती है उनके प्रति अपनी कृतज्ञता जताते है। दूसरा दिन सिर्फ एक बार रात्रि में वो प्रसाद ही भोजन करते हैं। 

     तीसरा दिन -पुरे चौबीस घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं ,संध्या के समय पीले वस्त्र पहनकर ,नदी के जल में खड़े होकर ,डूबते सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं  ,उन्हें फल -मूल और पकवान अर्पण करते हैं। जल और सूर्य की ऊर्जा हमारे जीवन का आधार है ,उन्हें भी अपनी श्रद्धा अर्पित कर धन्यवाद देते हैं।सूर्य की पूजा कर जब घर आते हैं तो पाँच गन्नो का घेरा बनाते हैं उसके अंदर एक हाथी  रखते हैं, एक कलश में फल मूल और पकवान भर कर हाथी के ऊपर रखते हैं ,बारह मिट्टी के बर्तन में भी फल मूल और पकवान भरकर और बारह दीपक जलाकर उस हाथी के चारों तरफ सजाकर रखते हैं। पाँच गन्ने पंचतत्व के प्रतीक जिससे हमारा शरीर बना है ,हाथी और कलश सुख समृद्धि के प्रतीक ,बारह मिट्टी के बर्तन  हमारे मन के बारह भाव के प्रतीक ,इन समृद्धियों  को जीवन में देने के लिए ईश्वर को धन्यवाद स्वरूप जगमगाते दीपक।  

     चौथा दिन - उन्ही सब समग्रियों के साथ उगते सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित कर अपनी आरोग्यता की  कामना के साथ व्रत का समापन। उसके बाद व्रती अन्न -जल ग्रहण करती है और जो भी सामग्री पूजा में प्रयोग की गई होती है, उस प्रसाद को अधिक से अधिक लोगों में बाँटते हैं। 

     छठपूजा की पूरी  प्रक्रिया हमें शारीरिक और मानसिक शुद्धता प्रदान करने के लिए है ताकि हमारी आरोग्यता बनी रहें । पूजा की पूरी विधि हमें अपने जीवनदाता के प्रति कृतज्ञता जताना सिखाती है ,उगते सूर्य से पहले डूबते  सूर्य को अर्घ्य देना हमें सिखाता है कि घर परिवार में हम अपनी संतान  जो उगते सूर्य है  के प्रति तो स्नेह रखते हैं परन्तु अपने वुजुर्गों  जो डूबते सूर्य के समान हैं को पहले मान दें।  

    छठपूजा के रीति रिवाज़ों पर अगर चिंतन करे तो पाएंगे कि -यही एक त्यौहार हैं जिसकी पूजा में किसी ब्राह्मण की आवश्यकता  नहीं पड़ती ,इसमें जाति का भी भेद-भाव नहीं दिखता ,बांस के बने जिस सूप और डाले में प्रसाद रखकर अर्घ्य अर्पण करते हैं वो समाज की नीची कहे जाने वाली जाति के पास से आता है ,मिट्टी के बर्तन को भी मान देते हैं। इस व्रत में अनगिनत सामग्रियों का प्रयोग होता है जो  सिखाता है कि -प्रकृति ने जो भी  वस्तु हमें  प्रदान की है उसका अपना एक विशिष्ट महत्व होता है इसलिए किसी भी वस्तु का अनादर नहीं करें। इस व्रत में माँगकर प्रसाद खाना और व्रती के पैर छूकर आशीर्वाद लेने को भी अपना परम सौभाग्य मानते हैं। व्रती चाहे उम्र में छोटी हो या बड़ी,पुरुष हो या स्त्री ,चाहे वो किसी छोटी जाति से हो या बड़ी जाति से, कोई  भी हो, उन्हें छठीमाता ही कहकर बुलाते हैं। इस तरह ये पर्व अपने अभिमान को छोड़ झुकना भी सिखाता है। 

      व्रत से पहले समृद्ध लोग हर एक व्रतधारी के घर जाकर व्रत से सम्बन्धित वस्तुएँ अपनी श्रद्धा से देते हैं जिसे पुण्य माना जाता है यानि यह व्रत हममें सामाजिक सहयोग की भावना भी जगाता है। मान्यता हैं कि -जब आप कठिन रोग या दुःख से गुजर रहें  हो तो भीख माँगकर व्रत करने और जमीन पर लेट-लेटकर घाट [नदी के किनारे ]तक जाने की मन्नत माँगे ,आपके सारे दुःख दूर होगें। अर्थात प्रकृति हमें सिखाती हैं -अपने गुरुर अपने अहम को छोड़ों तुम्हारे सारे दुःख स्वतः ही दूर हो जायेंगें। 

    छठपूजा की पूरी प्रक्रिया में बेहद सावधानी बरती जाती है। कहते हैं कि -छठीमाता एक गलती भी क्षमा नहीं करती ,ये डर हमें अनुशासन भी सिखाता है -जीवन में हर एक कदम सोच -समझकर रखें ,आपकी एक भी गलती को प्रकृति क्षमा नहीं करेंगी और उसकी सज़ा आपको भुगतनी ही पड़ेंगी। 

