" छठ पूजा " हिन्दूओं का एक मात्र ऐसा पौराणिक पर्व है जो ऊर्जा के देवता सूर्य और प्रकृति की देवी षष्ठी माता को समर्पित है। मान्यता है कि -षष्ठी माता ब्रह्माजी की मानस पुत्री है,
यह त्यौहार बिहार का सबसे लोकप्रिय त्यौहार है जो झारखंड ,पूर्वी उत्तरप्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र में भी मनाया जाता है। वर्तमान समय में तो यह त्यौहार इतना ज्यादा प्रचलित हो चुका है कि विदेशो में भी स्थान पा चुका है। छठपूजा की बहुत सी पौराणिक कथाएं प्रचलित है ,पुराणों के अनुसार प्रथम मनुपुत्र प्रियव्रत और उनकी पत्नी मालिनी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ये व्रत पहली बार किया था। ये भी कहते हैं कि भगवान राम और सीता जी भी वनवास से अयोध्या लौटने के बाद राज्याभिषेक के दौरान उपवास कर सूर्य आराधना की थी। द्रोपदी और पांडवों ने भी अपने राज्य की वापसी की कामनापूर्ति के लिए यह व्रत किया था। ये भी कहते हैं कि सूर्यपुत्र कर्ण ने इस व्रत को प्रचलित किया था जो अङ्गदेश [ जो वर्तमान में मुंगेर और भागलपुर जिला हैं ] के राजा थे। राजा कर्ण सूर्य के उपासक थे वो प्रतिदिन नदी के पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे और बाहर आकर प्रत्येक आगंतुक को दान देते थे।
छठीमाता कौन थी ? सूर्यदेव से उनका क्या संबंध था ?छठपर्व की उत्पति के पीछे पौराणिक कथाएं क्या थी ?इस व्रत को पहले किसने किया ?इस व्रत के पीछे मान्यताएं क्या थी ? ढेरों सवाल है परन्तु मेरे विचार से सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये हैं कि - इस व्रत के पीछे कोई सामाजिक संदेश और वैज्ञानिक उदेश्य भी था क्या ?
जैसा कि मैंने इससे पहले वाले लेख [ हमारे त्यौहार और हमारी मानसिकता ] में भी इस बात पर प्रकाश डाला है कि -हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचलित प्रत्येक त्यौहार के पीछे एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक और सामाजिक उदेश्य छिपा होता था।
तो चलें, चर्चा करते हैं कि - छठपूजा के पीछे क्या -क्या उदेश्य हो सकते थे ?छठपर्व को चार दिनों तक मनाएं जाने की परम्परा है।नियम कुछ इस प्रकार है -
पहला दिन - सुबह जल्दी उठकर गंगा के पवित्र जल से स्नान करना और उसी शुद्ध जल से भोजन भी बनना ,घर ही नहीं आस -पास की भी सफाई करना ,नदियों की भी सफाई विस्तृत रूप से करना ,भोजन मिट्टी के चूल्हे में आम की लकड़ी जलाकर ताँबे या मिट्टी के बर्तन में ही बनाना ,भोजन पूर्णरूप से सात्विक होना चाहिए [लौकी की सब्जी ही बनती है क्योंकि ये स्वस्थ के लिए फायदेमंद होती है ] पहले आस -पास के वातावरण को शुद्ध करना फिर खुद को बाहरी और अंदुरुनी दोनों शुद्धता प्रदान करना ,खुद को बिषैले तत्वों से दूर करके लौकिक सूर्य के ऊर्जा को ग्रहण करने योग्य बनाना अर्थात पहला दिन -" तीन दिन के कठिन तपस्या के लिए खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने का दिन।"
दूसरा दिन - पुरे दिन निर्जला उपवास रखना , शाम को शुद्धता के साथ रोटी , गुड़ की खीर और फल मूल को केले के पत्ते पर रखकर पृथ्वी माँ की पूजन करना और वही प्रसाद व्रती को भी खाना और जितना हो सके लोगों को बाँटना। इस तरह ,पृथ्वी जो हमारा भरण -पोषण करती है उनके प्रति अपनी कृतज्ञता जताते है। दूसरा दिन सिर्फ एक बार रात्रि में वो प्रसाद ही भोजन करते हैं।
तीसरा दिन -पुरे चौबीस घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं ,संध्या के समय पीले वस्त्र पहनकर ,नदी के जल में खड़े होकर ,डूबते सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं ,उन्हें फल -मूल और पकवान अर्पण करते हैं। जल और सूर्य की ऊर्जा हमारे जीवन का आधार है ,उन्हें भी अपनी श्रद्धा अर्पित कर धन्यवाद देते हैं।सूर्य की पूजा कर जब घर आते हैं तो पाँच गन्नो का घेरा बनाते हैं उसके अंदर एक हाथी रखते हैं, एक कलश में फल मूल और पकवान भर कर हाथी के ऊपर रखते हैं ,बारह मिट्टी के बर्तन में भी फल मूल और पकवान भरकर और बारह दीपक जलाकर उस हाथी के चारों तरफ सजाकर रखते हैं। पाँच गन्ने पंचतत्व के प्रतीक जिससे हमारा शरीर बना है ,हाथी और कलश सुख समृद्धि के प्रतीक ,बारह मिट्टी के बर्तन हमारे मन के बारह भाव के प्रतीक ,इन समृद्धियों को जीवन में देने के लिए ईश्वर को धन्यवाद स्वरूप जगमगाते दीपक।
चौथा दिन - उन्ही सब समग्रियों के साथ उगते सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित कर अपनी आरोग्यता की कामना के साथ व्रत का समापन। उसके बाद व्रती अन्न -जल ग्रहण करती है और जो भी सामग्री पूजा में प्रयोग की गई होती है, उस प्रसाद को अधिक से अधिक लोगों में बाँटते हैं।
छठपूजा की पूरी प्रक्रिया हमें शारीरिक और मानसिक शुद्धता प्रदान करने के लिए है ताकि हमारी आरोग्यता बनी रहें । पूजा की पूरी विधि हमें अपने जीवनदाता के प्रति कृतज्ञता जताना सिखाती है ,उगते सूर्य से पहले डूबते सूर्य को अर्घ्य देना हमें सिखाता है कि घर परिवार में हम अपनी संतान जो उगते सूर्य है के प्रति तो स्नेह रखते हैं परन्तु अपने वुजुर्गों जो डूबते सूर्य के समान हैं को पहले मान दें।
छठपूजा के रीति रिवाज़ों पर अगर चिंतन करे तो पाएंगे कि -यही एक त्यौहार हैं जिसकी पूजा में किसी ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं पड़ती ,इसमें जाति का भी भेद-भाव नहीं दिखता ,बांस के बने जिस सूप और डाले में प्रसाद रखकर अर्घ्य अर्पण करते हैं वो समाज की नीची कहे जाने वाली जाति के पास से आता है ,मिट्टी के बर्तन को भी मान देते हैं। इस व्रत में अनगिनत सामग्रियों का प्रयोग होता है जो सिखाता है कि -प्रकृति ने जो भी वस्तु हमें प्रदान की है उसका अपना एक विशिष्ट महत्व होता है इसलिए किसी भी वस्तु का अनादर नहीं करें। इस व्रत में माँगकर प्रसाद खाना और व्रती के पैर छूकर आशीर्वाद लेने को भी अपना परम सौभाग्य मानते हैं। व्रती चाहे उम्र में छोटी हो या बड़ी,पुरुष हो या स्त्री ,चाहे वो किसी छोटी जाति से हो या बड़ी जाति से, कोई भी हो, उन्हें छठीमाता ही कहकर बुलाते हैं। इस तरह ये पर्व अपने अभिमान को छोड़ झुकना भी सिखाता है।
व्रत से पहले समृद्ध लोग हर एक व्रतधारी के घर जाकर व्रत से सम्बन्धित वस्तुएँ अपनी श्रद्धा से देते हैं जिसे पुण्य माना जाता है यानि यह व्रत हममें सामाजिक सहयोग की भावना भी जगाता है। मान्यता हैं कि -जब आप कठिन रोग या दुःख से गुजर रहें हो तो भीख माँगकर व्रत करने और जमीन पर लेट-लेटकर घाट [नदी के किनारे ]तक जाने की मन्नत माँगे ,आपके सारे दुःख दूर होगें। अर्थात प्रकृति हमें सिखाती हैं -अपने गुरुर अपने अहम को छोड़ों तुम्हारे सारे दुःख स्वतः ही दूर हो जायेंगें।