    परिवार के  साथ और सहयोग का महत्व तो हर त्यौहार सिखाता है परन्तु छठपूजा परिवार के प्यार ,सहयोग और एकता का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस व्रत में सिर्फ एक व्यक्ति व्रत रखता है जो ज्यादातर  परिवार की स्त्री मुखिया ही होती है ,बाकी सारा परिवार सहयोग और सेवा में जुटा रहता है। 20 साल पहले तक तो यही नियम था. परिवार ही नहीं पुरे खानदान में एक स्त्री व्रत रखती थी [परन्तु बदलते वक़्त में बहुत कुछ बदल गया है ]इस पूजा में सारा खानदान एकत्रित होता था।  जैसे बेटी के व्याह में सब एकत्रित होते हैं तथा अपने श्रद्धा और सामर्थ के अनुसार सेवा और सहयोग करते हैं। जब आखिरी दिन छठीमाता की विदाई हो जाती है तो घर का वहीं वातावरण होता है जैसे बेटी के विदाई के बाद होता है,वही थकान ,वही उदासी ,वही घर का सूनापन। [वैसे बिहार में छठिमाता को पृथ्वीलोक की बेटी ही मानते हैं जो साल में दो बार ढ़ाई दिनों के लिए पीहर आती है ]

     मुझे आज भी अपने बचपन की छठपूजा के दिन बड़ी शिदत से याद आती है [बचपन से लेकर जब तक शादी नहीं हुई थी ] हमारा पूरा खानदान[ जो लगभग 30 -35 सदस्यों का था] बिहार स्थित बेतिया शहर में दादी के घर छठपूजा के लिए एकत्रित होता था। साल के बस यही चार दिन थे जो पूरा खानदान बिना किसी गिले -शिकवे के सिर्फ और सिर्फ ख़ुशियाँ मनाने के लिए एक जुट होता था। व्रत सिर्फ दादी रखती ,माँ -पापा उनके सेवक होते और मैं और मेरी छोटी बुआ माँ पापा के मुख्य सहयोगी।दादी के गुजरने के बाद परिवार की मुखिया होने के नाते  माँ ने व्रत शुरू किया और मैं उनकी सेवक बनी ,मेरी छोटी बहन सहयोगी। समय बदलाव के साथ हर परिवार में व्रत रखने लगे और यह त्यौहार खानदान से परिवार में सिमट गया। अब तो हर कोई अकेले -अकेले ही व्रत रखने लगे ,परिवार की भी उन्हें जरूरत नहीं रही। 



    इतने सुंदर ,पारिवारिक ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सन्देश देने वाले  इस त्यौहार को हमारे पूर्वजों ने कितना मंथन कर शुरू किया होगा। लेकिन आज यह पावन- पवित्र त्यौहार अपना मूलरूप खो चूका हैं। इसकी शुद्धता ,पवित्रता ,सादगी ,सद्भावना ,और आस्था महज दिखावा बनकर रह गया है। छठपूजा में व्रती पूरी तपश्विनी वेशभूषा  में रहती थी और आज की व्रती अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करती रहती है। जिस प्रकृति की हम पूजा करने का ढोंग कर रहे हैं उसका इतना दोहन कर चुके हैं कि वो कराह रही है। जिसका दंड छठीमाता हमें दे भी रही है पर हम अक्ल के अंधे देख ही नहीं पा रहे हैं। प्रकृति विक्षिप्त हुई पड़ी है ,समाज दूषित हो चला है ,परिवार बिखर चुका है ,व्यक्ति बाहरी और अंदुरुनी दोनों तरह से अपना स्वरूप बिगाड़ चुका है ,अपनी शुद्धता ,पवित्रता ,शांति और खुशियों को खुद ही खुद से दूर कर चुका है ,ऐसे में कैसे छठीमाता का आगमन होगा और कैसे उनकी पूजा होंगी ? यदि दिखावे की पूजा हुई भी तो क्या वो फलित होंगी ?

सही कहते हैं हमारे बड़े बुजुर्ग कि -
                                              " ना अब वो देवी रही ,ना वो कढ़ाह "

[अर्थात ,ना पहले जैसे भगवान में आस्था रही ना ही वैसी भावना से पूजा ]  

फिर भी, इसी उम्मीद के साथ कि- एक ना एक दिन शायद हम अपने त्योहारों को उसी मूलरूप में फिर से वापस ला सकें। ऐसी कामना के साथ छठपूजा की हार्दिक शुभकामनाएं,  छठीमाता आप सभी के घर-परिवार को सुख ,शांति ,समृद्धि और आरोग्यता प्रदान करें। 


"हमारी जागरूकता ही प्राकृतिक त्रासदी को रोक सकती है "

मानव सभ्यता के विकास में नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तो उनकी वजह आने वाली बाढ़ भी हमारी नियति है। हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी क...