छठपूजा की पूरी प्रक्रिया में बेहद सावधानी बरती जाती है। कहते हैं कि -छठीमाता एक गलती भी क्षमा नहीं करती ,ये डर हमें अनुशासन भी सिखाता है -जीवन में हर एक कदम सोच -समझकर रखें ,आपकी एक भी गलती को प्रकृति क्षमा नहीं करेंगी और उसकी सज़ा आपको भुगतनी ही पड़ेंगी।
परिवार के साथ और सहयोग का महत्व तो हर त्यौहार सिखाता है परन्तु छठपूजा परिवार के प्यार ,सहयोग और एकता का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस व्रत में सिर्फ एक व्यक्ति व्रत रखता है जो ज्यादातर परिवार की स्त्री मुखिया ही होती है ,बाकी सारा परिवार सहयोग और सेवा में जुटा रहता है। 20 साल पहले तक तो यही नियम था. परिवार ही नहीं पुरे खानदान में एक स्त्री व्रत रखती थी [परन्तु बदलते वक़्त में बहुत कुछ बदल गया है ]इस पूजा में सारा खानदान एकत्रित होता था। जैसे बेटी के व्याह में सब एकत्रित होते हैं तथा अपने श्रद्धा और सामर्थ के अनुसार सेवा और सहयोग करते हैं। जब आखिरी दिन छठीमाता की विदाई हो जाती है तो घर का वहीं वातावरण होता है जैसे बेटी के विदाई के बाद होता है,वही थकान ,वही उदासी ,वही घर का सूनापन। [वैसे बिहार में छठिमाता को पृथ्वीलोक की बेटी ही मानते हैं जो साल में दो बार ढ़ाई दिनों के लिए पीहर आती है ]
मुझे आज भी अपने बचपन की छठपूजा के दिन बड़ी शिदत से याद आती है [बचपन से लेकर जब तक शादी नहीं हुई थी ] हमारा पूरा खानदान[ जो लगभग 30 -35 सदस्यों का था] बिहार स्थित बेतिया शहर में दादी के घर छठपूजा के लिए एकत्रित होता था। साल के बस यही चार दिन थे जो पूरा खानदान बिना किसी गिले -शिकवे के सिर्फ और सिर्फ ख़ुशियाँ मनाने के लिए एक जुट होता था। व्रत सिर्फ दादी रखती ,माँ -पापा उनके सेवक होते और मैं और मेरी छोटी बुआ माँ पापा के मुख्य सहयोगी।दादी के गुजरने के बाद परिवार की मुखिया होने के नाते माँ ने व्रत शुरू किया और मैं उनकी सेवक बनी ,मेरी छोटी बहन सहयोगी। समय बदलाव के साथ हर परिवार में व्रत रखने लगे और यह त्यौहार खानदान से परिवार में सिमट गया। अब तो हर कोई अकेले -अकेले ही व्रत रखने लगे ,परिवार की भी उन्हें जरूरत नहीं रही।
इतने सुंदर ,पारिवारिक ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सन्देश देने वाले इस त्यौहार को हमारे पूर्वजों ने कितना मंथन कर शुरू किया होगा। लेकिन आज यह पावन- पवित्र त्यौहार अपना मूलरूप खो चूका हैं। इसकी शुद्धता ,पवित्रता ,सादगी ,सद्भावना ,और आस्था महज दिखावा बनकर रह गया है। छठपूजा में व्रती पूरी तपश्विनी वेशभूषा में रहती थी और आज की व्रती अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करती रहती है। जिस प्रकृति की हम पूजा करने का ढोंग कर रहे हैं उसका इतना दोहन कर चुके हैं कि वो कराह रही है। जिसका दंड छठीमाता हमें दे भी रही है पर हम अक्ल के अंधे देख ही नहीं पा रहे हैं। प्रकृति विक्षिप्त हुई पड़ी है ,समाज दूषित हो चला है ,परिवार बिखर चुका है ,व्यक्ति बाहरी और अंदुरुनी दोनों तरह से अपना स्वरूप बिगाड़ चुका है ,अपनी शुद्धता ,पवित्रता ,शांति और खुशियों को खुद ही खुद से दूर कर चुका है ,ऐसे में कैसे छठीमाता का आगमन होगा और कैसे उनकी पूजा होंगी ? यदि दिखावे की पूजा हुई भी तो क्या वो फलित होंगी ?
सही कहते हैं हमारे बड़े बुजुर्ग कि -
" ना अब वो देवी रही ,ना वो कढ़ाह "
[अर्थात ,ना पहले जैसे भगवान में आस्था रही ना ही वैसी भावना से पूजा ]
फिर भी, इसी उम्मीद के साथ कि- एक ना एक दिन शायद हम अपने त्योहारों को उसी मूलरूप में फिर से वापस ला सकें। ऐसी कामना के साथ छठपूजा की हार्दिक शुभकामनाएं, छठीमाता आप सभी के घर-परिवार को सुख ,शांति ,समृद्धि और आरोग्यता प्रदान करें।
आपने बहुत सुंदर वर्णन किया है छठ पर्व का, मुझे भी मुजफ्फरपुर, बिहार अपनी मौसी के यहाँ छठ पूजा की याद आ गई। मैं दो बार वहाँँ इस पर्व पर था।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद शशि जी ,हम तो इन चार दिनों को कभी भूल ही नहीं पाते ,परिवार के साथ बिताये ये चार दिन हमें पुरे साल के लिए ताज़गी और उत्साह से भर जाते हैं ,दुर्भाग्यवश इस साल हम ये पूजा नहीं माना पा रहे हैं ,और हमारे परिवार के बच्चे तक शोक में डूबे हैं ,यही जीवन हैं -कभी ख़ुशी कभी गम ,मेरे लेख पर आपकी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार ,सादर नमन
हटाएंवाह! बहुत सुंदर।हम भी सोच रहे थे , लिखने को। लेकिन आपने कुछ शेष छोड़ा ही नहीं। मेरी कल्पना से भी बेहतर लेख। बधाई और आभार।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद विश्वमोहन जी ,आपकी ये प्रतिक्रिया तो मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार हो गया ,मेरा लिखना सार्थक हुआ ,परन्तु क्षमा चाहती हूँ सर आप अपने लेखन से हमें महरूम ना करें ,छठ के बारे में मेरा लिखना पर्याप्त नहीं हैं,आपकी तो हर रचना का हमें बेसब्री से इंतज़ार रहता हैं ,सादर नमस्कार एवं आभार
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 31 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने लिए हृदयतल से धन्यवाद यशोदा दी ,सादर नमस्कार आपको
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंफालोबर्स का विजेट भी लगाइए अपने ब्लॉग में
जवाब देंहटाएंआपके इस मार्गदर्शन के लिए सहृदय धन्यवाद सर ,मैंने फॉलोवर्स का गैजेट्स लगाया अब इसके अतिरिक्त भी कुछ होता हैं तो शायद मुझे ज्ञात नहीं हैं ,सादर नमस्कार
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 01 नवम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने लिए हृदयतल से धन्यवाद सर ,आभार एवं सादर नमस्कार आपको
हटाएंबहुत अच्छी और उपयोगी जानकारी
जवाब देंहटाएंहृदयतल से स्वागत हैं आपका ,मेरे ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति मेरे लिए सौभाग्य की बात हैं सर ,सादर नमस्कार एवं आभार
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-11-2019) को "यूं ही झुकते नहीं आसमान" (चर्चा अंक- 3506) " पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
-अनीता लागुरी 'अनु'
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मेरी रचना को स्थान देने लिए हृदयतल से धन्यवाद अनु जी,आभार
हटाएंसही कहा है आपने ... जमाते त्योहार किसी न किसी विशेषता से जुड़े हुए है और आज की ज़रूरत उन वैज्ञानिक बातों को खोज निकालने की है ... उनका सही महत्व समझाने की है ... आपने बख़ूबी इस पूजा के महत्व और तथ्य को रखा है ... छठ पर्व की हार्दिक बधाई ...
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद दिगंबर जी,आपकी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया से हमेशा ही मेरे लेखन को प्रोत्साहन मिलता हैं ,सादर नमस्कार आपको
हटाएंबहुत विस्तृत और वैज्ञानिक, सामाजिक पहलुओं को उजागर करता व्याख्यात्मक लेख कामिनी जी।
जवाब देंहटाएंछट पूजा पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हृदयतल से धन्यवाद कुसुम जी ,छठपूजा हमारे बिहार को एक पहचान देने वाला त्यौहार हैं हम सब इस पूजा से कुछ ज्यादा ही भावनात्मक रूप से जुड़ें हैं. इस बार मेरे बहनोई के असमय मृत्यु के शोक के कारण यह त्यौहार नहीं मनाया जा रहा ,आप कल्पना भी नहीं कर सकती कि हम सब कितने दुखी हैं , इस दुःख को भुलाने के लिए ये बस एक प्रयास मात्र था ,आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर आपार हर्ष हुआ ,आप लोगो का स्नेह यूँही बना रहे यही कामना करती हूँ ,सादर नमस्कार
हटाएंप्रिय सखी कामिनी , सबसे पहले तो ये कहना चाहूंगी कि इतने सुंदर , सार्थक लेख के लिए तुम्हारी जितनी प्रशंसा करूं कम है | तुमने जितने विस्तार से छठ पूजा के समग्र अनुष्ठान के अनिवार्य बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है वह अद्भुत है | आज इसके माध्यम से इसके पौराणिक ,सामाजिक और पारिवारिक महत्व के बारे में जाना बहुत अच्छा लगा | ये सही है कि ऐसे विशेष अनुष्ठानों की कल्पना हमारे ऋषि मुनियों ने बड़े विराट चिंतन के बाद किसी महँ उद्देश्य के लिए की होगी | पर समझ नहीं आया सखी ये अनुष्ठान एक क्षेत्र विशेष तक क्यों सीमित रह जाते थे ? पर ये जरुर लगता है कि यदि इनके अंतर्निहित महत्व के अनुसार इन व्रतों का पालन हो तो ये धरा स्वर्ग बन जाए | सखी प्रत्यक्ष में तो मैंने नहीं देखा पर अख़बारों में छठ के बाद नदी , नहरों [ क्योंकि करनाल के पास से तो दो नहरें बहती हैं ] के चित्र बहुत विचलित करते हैं | एक बार हम यमुना नदी के पास से गुजर रहे थे तो यमुना के तट की दुर्दशा से कलेजा मुंह को आने लगा उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी | यदि व्रतों में इन नदियों , नहरों को दुर्दशा से बचाने के लिए व्रतों में थोड़ा बहुत फेर बदल किया जाए तो सच में माँ छठ माता प्रफुल्लित हो अपनी संतानों को अपनी आशीष से नवाजेगी | क्योंकि माँ कभी नाराज नहीं होती , बस ये हमारा व्यर्थ का भय है कि ये व्रत में बदलाव से नाराज होंगी | हमारी आने वाली पीढियां एक सार्थक संकल्प के साथ अपनी परम्पराओं से जुडी रहें उसके लिए कुछ सार्थक प्रयासों की पहल दरकार है | अत्यंत तन्मयता से लिखे इस प्यारे से लेख के लिए तुम्हें बार बार आभार और छठपर्व की हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,तुम्हे मेरा लेख पसंद आया इसके लिए आभार ,मुझे बेहद ख़ुशी हुई की तुमने छठपूजा पर विस्तृत रूप से अपनी प्रतिक्रिया दी और पूजा के उपरांत नदियों में होने वाली प्रदूषण पर भी चिंता जता कर मुझे ये अवसर दिया कि -मैं इस पूजा के बारे में तुम्हे कुछ और बातें बता सकूं जो लेख बहुत ज्यादा लम्बा होने के कारण नहीं लिख पाई थी। सखी ,जैसा की मैंने अपनी लेख में इस बात पर प्रकाश डाला हैं कि इस पूजा के पीछे बहुत बड़ा समाजिक व्यवस्था भी जुड़ा था। पहले की समय में पूजा से पहले भी नदियों की सफाई की जाती थी और पूजा के बाद भी ,ये डर दिखाकर कि पूजा की किसी समाग्री पर यदि पैर लगा तो छठीमाता कोपित होगी। ये आज से पंद्रह -बीस साल पहले तक होता था। लेकिन सखी ,सोचो जरा जब मानवता ही नहीं बची तो आस्था,विश्वास ,संस्कार,निष्पक्षभाव से सोचने समझने की शक्ति और जिम्मेदारियों का एहसास कहा बचेंगा,और जब ये सब कुछ नहीं होगा तो डर जैसी चीज़ भी ख़त्म हो गई , " लिखों फेकों " के जमाने में हर चीज " यूज़ एंड थ्रो "के नियम पर ही चल रहा हैं ,कल की किसी को परवाह नहीं बस आज गुजरना चाहिए।पर्वजों ने तो बहुत सोच विचार कर अच्छे नियम बनाएं हम ही समाज के लिए सोचना छोड़ सिर्फ अपने फ़ायदे के हिसाब से उसमें तोड़मोड़ करते चले गए। जहाँ तक प्रांत विशेष का प्रश्न हैं तो मेरेसमझ से पहले अभी के जैसे संचार के माध्यम तो थे नहीं जो कोई रीत रश्म तेज़ी से एक प्रांत से दूसरे प्रांत तक जाते तो जो परम्परा जहाँ पर पहली बार शुरू हुई वो उसी प्रांत का हिस्सा बनकर रह गई। आज देखो ये चरों तरफ फैल चूका हैं। उमींद हैं मैं तुम्हे संतुष्ट कर पाई ,एक बार फिर से आभार सखी ,ढ़ेर सारा स्नेह
हटाएंतुम्हारे विस्तृत उत्तर के लिए आभारी हूँ कामिनी |छठपर्व तो साल में एक बार आता है | सनातन धर्म में तो पूरा साल कोई ना कोई पर्व आता ही रहताहै और नहीं तो अमावस और पूर्णिमा तो हैं ही |इनमें दान , स्नान आदि का पुण्य अर्जित करने के लिए अनेक श्रद्धालु नदी , तालाबों आदि के किनारे पर इकठे होते हैं और बहुत साड़ी गन्दगी में अपना योगदान देकर घर लौट जाते हैं |मुझे लगता है आने वाली पीढ़ी समस्त पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस दिशा में जरुर काम करेगी | कुछ हम छोटे छोटे प्रयास से भी प्रदूषण में कमी ला सकते हैं |तुम्हारी सभी बातों से सहमत हूँ |त्यौहार ही नहीं घरों से लेकर कार्यालयों तक में बढ़ता साइबर कचरा , अस्पतालों में से फैका गया मेडिकल कचरा . घरों में से फैंका गया मिला जुला कचरा सभी तो प्रदुषण के अहम् कारक हैं |हमारे बचपन में हमारे घर में दादी , माँ दोनों कूड़े पर कांच के नाम पर चूड़ी का एक छोटा सा टुकडा तक भी कूड़े में डालने नहीं देती थी | किसी तरह की प्लास्टिक , बाल , रबड़ या पोलीथिन जो कि उन दिनों ज्यादा प्रयोग नहीं होता था , उसे भी कूड़े पर फैकने की मनाही थी | ये सारा सामान अलग डिब्बे अथवा किसी बड़े बर्तन में एकत्रित किया जाता और कबाड़ी को दे दिया जाता | कारण था घर का ये साफ़ सुथरा कूड़ा गोबर के साथ गहरे गड्ढों में डाला जाता और खाद बनने के बाद देशी खाद के रूप में हमारे खेतों में जाता था | दादी कहती थी कि यदि इनमें ये सब चींजें होंगी तो खेती करने वालों के पैरों में चुभेंगी और साथ में खेत की मिटटी को भी बरबाद करेंगी | कितना अच्छा था उनका चिंतन | अच्छा लगा तुम्हारे लेख के बहाने ये बातें लिखना प्रिय सखी | फिर किसी बहाने इस विषय को आगे बढ़ाएंगे | हार्दिक स्नेह के साथ |
हटाएंवाह!!कामिनी जी ,बहुत सुंदर व सार्थक लेख । छठ व्रत के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी दी आपने ।
जवाब देंहटाएंदिल से शुक़्रिया शुभा जी ,आपकी सकारत्मक प्रतिक्रिया से बेहद ख़ुशी हुई ,सादर नमन
हटाएंछठपर्व की अनमोल जानकारी से सुसज्जित बहुत खूबसूरत लेख कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद मीना जी ,आपको भी छठपूजा की हार्दिक शुभकामनाएं
हटाएंबहुत ही बेहतरीन, ज्ञानवर्धक लेख लिखा आपने 👌👌
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी ,आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल हैं ,सादर
हटाएंसही कहते हैं हमारे बड़े बुजुर्ग कि -
जवाब देंहटाएं" ना अब वो देवी रही ,ना वो कढ़ाह "
[अर्थात ,ना पहले जैसे भगवान में आस्था रही ना ही वैसी भावना से पूजा ]
इस त्योहार में देवी षष्ठी माता एवं भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही व्रत रखते हैं. इसमें गंगा स्नान का महत्व सबसे अधिक होता हैं. लोक मान्यताओं के अनुसार सूर्य षष्ठी या छठ व्रत की शुरुआत रामायण काल से हुई थी. इस व्रत को सीता माता समेत द्वापर युग में द्रौपदी ने भी किया था. इस दिन षष्टी देवी की कथा भी सुनी जाती है जो इस प्रकार से है...अनमोल जानकारी खूबसूरत लेख कामिनी जी ।
सहृदय धन्यवाद संजय जी,सादर नमन आपको
हटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 20-11-2020) को "चलना हमारा काम है" (चर्चा अंक- 3891) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
…
"मीना भारद्वाज"
तहे दिल से शुक्रिया मीना जी मेरी पुरानी रचना को स्थान देने हेतु,सादर नमन आपको
हटाएंप्रिय सखी, एक बार फिर से लेख पढ़ा। बहुत बहुत आभार और हार्दिक शुभकामनाएं छठ पर्व के लिए। ये पर्व सपरिवार तुम्हारे लिए शुभता और संपन्नता
जवाब देंहटाएंलेकर आये
🙏🌹🌹❤❤🌹🌹
तहे दिल से शुक्रिया सखी
हटाएंचूँकि मैं बिहारी हूँ तो आपके लेख से पूरी तरह सहमत हूँ... संयुक्त परिवार के जो भी लाभ-हानिकारक तत्व थे जिनके आधार पर एकल परिवार बना और अब तो एकल में एक की चुनौती से बुआ चाचा मामा मौसी जैसे शब्द भी खतरे में हैं तो छठ की पुरानी आत्मा की खोज...
जवाब देंहटाएंचिंतनीय है...
बहुत बहुत धन्यवाद बिभा दी,प्रतिउत्तर देने में देरी के लिए क्षमा चाहती हूँ,इन दिनों घरेलु व्यस्तता बहुत ज्यादा बढ़ जाने से ब्लॉग को वक़्त नहीं दे पा रही हूँ ,पूर्णतः सहमत हूँ आपकी बातों से,आपने मेरा लेख पढ़ा मेरा लिखना सार्थक हुआ,आपका सादर नमन आपको
हटाएंछठ पूजा पर ज्ञानवर्द्धक सुसमृद्ध लेख...
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद शारद जी,सादर नमन आपको
हटाएंप्रिय कामिनी सिन्हा जी,
जवाब देंहटाएंछठपूजा पर बहुत विस्तार से लिखे गए इस लेख हेतु आपके प्रति साधुवाद 🙏
अनंत शुभकामनाओं सहित,
डॉ. वर्षा सिंह
सहृदय धन्यवाद वर्षा जी,सादर नमन आपको
हटाएंकामिनी जी एक बार फिर लाजवाब ज्ञानवर्धक वैज्ञानिक तथ्यों से भरपूर लेख के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंछठ पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं।
सहृदय धन्यवाद कुसुम जी,सादर नमन आपको
हटाएंछठपूजा पर बहुत विस्तार से सुंदर और सार्थक लेख, कामिनी दी। इस पूजा के बसरे में सुना तो बहुत था लेकिन आज विस्तार से पता चला।
जवाब देंहटाएंदिल से शुक्रिया सखी 🙏
हटाएंआपके द्वारा दो वर्ष पूर्व रचित इस लेख को अब जाकर पढ़ा कामिनी जी। ऐसे सूचनाप्रद एवं उपयोगी लेख को (विलंब से ही सही) पढ़ना मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूं। बहुत कुछ जाना, बहुत कुछ सीखा इससे मैंने। अंत में प्रकृति के सम्मान एवं संरक्षण की प्रेरणा भी दी है आपने। गागर में सागर सदृश है आपकी यह रचना। आभार, अभिनंदन तथा छठ पूजा की शुभकामनाएं आपको।
जवाब देंहटाएंदेर से आभार व्यक्त करने के लिए माफी चाहती हूं, मेरा लेख आप को पसंद आया लिखना सार्थक हुआ,सादर नमस्कार जितेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंbahut achi rachna hai Rahasyo Ki Duniya par aapko India ke rahasyamyi Places ke baare me padhne ko milegi, Rupay Kamaye par Make Money Online se sambandhit jankari padhne ko milegi.
जवाब देंहटाएंRTPS Bihar Plus Services RTPS BIHAR Service Apply for Certificate
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छठ पूजा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी 🙏
हटाएंछठ महापर्व पर ये पोस्ट कालजयी आलेख है।
जवाब देंहटाएंअनंत शुभकामनाएं ।
मेरी लेख को इतना मान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद कुसुम जी 🙏
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